Monday, October 7, 2024

‘आमतौर पर’ ख़ास चर्चा

▫️उम्मा, उम्मत, अवाम से आम तक
ऐसा कुछ, जो ख़ास न हो
▪बोलचाल की भाषा में मुहावरों से रवानी आ जाती है। भाषा ख़ूबसूरत लगने लगती है। दिलचस्प मानी पैदा हो जाते हैं। लय में आ जाती है। हिन्दी में एक मुहावरा हर किसी की ज़बान पर रहता है- ‘आमतौर से’ या ‘आमतौर पर’। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि आम व तौर अलग अलग शब्द हैं। दोनों ने ही अरब से चल कर फ़ारसी की सवारी करते हुए हिन्दी की राह पकड़ी है। हिन्दी वाले दोनों को अलग अलग भी बरतते हैं और साथ साथ भी जैसे- ‘आम दिनों में’, ‘आम बात है’ आदि। या ‘मोटे तौर पर’, ‘किसी तौर पर’ वग़ैरह। मगर जब साथ साथ बरतते हैं तो मुहावरा बनता है जिसका आशय होता है साधारणया, सामान्यतया अथवा बहुधा।
‘आम’ और ‘तौर’
▪️यूँ तो बात यहाँ से भी शुरू की जा सकती है कि ‘आमतौर’ को मिला कर समास की तरह लिखना ठीक है या अलग अलग करते हुए। जैसे आम-तौर अथवा आम तौर। हिन्दी के अनेक जानकार भी ‘आमतौर’ लिखते रहे हैं। मैं स्वयं मिला कर ही लिखता हूँ। शुद्धतावादी विवाद भी इस पर नहीं है। वैसे कोशों में ‘आम’ और ‘तौर’ यथास्थान सामान्य शब्द की तरह अलग अलग दर्ज़ हैं। बतौर मुहावरा, इसकी युग्मपदी अथवा वाक्यपदी विवेचना भी नहीं मिलती। थोड़े में कहें तो अलग-अलग लिखें या मिला कर, ‘आमतौर’ के मायने वही रहते हैं। भाषा प्रचलन और अभिव्यक्ति से चलती है। अधिकांश बरताव ‘आमतौर’ का ही है, मगर रूढ़ि की तरह। यूँ अलग अलग लिखा जाना ही सिद्ध है, मगर ‘ब’तौर की मिसाल भी सामने है।
नियम या रीति का संकेत
▪️‘आमतौर’ में बहुधा और साधारणता का आशय है। जो ख़ास न हो, विशेष न हो, प्रचलित हो, सामान्य हो हो, उसके बारे में कुछ कहते हुए इस पद का प्रयोग कर लिया जाता है। जेनरली, नॉर्मली, कॉमनली जैसे सन्दर्भों में इसे बरता जाता है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए कि ‘आमतौर’ में रूढ़ि, रीति या ढर्रे पर चलने वाली बात भी गहराई तक धँसी हुई है। हम जिसे सामान्य समझते हैं, दरअसल वहाँ से पुरानी राह-बाट निकलती है। उस हवाले से भी आमतौर पर बरत लिया जाता है। इसमें अलिखित संविधान, नियम का संकेत होता है किसी पुरातन सूत्र का हवाला होता है। किसी नुस्ख़े, प्रणाली या जुगाड़ पर ज़ोर होता है। किसी सिद्धान्त या मर्यादा का स्मरण होता है। यह सब ‘आमतौर’ के हवाले से कहा, सुना और याद किया जाता है।
तरीका, ढंग, प्रकार
▪️तो पहले बात ‘तौर’ की। तौर का प्रयोग आमतौर में जितना आम है, उतना ही तौर-तरीक़ा युग्म में भी दिखाई पड़ता है। तौर का मूल है त्रिवर्णी क्रिया तूर (ط و ر यानी ता-वाओ-रा) से, जिसमें गोल मँडराना, घूमना, रास्ता, अवस्था, तरीका, ढंग, भाँति, प्रकार जैसे आशय हैं। तूर अरब क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए यहूदी, ईसाई और इस्लाम पन्थ में प्रचलित कथाओं में अलग अलग पहाड़ों का नाम भी है जैसे तूरी-मूसा, तूरी-जिबा या जबल-तूर। कहीं उसे जॉर्डन में बताया जाता है, कहीं मिस्र में, कहीं सीरिया में तो कहीं इस्राइल में। अक्कद से होते हुए हिब्रू तक इसके सूत्र मिलते हैं। तौर, तरीका, तरह, तौरात (तौराह) जैसे शब्दों के हिब्रू-अरबी भाषायी सूत्र एक दूसरे से सम्बद्ध हैं, इस पर विस्तार से अलग से लिखा था। जल्दी ही उसे भी पेश किया जाएगा।
ढंग या बरताव की बात
▪️‘तौर’ का प्रयोग करते हुए हम ढंग या बरताव के बारे में बात कर रहे होते हैं। इस तौर, उस तौर का आशय इस प्रकार या उस प्रकार होता है। समझा जा सकता है कि तौर प्राचीन यहूदी, इस्लामी धार्मिक शब्दावली से निकला हुआ शब्द होगा जिसमें ज्ञानार्जन, सिद्धि, पाना जैसे आशय हैं। अक्कद में तारु है जिसमें लौटाना, उत्तराधिकार, देना जैसे आशय हैं वहीं सीरिया की लुप्त उगारतिक ज़बान के तॉर को इसी कड़ी का माना गया है। इसमें आना, घूमना जैसे आशय हैं। ग़ौर करें, घूमने में चक्रगति है जिसमें प्रतिक्षण दोहराव होता है। यानी फिर फिर लौटना होता है। मूल आशय अथवा प्रसंग किसी मनीषी बोधिज्ञान प्राप्त करने है।
दार्शनिक आयाम
▪️आज से हज़ारों साल पहले मानवता के विकासक्रम में किन्हीं सुधारकों की दी गई नसीहतों, सीखों पर अमल करने, उनकी बताए रास्तों पर चलने के अभ्यास से तूर, तॉर, तौर, तरीका, तरह, तौरात जैसे शब्दों के दार्शनिक आयाम प्रकट हुए। संकेत मूसा, हारुन आदि को ज्ञान प्राप्ति से जुड़े हैं। इस सन्दर्भ में तौरात को भी याद कर सकते हैं जो यहूदियों का धर्मग्रन्थ है। माना जाता है कि यह ईश्वर द्वारा मूसा को दिया गया था। ‘तौर’ के विभिन्न अर्थायाम है जैसे- आचरण, चाल, चलन, चाल-ढाल, बरताव, ढंग, व्यवहार, तरह, तरीक़ा, प्रणाली, भांति, रंग, रूप, रीति, शिष्टता, शैली, सूरत, भाँति, वज़ा, अंदाज़, आचरण, किस्म, अवस्था, गुण, प्रकार, स्तर, आचार आदि।
अब बात आम की।
▪️ज्यादातर लोग आम को सिर्फ़ साधारण तक सीमित मानते हैं। दरअसल यह सेमिटिक भाषा परिवार का इतना महत्वपूर्ण शब्द है कि आम की अर्थवत्ता के एक छोर पर माँ है, दूसरे पर अवाम है तो तीसरे पर मुल्क। यही नहीं, इस शब्द से आर्य भाषा परिवार और सामी भाषा परिवार की रिश्तेदारी पता चलती है । ‘आम्’ का मूल आज से साढ़े चार हज़ाल साल पहले दजला-फ़रात के मैदानों में पसरी सुमेर सभ्यता में समूहवाची अम्मु में मूलतः सुरक्षा, संरक्षण का भाव है। अर्थ हुआ राष्ट्र या अवाम। अम्मु शब्द है यह समूहवाची शब्द है जिसमें सुरक्षा और संरक्षण का भाव भी है। ‘अम्मु’ का अर्थ है राष्ट्र या अवाम।
उम्मा, उम्मत, अवाम
▪️ग़ौर करें, सियासी या मज़हबी सन्दर्भों में अक्सर उम्मा, उम्मत का उल्लेख आता है आशय समूहवाची ही होता है, लोग, जनता, राष्ट्र जैसे अभिप्राय ही मूल हैं। मगर भारत में ग़ैरमुस्लिम इसे नहीं बरतते। इसलिए उम्मा का आशय मुस्लिम समुदाय ही लगाया जाता है। साढ़े चार हज़ार साल पहले के अरब समाज में सुमेर संस्कृति के उम्मतु से यह शब्द पहुँचा था। अर्थ था आकार, आयतन, परिमाण, तादाद आदि। स्पष्ट है कि समुदाय, जाति, वर्ग या राष्ट्र का आधार क्षेत्र नहीं, जन होता है और उम्मतु इसी की अभिव्यक्ति थी। बाद में अरबी के उम्मत, उम्मा तक पहुँचते पहुँचते इसमें जन कुल वर्ग जाति पन्थ राष्ट्र अनुयायी अनुगामी जैसे अर्थायाम भी उभरते चले गए।
बात आश्रय की
▪️यह भी महत्वपूर्ण है कि सेमिटिक भाषा परिवार की कई भाषाओं में अम्मु से माँ के आशय वाले विपर्ययी रूप बने हैं जैसे अक्कद में ‘उम्मु’, अरबी में ‘उम्म’, हिब्रू में ‘एम’, सीरियाई में ‘एमा’ आदि। ध्यान रहे कि प्रकृति में, पृथ्वी में मातृभाव है क्योंकि ये हमें संरक्षण देते हैं, हमारा पालन-पोषण करते हैं। अक्कद भाषा के ‘अम्मु’ और ‘उम्मु’ दरअसल पालन-पोषण वाले भावों को ही व्यक्त कर रहे हैं। राष्ट्र के रूप में ‘अम्मु’ समूहवाची है, अवाम यानी जनता तो अपने आप में समूह ही है। किसी भी विचार सरणी, धर्म, पन्थ का मूल आधार या आश्रय समूह ही होता है। आम लोगों वाला अवाम। बेहद सामान्य, साधारणत्व का विशेषीकृत समूह।
तो कुल मिला कर...
▪️आमतौर के पहले सर्ग में साधारणता और दूसरे में ढंग, अवस्था, स्तर, आचरण जैसी बात है। ईश्वर और इन्सान की बनाई दुनिया में जो कुछ भी सहज, सामान्य, आमफ़हम, हस्बे-मामूल है, आमतौर के दायरे में आता है। वह सब जो ‘ख़ासतौर पर’ नहीं होता, ‘आमतौर पर’ होता है।
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Monday, April 3, 2023

‘नाबाद’ के बहाने ‘बाद’ की बातें

Sachin-Tendulkar[5]

