Saturday, October 31, 2009

कभी धूप, कभी छाँव [बकलमखुद-112]

पिछली कड़ी-घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 112वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
गर के वातावरण के बदलाव ने सरदार के व्यवसाय को प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। एक वक्त था जब औद्योगिक विवादों और उन से संबंधित मुकदमों की इतनी भरमार थी कि एक बार श्रम न्यायालय में प्रवेश के उपरांत उसे समय ही नहीं मिलता था। जिस के परिणाम स्वरूप उस ने अपने सभी अपराधिक और दीवानी मुकदमों को दूसरे वकीलों को देना पड़ा था। एक औद्योगिक और श्रंम मामलों के वकील के रूप में उस की पहचान बन चुकी थी। दाल-रोटी के अलावा भी कुछ बचने लगा था। जिस ने यह संभव बनाया कि सरदार और छोटा भाई सुनील मिल कर तीसरे भाई अनिल का विवाह समाज में अपने पिता और परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप संपन्न कर सके। पिता की जिम्मेदारियों में अभी एक छोटे भाई को ब्याहना और शेष था।
श्रम न्यायालय सीधे राज्य सरकार के अधीन था और इस में जज न्यायपालिका से आते थे। नए जजों की कमी का सीधा असर इस पर पड़ा। एक जज का स्थानांतरण होता तो दूसरे जज की पदस्थापना में समय लगता। बद स्थापना हो जाने पर भी जब तक जज के नाम से अधिसूचना गजट में प्रकाशित न हो वह काम करने में असमर्थ रहता। सरकार का काम इतना सुस्त कि अधिसूचना के प्रकाशन में ही तीन-तीन माह निकल जाते। इस तरह कभी छह माह, कभी साल भर और कभी-कभी दो-दो साल तक श्रम न्यायालय खाली रहने लगा। वहाँ लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ने लगीं। पहले जिस मुकदमे में माह में दो बार पेशी हो जाती थी, अब उसी में चार और छह माह में एक पेशी होने लगी। मुकदमा जो दो से तीन साल में निर्णीत हो जाता था उसे निर्णीत होने में दस से पन्द्रह साल लगने लगे। इधर नगर के पुराने उद्योग बंद हो रहे थे और नए लग नहीं रहे थे। बड़ी संख्या में हुई छंटनी ने मजदूरों को मालिकों की शर्तों पर काम करने, यहाँ तक कि कानूनी बाध्यताओं से भी कम वेतन और सुविधाओँ पर काम करने पर बाध्य कर दिया था। नगर में श्रमिक आंदोलन कमजोर पड़ जाने से श्रम विभाग ने श्रम कानूनों की पालना कराने में ढिलाई बरतनी आरंभ कर दी।
गर में जहां न्यूनतम वेतन से कम पर किसी को काम पर रखना असंभव था। न्यूनतम मजदूरी से कम पर श्रमिकों से काम लिया जाने लगा। कानूनी रूप से ओवरटाइम की दर दुगनी देना बाध्यकारी होने पर भी श्रमिक सामान्य दर पर काम करने को बाध्य हो गए। नए औद्योगिक मुकदमों की संख्या कम होने की आहट आ रही थी। इन परिस्थितियों में सरदार को लगने लगा कि यदि अपने काम को केवल श्रम और औद्योगिक कानूनों तक ही सीमित रखा तो दाल-रोटी भी खटाई में पड़ सकते हैं। उस ने फिर से दीवानी, फौजदारी और विविध कानूनों से संबंधित मुकदमों का काम करना आरंभ कर दिया। यह सफर आसान नहीं था। दीवानी विधि में कानूनों की भरमार थी। हर नया मुकदमा नयी चुनौतियाँ ले कर सामने आता। हर नए मुकदमे के लिए कानून को नए सिरे से समझना पडता। लगातार अध्ययन बहुत आवश्यक था। यह सब कम चुनौतियों से भरा नहीं था। अब सरदार का समय इस अध्ययन में लगने लगा और पैसा किताबों और दूसरी सामग्री जुटाने में। लेकिन श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। अनवरत श्रम ने नए प्रकार के मुकदमों में सफलता दिलायी और यह काम फिर चल निकला।
च्चे उम्र और पढ़ाई के उस मुकाम पर पहुँच गए थे कि घर छोटा पड़ने लगा था। घर का भूतल पूरा निर्माण कराना जरूरी हो गया था। एक-दो मुकदमों में अच्छी फीस मिली तो घर विस्तार आरंभ कर दिया। वह पूरा हुआ तब पता लगा कि बाजार का कर्ज हो गया है। फिर एलआईसी काम आई। उस से कर्ज ले कर भार उतारा। परेशानी कुछ कम हुई। एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। कोटा के बाहर जाना पड़ता था। उन्हें अच्छी खासी रकम मुआवजे में मिली। वे फीस देना चाहते थे। एक दिन पीछे लग गए। कार खरीदनी है। शोरूम ले गए। बैंक से कार फाइनेंस कराई, मार्जिन खुद दिया, कार सरदार के घर पहुँच कर खड़ी हो गई। अब कार चलाना सीखना था। लोगों ने इंस्टीट्यूट जाने का सुझाव दिया। पर सरदार एक टैक्सी ऑनर मित्र को लेकर सीखने निकला। पहले ही दिन 60-62 किलोमीटर गाड़ी चलवा दी। उस से अगले रविवार एक जूनियर को ले कर निकला तो इतनी ही और चला ली। वापस लौटे ही थे कि टैक्सी ऑनर मित्र भी आ गए। उन्हों ने भी इतनी ही चलवाई। कार फिर भी घर ही खड़ी रही। एक मित्र को कहा –मैं तकरीबन पोने दौ सौ किलोमीटर अभ्यास कर चुका हूँ, जरा जाँचिए तो सही कितना सीखा है? अगले रविवार उन्हों ने परीक्षा ली, शहर में ही तीस किलोमीटर कार चलवा दी और कह दिया कल से अदालत ले कर जाओ। सरदार अगले दिन कार लेकर निकला तो एक ऑटोरिक्षा बंपर को पिचका कर निकल गया। छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ बाद में भी हुईं पर हमेशा गलती औरों की होती। कई बार लोगों ने गलती करते हुए कार ठोकने की कोशिश की, लेकिन अपनी कोशिशों से सरदार बच गया। अब तो हालत यह है कि वह यह सोच कर वाहन चलाता है कि सड़क पर सब उसी को ठोकने निकले हैं और उसे खुद को बचाते हुए अपना वाहन चलाना है।
जीवन ठीक चल रहा था कि परिस्थितियों ने अचानक फिर बड़ा आघात दिया। एक सड़क दुर्घटना ने छोटे भाई सुनील को लील लिया। उस ने परिवार को ऐसा संभाला था कि सरदार उस ओर से पूरी तरह निश्चिंत हो चला था। उस का सार्वजनिक कामों का दायरा इतना विस्तृत था की बारां नगर का कोई भी सामाजिक काम उस से अछूता नहीं रह गया था। सरदार जब बारां पहुंचा तो पूरा नगर शोक में डूबा था, बाजार पूरी तरह बंद। वह प्राइमरी का मास्टर था, लेकिन उस के काम ने उसे आम लोगों के बीच इतना बड़ा बना दिया था कि उस की उपेक्षा असंभव थी। क्षेत्र के विधायक, सांसद, मंत्री और सभी राजनैतिक लोगों को उस के निधन पर शोक जताने घर आना पड़ा था। इस घटना से परिवार फिर संकट में आ खड़ा हुआ था। सुनील की पत्नी और दो बच्चे, माँ और एक अविवाहित छोटा भाई फिर से सरदार और अनिल के सहारे हो गए थे। पहले तो यह भी लगा कि सब को कोटा ही साथ ले आया जाए। लेकिन सबने तय किया कि अभी साल भर यहीँ रहेंगे। सुनील के काम के प्रभाव ने असर किया, तीन माह बीतने के पहले ही उस की पत्नी को उसी स्कूल में नियुक्ति मिल गई जहाँ वह पढ़ाता था। संकट कम हुआ। परिवार फिर से मुकाम पर आने लगा।
बेटी विज्ञान की स्नातक हो गई। वह गणित अथवा किसी तकनीकी विषय में स्नातकोत्तर होना चाहती थी। लेकिन उस ने कोटा में पढ़ने से इन्कार कर दिया। उस के लिए कॉलेज की तलाश आरंभ हो गई। वनस्थली विद्यापीठ में एमसीए और स्नातकोत्तर गणित के लिए आवेदन किया। एमसीए के लिए प्रवेश परीक्षा भी ली गई लेकिन उसे अपनी चाहत, गणित स्नातकोत्तर में प्रवेश मिल गया। उन दिनों सरदार को लगा था कि कैसे बच्चों के बाहर पढ़ने का खर्च वहन किया जा सकेगा। अब यह भी लगने लगा था कि बच्चों की पढ़ाई के इस व्यय के लिए उसे आरंभ से ही कुछ बचाना चाहिए था। फिर वह पीछे नजर दौड़ाता तो उसे दिखाई देता कि कभी ऐसा अवसर ही नहीं मिला कि वह कुछ बचत कर सकता। कभी कुछ बचने लगता भी तो अचानक हुई घटनाओं ने उसे असंभव बना दिया। लेकिन आर्थिक कारणों से बच्चों के मासूम सपनों को कत्ल तो नहीं किया जा सकता था। मित्रों ने उस में साहस पैदा किया, कि जब इतना किया है तो यह भी कर लोगे। सरदार ने इसी सोच के साथ कि कुछ भी क्यों न करना पड़े? बच्चों की पढ़ाई में वह कोई व्यवधान न आने देगा, बेटी को वनस्थली विद्यापीठ छोड़ा।

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Friday, October 30, 2009

मंडी, महिमामंडन और महामंडलेश्वर [आश्रय-17]

पिछली कड़ी-गंज-नामा और गंजहे [आश्रय-16]sri_yantra_color

चां आवासीय क्षेत्रों की पहचान आमतौर पर बाजार या कारोबारी इलाके के रूप में भी होती रही है। इनमें मंडी या मण्डी भी बहुप्रचलित नाम है। कुरावर मंडी, मंडीबामोरा, मंडी हसोद जैसे नाम तो हैं ही इसके अलावा हिमाचल प्रदेश का मण्डी शहर भी इसी कड़ी में आता है। मंडी का अर्थ आज विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के क्रय-विक्रय के विशिष्ट केंद्र के अर्थ में रूढ़ हो गया है जैसे सब्जी मंडी, धान मंडी, गल्ला मंडी, अनाज मंडी, दाल मंडी आदि। गौर करें ये सभी मंडियां इनके पहले जुड़े वस्तुनाम के बाजार के रूप में जानी जाती रही हैं, मगर साथ ही इनकी पहचान आवासीय क्षेत्र के रूप में भी रही है क्योंकि व्यापारिक केंद्रों के बस्तियों में बदलने का क्रम बहुत पुराना है और जारी है। इस कड़ी में जिस्म की मण्डी जैसे शब्द प्रयोग का उल्लेख भी होना चाहिए।
प्राचीन काल से ही आश्रय के रूप में सबसे पहले मनुष्य को छत की ज़रूरत महसूस हुई। प्राकृतिक आवास यानी वृक्षों की कोटर और पर्वतीय कंदराओं में निवास करनेवाला मनुष्य जब विकास क्रम में आगे बढ़ा तब कृषि संस्कृति की शुरुआत हुई। जाहिर था, मनुष्य को अब खुले मैदानों में अपना ठिकाना बनाना था। खुले मैदानों में आश्रय का निर्माण 3_flatiron_favorites3 अधिक कठिन था। इसमें चाहरदीवारी के साथ साथ छत की व्यवस्था भी खुद ही करनी थी। छप्पर तानने के लिए किसी आधार की जरुरत होती है। टहनियों को मोड़कर सबसे पहले मनुष्य ने छप्पर बनाने की आसान तरकीब ईजाद की। आज की तिरछी छतों का प्राचीन रूप था यह। सड़क किनारे बंजारों की झोपड़ियां इसी तकनीक से बनती हैं। कुट् धातु में टेढ़ेपन या वक्रता का भाव है। कुटिया, कुटीर इसी धातु से बने हैं। इसका अगला रूप हुआ मण्डप। एक ऐसा आच्छादन जो चार पायों पर स्थिर रहता है। मण्डप बना है मण्ड् धातु से जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है। घेरा, वलय, दायरा से लेकर आच्छादन जैसे आश्रय के विभिन्व भाव इस धातु में निहित हैं। मूलतः मण्ड् धातु में आधार, ऊपर उठना जैसे भाव निहित हैं।
मंडी शब्द के मूल में भी यह मण्ड् धातु झांक रही है। आज जो मंडी समूहवाची शब्द है वही किसी वक्त इकाई थी। संस्कृत के मण्डपिका शब्द का अपभ्रंश है मंडी जिसका मतलब है छोटा चंदोवा, छप्पर, छाजन आदि। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक प्राचीनकाल में व्यापारियों पर लगनेवाले बिक्रीकर को भी मण्डपिका कहा जाता था। समझा जा सकता है कि सार्वजनिक स्थान पर कारोबार करने की एवज में शासन यह शुल्क लेता होगा। मण्डप, मंडपी या मण्डपिका में सामान्य तौर पर दुकान का भाव उभर रहा है। मुगलकाल में इसे तहबाजारी कहा जाता था। स्थानीय शासन आज भी छोटे दुकानदारों या फुटपाथ पर सामान बेचनेवालों से तहबाजारी शुल्क वसूलता है। धीरे धीरे। मण्डी शब्द बड़े और संगठित बिक्री केंद्र के लिए प्रयुक्त होने लगा। संस्कृत के मण्डप शब्द का सांस्कृतिक महत्व है। लोक-संस्कृति में मण्डप शब्द का मतलब एक छायादार स्थान होता है जहां बहुत से लोग बैठ सकें। मण्डप शब्द में उत्सवधर्मिता है जो समूह से जुड़ी है। लग्नमण्डप, यज्ञमण्डप जैसे शब्दों से यह स्पष्ट है। मंदिरों के गुम्बद को भी मण्डप कहा जाता है। मण्डप भरना एक मुहावरा है जिसका मतलब किसी आयोजन की शोभा बढ़ने या उसमें लोगों की शिरकत से है। बाजार या दुकान के अर्थ में मंडी शब्द को मण्डप या मण्डपिकाकी छाया में समझा जाना चाहिए। एक समुचा घिरा हुआ, आच्छादित क्षेत्र जहां क्रय-विक्रय की गतिविधियां संचालित होती हों, उसे मंडी कहा जाएगा। मंडी का मौजूदा स्वरूप भी यही होता है। कतार में बने हुए मण्डप या शेड ही इसे मंडी का रूप देते हैं जिसके नीचे दुकानदार सामान बेचते हैं। झोपड़ी या कुटिया के लिए हिन्दी की बोलियों में मढ़ई, मडवई, मढ़ी आदि शब्द हैं। इसका उद्भव भी मण्डप या मण्डपिका; मण्डइआ,मढ़इया,मढ़ई के क्रम में हुआ है। राजस्थानी और मालवी में बहुमंजिला प्रासाद या अट्टालिका के लिए मेड़ी शब्द प्रचलित है। मेड़ी तानना का अर्थ होता है ऊंचे भवन का निर्माण करना यानी भाव खुशहाली के दौर से है।
ण्ड् धातु में घेरा, वलय या गोलाकार का भाव है जिसमें एक सीमांकित क्षेत्र का अभिप्राय है। मण्डल शब्द इससे ही बना है जिसमें राज्य, क्षेत्र, घेरा, वृत्त, गेंद, प्रदेश, राज्य जैसे भाव हैं। प्रशासनिक व्यवस्था के तहत हिन्दी में अंग्रेजी के डिविजन के लिए कई इलाकों में

चलते चलते - हिन्दी में चावल के स्टार्च को माण्ड कहा जाता है। गौर करें यह एक किस्म का फेन होता है जो चावल को उबाले जाने पर ऊपर की ओर उठता है। यहां उभरने के गुण की वजह से ही चावल से निसृत चिपचिपे पदार्थ को मण्डः कहा गया है जिससे हिन्दी में माण्ड या माड़ बना है।