रो जमर्रा की भाषा में ऐसे अनेक शब्दों का समावेश रहता है जिनका अक्सर अन्य भाषाओं में अलग तरीके से इस्तेमाल होता है। ऐसे शब्दों के साथ उपसर्ग या प्रत्यय जुड़ने से भी नए शब्द बनते हैं और ये शब्द भी अन्य भाषाओं में लोकप्रिय हो जाते हैं। हिन्दी में क्रिकेट की शब्दावली का एक जाना पहचाना शब्द है नाबाद जिसका अर्थ होता है नॉट आऊट । पारी के समाप्त होने तक अगर कोई खिलाड़ी मैदान में डटा रहता है तो उसे नॉट आऊट यानी नाबाद कहते हैं। हिन्दी में यह शब्द आम है मगर यह आया कहाँ से? नाबाद शब्द का जन्म मराठी की कोख से हुआ है मगर मूलतः यह यौगिक शब्द है और अरबी के बाद (BA’DA) शब्द में हिन्दी फ़ारसी का ना उपसर्ग लगने से बना। हिन्दी शब्दकोशों में इस शब्द की उपस्थिति नहीं है।
बाद शब्द का मूल अरबी रूप है ब’अद जिसके मायने हैं दूरस्थ, सुदूरवर्ती, फ़ासले पर, अलग या पृथक आदि। परवर्ती विकास के दौरान इसका अर्थ विस्तार हुआ। दूरस्थ, सुदूरवर्ती या फ़ासले पर जैसे अर्थों में अनंतर, पश्चात जैसे भाव भी स्थापित हुए। गौरतलब है कि दूरस्थ या सुदूरवर्ती जैसा भाव सापेक्ष है अर्थात एक बिन्दू विशेष से किसी स्थान या वस्तु की स्थिति बताने के लिए सुदूरवर्ती शब्द का प्रयोग होता है। अब देखिए कि किस तरह अर्थवत्ता विकसित होती है। बाद में पश्चातवर्ती भाव का विकास अंतराल से जुड़ा है। विस्तार के दो बिन्दुओं के बीच अंतराल होता है। जो दूरवर्ती है, उसका विलोम निकटवर्ती है अर्थात दूरवर्ती से कहीं पहले निकटवर्ती है। जाहिर है निकट के आगे कहीं दूर है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि निकट के पश्चात या बाद में दूरवर्ती स्थान या वस्तु होती है। दूरी से ही दूर है।
र्मन भाषाशास्त्री एमएम ब्रॉमनन स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में बाद शब्द पर विस्तार से चर्चा करते हैं। उनके मुताबिक प्रोटो सेमिटिक धातु bi-‘ad है जिसमें bi ( या ba ) का अर्थ है ‘में’ और ad का अर्थ है तदापि, तथापि, अब तक आदि। इस तरह अरबी के बा’अद ( या बाद ) का अर्थ हुआ के पश्चात, तद्नुरूप, तथापि, के कारण आदि। बरास्ता अरबी यही बा’अद फ़ारसी, उर्दू, के बाद हिन्दी में भी बाद के रूप में दाखिल हुआ। जहाँ इसका अभिप्राय के पश्चात या बाद में ही है। हिब्रू में भी यह कुछ परिवर्तन के साथ इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है। 
राठी शब्दकोशों के मुताबिक बाद शब्द में किसी सूची से कमी का, निकालने का, हीन करने का भाव है। म.श्री. सरमोकदम और जी.डी.खानोलकर की द न्यू स्टैंडर्ड मराठी- इंग्लिश- मराठी डिक्शनरी के मुताबिक बाद का अर्थ काम से निकालने, रद्द करने, स्थगित करने, पीछे रखने का, हटाने का भाव है। इसी तरह कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में भी इसका अरबी रूप ब’अद बताया गया है जिसमें निकाला हुआ, कम किया हुआ जैसे भाव हैं। निश्चित ही ये सभी अर्थ भी दूरवर्ती, फ़ासले पर या बाद में जैसे अर्थों का विस्तार है। गौर करें की किसी सूची में जब नाम जोड़े जाते हैं तब महत्वपूर्ण नाम आगे और कम महत्वपूर्ण नाम पीछे रखे जाते हैं। महत्व तय करते मामूली महत्व के नामों के लिए भी भी यही निर्देश दिया जाता है कि इन्हें बाद में रखना। सामान्य बोलचाल में भी
सी क्रम में मराठी में बाद का अर्थ स्थगित करना, निकालना, हटाना होता है। सामान्य तौर पर ‘ बाद में ’ अब एक टर्म या पद का दर्जा पा चुका है जिसमें किसी काम को न करने, टालने या स्थगित करने का भाव ही अधिक है। बाद में देखेंगे या बाद में करेंगे, बाद में आना, बाद में चलेंगे में यही भाव है कि अभी कुछ होने की फिलहाल उम्मीद नहीं है। अभी की सूची से उसे निकाला जा चुका है। उसे आगे कभी होना है। इस आगे में जो विस्तार है वही ब’अद है। इसमें जो स्थगिति है वही ब’अद है। इसमें जो निकाले जाने का भाव है वही ब’अद है और इसका रूपान्तर बाद है। हिन्दी-उर्दू के बाद में पश्चातवर्ती भाव प्रमुखता से बना रहा जबकि मराठी में विस्तार, अंतराल, निकालना जैसे भाव प्रमुख रूप से विकसित हुए। इसीलिए मराठी में बाद के साथ ना उपसर्ग लगाने से बने नाबाद शब्द का अर्थ डटे रहना, अविजित रहना, बने रहना, कायम रहना आदि हुआ। क्रिकेट की शब्दावली में बड़ी सहजता से मराठी में ही सबसे पहले नॉट आऊट के लिए नाबाद शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ जिसे हिन्दी में भी खुशी खुशी और खिलाड़ी भाव से अपनाया गया।

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Friday, May 3, 2019

इंतज़ामअली और इंतज़ामुद्दीन



हि न्दी में इन दिनों ये दो नए मुहावरे भी चल पड़े हैं। अगर अभी आप तक नहीं पहुँचे हैं तो जल्दी ही पहुँच जाएँगे। चीज़ों को संवारने, तरतीब देने, नियमानुसार काम करते हुए सब कुछ सही ढंग से आयोजित-नियोजित करने वाले लोग आजकल इन्हीं खिताबों से नवाज़े जाते हैं। दोनों की बुनियाद है 'इंतज़ाम'। हालाँकि हिन्दी की तत्सम शब्दावली के व्यवस्था, प्रबन्ध या फ़ारसी के बन्दोबस्त का इस्तेमाल भी किसी मायने में कम नहीं है। गौर करें, 'प्रबन्धकौशल सिंह', 'व्यवस्था भारती' या 'बन्दोबस्ती लाल' जैसी लाक्षणिक संज्ञाएँ इनसे भी बनाई जा सकती थीं पर नहीं बनीं। तथ्य यह भी है कि महज़ लक्षणा के आधार पर इंतज़ामअली या इंतज़ामुद्दीन जैसी संज्ञाएँ नहीं गढ़ी गईं बल्कि मुस्लिम तबके में बतौर व्यक्तिनाम भी चलन में हैं। हिन्दी में प्रबन्ध की अर्थवत्ता वाले शब्दों में इंतज़ाम की शोहरत सबसे ज़्यादा है।

अरबी का इंतज़ाम अपने आगे-पीछे कई रिश्तेदारियाँ लिए चलता है। यूँ कहिए कि इंतज़ामअली का कुनबा भी ख़ासा बड़ा है। आइए, पूरे कुटुम्ब से मिल लिया जाए। अरबी में एक क्रिया है नज़्म ن-ظ-ا (इसका उल्लेख कहीं कहीं नज़ामा भी है) जिसे नून-ज़ा-मीम से व्यक्ति किया जाता है। इस क्रम का सबसे पहला शब्द है नज़्म जिससे शायरी के शौक़ीन खूब परिचित हैं। आमतौर पर नज़्म का मतलब लोग कविता से लगाते हैं। दरअसल नज़्म में तरतीब या व्यवस्था का भाव है। इसका दूसरा अर्थ है कड़ी, लड़ी, माला या बन्धन। याद रखें साहित्य-विधाओं में पद्य सबसे पुरानी है।

दुनियाभर की प्रमुख साहित्यिक भाषाओं यानी हिब्रू, ग्रीक, लैटिन, अरबी, अवेस्ता, संस्कृत आदि में पद्य को विभिन्न अनुशासनों, नियमों से बान्धा गया है। ध्यान रहे कविता या शायरी के सभी रूप छंद में बन्धे रहते हैं। छन्द यानी वह अनुशासन जिसके दायरे में ऐसा कुछ कहा जाए जो सामान्य संवाद में न कहा जा सके। इस अनूठेपन को ही काव्यरचना माना जाता रहा है। सो कविता या काव्य एक बन्धन और अनुशासन था। फ़ारसी में पद्यांश को बंद भी कहा जाता है। गौरतलब है, यह बंद दरअसल संस्कृत के बन्ध का ही समरूप है। यानी जिसे अनुशासन से बान्धा गया हो। नए दौर की कविताई, चाहे वह किसी भी भाषा में हो, अब छन्दमुक्त नज़र आती है।

इस कतार में दूसरा सबसे ख़ास शब्द है निज़ाम। आमतौर पर हिन्दी में निज़ाम का प्रयोग शासन, तन्त्र या प्रणाली के अर्थ में ही होता है मसलन “आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान ने सेक्युलर निज़ाम ही अपनाया”। बात व्यवस्था या प्रबन्ध की ही है। कभी कभी निज़ाम का प्रयोग दौर या कालखण्ड की तरह भी किया जाता है, या उसका आशय इसी तरह लगाया जाता है मिसाल के तौर पर- “बुजुर्गवार की ज़बान मुसलसल मुगल दौर के लिए वाहवाहियाँ और अंग्रेजी निज़ाम के लिए गालियाँ उगल रही थी”।

निज़ाम की ही तरह नाज़िम भी हिन्दी का जाना पहचाना है। निज़ाम और नाज़िम दोनों ही नामवाची संज्ञाएँ भी हैं। निज़ाम का आशय मुखिया, सरदार, प्रधान, शासनकर्ता का आशय है जिस पर नियमपालन की जिम्मेवारी आयद हो। जो मुख्य प्रबन्धकर्ता, व्यवस्थापक हो। इसी तरह नाज़िम में भी प्रबन्धक या व्यवस्थापक का ही भाव है। निज़ाम से नाज़िम का हल्का फ़र्क़ यही है कि निज़ाम का प्रयोग सर्वोच्च शक्तिमान के लिए भी हो सकता है और उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के लिए भी। अलबत्ता नाज़िम उस प्रधान कार्यकारी को कहा जाता था जिस पर समूचे शासन या प्रदेश के बन्दोबस्त को देखने की ज़िम्मेदारी आयद हो जैसे वज़ीर, दीवान, मन्सबदार, मन्त्री, सूबेदार या सामन्त।

यूँ देखें तो दक्कन के सूबेदार मीर कमरुद्दीन सिद्दीकी को फ़र्रुख़सियर ने निज़ाम-उल-मुल्क का ख़िताब बख़्शा था। इसी का संक्षेप दक्कन के ‘निज़ाम’ में जुड़ा नज़र आता है। दक्षिण की राजसत्ता को निज़ामशाही भी कहा जाता है। निज़ाम क्रिया भी है और संज्ञा भी। इसी कड़ी में आता है निज़ामत जिसका अर्थ है नाज़िम की जिम्मेवारी, पद या दायित्व। या उसका कार्यक्षेत्र, दायरा, अमलदार-अहलकार। या वह स्थान जहाँ ये बैठते हों, यानी नाज़िम का दफ्तर।

इसी कड़ी का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है तनजीम जिसका तंजीम रूप हिन्दी में चल पड़ा है। 'तंजीम' वर्तनी की दिक्कत यही है कि इससे इसके मूल में समाए ‘नज्म’ या n-z-m का खुलासा नहीं होता। तंजीम का आशय है संगठन जैसे क़ौमी-तंजीम या तंजीमे-इस्लामी। तंजीम में मुख्य आशय जोड़ने, गूँथने या बान्धने का है ठीक उस तरह जैसे माला हो। एक कतार में रखना, एक सूत्र में बान्धना। तंजीम का अर्थ शासन से भी है क्योंकि वह एक व्यवस्था में निबद्ध होता है।