मण्डल शब्द का इस्तेमाल होता है जैसे रेल मण्डल, मण्डल अधीक्षक आदि। अलग अलग विभाग भी अपने प्रशासनिक क्षेत्रों के लिए मण्डल शब्द का प्रयोग करते हैं। परगना, सूबा, जिला, उपनिवेश आदि भी इसी दायरे में आते हैं। मण्ड धातु की रिश्तेदारी इंडो-यूरोपीय धातु men ले भी है जिससे ऊंचाई, उभार, सजाना, आधार प्रदान करना जैसे भाव हैं। गौरतलब है कि अंग्रेजी का mount, mountain जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं जिसमें आधार, उभार और ऊंचाई साफ झलक रही है। पर्वत शुरु से ही मनुष्य के आश्रय-आधार रहे हैं। मण्ड धातु में घेरा, घेरना जैसा भाव भी माऊंट में उजागर है। पर्वत एक विशाल क्षेत्र को घेरते हुए सीमांकन का काम करते हैं। हिन्दी में किसी खुले क्षेत्र की उठी हुई सीमारेखा या चहारदीवारी के लिए मेड़ शब्द प्रचलित है जो मण्ड् धातु से ही निकला है। इस धातु से ही बने हैं मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, मण्डलाधीश, मण्डलाधिपति जैसे शब्द जिनमें राजा, सम्राट, शासक अथवा धर्मगुरु का भाव है। आजकल मण्डलाधिकारी शब्द चलता है जो आमतौर पर डिस्ट्रक्ट मजिस्ट्रेट यानी कलेक्टर होता है।
ण्ड शब्द में सजावट, शृगार, आभूषित करना जैसे भाव भी हैं। गौर करें सज्जा में ही उभार ही प्रमुख होता है। किसी भी वस्तु, स्थल या देह पर शृंगार का उद्धेश्य उसे दर्शनीय बनाना या उभारना होता है। महिमा-मण्डन में यह स्पष्ट भी हो रहा है जिसका अर्थ है किसी के बारे में बढ़-चढ़ कर बताना। खण्डन-मण्डन में भी यह स्पष्ट है। भूमि पर चित्रांकन की कला को माण्डणा कहते हैं, जो इसी मूल से आ रहा है। माण्डणा भूमि सज्जा की प्रख्यात कला है और लोक-संस्कृति में यह रची बसी है। इसमें विभिन्न बिंदुओं और रेखाओं के माध्यम से एक क्षेत्र को घेरा जाता है फिर सुंदर आकृतियां उभारी जाती हैं। माण्डणा शब्द में मण्ड् धातु में निहित घेराव, उभार और सज्जा के भाव स्पष्ट हैं। किसी वस्तु को चारों ओर से घेरने, कसने या फ्रेम में बांधने के लिए मढ़ना शब्द का प्रयोग होता है जो इसी मूल से आ रहा है। अंग्रेजी के mound शब्द में भी यह भाव स्पष्ट हो रहा है। मण्डन का एक अर्थ वस्त्रधारण करना भी होता है। दोषारोपण के संदर्भ में आरोप मढ़ना मुहावरा भी प्रचलित है। इसमें आरोपों से विभूषित करने या आरोपों के दायरे में कसने जैसे भाव एकदम स्पष्ट हैं।
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Thursday, October 29, 2009

गंज-नामा और गंजहे [आश्रय-16]