ख़ास बात ये कि निज़ाम, नाज़िम या तंजीम जैसी तमाम व्यवस्थाओं में जो भाव निहित है अक्सर उसके विलोम का प्रयोग करने की नौबत भी इन्हीं के सन्दर्भ में आती रहती है- बदइंतज़ामी या बदइंतज़ामियाँ। हाँ, इंतजामुद्दीन और इंतजामअली पर कभी बदइंतज़ामियों की तोहमत नहीं लगती
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Tuesday, June 27, 2017

‘मिट्टी’ से ‘मिट्टी’ तक ज़िंदगी का सफ़र

healthy grass and soil
मौ त जैसी अनिवार्य सचाई के लिए विश्व की अनेक भाषाओं में एक जैसे शब्द हैं। इनका विकासक्रम भी एक जैसा है और अर्थछायाओं में भी ग़ज़ब की समानता है।
मिटने-मिटाने की बात दुनियाभर की अनेक भाषाओं में ‘मिट्टी’ का रिश्ता जीवन से जोड़ा जाता है मसलन- “किस मिट्टी से बने हो” जैसे वाक्यांश से यह जानकारी मिलती है कि इनसान का शरीर मिट्टी से बनता है। स्पष्ट है कि मिट्टी में जननिभाव है। मिट्टी की पूजा होती है। मिट्टी को माँ कहा जाता है। धरतीपुत्र दरअसल मिट्टी का बेटा है। दूसरी ओर मृत्यु का रिश्ता भी मिट्टी से ही है। ज़िंदा जिस्म को मिट्टी कहा जाता है तो मृत देह को भी मिट्टी कहा जाता है। “मिट्टी में मिलाना” मुहावरे में नष्ट करने, अस्तित्व समाप्त कर देने का भाव है। ‘मिट्टी उठाना’ का भाव अर्थी निकालना है। मिटना, मिटाना, मटियामेट जैसे शब्दों के मूल में मिट्टी ही है।

मर्दन से अमृत तक प्राकृत के मिट्टिआ से मिट्टी रूप विकसित हुआ है। मिट्टिआ का संस्कृत रूप ‘मृत्तिका’ है। मृत्तिका और मातृका की समरूपता, जो वर्ण और स्वर दोनों में नज़र आती है, पर ज़रा विचार करें। इस पर विस्तार से आगे बात होगी। संस्कृत में मृद् क्रिया है। इससे ही बनता है मर्दन जैसे मानमर्दन करना। मृद् में दबाना, दलना, रगड़ना, खँरोचना, मिटाना, पीसना, चूरना, तोड़ना, रौंदना जैसे भाव हैं। ध्यान रहे, मिट्टी मूलतः चूरा है, कण है जो उक्त क्रियाओं का नतीजा है। इसके अलावा मृद् का अर्थ भूमि, क्षेत्र, काया अथवा शव भी है। मृद् से मृदु, मृदुता, मृदुल आदि भी बनते हैं जिनमें नर्म, ढीला, हल्का, मंद, नाज़ुक, कोमल या कमज़ोर जैसा भाव है। पीसना, रोंदना दरअसल मृदु या नर्म बनाने की क्रियाएँ ही हैं। मृद् का ही एक अन्य रूप मृत है जिसका अर्थ है शव। अमृत का अर्थ हुआ अनश्वर, अविनाशी।

सेमिटिक से भारोपीय तक सामी (सेमिटिक) भाषाओं में भी यह शृंखला पहुँचती दिख रही है। संसार की प्राचीनतम और अप्रचलित अक्कादी भाषा जो अब सिर्फ़ कीलाक्षर शिलालेखों में जीवित है, में मिद्रु मिदिर्तु जैसे शब्द हैं जो मूलतः भूमि से जुड़ते हैं। मिद्रु का अर्थ है ज़मीन, इलाक़ा, धरा, क्षेत्र या पृथ्वी। इसी तरह मिदिर्तु में बाग़ीचा अथवा उद्यान-भूमि का आशय है। हिब्रू के मेदेर में कीचड़, पृथ्वी, सीरियक के मेद्रा में मिट्टी, शव, लोंदा जैसे अर्थ हैं। अरबी में एक शब्द है मदार (वृत्त वाला नहीं जिससे मदरसा बना है) जिसका अर्थ है धरती। गीज़ के मीद्र में मैदान, पृथ्वी, क्षेत्र, देश जैसे आशय प्रकट होते हैं।
मृत्तिका से मातृका तक स्वाभाविक है कि पृथ्वी का जो आदिम रूप हमारे सामने है, पृथ्वी का जो पहला अनुवभव हमें है वह उसका मिट्टी रूप ही है इसीलिए पृथ्वी की तमाम संरचनाएँ भी मिट्टी से निर्मित हैं। पृथ्वी का समूचा विस्तार जिसे हम देश या क्षेत्र कहते हैं, मिट्टी निर्मित ही है। मृद् से बनता है मृदा जिसका अर्थ है मिट्टी, धरती, पृथ्वी, देश, भूभाग, काया, मृदा, शव, बालू आदि। टीला, पहाड़, सपाट सब कुछ माटी निर्मित है। मिट्टी के सम्पर्क में आकर सब कुछ मिट्टी हो जाता है। मिट्टी ही देश है, मिट्टी ही जन्मदात्री है, मिट्टी मृत्तिका से है, मिट्टिका और मृत्तिका समरूप हैं। मृत्तिका का एक रूप मातृका भी हो सकता है। मातृ में भी पृथ्वी का भाव है और ‘माँ’ तो ज़ाहिर है। मातृका भी मिट्टी यानी माँ है। मूल ध्वनि या पद में अनेक सर्गों-प्रत्ययों और स्वर जोड़ कर अर्थ-विस्तार होता है।
मृत्- मृद्- मृन्- मृण्- गाँव दरअसल एक क्षेत्र है। देहात में गाँव के बाहर छोटी छोटी पिण्डियों में मातृकाएँ स्थापित की जाती हैं जो ग्रामदेवी का रुतबा रखती हैं। अर्थात वे गाँव की जन्मदात्री, रक्षक और पालनहार हैं। मृत्तिका में जो मृत्त है उसका रूपान्तर मृद् है जिसका अर्थ ऊपर स्पष्ट किया है। मृद् का ही एक अन्य रूप है मृण जिसमें रगड़ने, तोड़ने, दलने का भाव है और प्रकारान्तर से कण या मिट्टी का बोध होता है। मृण्मय का अर्थ होता है माटी निर्मित्त। इसका मृन्मय रूप भी है। मृत् में भी वही सारी अर्थछायाएँ हैं जो मृद् में हैं। इस तरह मृत्- मृद्- मृन्- मृण्- जैसे शब्दशृंखला प्राप्त होती है जिसमें रूपान्तर के साथ अर्थान्तर नहीं के बराबर है। मृण का अर्थ तन्तु भी है। मूल भाव सूक्ष्म, तनु, छोटा, बारीक आदि सुरक्षित है। भाषाशास्त्र के विद्वान क्या सोचते हैं, ये अलग बात है। हमने अपना मत रखा है।
मर्द और मुरदा फ़ारसी मुर्दा दरअसल मुर्दह् है। इसका संस्कृत समरूप मृत भी है और मुर्त भी। मुर्दा’/ मुरदा दरअसल मुर्दह् में जुड़े अनुस्वार की वजह से होता है। ‘ह’ वर्ण का लोप होकर ‘आ’ स्वर शेष रहता है। इस तरह देखें तो संस्कृत ‘मुर्त’ और फ़ारसी ‘मुर्द’ समरूप हैं। मृदा अगर मिट्टी यानी लाश है तो मुर्दा भी। अर्थ दोनों का ही शव है। मुर्द का ही एक अन्य रूप मर्द है। प्लैट्स इसका रिश्ता मर्त्य से जोड़ते हैं। पर संस्कृत में मर्त अलग से है। मर्द का अर्थ है आदमी, पुरुष, पति, भर्तार, बहादुर अथवा दुष्ट, नायक अथवा खलनायक, एक सभ्य व्यक्ति। दरअसल यहाँ भी बात मिट्टी से जुड़ रही है। मर्त्य यानी नाशवान। जिसे नष्ट हो जाना है। ये अलग बात है कि इसका पुरुषवाची अर्थ रूढ़ हुआ पर आशय मनुष्य (मरणशील) से ही रहा होगा, इसमें शक नहीं। मर्द से बना मर्दानगी शब्द पुरुषत्व का प्रतीक है। नामर्द का अर्थ कापुरुष होता है। मर्दुमशुमारी भी हिन्दी में जनसंख्या के अर्थ में प्रचलित है। ‘मर्दों वाली बात’ मुहावरा भी खूब प्रचलित है। आशय पुरुषोचित लक्षणों से है।
मौत के रूप मौत जैसी अनिवार्य सचाई के लिए विश्व की अनेक भाषाओं में एक जैसे शब्द हैं। इनका विकासक्रम भी एक जैसा है और अर्थछायाओं में भी ग़ज़ब की समानता है। मृद का मृत रूप ‘मृत्यु को प्राप्त’ का अर्थ प्रकट करता है। मृत्यु का अर्थ है मरण। मृतक का अर्थ शव है। फ़ारसी में मृतक को मुर्दा कहते हैं। जिस तरह मिट्टी यानी धूल, गर्द, मुरम है उसी तरह मिट्टी यानी जीवित या मृत काया भी है। मृण्मय के मृण् का अर्थ यद्यपि पीसना, दबाना, चूरा करना है साथ ही इसका एक अर्थ नाश अथवा मार डालना भी है। मृण से मरण को सहजता से जोड़ सकते हैं जिसमें मृत्यु का भाव है। हम व्याकरण की ओर नहीं देख रहे हैं।
शह, मात और मातम शतरंज का मशहूर शब्द है शह और मात। इसमें जो शह है वह दरअसल फ़ारसी शब्द है और बरास्ता पहलवी उसका मूल वैदिकयुगीन क्षय् अथवा क्षत्र है जिसमें उपनिवेश, स्वामित्व, आधिपत्य, राज्य, इलाक़ा जैसे भाव हैं। बाद में राजा के अर्थ में शाह शब्द इससे ही स्थापित हुआ। शतरंज के शह में मूलतः बढ़ने का भाव है। मगर हमारा अभीष्ठ ‘मात’ से जुड़ा है। यह जो मात है, दरअसल मौत से आ रहा है। सेमिटिक मूल क्रिया م و ت अर्थात मीम-वाओ-ता से अनेक सामी भाषाओं में बने रूपान्तरों में ‘मात’ मौजूद है जिसका अर्थ है मरण। मसलन हिब्रू, उगेरिटिक और फोनेशियन में यह मोत है। हिब्रू में ही इसका एक रूप मवेत भी है। असीरियाई में यह मुतु (मृत्यु से तुलनीय) है तो अक्कादी में मित्तुतु है। सीरियक में यह माव्ता है तो इजिप्शियन में mwt है। मृत्यु का शोक होता है सो मौत से ही अरबी में बना मातम जो हिन्दी में भी प्रचलित है।
इस विवेचना के बाद अंग्रेजी के मॉर्टल, मर्डर, मोर्ट, इम्मॉर्टल (अमर्त्य), पोस्टमार्टम अथवा मॉर्च्युअरी जैसे शब्दों को इस शृंखला से बड़ी आसानी से जोड़ कर देख सकते हैं।
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Tuesday, May 23, 2017

सबै भूमि गोपाल की अर्थात चार पैरों में सारी दुनिया समायी


ब्दों का सफ़र के दौरान बीते वर्षों में अनेक भाषायी सन्दर्भों से गुज़रते हुए दिलचस्प तथ्य प्रकट हुआ है जिसे आप सबसे साझा करना चाहूँगा। वह यह कि चौपायों के सम्बन्ध में एक खास बात सभी प्राचीन संस्कृतियों-भाषाओं में समान है। एक ही पशु के कई अर्थ हो सकते हैं। मसलन संस्कृत का गो। इसका अर्थ सामान्य चौपाया भी है, कोई भी गतिशील पदार्थ या संज्ञा है। गऊ तो रूढ़ है ही।

गो यानी जो भी गतिशील है
गौरतलब है वैदिक शब्दावली में ‘ग’ ध्वनि का आशय गमन से है। गम् धातुक्रिया का अर्थ गमन करना ही है। गति का ग भी यही कहता है। इसलिए ‘गो’ का आशय सिर्फ़ धेनु अथवा गाय नहीं बल्कि पशु मात्र से भी है, क्योंकि वह चलता है, गति करता है। यूँ कहें कि प्राचीन मनीषियों ने हर उस पदार्थ को ‘गो’ के दायरे में रखा जो गतिशील है। इसीलिए पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र, तारे ये भी 'गो' ही हैं।


'गो' की गतियाँ
मन की गतियाँ भी 'गो' हैं। स्वाभाविक है तब इन्द्रियगतियाँ इसके दायरे से बाहर कैसे रहतीं? आँखों से जितना दिख रहा है वह भी गोचर और पैरों से जितना नापा जा सके वह भी गोचर। यहाँ पशुओं और मनुष्यों में फ़र्क़ न करें। पशुओं के पैर भी इन्द्री ही हैं सो कोई पशु जहाँ विचरण करे वह गोचर भूमि है। इसीलिए कहा जाता है “सबै भूमि गोपाल की”।


मृग यानी हिरन, कुत्ता, घास...
मृग का अर्थ भी मूलतः गतिशील से है। कुत्ते को मृग भी कहा गया है, गृहमृग और ग्राममृग भी। आमतौर पर हिन्दी में मृग से तात्पर्य हिरण प्रजाति के पशुओं जैसे सांभर, चीतल से है मगर इस शब्द की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। वैदिक काल में संस्कृत में मृग का अर्थ हिरण तक सीमित न होकर किसी भी पशु के लिए था। मृग शब्द का अर्थ हरी घास भी है। प्राचीनकाल में मृग शब्द में चरागाह या चरने का भाव प्रमुख था और इससे घास अर्थ की पुष्टि होती है। 


मृगया से मार्ग तक
संस्कृत शब्द मृगणा का अर्थ होता है अनुसंधान, शोध, तलाश। मृगया में शिकार का भाव है। हिन्दी का मार्ग शब्द बना है संस्कृत की मृग् धातु से जिसमें खोजना, ढूंढना, तलाशना जैसे भाव निहित हैं। मार्ग में भी खोज और अनुसंधान का भाव स्पष्ट है। कभी जिस राह पर चल कर मृगणा अर्थात अनुसंधान या तलाश की जाती थी, उसे ही मार्ग कहा गया। 


गायों का अनुसन्धान
अनुसंधान का मृगणा अर्थ उसी तरह है जिस तरह गवेषणा का अर्थ शोध-अनुसंधान हुआ। वेदों में पणियों के गाय चुरा ले जाने के उल्लेख हैं। गोपालक इनका सन्धान करने, ढूँढने निकलते थे जिसे गव+एषणा अर्थात गवेषणा कहा जाता था। कालान्तर सभ्यता के विकास के साथ मवेशियों को सामूहिक तौर पर हाँक ले जाने की प्रवृत्ति कम हो गई तो गवेषणा शब्द सिर्फ अनुसन्धान के अर्थ में रूढ़ हो गया। 


भल्लुक यानी कुत्ता और बंदर भी....
भल्लुक का अर्थ भी कुत्ता होता है। भालू तो ख़ैर है ही। इसके अलावा भल्लुक का अर्थ बंदर भी है। संस्कृत में बर्कर/वर्कर का अर्थ बकरा तो होता ही है इसके अलावा किसी कड़ियल चौपाए को भी बर्कर कहा जा सकता है। अरबी में बक्र शब्द का अर्थ भी हट्टाकट्टा ऊँट ही होता है किन्तु किसी जवान पशु को भी बक्र कहा जा सकता है। संस्कृत में जैसे गो के हवाले से सब कुछ चलायमान पदार्थ इसके दायरे में आ जाते हैं उसी तरह अरबी में बक्र का मामला है। 


मवेशी और हैवान
अरबी में मवाशी शब्द अब हिन्दी में पशु के अर्थ में मवेशी बन कर विराजमान है और इसका दूसरा विकल्प आसानी से नहीं मिलता। बलि-पशु के लिए अरबी में अज़हा शब्द है। हैवान का अर्थ यूँ तो कोई भी चौपाया है किन्तु आमतौर पर हिंस्र पशु के लिए इसका प्रयोग होता है। हिन्दी तक आते आते क्रूर, अत्याचारी और हिस्र मनुष्य को हैवान की अर्थवत्ता मिल गई। पशु के तौर पर हिन्दी में हैवान का प्रयोग कम होता है। “इन्सान हो या हैवान” जैसी अभिव्यक्ति के तहत ही इसका पशु अर्थ स्पष्ट होता होता है, अन्यथा नहीं। 


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Saturday, May 13, 2017

घर का मालिक यानी पति

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दु नियाभर की भाषाओं में शब्द निर्माण व अर्थस्थापना की प्रक्रिया एक सी है। विवाहिता स्त्री के जोड़ीदार के लिए अनेक भाषाओं के शब्दों में अधीश, पालक, गृहपति जैसे एक से रूढ़ भाव हैं। हिन्दी में ‘पति’ सर्वाधिक बरता जाने वाला शब्द है। उसे गृहस्थ भी कहते हैं। अंग्रेजी में वह हसबैंड है। फ़ारसी में खाविन्द है। संस्कृत में शालीन। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओं में राजा, नरेश, नरश्रेष्ठ, वीर, नायक जैसे शब्दों में “पालक-पोषक” जैसे भावों का भी विस्तार हुआ। यह शब्द पहले आश्रित, विजित या प्रजा के साथ सम्बद्ध हुआ फिर किसी न किसी तौर पर स्त्री के जीवनसाथी की अभिव्यक्ति इन सभी रूपों में होने लगी।
हसबैंड जो घर में वास करे- ‘पति’ में स्वामी, नाथ, प्रभु, क्षेत्रिक, राज्यपाल, शासक, प्रधान, पालक के साथ-साथ भर्ता अथवा भरतार का भाव है जिसका अर्थ हसबैंड। दम्पति का अर्थ भी गृहपति ही है। यह दिलचस्प है कि पालक, भरतार यानी भरण-पोषण करने वाला जैसी अभिव्यक्ति के अलावा ‘पति’ जैसी व्यवस्था में रहने अथवा निवासी होने का भाव भी आश्चर्यजनक रूप में समान है। अंग्रेजी के हसबैंड शब्द को लीजिए जिसमें शौहर, पति, खाविंद, नाथ या स्वामी का भाव है। इसका पूर्वपद है hus जिसका अभिप्राय घर यानी house है। पाश्चात्य भाषाविज्ञानियों के मुताबिक पुरानी इंग्लिश में इसका रूप हसबौंडी था। विलियम वाघ स्मिथ इसे Bonda बताते हैं जिसका अर्थ है स्वामी, मालिक। इस तरह हसबैंड का मूलार्थ हुआ वह जो घर में रहता है। भाव स्थिर हुआ गृहस्थ, गृहस्वामी, गृहपति अर्थात पति।
खाविंद अर्थात स्वामी- फ़ारसी में पति को ख़ाविंद कहते हैं जो मूल फ़ारसी के خاوند खावंद का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है शौहर, पति-परमेश्वर, भरतार, सरताज और गृहपति आदि। भाषाविज्ञानियों के अनुसार (प्लैट्स, नूराई, मद्दाह, अवस्थी आदि) खावंद दरअसल خداوند खुदावन्द का छोटा रूप (संक्षेपीकरण) है। यह दो शब्दों, खुदा خدا और وند वन्द से मिल कर बना है। ग़ौर करें खुदा का अर्थ है प्रभु, स्वामी, ईश्वर, परम आदि। संस्कृत के वन्त / वान जैसे सम्बन्ध-सूचक जेन्दावेस्ता/फ़ारसी में वन्द/मन्द/बान में बदल जाते हैं। इस तरह खुदावन्द का अर्थ हुआ खुदा सरीखा, परमेश्वर सरीखा। ज़ाहिर है हिन्दी में पति, स्वामी या भरतार कहने के पीछे भी यही भाव है।
गृहस्थ यानी जो घर में रहे- हिन्दी का गृहस्थ शब्द भी इसी कड़ी में खड़ा नज़र आता है। उसे कहते हैं जो घर में रहता हो। जो घर में स्थिर/स्थित हो। गृहस्थ में विवाहित, बाल-बच्चेदार, गृहपति जैसे भाव हैं। घर और मकान दरअसल एक से शब्द लगते हैं मगर इनमें फ़र्क है। घर एक व्यवस्था है जबकि मकान एक सुविधा है। सो घर जैसी व्यवस्था में रिश्तों के अधीन होना ज़रूरी होता है। इसीलिए आमतौर पर घर होना, किसी रिश्ते में बंधने जैसा है। शादी-शुदा व्यक्ति को इसीलिए घरबारी कहा जाता है किसी स्त्री को गिरस्तिन तभी कहा जाता है जबकि वह विवाहिता हो।
शालीन वही जो गृहस्थ हो- हिन्दी में सीधे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को शालीन कहा जाता है। दरअसल यह शालीन का अर्थविस्तार है। किसी ज़माने में शालीन का अर्थ था गृहस्थ। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक शालीन वह व्यक्ति है जिसके रहने का ठिकाना है। मोटे तौर पर यह अर्थ कुछ दुरूह लग सकता है, मगर गृहस्थी, निवास, आश्रय से उत्पन्न व्यवस्था और उससे निर्मित सभ्यता ही घर में रहनेवाले व्यक्ति को शालीन का दर्जा देती है। शाल् यानी रहने का स्थान, शाला, धर्मशाला, पाठशाला आदि इससे ही बने हैं। शाल शब्द के मूल में बाड़ा अथवा घिरे हुए स्थान का अर्थ निहित है। कन्या के लिए हिन्दी का लोकप्रिय नाम शालिनी संस्कृत का है जिसका अर्थ गृहस्वामिनी अथवा गृहिणी होता है। व्यापक अर्थ में गृहस्थ ही शालीन है। स्पष्ट है कि आश्रय में ही शालीनता का भाव निहित है।
घरबारी जिसका घरु-दुआर हो- गृहस्थ के लिए घरबारी शब्द बना है घर+द्वार से। घरद्वार एक सामासिक पद है जिसमें द्वार भी घर जैसा ही अर्थ दे रहा है। द्वार से ‘द’ का लोप होकर ‘व’ बचता है जो अगली कड़ी में ‘ब’ में तब्दील होता है। इस तरह घरद्वार से घरबार प्राप्त होता है जिससे बनता है घरबारी। गिरस्तिन भी दम्पति के अर्थ में असली घरमालकिन है। घर शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गृह से मानी जाती है। संस्कृत का गृह और प्राकृत घर एक दूसरे के रूपान्तर हैं। यहाँ ‘र’ वर्ण ‘ग’ से अपना दामन छुड़ा कर आज़ाद होता है और ‘ह’ खुद को ‘ग’ से जोड़ कर ‘घ’ में तब्दील होता है इस तरह ‘गृह’ से ‘घर’ बनता है।
दम्पती यानी घर के स्वामी- हिन्दी में संस्कृत मूल के दम्पति का दम्पती रूप प्रचलित है जिसका अर्थ है पति-पत्नी। संस्कृत में दम्पति का जम्पती रूप भी है। संस्कृत कोशों में दम का अर्थ घर, मकान,आश्रय बताया गया है वहीं बांधने का, रोकने का, थामने का, अधीन करने का भाव भी है। यही नहीं, इसमें सज़ा देने, दण्डित करने का भाव भी है। अनिच्छुक व्यक्ति या जोड़े को चहारदीवारी में रखना दरअसल सज़ा ही तो है। जिसका कोई ठौर-ठिकाना न हो वह आवारा, छुट्टा सांड जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाता है जबकि हमेशा घर में रहनेवाले व्यक्ति को घरू या घरघूता, घरघुस्सू आदि विशेषण दिये जाते हैं।
गृहपति भी है दम्पती- दम्पति का एक अन्य अर्थ है गृहपति। पुराणों में अग्नि, इन्द्र और अश्विन को यह उपमा मिली हुई है। दम्पति का एक अन्य अर्थ है जोड़ा, पति-पत्नी, एक मकान के दो स्वामी अर्थात स्त्री और पुरुष। दम् की साम्यता और तुलना द्वन्द्व से भी की गई है जिसमें द्वित्व का भाव है अर्थात जोड़ी, जोड़ा, युगल, स्त्री-पुरुष आदि। जो भी हो, दम्पति में एक छत के नीचे साथ-साथ रहने वाले जोड़े का भाव है। आजकल सिर्फ़ पति-पत्नी के अर्थ में दम्पति शब्द का प्रयोग होने लगा है जबकि इसमें घरबारी युगल का भाव है।
दम में है आश्रय- यह जो दम् शब्द है, यह भारोपीय मूल का है और इसमें आश्रय का भाव है। आश्रय के अर्थ में भारतीय मनीषा में धाम शब्द का बड़ा महत्व है। धाम का मोटा अर्थ यूं तो निवास, ठिकाना, स्थान आदि होता है मगर व्यापक अर्थ में इसमें विशिष्ट वास, आश्रम, स्वर्ग सहित परमगति अर्थात मोक्ष का अर्थ भी शामिल है। धाम इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत धातु ‘धा’ इसके मूल में है जिसमें धारण करना, रखना, रहना, आश्रय जैसे भाव शामिल हैं। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की dem/domu जैसी क्रियाओं से इसकी रिश्तेदारी है जिनका अभिप्राय आश्रय बनाने (गृहनिर्माण) से है।
दम यानी डोम यानी गुम्बद- यूरोपीय भाषाओं में dome/domu मूल से कई शब्द बने हैं। गुम्बद के लिए अंग्रेजी का डोम शब्द हिन्दी के लिए जाना पहचाना है। सभ्यता के विकासक्रम में डोम मूलतः आश्रय था। सर्वप्रथम जो छप्पर मनुष्य ने बनाया वही डोम था। बाद में स्थापत्य कला का विकास होते होते डोम किसी भी भवन के मुख्य गुम्बद की अर्थवत्ता पा गया मगर इसमें मुख्य कक्ष का आशय जुड़ा है जहां सब एकत्र होते हैं। लैटिन में डोमस का अर्थ घर होता है जिससे घरेलु के अर्थ वाला डोमेस्टिक जैसा शब्द भी बनता है।