04-16-08-xochitiotzin-dental-practice-in-market-blog ज्यादातर बाजार वस्तुओं का भण्डार ही होता है सो गंज की पहचान खजाना और भण्डार के तौर पर सही है।
छो टी बसाहटों के संदर्भ में हिन्दुस्तान में खुर्द, कलां की तरह गंज नामधारी आबादियां भी बहुतायत में मिलती हैं मसलन-गैरतगंज, पटपड़गंज, पहाड़गंज, सादतगंज, हज़रतगंज, नसरुल्लागंज वगैरह वगैरह। किन्हीं शहरों में एक से अधिक गंज भी होते हैं जिनका रुतबा मोहल्ले का होता है और किसी शख्सियत के नाम पर उनका नामकरण किया जाता है जैसे शिवपालगंज। श्रीलाल शुक्ल के मशहूर उपन्यास रागदरबारी के इस गांव के लोगों की पहचान ही गंजहा या गंजहे के तौर पर की जाती है। इस गंज का फैलाव न सिर्फ भारत बल्कि समूचे दक्षिण-पश्चिमी एशिया में देखने को मिलता है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ईरान, अज़रबैजान जैसे सुदूर इलाकों में भी ऐसी अनेक बसाहटें मिलेंगी जिनके साथ गंज शब्द जुड़ा हुआ है। गंज शब्द की आमद हिन्दी में फारसी से बताई जाती है। खासतौर पर बस्तियों के संदर्भ में गंज शब्द का फैलाव मुस्लिम शासनकाल में ज्यादा हुआ होगा क्योंकि ज्यादातर गंज नामधारी बस्तियों के आगे अरबी-फारसी की संज्ञाएं नज़र आती हैं। यूं गंज इंडो-ईरानी मूल का शब्द है और संस्कृत-अवेस्ता में इसकी जड़ें समायी हैं। मूलतः समूहवाची अर्थवत्ता वाले इस शब्द का संस्कृत रूप है गञ्ज जिसका मतलब होता है खान, खदान, घर, निवास, झोपड़ी, कुटिया। समूह के अर्थ में भी इसमें बाजार या मण्डी का भी भाव है। याद रखें कि गंज नामधारी ज्यादातर बस्तियां किसी ज़माने में बड़ा बाजार ही हुआ करती थीं। इसके अलावा गंज का मतलब होता है खजाना, भण्डार, आगार आदि। ज्यादातर बाजार वस्तुओं का भण्डार ही होता है सो गंज की पहचान खजाना और भण्डार के तौर पर सही है।
ञ्ज शब्द की मूल धातु है गंज्। इसमें निहित गन् ध्वनि पर गौर करें। संस्कृत की एक धातु है खन्वर्ग में के बाद आता है । ध्यान रहे कि प्राचीनकाल में मनुष्य या तो कन्दराओं में रहता था या पर्णकुटीरों में। छप्पर से कुटिया बनाने के लिए भूमि में शहतीर गाड़ने पड़ते हैं जिसके लिए ज़मीन को कुरेदना, छेदना पड़ता है। यहा खुदाई का भाव है। खन् में यही खुदाई का भाव प्रमुख है। गञ्ज के खाना, खान या खजाना वाला अर्थ महत्वपूर्ण है। खाना khana शब्द इंडो-ईरानी indian परिवार और इंडो-यूरोपीय परिवार का है जिसमें आवास, निवास, आश्रय का भाव है। संस्कृत की खन् धातु से इसकी रिश्तेदारी है जिसमें खनन का भाव शामिल है। खनन के जरिये ही प्राचीन काल में पहाड़ो में आश्रय के रूप में प्रकोष्ठ बनाए। हिन्दी, उर्दू, तुर्की का खाना इसी से बना है। खाना शब्द का प्रयोग अब कोना, दफ्तर, भवन, प्रकोष्ठ, खेमा आदि कई अर्थों में होता है मगर भाव आश्रय का ही है।
ञ्ज में इसी खन् की ध्वनि झांक रही है। ध्यान रहे कि पृथ्वी को रत्नगर्भा इसीलिए कहा जाता है क्योंकि पृथ्वी नानाविध पदार्थो, वस्तुओं का भण्डार है। मनुष्य के लिए सृष्टि का सबसे बड़ा उपलब्ध खजाना यही है। खजाना हमेशा गुप्त रहता है। इस रूप में खन् , गन् धातु ओं में खुदाई के अर्थ में दरअसल आश्रय, सुरक्षा का भाव प्रमुख है साथ ही पहले से सुरक्षित वस्तु की तलाश भी इसमें शामिल है। इसीलिए खान या खदान जैसे शब्द इससे बने हैं। धातु की खान दरअसल भण्डार ही है। सोने की खान को सोने का खजाना भी कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि गञ्ज में शामिल खजाना और निवास का भाव इसके पूर्व रूप खन् में निहित खुदाई के भाव से आ रहा है। गञ्ज का फारसी रूप गंज हुआ। कुछ भाषाविज्ञानी फारसी गंज का मूल तुर्की के गेन से मानते है जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव। यह भी संस्कृत खन् से ही जुड़ती है। कुरेदना, खरोचना, खोदना दरअसल धरती की परत के भीतर फैलाव और विस्तार करना ही है। प्रारम्भिक बस्तियां छप्परोंवाले आवास ही थीं। उसके बाद एक समूचे इलाके को शहतीरों से घेर कर गांव या मण्डल बनाए गए। खानाबदोशों, घूमंतुओं के डेरे ऐसे ही होते हैं। खानाबदोश शब्द भी इसी मूल का है। खाना यानी तम्बू, खेमा। दोश यानी कंधा। आशय उस समुदाय से है जो अपना घर हमेशा कंधों पर लिए घूमता है।
मुस्लिम शासनकाल में देश की कई बस्तियों के साथ खुर्द अर्था छोटी आबादी और कलां यानी बड़ी आबादी जैसे विशेषण जुड़े। मुस्लिम शासनतंत्र की राजस्व व्यवस्था के तहत हुआ। गंज नामधारी बस्तियां भी इसी तरह बसती रही क्योंकि जहां जहां खास किस्म की व्यापारिक गतिविधियां होती थीं, वे स्थान अपने आप मण्डी, बाजार, पत्तन, पाटण आदि का रुतबा पा लेते थे। बाद में सरकारी अधिकारी भी तैनात हो जाता था ताकि करवसूली हो सके। गल्लामण्डी को भी गंज ही कहते हैं। ज्यादातर आबादियां बाजार का विस्तार ही होती हैं। गंज शब्द भी इसका अपवाद नहीं है। इसकी समूहवाची अर्थवत्ता से भी यही साबित होता है। खजाना, कोश, ढेर, अम्बार जैसे अर्थ इससे जुड़े बाजार के भाव को उजागर करते हैं। मुग़लकाल में कई नई आबादियां भी सिर्फ कारोबारी गतिविधियों के लिए बसाई गईं थीं उन्हें भी गंज नाम से जाना जाता था।