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Friday, May 5, 2017

'फते' और 'फलास'


क्त दोनों ही शब्द किसी ज़माने की राजभाषाओं के शब्द है पर देसी रंग कुछ इस अंदाज़ में चढ़ा कि अब चाहें तो इन्हें मालवी का कह लें या अवधी का। ये भी नोट किया जाए कि अच्छी ख़ासी राजभाषाओं की कलई ज़माने की टकसाल में फीकी पड़ जाती है। किसी भी चीज़ पर जब तक 'देसी' का रंग न चढ़े तब तक वह लोकप्रिय भी नहीं हो सकती।

किसी ज़माने में अरबी-फ़ारसी राजभाषाएँ थीं। चूँकि तुर्क-मंगोल नस्लों के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था इसलिए उनकी अपनी भाषाओं पर अरबी-फ़ारसी रंग ज्यादा चढ़ा था। हिन्दुस्तान में जो ज़बान दाखिल हुई वह फौजी अमले द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। जो बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। हालाँकि शाही अमले में अरबी-फ़ारसी के आलिम भी होते थे पर उनकी तादाद बेहद कम।

तो बात थी 'फते' की जो अरबी के फ़तह का देसी रूप है। फ़तह के फते रूप पर मुस्लिम आलिमो हुक्काम सिर धुन लिया करते थे। पर ये देसी ज़बानों की फ़तह थी कि उन्होंने इसके फते, फत्ते जैसे रूप बना लिए। यही नहीं इससे संज्ञनाम भी बनाए जैसे फतेह सिंह, फतेसिंह, फतेपुर, फतेपुरा, फतेचंद आदि।
फलास का किस्सा तो और भी मज़ेदार। द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ-सट्टा का चलन भारतीय समाज में प्राचीनकाल से रहा।

तुर्क-मंगोल लोगों के साथ गंजीफा भी आया जो ताश, पत्ती का खेल है। अंग्रेजो के पास भी ताश-पत्ते का खेल कार्ड बनकर पूरब से ही गया था। जब वे हिन्दुस्तान आए तो ताश का ज़ोर और बढ़ा। अबकि बार अंदाज़ विलायती था। सो विलायती ताश के खेल में तीन पत्ती वाला फ्लैश या फ्लश भी जुआरियों या द्यूतप्रेमियों में प्रसिद्ध हो गया।

अब कोई भी शहराती चलन जब तक देसी रंगत में न आए, आनंद नहीं आता। सो विलायती का बिलैती हुआ, जनरल का जरनैल और प्लाटून का पलटन हुआ वैसे ही फ्लैश का 'फलास' हो गया।
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Saturday, February 4, 2017

चुभने-चुभाने की बातें

क्षुब्ध, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण,असन्तोष आदि।pain-body-mind

भी काँटे ‘चुभ’ जाते हैं कभी बातें चुभती हैं। चुभ / चुभना / चुभाना हिन्दी में सर्वाधिक प्रयुक्त क्रिया है। हिन्दी शब्दसागर इसे अनुकरणात्मक शब्द बताता है जो अजीब लगता है। अनुकरणात्मक शब्द वह है जो ध्वनि साम्य के आधार पर बनता है जैसे रेलगाड़ी के लिए छुकछुक गाड़ी। हिनहिनाना, टनटनाना, मिनमिनाना जैसे अनेक शब्द हमारे आसपास है। अब सोचें कि चुभ, चुभना को किस तरह से अनुकरणात्मक शब्द माना जाए ! इसी कड़ी के दो और शब्द है खुभ / खुभना या खुप / खुपना जिसे समझे बिना चुभना की जन्मकुण्डली नहीं समझी जा सकती।
मेरे विचार में चुभना संस्कृत की ‘क्षुभ्’ क्रिया से आ रहा है जिससे क्षोभ, विक्षोभ बना है। क्षुब्ध, विक्षुब्ध, क्षोभ, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण, चीर, दबाव, धक्का, भयभीत, कम्पन, आन्दोलन, बखेड़ा, असन्तोष, गड़बड़ी, कोप आदि। मगर रूढ़ अर्थों में हिन्दी में अब क्षोभ या क्षुब्ध का प्रयोग ज्यादातर नाराज़गी, कोप, गुस्सा के अर्थ में ही होता है और उक्त सारे भाव विक्षोभ से व्यक्त होते हैं। गौर करें मौसमी सूचनाओं में अक्सर ‘पश्चिमी विक्षोभ’ टर्म का प्रयोग होता है जो दरअसल वेस्टर्न डिस्स्टर्बेंस का अनुवाद है। इसका अभिप्राय समन्दर पर या ऊपरी आसमान में हवाओं के ऐसे उपद्रव से है जिसकी वजह से कहीं बवण्डर या चक्रवात बनते हैं तो कहीं हवा अचानक शान्त हो जाती है जिसे कम दबाव क्षेत्र भी कहते हैं।
ख़ैर, बात चुभने-चुभाने की हो रही थी। गौर करें चुभना किसी तीक्ष्ण वस्तु का भीतर घुसना है। इसका भावार्थ भीतर की हलचल, मन्थन, हृदय की चोट, दिल की उमड़-घुमड़, किसी बात का घर कर जाना आदि है। क्षुभ् क्रिया में यही सारी बातें शामिल हैं। गौर करें विदीर्ण में दो हिस्से होने, चीर लगने का भाव है। दो हिस्सों में बाँटे बिना कोई चीज़ भीतर जा नहीं सकती। प्रत्येक आलोड़न, आन्दोलन, मन्थन, हलचल का कोई न कोई केन्द्र होता है जो इसे धारदार बनाता चलता है। यही धँसना, गड़ना,चुभना है। हिन्दी की प्रकृति है ‘क्ष’ का ‘छ’ और ‘ख’ में बदलना जैसे अक्षर से ‘अच्छर’ और ‘अक्खर’ (आखर, अक्खड़ जैसे भी) जैसे रूप भी बनते हैं। पूर्वी बोलियों में ‘क्षुब्ध’ को ‘छुब्ध’ भी कहा जाता है। इसी तरह ‘क्षुब्ध’ से ‘खुब्ध’ भी बनता है। गौर करें क्षुब्ध से चुभ बनने में क्ष > छ > च के क्रम में ध्वनि परिवर्तन हो रहा है जबकि क्षुब्ध से खुभ बनते हुए क्ष > ख के क्रम में परिवर्तन हो रहा है।
‘खुभना’ का अर्थ भी चुभना, गड़ना या धँसना ही है। कृ.पा. कुलकर्णी भी मराठी खुपणे जिसका अर्थ भीतर घुसकर कष्ट देना, चीरना, छेद करना आदि है, का मूल क्षुभ् से ही मानते हैं। इसका प्राकृत रूप खुप्प, खुप्पई है। सिन्धी में खुपणु, गुजराती में खुपवुँ, मराठी में खुपणे अथवा खोंपा, खोंपी जैसे शब्द इसी क्षुभ् मूल से व्युत्पन्न है। इसी कड़ी में ऊभचूभ पर भी विचार कर लें। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऊभ के अनुकरण पर चूभ बना है, पर ऐसा नहीं है। अलबत्ता ऊभ की तर्ज़ पर चुभ का ह्रस्व ज़रूर दीर्घ होकर चूभ हो जाता है। ऊभचूभ का अर्थ होता है आस-निरास की स्थिति, डावाँडोल होना, आन्तरिक हलचल, ऊपर-नीचे होना, डूबना-उतराना आदि।
हिन्दी ‘ऊभ’ का अर्थ है ऊपर आना, उभरना। चूभ और चूभना पर तो ऊपर पर्याप्त बात हो चुकी है। मुख्य बात यह कि अनुकरण वाले शब्द की अपनी स्वतन्त्रप्रकृति नहीं होती। मुख्य पद के जोड़ का पद रच लिया जाता है। उसका कोई अर्थ नहीं होता। ऊभचूभ में जो चूभ हो वह अनुकरण नहीं बल्कि ऊभ का विलोम है। उसकी स्वतन्त्र अर्थवत्ता है। ऊभ का रिश्ता उद्भव से है जिसमें उगने, ऊपर आने का भाव है। उद् यानी ऊपर उठना भव यानी होना। प्राकृत का 'उब्भ' इसी कड़ी का है। उब्भ का ही विकास ऊभ है। उभरना, उभार भी इसी कड़ी में आते हैं।
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Friday, February 3, 2017

सहेली, बरास्ता हेठी और अवहेलना



शा न में गुस्ताख़ी के सन्दर्भ में हन्दी में ‘हेठी’ खूब प्रचलित है जिसमें अवमानना, अपमान या मानहानी का भाव है। इसी तरह तत्सम शब्दावली का होने के बावजूद ‘अवहेलना’ भी आम बोलचाल में इस्तेमाल होता है। इसमें अवज्ञा और अनदेखी है। दोनों ही शब्द मूलतः तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा, और मानहानी को अभिव्यक्त करते हैं। देखते हैं दोनों शब्दो की जन्मकुण्डली।
हेठी’ का रिश्ता संस्कृत ‘हेठ्’ से है जिसमें खिझाने, सताने के साथ हानि पहुँचाने, सताने आदि का भाव है। हेठ् का अर्थ उत्पाती, शठ या कुकर्मी भी होता है। दरअसल संस्कृत में यह एक शृंखला है जिसमें में हेल्, हेळ्, हेट्, हेठ्, हेड् जैसी क्रियाएँ हैं और इन सबका आशय अवमानना, अनादर, असम्मान या अवज्ञा ही है। इस हेठ् का ‘एँठ’ से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एँठना से आ रहा है जिसका अभिप्राय तनना, बल खाना, अकड़ना जैसे भाव हैं।

सी कड़ी ‘हेला’ भी है जिसका अर्थ भी अवज्ञा, बेपरवाही, तिरस्कार आदि है। इसी के साथ इसमें आनंद, आमोद, क्रिड़ा, खेल, खिलवाड़, केलि, शृंगार-विलास, काम-मुद्राएं, शृंगार-चेष्टा जैसे भाव भी हैं। ‘हेला’ का प्रयोग आमतौर पर हिन्दी में स्वतन्त्र रूप में नहीं होता पर सहेली, सहेला (अल्पप्रचलित), अवहेलना जैसे शब्दों में यह नज़र आता है। संस्कृत सहेल या सहेलम् में- व्यग्रता, बेपरवाही, विरक्तता, आवारगी, उधम, चंचल, लम्पट, कामोत्सुक जैसे आशय हैं।

मोनियर विलियम्स ‘सहेल’ या सहेलम का अर्थ full of play or sport बताते हैं। हिन्दी का सहेली या सहेला इसी कड़ी में विकसित हुआ है मगर उसमें साथिन, संगी, जोड़ीदार, मित्र, सहचर, संगिनी या सेविका का भाव है। हालाँकि शृंगारिक अर्थो में भी सहेली, सहेला का प्रयोग होता रहा है। बात आमोद-क्रीड़ा से शुरू हुई तो अर्थ बेपरवाही तक विकसित होता चला गया। खेल के साथ बेफिक्री जुड़ी हुई है और उससे ही इसमें आगे चल कर उपेक्षा, अवज्ञा की अर्थस्थापना भी होती चली गई। अवहेलना में यह अच्छी तरह उजागर हो रहा है।

मेलजोल, जान-पहचान, पारस्परिकता के सन्दर्भ में हेल-मेल बड़ा प्यारा पद है। हेल-मेल, हिल-मिल का प्रयोग रोजमर्रा की भाषा में किया जाता है। “वह उससे काफी ‘हिला’ हुआ है” जैसे प्रयोग भी आम है। बुनियादी तौर पर यहाँ जो हेल है वह इसी शृंखला का है जिसकी चर्चा की जा रही है। हालाँकि श्यामसुंदर दास हिन्दी शब्दसागर में हेल-मेल के ‘हेल’ का सम्बन्ध हिलना क्रिया से बताते हैं जिसका संस्कृत के हल्लन से सम्बन्ध है और जिसमें हरकता, गति जैसे भाव हैं।

हालांकि मेरे लिए इससे सहमत होना कठिन है। हेल-मेल में हरकत, गति प्रमुख नहीं, घनिष्ठता, सोहबत, संग-साथ, परस्परता प्रमुख है। इनमें वही वही क्रिड़ा-भाव है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।
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Thursday, December 8, 2016

गुडगाँव पर ‘द्रोण’ कैमरा



च्छा ख़ासा द्रोण था, घिस-घिस कर दोना रह गया। गुरु कितना ही गुरुतर रहा हो, भाषा के अखाड़े में ऐसी रगड़-घिसाई हुई कि जब हिनहिनाकर खड़ा हुआ तो गुड़ हो चुका था। यह भी कौरवी का ही चमत्कार था जिसके दाँव-पेच से चुस्त होकर खरी-बोली भी एकदम से खड़ी हो गई और देशभर में आज तक हिन्दी का झण्डा खड़ा किया हुआ है।

तो ये भाषा के मामले हैं, सियासी चश्मे से समझ नहीं आएँगे। बाकी तो इण्डिया को भारत या जम्बूद्वीप करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। हम अपने देश भारत का नाम दुष्यन्त-शकुन्तला के बेटे भरत की सन्तति से हट कर अगर ‘भरत’ समूह से जोड़ कर देखेंगे तो शायद ज्यादा बेहतर होगा।


कुछ दिनों पहले क्राइम रिपोर्टर को खबर मिली थी कि मणिकर्णिका घाट पर विदेशियों ने ‘द्रोण’ कैमरे से तस्वीरें उतारी हैं। यह अष्टाङ्गुल ‘द्रोण’ कैमरा इसी रूप में उनकी कलम से भी उतरता रहा। श्रीमानजी बोलते अब भी ‘द्रोण’ ही हैं 😀

बहरहाल, गुड़गाँव के गुरुग्राम हो जाने पर ज्यादा व्याकुल होने की ज़रूरत नहीं है। स्टालिनग्राद और लेनिनग्राद को याद कर लें। आज वोल्गोग्राद और पीटर्सबर्ग नाम ही आबाद हैं। गुड़गाँव का गुरुग्राम तो ख़ैर व्यक्तिपूजा का मामला भी नहीं है, उच्चार का ही प्रबन्ध है।

मराठी वालों का क्या कर लेंगे जो हर नाम बदल देते हैं। 'गोहत्ती' नाम का शहर पहचान पाएं तो जानें। यह असम की राजधानी का नाम है। यही नहीं, लखनऊ को लखनौ लिखा जाता है। यूपी, असम वालों को ऐतराज हो तो हो उनकी बला से !

कुछ लोग तो गुरुग्राम के पीछे कुरुग्राम भी देख सकते हैं। भई कुरुजनपद के सारे ग्राम कुरुग्राम हो सकते हैं। भोलानाथ तिवारी ने कूड़ेभार कस्बे का सही नाम खोज निकाला था। कूड़ेभार को उसके मूल नाम ‘कूचा-ऐ-बहार’ से पुकारे जाने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है !

इसी तरह पूर्वी उत्तरप्रदेश का जीयनपुर किसी ज़माने में ज्ञानानन्दपुर था और अंग्रेजों ने उसे G.N.PUR कर दिया जो घिस कर जीयनपुर हो गया। अब इसमें ज्ञानानन्दपुर के आनन्दी नागरिकों की क्या गलती जो उन्हें एक सुन्दर नाम से वंचित कर दिया जाए! वे अगर जीयनपुर से खुश हैं तो उसमें भी क्या बुराई !

पश्चिमोत्तर की अनेक बस्तियों को अंग्रेजों ने डीआई खान, डीजी खान जैसे नाम दे दिये थे जो मूलतः डेरा इस्माइल खान या डेरा ग़ाज़ीखान थे। क्या कर लेंगे आप! जयपुर की मिर्ज़ा इस्माइल रोड, एमआई रोड हो जाती है तो क्या लोगों की ज़बान काट लेंगे!

पूरब में मछलीशहर है तो दक्षिण में मछलीपट्टनम है। बात एक ही है। अब क्या दोनों को मत्स्यपुर कर दिया जाए! कुछ सौ साल बाद घिस-घिसा कर मच्छपुर > मछउर > मछौर हो जाएँगे। थोड़ा आगे मैसूर और इधर मछौर! अब एक शायर को तो अपने शहर से क़दर प्यार था कि नाम ही 'सलाम मछलीशहरी' रख लिया।

तो नाम में क्या रखा है। भाषा की टकसाल में छपे नाम सीधे दिलो-दिमाग़ पर दर्ज़ होते हैं। गुड़गाँव हो या गुरुग्राम, जिसे जो बोलना है, ज़बान से वही निकलेगा। अब हमें तो गुड़गाँव के अंग्रेजी हिज्जे Gurgaon के पहले पद में Gurga नज़र आ रहा है। गौरतलब है फ़ारसी के गुर्ग से ही हिन्दी का गुर्गा आया है जिसका अर्थ भेड़िया है। प्रचलित अर्थ में गुर्गा अब भाड़े के बदमाशों के लिए इस्तेमाल होता है।

इससे क्या? बाल की खाल निकालने वाले यह सब करते रहेंगे। गुरुग्राम को द्रोणाचार्य का गाँव माने या गुरु-ग्राम यानी किसी ज़माने का संकुलकेन्द्र मानते हुए उसका गुरुत्व स्वीकारें। गुरु तो गुरु ही रहेगा। चाहे गुड़ हो, शकर। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो गुरु को ‘छिच्छक’ कहते हैं और शिक्षा को सिच्छा। अब बोलिये?

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Wednesday, December 7, 2016

हे गणमान्य !! हे गण्यमान्य !!!



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णमान्य’ और ‘गण्यमान्य’ को लेकर हिन्दी में बड़ा झमेला है। हिन्दी में शब्दकोशों को अद्यतन न करने की वृत्ति पुरानी है। सामाजिक बदलाव का सबसे ज्यादा प्रभाव ‘भाषा’ और ‘भूषा’ अर्थात बोली और वेश पर नज़र आता है। भाषा का बदलाव नए मुहावरों, शब्दों के बरताव, उच्चारण और उसके बदलते मायनों में छुपा रहता है। इसे हिन्दी के शब्दकोश दर्ज नहीं करते। प्रायः सौ-सवा सौ वर्ष पुराने ज़माने के शब्दभंडार से हम आज भी काम चलाते हैं जबकि इस बीच हिन्दी ने लम्बा सफर तय कर लिया है।

दलते वक्त के साथ अनेक शब्द नए अवतार में सामने आते हैं और अनेक शब्दों का प्रयोग खत्म हो जाता है पर हमारे शब्दकोश इसे दर्ज़ नहीं करते। यह भाषा के प्रति बड़ा अन्याय है क्योंकि लोकव्यवहार में जो शब्द नए रूप और अर्थ के साथ भाषा में घुलमिल जाते हैं शब्दकोश उसके दस्तावेज नहीं बनते। शुद्धतावादी लोग ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध करार देते रहते हैं और प्रमाण स्वरूप एक सदी पुराने कोश रख देते हैं जिनमें इन नए शब्दों-प्रयोगों का जाहिर है, कोई भी हवाला मिलने से रहा। कोशों को समय--सापेक्ष होना चाहिए न कि अपरिवर्तनीय। भाषा की प्रकृति सतत परिवर्तन है तब कोश की प्रामाणिकता समय-सापेक्ष होने में है।