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Wednesday, October 28, 2009

हे भीष्म पितामह, हम ब्लॉगर नहीं, पर वहां थे…

 alhbdblog 115 लाहाबाद में हए ब्लागिंग सेमिनार में एक दिवसीय शिरकत के बाद हम दिल्ली चले गए थे। वहां से आज सुबह ही वापसी हुई। इस बीच नेट से दूर रहा। अब रवि जी के सौजन्य से उपलब्ध करीब ढाई दर्जन लिंक्स को बारी-बारी से देखा। ब्लागिंग नहीं करता, ब्लागर नहीं हूं पर इस विधा और इस मंच का उपयोगकर्ता होने की वजह से इस विधा को समझने का उतना ही भ्रम मुझे भी है जितना यहां मौजूद कई लोगों को है ,जिनमें हिन्दुस्तान के अलावा विदेशों में बसे ब्लागिंग के आधा दर्जन से ज्यादा भीष्म पितामह भी हैं। तमाम बातों को दिलचस्पी से पढ़ा। हिन्दी का नाम जिस भी आयोजन से जुड़ा हो, उसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप, बहस-मुबाहसा, वितंडा, मान-मनौवल, लगाई-बुझाई न हो, यह असंभव है। इस बार भी यह होना ही था। बहस के किन्हीं आयामों पर बात करना तभी संभव हो सकता है जब उद्धेश्य किसी नतीजे पर पहुंचना हो। सजा या फतवा सुनाने की हिम्मत किए बगैर बहस के नाम पर सिर्फ अतीतगान और पंडिताई हो, तब उबासी आनी स्वाभाविक है।
alhbdblog 063 यह चित्र सुबह साढ़े नौ बजे का है। कार्यक्रम शुरु होने के करीब ढाई घंटे पहले। अनूप नजर आ रहे हैं और पीछे दीवार पर कुछ वायरिंग देख रहे हैं रवि जी। ब्रॉडबैंड के जरिये सबको तुरत-फुरत हाल बताने के प्रयासों में ये दोनों व्यस्त रहे। इनकी लगन को नमन् है। हम भी इनके साथ लगे थे, तमाशाई बन कर। आयोजन के आलोचक ज़रा ध्यान दें, ये दोनों आमंत्रित अतिथि थे।
alhbdblog 008 alhbdblog 011
alhbdblog 024 alhbdblog 030
alhbdblog 033 alhbdblog 050
alhbdblog 081 alhbdblog 078
alhbdblog 099 alhbdblog 089
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जो उबासी इलाहाबाद में नहीं आई, वह इन तमाम लिंक्स को पढ़ते हुए आई। हैरत है कि एक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा आयोजित सेमिनार, सम्मेलन, मीट से...जो चाहें कह लें, भाई लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसे व्यक्तिगत सम्मान का मुद्दा मानते हुए ब्लागजगत की अस्मिता से बलात्कार जैसी अश्लील शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। हिन्दी ब्लागिग के पुरोधा वे हैं। या तो इस पर वे कुछ कर सकते हैं, या माइक्रोसॉफ्ट। इनके बीच कोई और नहीं होना चाहिए। निमंत्रण न मिलने की बात कई लोगों ने कही। यह सरासर ग़लत और गलत तथ्य को सही करार देने जैसी बात है। इंडियन एकेडमी के ब्लाग पर बीते महिने के आखिरी हफ्ते में इस बारे में पोस्ट छपी थी जिसका मक़सद ही सबको न्योता देना था। हमने उसे पढ़कर ही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी से बात की थी और जाने का मन बनाया था। पर दिल्ली का कार्यक्रम तय होने से बाद में न जाने का फैसला किया था। आयोजन के दस दिन पहले फिर मन बदला क्योंकि कई साथियों के आने की सूचना मिली, सो एक दिन का कार्यक्रम बना डाला। इससे दो महिने पहले भी इस कार्यक्रम की सूचना अनूप जी ने दी थी और आने का आग्रह किया था। तब हमने आने-जाने का आरक्षण करा लिया था। हमें नहीं पता कितने लोगों को निमंत्रण मिला, पर हमने पोस्ट पढ़कर आयोजकों से सम्पर्क किया।