सा ही एक शब्द है ‘गणमान्य’, जिसे गलत प्रयोग समझा जाता है और कोशों में संस्कृत के कहते में दर्ज ‘गण्यमान्य’ शब्द का हवाला देकर अक्सर इसे गलत ठहरा दिया जाता है। मेरा स्पष्ट मानना है कि ‘गणमान्य’ और ‘गण्यमान्य’ दोनों शब्द एक ही भाव को व्यक्त करते हुए दो अलग-अलग शब्द हैं। विनम्रता से कहना चाहूँगा कि ‘गणमान्य’ को ‘गण्यमान्य’ का अशुद्ध प्रयोग मानना सही नहीं।

रअसल ‘गण्यमान्य’ का प्रयोग असावधानीश समास की तरह किया जाता है जबकि यह शब्दयुग्म है और इसका सही रूप ‘गण्य-मान्य’ है। इसके बरअक्स ‘गणमान्य’ का चलन हिन्दी में समास की तरह होता है। ‘गणमान्य’ और ‘गण्य-मान्य’ अलग-अलग शब्द हैं और दोनों में बारीक मगर स्पष्ट अन्तर है जिसे समझा जाना ज़रूरी है। सबसे पहले ‘गण’ की बात करें। गण’ में समूह का आशय है। दल, झुण्ड, यूथ आदि। मनुष्यों का समूह भी गण है। ‘जनगण’ का अर्थ हुआ जन समूह। यूँ ‘जन’ का एक अर्थ समूह भी है।

‘गण’ में गणना का भाव भी है। गणना जो गिनती भी है। प्रकारान्तर से इसमें परख का भाव निहित है। ‘गण’ से बने ‘गणनीय’ का अर्थ हुआ गिनने योग्य। इस तरह गण्य का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है, जिसे गिना जाए या गिनने लायक। जिसकी माप-तौल-परख हो चुकी हो। तुच्छ, न गिनने योग्य, नाचीज़ के अर्थ में ‘नगण्य’ का अर्थ भी स्पष्ट है। तो ज़ाहिर है ‘गण्य’ वह है जो प्रतिष्ठित है, सम्मानित है, प्रभावशाली है।

ब बात ‘मान्य’ की जिसका मूल ‘मान’ है। यह भी संस्कृत की तत्सम शब्दावली से आ रहा है। ‘मान’ का सामान्य अर्थ है आदर, प्रतिष्ठा, इज्जत। सम्मान इससे ही बना है। यह भी दिलचस्प है कि जिस तरह ‘गण’ में गणना और प्रकारान्तर से परख का भाव है उसी तरह मान में भी माप-तौल-परख का भाव है। जिस तरह गण से ‘गणनीय’ का भाव गिनने योग्य होता है और इस तरह ‘गण्य’ से प्रतिष्ठित, सम्मानीय जैसी अर्थस्थापना होती है उसी तरह ‘मान’ से ‘माननीय’ बनता है जिसका अर्थ है जिसका मान किया जाए, मान के योग्य, मानने योग्य। इसका ही एक रूप ‘मान्य’ हो जाता है।

तो इस तरह गण्य-मान्य’ युग्मपद का अर्थ होता है जो प्रतिष्ठित भी हों, सम्मानित भी हों। अर्थात यह नामी-गिरामी, जाना-माना, मान-प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान जैसा पद है। कुछ विद्वान ‘गण्य’ का अर्थ “गण के द्वारा” लगाते हैं जो सही नहीं है। जिस तरह मान से बने ‘मान्य’ में माननीय यानी सम्मानित की अर्थवत्ता स्थापित होती है उसी तरह गण से बने ‘गण्य’ से गणनीय यानी प्रतिष्ठित का अर्थ निकलता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली बोलने के आदी समाज में ‘गण्य-मान्य’ बोलना सहज है किन्तु सामान्य हिन्दी भाषी ‘गण्यमान्य’ का उच्चार भी ‘गणमान्य’ या ‘गण्यमान’ करेगा।

हिन्दी की प्रचलित लोकधारा ने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली के ‘गण्यमान्य’ की बनिस्बत ‘गणमान्य’ जैसा ज्यादा आसान शब्द बनाया। ‘गणमान्य’ का अर्थ हुआ “समाज द्वारा मान्यता प्राप्त”। इसका भाव है- “जो सर्वसाधारण में लोकप्रिय, प्रतिष्ठित और सम्मानित है”। देखा जाए तो आशय ‘गण्य-मान्य’ जैसा ही है पर अर्थग्रहण की प्रक्रिया में पर्याप्त भिन्नता है। हिन्दी में ‘गण्य-मान्य’ को भी युग्मपद की तरह न लिखते हुए समास की तरह ‘गणमान्य’ लिखा जाने लगा, जो गलत है।

ब समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति के संदर्भ में जब ‘गणमान्य’ का प्रयोग होने लगा तब शुद्धतावादियों ने इसे गलत बताया, पर इस पर कभी विमर्श नहीं हुआ और न ही गलत बताने की वजह स्पष्ट की गई। रही-सही कसर आकाशवाणी के ज़माने के उद्घोषकों ने पूरी कर दी जिनके हवाले से शुद्धतावादी गण्यमान्य की पैरवी करते थे। दरअसल आकाशवाणी-दूरदर्शन के शैली-निर्देशों में प्रतिष्ठित, सम्मानित के अर्थ में ‘गण्यमान्य’ शब्द को ही मान्य किया गया था इसलिए इसका उच्चार होता रहा।

स्पष्ट है कि ‘गण्यमान्य’ और ‘गणमान्य’ दो अलग-अलग शब्द हैं। दोनों का अर्थ किंचित भिन्नता के साथ एक ही है। हिन्दी में ‘गणमान्य’ प्रचलित है, गण्यमान्य नहीं। ‘गणमान्य’ को ‘गण्यमान्य’ का अशुद्ध रूप समझना दरअसल खामखयाली है। सच तो ये है कि ‘गण्यमान्य’ लिखना ही ग़लत है। इसका सही रूप गण्य-मान्य है जो हिन्दी में अल्पप्रचलित है। हिन्दी में गणमान्य शब्द का ही प्रयोग अधिक है और इसे अशुद्ध प्रयोग कहना गलत है। हमें गणमान्य ही लिखना चाहिए क्योंकि गण्यमान्य अपने आप में असंगत है। शब्दकोश अगर अद्यतन नहीं हो रहे हैं तब उनकी गवाही और प्रमाण भी हमेशा सही नहीं हो सकता। आज के दौर के हिन्दी के तमाम साहित्यकारों के यहाँ ‘गणमान्य’ का प्रयोग आप देख सकते हैं।
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Saturday, October 22, 2016

महिषासुर के कितने ठिकाने !!!


प्रा चीन भारतीय समाज में वृक्षों, जन्तुओं, नदियों की पहचान पर नामवाची संज्ञाएँ बनती रही हैं। चाहे व्यक्तिनाम हो, समूह नाम हो या स्थाननाम हो। जैसे सैन्धव, नार्मदीय, (सिन्धु, नर्मदा से) पीपल्या, बड़नगर, इमलिया, वडनेरकर (पीपल, इमली, वट से) गोसाईं, घोसी, गोमन्तक, गोवा (गाय से), हिरनखेड़ा, हिरनमगरी, हरनिया (हिरण से) आदि अनेक संज्ञाएँ सामने आती हैं।

ताज़ा महिषासुर प्रसंग में महिषासुर-दुर्गा को लेकर पाण्डित्य बह रहा है। आख्यानों के आख्यान रचे जा रहे हैं। इन मिथकीय आधारों का उल्लेख धार्मिक साहित्य में सर्वाधिक हुआ है। लोक ने अपनी कल्पना से इसमें बहुत कुछ जोड़ा। वह सब भी धार्मिक-सांस्कृतिक आधार बनता गया। मगर अब तो पुरातात्विक या नृतत्वशास्त्रीय स्थलों को भी मिथकों का प्रमाण मानते हुए मनमानी व्याख्या सामने आ रही हैं। यानी अगर सरस्वती देवी का दस सदी पुराना मन्दिर मिल जाए तो इसे पुरातात्विक प्रमाण मान लिया जाना चाहिए कि सरस्वती देवी थीं।

वेद-पुराण के प्रमाणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करने की ज़रूरत होती है। अनेक लोगों ने यह काम किया है। परम्पराओं, मान्यताओं और आख्यानों की तह में जाकर ही जनजातीय समाज और हिन्दूसंस्कृति की गहन बुनावट को समझा जा सकेगा। इस विषय पर डॉ भगवान सिंह जैसे विद्वान ही आधिकारिक तौर पर बेहतर लिख सकते हैं।

हम सिर्फ़ यही कहना चाहते हैं कि असुर, राक्षस जैसे नामों को लेकर एक नकारात्मक कल्पना हमारे समाज का दोष है। शिक्षानीति में भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। मूलतः ये जातीय समूह रहे हैं और अलग अलग कालखण्डों में ये प्रभावशाली रहे हैं, बात इतनी भर है। कल की अनेक क्षत्रिय जातियाँ आज हीन सामाजिकता झेल रही हैं। बुंदेलखंड पर राज करने वाले खंगार क्षत्रिय अब कोटवार या चौकीदार के तौर पर जाने जाते हैं।

देशभर में पसरी पड़ी भैंस या महिष की संज्ञा वाली बस्तियों को आज भी पहचाना जा सकता है। स्वाभाविक है कि वहाँ भैंस प्रजाति की बहुतायत होगी। यह भी संभव है की यह किसी समूह की टोटेम पहचान हो जिसके आधार पर उस स्थान को नाम मिला। क्या देश के एक खास क्षेत्र को काऊबैल्ट या गोपट्टी नहीं कहते ? भैंस शब्द 'महिष' से निकला है जिसमें शक्ति, बल का भाव है। मूलार्थ है सूर्य। स्वाभाविक है कि कृषि के लिए जिस काल में भैंसे का प्रयोग होने लगा तब शक्ति व बल के आधार पर उसे भी यही नाम मिल गया।

यूँ महिष का मूल भी मह् से है जिससे महान शब्द बनता है। महान यानी बलवान, शक्तिवान। बिहार में महिषी, मध्यप्रदेश में भैंसदेही, भैंसाखेड़ी गढ़वाल में भैंसगाँव, पूर्वांचल में भैंसाघाट, निमाड़ में माहिष्मती, पश्चिम बंगाल में महिषादल, महेश्वर, मराठवाड़ा में म्हैसमाळ और कर्णाटक में मैसूर (महिषासुर) जैसे स्थान-नामों से क्या साबित होता है? यही कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास में महिष एक महत्वपूर्ण जनजातीय प्रतीक रहा है।

मैं अनेक जनजातीय क्षेत्रों में गया हूँ। उन समाजों में बड़ादेव (बूढादेव< बुड्ढ < वुड्ढ < वृद्ध= सर्वोच्च) की पूजा होती है। यह बड़ादेव मूलतः शिव हैं। गौर करें, शिव को देवाधिदेव या महादेव कहते हैं। क्या ये नाम जनजातीय बड़ादेव का ही रूपान्तर नहीं? शिव जो स्वयं बलशाली हैं, ‘महा’ हैं, महेश कहलाते हैं। महेश यानी महा + ईश। वही बड़ादेव का रूपान्तर। पर मूल महेश को देखें तो यह महिष से उद्भूत है। यूँ भी महिष का अर्थ शक्तिवान, बलवान है। महिषी उसका स्त्रीवाची है। प्राचीनकाल में राजमहिषी इसीलिए रानी को कहते थे। शिव का वाहन नन्दी है।

‘साण्ड’ शब्द ‘षण्ड’ से उद्भूत है जिसका अर्थ है शिव। जो जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। प्रायः असुरों ने उन्हें तप से पाया है। अनेक कथाओं में शिव स्वयं संतान बनकर भक्तों को कृतार्थ करते नज़र आते हैं। उन्हें असुरों का देव भी कहा गया है। शिव अगर संहारक हैं तो संहार का सामना भी तो करते होंगे? गौर करें हमारे गोत्रनामों में भी भैंसा है। शाण्डिल्य गोत्र में भी यही षण्ड हो सकता है, गो कि इससे मिलते जुलते ऋषिनाम भी है। सण्डीला नाम का एक कस्बा है। राजस्थान में सांडेराव भी है। और भी मिल जाएंगे। बंगालियों का सान्याल उपनाम, शाण्डिल्य का ही रूपान्तर है।

गौवंश में भैंसे की ही तरह बलशाली बैल होता है। बल से ही बैल नाम पड़ा है। यह बैल भी गाय की तरह ही संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ता है। तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा कि धर्म कठिन रास्ता है। किसी भी विवाद को उस रास्ते पर न ले जाया जाए। हम संस्कृति को समझें जो निरन्तर परिवर्तनशील है। बेहद सावधानी से हमें इतिहास की परतों को टटोलते हुए उसके उन सिरों का परीक्षण करना होता है जो वर्तमान तक आते हैं। ऐसा न करने पर हमारे सामने भविष्य का रास्ता भी दिशाहीन हो जाता है।
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Wednesday, September 21, 2016

जलकुक्कड़ और तन्दूरी-चिकन


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छली पोस्ट में हमने वामियों के सन्दर्भ में ‘जलकुक्कड़’ का प्रयोग किया जिस पर सफ़र के साथी प्रदीप पाराशर ने जिज्ञासा दिखाई। ‘जलकुक्कड़’ एक मुहावरा है जो आमतौर पर ईर्ष्यालु के सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है। यूँ इसमें शक, शंका, कपट, संदेह या डाह करने का भाव है। ‘सौतिया-डाह’ वाली जलन को मुहावरे में भी खूब महसूस किया जाता है। गौर करें, ये सभी भाव अग्नि से जुड़ते हैं। संदेह, शक या शंका दरअसल एक चिंगारी है। ‘डाह’ तो सीधे-सीधे दाह का ही रूपान्तर है। संस्कृत में ‘दह’ का आशय तपन, ताप, अगन, जलन, झुलसन से है।

जलकुक्कड़ में जो जल है वह ज़ाहिर है दाह या जलन वाले ‘जल’ के अर्थ में है न कि पानी वाले अर्थ में। कुक्कड़ यानी मुर्ग़। कुक्कड़ संस्कृत के कुक्कुट का देशी रूप है। कुक्कुट का कुर्कुट रूपान्तर होकर कुक्कड़ बना, ऐसा कृपा कुलकर्णी मराठी व्युत्पत्तिकोश में लिखते हैं। वैसे कुक्कुट से कुक्कड़ बनने के लिए कुर्कुट अवतार की ज़रूरत नहीं। ‘ट’ का रूपान्तर ‘ड़’ में होने से कुक्कुट सीधे ही कुक्कड़ बन जाता है।

जलकुक्कड़ को समझने के लिए “जल-भुन जाना” मुहावरे पर गौर करें। शरीर का कोई अंग आग के सम्पर्क में आने पर झुलस जाता है। जल-भुन वाले मुहावरे में यही जलन है। दूसरा मुहावरा देखिए- “जल-भुन कर कबाब होना”। कबाब एक ऐसा व्यंजन है जिसे सीधे तन्दूर पर या तवे पर खूब अच्छी तरह भूना जाता है। जब ज्यादा ही “अच्छी तरह” भून लिया जाए तो वह जल-भुन कर कोयला हो जाता है, कबाब नहीं रह जाता।

एक अन्य पद देखिए- “तन्दूरी-मुर्ग़”। मुर्ग़े को जब आग पर सालिम भूना जाता है उसे ही तन्दूरी-मुर्ग़ कहते हैं। कहते हैं, ये बेहद लज़ीज़ होता है। अब अगर इसका हाल भी कबाब जैसा हो जाए तो? आशय ईर्ष्याग्नि से ही है। ऐसा आवेग, उत्ताप जो मौन या मुखरता से झलके। इस कुढ़न को ही ये तमाम मुहावरे अभिव्यक्त कर रहे हैं। जलकुक्कड़ में भी यही आशय है।

कई बार पूछा जाता है कि फलाने का क्या हाल है? जवाब आता है कि खबर सुनने के बाद से “तन्दूरी-मुर्ग़” हो रहे हैं। कई लोग जो स्वभाव से दूसरों की खुशहाली देख कर कुढ़ते रहते हैं, हमेशा डाह रखते हैं या अपनी ईर्ष्या का प्रदर्शन करते रहते हैं उन्हें स्थायी तौर पर जलकुक्कड़ का ख़िताब मिल जाता है। वे हमेशा ईर्ष्या के तन्दूर पर जलते रहते हैं। ईर्ष्या की आग जिसमें तप कर कुन्दन नहीं कोयला ही बनता है। ऐसे ही लोगों के लिए हिन्दी में जलोकड़ा या जलोकड़ी जैसे विशेषण भी हैं। कभी कभी सिर्फ़ जलौक भी कह दिया जाता है।

प्रसंगवश बताते चलें कि कुक्कुट दरअसल ध्वनिअनुकरण के आधार पर बना शब्द है। संस्कृत में एकवर्णी धातुक्रिया ‘कु’ में दरअसल ध्वनि अनुकरण का आशय है अर्थात कुकु कुक या कुट कुट ध्वनि करना। कोयल, कौआ, कुक्कुट और कुत्ता में ‘कु’ की रिश्तेदारी है । दरअसल विकासक्रम में मनुष्य का जिन नैसर्गिक ध्वनियों से परिचय हुआ वे ‘कु’ से संबंद्ध थीं। पहाड़ों से गिरते पानी की , पत्थरों से टकराकर बहते पानी की ध्वनि में कलकल निनाद उसने सुना। स्वाभाविक था कि इन स्वरों में उसे क ध्वनि सुनाई पड़ी इसीलिए देवनागरी के ‘क’ वर्ण में ही ध्वनि शब्द निहित है। सो मुर्ग़ का कुक्कुट नामकरण दाना चुगने की ‘कुट-कुट’ ध्वनि के चलते हुआ। अंग्रेजी का कॉक cock भी इसी आधार पर बना है।

इसे भी देखें- कुक्कुट

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Tuesday, September 20, 2016

बालों की दवाई, शिकाकाई, कहाँ से आई...


सा बुन जैसी चीज़ का कभी प्राचीन भारत में चलन था या नहीं, इस पर हम अलग पोस्ट लिख चुके हैं। हाँ, त्वचा और बालों की देखभाल के देसी तरीकों का उल्लेख आयुर्वेद में है। शिकाकाई, रीठा, आँवला जैसी दर्जनो वनौषधियों का प्रयोग हिन्दुस्तान में होता आया है। ख़ैर, शिकाकाई बेहद लोकप्रिय ओषधि है और इसके इस्तेमाल की विधियाँ अब विदेशी कास्मेटिक्स में भी नज़र आती हैं। मूलतः यह द्रविड़ भाषा का शब्द है और तमिळ के ज़रिये भारतीय भाषाओं में प्रसारित हुआ है।

सिगा, सिगाई और जूड़ा
जानते हैं शिकाकाई शब्द की जन्मकुण्डली। जब पढ़ते थे तब शिकाकाई शब्द जापानी भाषा का लगता था। पिछली बार जब सोलापुर गए तो इस सन्दर्भ में कुछ बातें पता चली थीं। वहाँ के पुराने बाज़ार में तरह-तरह की जड़ीबूटियाँ बिक रही थीं। कुछ दवाओं और तेल आदि के विज्ञापनों में बालों का जूड़ा प्रदर्शित था। सोलापुर का आन्ध्रप्रदेश से गहरा सम्बन्ध है। वहाँ तेलुगुभाषी बहुतायत रहते हैं। बहरहाल, एक ऐसी दुकान पर भी पहुँचे जहाँ विशुद्ध रूप से बालों की देखभाल वाली जड़ीबूटियाँ ही थीं। वहाँ जूड़े के लिए अनेक लोगों के मुँह से ‘सिगा’ अथवा ‘सिगाई’ शब्द सुना।

शिखण्डी से रिश्तेदारी
जब उन्हें बताया कि मैं मराठी हूँ तो दुकानदार ने सिर की तरफ़ इशारा किया, शेंडी शेंडी। मराठी में शेंडी का अर्थ होता है जूड़ा या सिर के बीच लपेट कर रखी चुटिया। शेंडी बना है शिखण्डिका से। शिख+ अण्ड में शिखण्ड यानी जूड़े का भाव है। शिख यानी सिर के सबसे ऊँचे हिस्से पर बालों से बनाया अण्डाकार गुच्छा यानी शिखण्ड। संस्कृत में इसके लिए चूड़ा शब्द भी है। चूड़ाकरण का अर्थ मुण्डन भी होता है। चूड़ा का ही अगला रूप जूड़ा है।

सिका, सिकु, सिक्कम्
बहरहाल, शिखण्डिका के शिख या शिखा से अचानक तेलुगू का ‘सिगा’ पकड़ में आ गया जो अन्यथा नहीं आता। चार्ल्स फिलिप ब्राऊन के तेलुगू कोश में सिगा और सिका दोनों की प्रविष्टि है और उसका अर्थ जूड़ा, चोटीगुच्छ, चूड़ा या शिखा आदि ही बताया गया है। तमिळ लैक्सिकन में इसके कई रूप प्रचलित हैं जैसे- सिका, सिक्कु, सिक्कम्, सिकाईताटू, सिकरिन, सिकुरम आदि। इनके संस्कृत रूपान्तर की कल्पना की जा सकती है मसलन शिखा, शिखु, शिखरम्, शिखरिणी आदि। द्रविड़ भाषाओँ में संस्कृत की तत्सम शब्दावली के नितान्त देसी रूप इस तरह घुले-मिले हैं कि यह कहना कठिन है कि संस्कृत ने द्रविड़ को प्रभावित किया है द्रविड़ ने संस्कृत को।

काई यानी फल, सिका यानी शिखा
गौरतलब है कि तमिल में काई यानी kay फल के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अनेक सन्दर्भों में इसका अर्थ कच्चा फल, सूखा फल भी दिया गया है। तो सिका-काई का अर्थ हुआ शिखा- काई अर्थात चूड़ा-फल या शिखाफल। ज़ाहिर है कि इस नामकरण के पीछे बालों के काम आने वाला फल से ही तात्पर्य है। शिकाकाई का वानस्पतिक नाम अकेशिया कोनसिन्ना है।

शेखर और शिखरिणी
शिकाकाई ज्यादातर गर्म जलवायु में पैदा होने वाली झाड़ी है। इसका तेल भी बनाया जाता है और इसे पीस कर विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ भी बनाई जाती हैं। ध्यान रहे, शिव को शेखर कहते हैं क्योंकि वे सिर पर जटा बान्धते हैं। इसका रिश्ता गंगा से है। इसीलिए उसका नाम शिखरिणी भी है। पूर्वांचल के लोग अपने नाम के साथ शेखर लगाना पसंद करते हैं।

देखें फेसबुक पर शिकाकाई
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