हिन्दिनी पर ई-स्वामी की ताजी पोस्ट पर अनूप शुक्ल की टिप्पणी से दो सौ फीसद सहमत हैं। इस संदर्भ में जिस तरह से नामवरसिंह को बुरा-भला कहा जा रहा है वह बेशर्मी की पराकाष्ठा है। आपने क्या ऐसा कर दिया है हिन्दी के लिए जिसकी वजह से नामवरजी से ज्यादा अवदान आपका माना जाए और उनके लिए इस किस्म की अभिव्यक्ति को सही ठहराया जाए? आप साहित्य के क्षेत्र के बहुत बड़े नाम हैं? आपका कोई सफल प्रकाशन है? आप जो ब्लागिंग का तकनीकी ज्ञान देते हैं, नामवरजी ने कभी उसमें ख़लल डाला है? आप लोग जो यह माने बैठे हैं कि आपकी वजह से हिन्दी ब्लागिंग इस मुकाम तक पहुंची है, कृपया इस मुगालते में न रहें। क्या इसे ही हिन्दी सेवा मान रहे हैं ? आप खुद किसी वक्त मठाधीश थे, अब  ब्लागिंग पर बढ़ती हिन्दी देख कर दूसरों को मठाधीश कह रहे हैं। हर एक को किसी मुद्दे पर अपनी राय रखने और उसे बदलने का हक है। आज नामवरजी अगर अपना मत बदल रहे हैं तो उसमें इतना बुरा क्या हो गया? ब्लाग के लिए चिट्ठा शब्द निश्चित ही वर्धा विश्वविद्यालय की देन नहीं है। नामवरजी को इसकी जानकारी नहीं रही होगी। यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि चिट्ठा शब्द का ब्लाग के लिए सर्वप्रथम प्रयोग करनेवाले का नाम उन्हें पता रहे। यह कोई श्रद्धांजलि कार्यक्रम नहीं था। अभी तो इस पर ही हिन्दीवाले एकमत नहीं होंगे कि हर चीज़ के हिन्दीकरण के क्या मायने है? विदेशी प्रतिभा से कोई प्रणाली सामने आ जाए, हम बस इतना कर दें कि उसका हिन्दी नाम रख दें!!! अजीब सिफ़त है हम हिन्दुस्तानियों की!! ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो, कोई नाम न दो साथियों.... चिट्ठा शब्द ही ब्लाग का सर्वमान्य पर्याय हो, ऐसा शिवशम्भुजी आकर कह गए थे क्या? सो नामवर जी ने कोई गुनाह नहीं किया है। इसके अलावा उन्होंने या किसी ने भी कोई आपत्तिजनक बात पूरे आयोजन में नहीं कही। हम पूरे अट्ठाइस घंटों के गवाह है।
ब्लाग नाम के चिट्ठारूप की जानकारी तो विभूतिनारायण राय को भी नहीं होगी। हमें अभी तमाम और लोगों को भी इन्हें ब्लाग की विधा से जोड़ना है। यह आयोजन इन्ही की पहल पर हुआ, यह बड़ी बात है। पर कुछ मठाधीश ऐसा नहीं होने देना चाहते। इनके पेट में दर्द होता है जब ये हिन्दी ब्लागरों की बढ़ती संख्या देखते हैं। इन्हें अपना वो छोटा सा कुनबा याद आता है जब अपनी ढपली बजा-बजा कर ये मस्त थे। इनका काम पांच सुरों से ही चल जाता था। सात सुरों की तो बात ही क्या? हिन्दी ब्लागिंग में यह लगातार हो रहा है कि जुमा जुमा पांच, छह साल पहले शुरू हुए संचार-संवाद के इस साधन को चंद तकनीकी जानकारों ने आपसी संवाद का जरिया बनाया। गपशप होने लगी। कुछ लिखते लिखते यह भ्रम भी पाल लिया कि हिन्दी की सेवा हो रही है। अन्य लोग जब इस समूह की गतिविधियों से उत्साहित हुए तब मठाधीशों के अंदाज़ में उनसे पेश आया जाता था। 2005-2006 में मुझे भी यह अनुभव हुआ। अहम्मन्यता का आलम यह था कि ब्लागिंग या अन्य समूहों से जुड़ने की इच्छा रखनेवालों को मठाधीश के अंदाज़ में ज्ञान दिया जाता था और टरकाया तक जाता था। मैं इसका भुक्तभोगी हूं। बाद में जब ब्लागर के आसान तरीके की वजह से 2007 से हिन्दी ब्लागिंग ने तेजी पकड़ी उनमें पत्रकारिता, रंगकर्म और कलाजगत से जुड़े लोग भी थे और सामाजिक कार्यकर्ता भी, तब इनकी धमक से घबराए लोगों ने खुद के लिए पितृपुरुष, भीष्म-पितामह जैसे शब्द गढ़ने शुरु कर दिए। पांच साल की परम्परा के इन भीष्म पितामहों को सोचना चाहिए कि हिन्दी गद्य की शुरुआत कब से हुई, उर्दू (या हिन्दुस्तानी ) का उसमें कितना योगदान था, लल्लूजी लाल कहां टिकते थे। उसके बाद प्रेमचंद हुए। फिर चतुरसेन शास्त्री जैसे लोग भी आए। इनमें से किसी ने भी किसी को भीष्म पितामह नहीं कहा और न ही आलोचकों ने ऐसा कुछ कहा। पर यह उदाहरण करीब डेढ़ सदी का दायरा समेट रहा है जबकि हिन्दी ब्लागिंग एक चुटकुला है। यहां पांच साल में भीष्म पितामह बन रहे हैं और उनकी भूमिका धृतराष्ट्रों जैसी है!!! अपने अलावा कुछ दिखता नहीं है। हर थोड़े समय बाद अतीतगान करते हैं। हमारे वक्त में ऐसा था, वैसा था। राष्ट्रवादी भी थे, , लड़ाके भी थे, सुधारवादी मुसलमान भी थे वगैरह वगैरह। ...ये सब क्या है भाई ?

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चांद पर पहले पहुंचने से क्या चांद पर हक भी अमेरिका का हो गया? वो तय करेगा कि क्या, कैसे होना चाहिए? एक आयोजन नहीं झेला जा रहा है। खींच खींच कर पोस्ट लिखने के बहाने ढूंढे जा रहे हैं। इससे पहले के जिन आयोजनों की जानकारी सार्वजनिक कर दी गई थी, उनमें स्थानीय ब्लागरों के अलावा कितने स्वनामधन्य ब्लागर चले जाते रहे हैं ? यह सर्टिफिकेट कौन देगा कि इन्द्रसभा का न्योता भी आपको मिल जाए तो उसमें आप कमी नहीं निकालिएगा?
हिन्दी ब्लागिंग के पहले दशक में ही भीष्म पितामह से लेकर भस्मासुर तक सब पैदा हो गए? सचमुच पुराण कल्पित कलियुग आया हो या नहीं, पर हिन्दी ब्लागिंग में तो यह यकीनन आ चुका है। एक अच्छे आयोजन की बेबात, घर बैठे  इतनी आलोचना सचमुच हिन्दी में ही सम्भव है। हमें खुशी है कि हम एक दिन के लिए ही सही, एक बेहतरीन आयोजन के साक्षी बने। हिन्दुस्तानी एकेडमी, महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा को इस आयोजन के लिए बधाई देते हैं। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी और डॉ संतोष भदौरिया ने समूचे आयोजन को गरिमामय रूप देने में बहुत मेहनत की है। अनूपजी सकारात्मक सोच वाले ब्लागर साथियो से सम्पर्क करने में जुटे रहे। आयोजकों की इच्छा शक्ति का सम्मान रखते हुए, मगर इस विधा में उनकी नई अभिरुचि के मद्देनजर अनूप जी ने व्यस्तता के बावजूद समय निकाला। इलाहाबाद से दूर-पास के जो भी ब्लागर साथी आयोजन में पहुंचे, वे सिर्फ हिन्दी ब्लागिंग पर चर्चा और उससे बढ़ कर ब्लागरों के आपसी मेल-जोल के इस अवसर का लाभ लेने पहुंचे थे। आभासी रिश्तों की जब कभी यथार्थ के धरातल पर आजमाईश का मौका हो, आज के युग में उसे गंवाना नहीं चाहिए। यह अवसर तकनीक और तहजीब की परख का होता है। हम सब जो वहां थे, इसी बात के लिए थे। न हमें भ्रष्टाचार की बू आई, न कोई सड़ांध, न ही किसी वाद का वितंडा। हमें नहीं लगता कि वहां से हम कुछ खोकर लौटे हैं या ठगे गए हैं। हमारी उपलब्धि है कि हम कई दोस्तों से बतियाए। हर्षवर्धन त्रिपाठी, भूपेन, इरफान, मसिजीवी का वक्तारूप बहुत अच्छा लगा। हे मठाधीशों, पितृपुरुषों, भीष्म पितामहों, आप भी आते तो अच्छा लगता। अपना बड़प्पन दिखाते हुए। आपके दो पथभ्रष्ठ साथी यहां थे, पर उन्हें इन विशेषणों से मोह नहीं और न ही वे ऐसा कुछ होने का ढोंग करते हैं। उन्हें पता है पांच साल और पचास साल का फर्क क्या होता है। प्रेमचंद की बड़ै भैया कहानी भी उन्होंने पढ़ी है, शायद आपने नहीं।
रोषपूर्ण टिप्पणियों की प्रतीक्षा में….एक अ-ब्लागर जो1983 से पत्रकारिता कर रहा है और 1990 से कम्प्यूटर पर पत्रकार-कर्म करने का आदी रहा है, फिर भी खुद को तकनीकी निरक्षर ही मानता है। बीते कुछ वर्षों से एमएस वर्ड में लिखने की जगह ब्लागर के एडिट आप्शन में जाकर लिख रहा है। वजह जानने के लिए फोन करें, हिन्दी में समझा दूंगा।  मैं भी एक साथ कनपुरिया, मालवी, महाराष्ट्रीय, भोपाली और हरियाणवी हूं साहबान। समझ रहे हैं न!!!  ये  अति होने के बाद की बातें हैं। देखते हैं, आप कैसी बाते करते हैं। वैसे मुझे अपने देश की संस्कृति और मिट्टी की खूब पहचान है… आप लोग कुछ विदेश में घूम-घाम कर भूल कर रहे हैं। आप मठाधीश हैं, अपन भी खांटी पत्रकार हैं। बताएँ, नामवरसिंह को क्यों इतनी गाली दी जा रही है। हमने क्या गुनाह किया वहां जाकर। आप कौन हैं साहब। बहुत छिपाया नाम, अब तो बताएं? जै जै।

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Wednesday, October 21, 2009

लाईन, लिनेन, लिनोलियम [लकीर-6]

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संबंधित कड़ियां-1.लीक छोड़ तीनौं चलै, सायर-सिंघ-सपूत [लकीर-1]2.रेखा का लेखा-जोखा (लकीर-2)3.कोलतार पर ऊंटों की क़तार [लकीर-3]4.मेहरौली, मुंगावली, दानाओली, दीपावली[लकीर-4]5.सूत्रपात, रेशम और धागा [रेखा-5]
क़तार के अर्थ में लाईन line शब्द अंग्रेजी का है मगर हिन्दी ने इसे अपना लिया है। लाईन शब्द की अर्थवत्ता बहुआयामी है। लकीर और क़तार शब्दों में मूलतः सरल रैखीय भाव तो है पर ये एक दूसरे के वैकल्पिक शब्द नहीं है। रेखा खींची जाती है जबकि कतार बनती है या लगती है। रेखा के अर्थ में कतार खींचना जैसा वाक्य प्रयोग नहीं किया जा सकता। मगर लाईन शब्द में चमत्कारिक अर्थवत्ता है। हिन्दी में कतार के अर्थ में भी लाईन है, सरल रेखा के अर्थ में भी लाईन है और सरणि अर्थात पंक्ति के अर्थ में भी लाईन है। लाईन खींची भी जाती है, लाईन लगाई भी जाती है, लाईन तोड़ी भी जाती है और लाईन तोड़ने वाले को लाईन हाजिर भी कर दिया जाता है जिसका मतलब है अनुशासनहीनता दिखाने पर सजा देना। इसी तरह लाईन में लगना एक तरह से नियम-पालना, दण्ड या अनुशासन का द्योतक है। लाईन तोड़ने में अनुशासनहीनता साफ झलक रही है। हिन्दी में लाईन मारना मुहावरा भी बीते कुछ दशकों से चल पड़ा है जिसका अभिप्राय किसी को ( प्रेमिका के संदर्भ में ) प्रभावित करने के उपक्रम से है।
लाईन शब्द इंडो – यूरोपीय भाषा परिवार का है जिसका अर्थ वही है जो हिन्दी के सूत्र और फारसी के रिश्ता यानी सेवईं का है। सूत्र का अर्थ धागा होता है। इसी तरह लाईन की अर्थवत्ता व्यापक है और इसमें रस्सी, धागा, रास्ता, कतार, आदि भाव है। लाईन लैटिन मूल का शब्द है जिसका रिश्ता एक खास किस्म के कपड़े से है जिसे लिनेन कहा जाता है। लैटिन में इसका रूप है linum जिसका मतलब है एक खास किस्म की वनस्पति जिससे निर्मित रेशे से सूती वस्त्र का निर्माण होता है जिसे लिनेन कहा जाता है। भारत में इस पौधे के कई नाम हैं मगर ज्यादातर इसे अलसी के नाम से जाना जाता है। इसके बीजों से तेल निकाला जाता है जो प्रसाधन उद्योग में काम आता है। इसकी एक नस्ल जूट भी है।
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एक खास किस्म की फर्शीचटाई को लिनोलियम कहा जाता है जिस पर कोई दाग-धब्बा नहीं लगता। इसका निर्माण भी जूट यानी लीनम के रेशों से होता है।linoleum
अलसी का एक नाम पटसन भी है। भारत में अलसी का पौधा दरअसल ओषधीय और बहुउपयोगी पौधा माना जाता है। जहां तक लीनम की बात है इससे बने लिनेन का अर्थ सूती कपड़ा होता है। समूचे यूरोप में यह पौधा बेहतरीन, शरीर के अनुकूल और हर मौसम में धारण करने लायक समझा जाता रहा है।
संस्कृत में जूट या अलसी के कई नाम है जैसे उमा, मालिका, क्षमा, पार्वती, सन, सुनीला और बदरीपत्री आदि। इसी तरह गोथिक, लैटिन और ग्रीक मूल की विभिन्न भाषाओं में इस मूल के कई शब्द है जैसे lin, llion, liner, linum, linen, lein, lan आदि। भारतीय जूट या पटसन की तरह ही इंडो-यूरोपीय भाषाओं वर्णों में परिवर्तन होता है। भारतीय भाषाओं में लकीर, लेखा, लिख, लीक, ऋष् ,रास्ता, रेशा, रेशम, रिश्ता जैसे ज्यादातर शब्द कतार, पंक्ति, रेखा, मार्ग या तन्तु की अर्थवत्ता रखते हैं। इनके मूल में वर्ण में समाई ध्वनि है जिसमें अधिकार, क्रमबद्धता, जाना, गमन करने से लेकर निर्दिष्ट करने, राह दिखाने जैसी अर्थवत्ता है। रेखाएं गुज़रती ही हैं और ये हमें मार्ग भी दिखाती है। लाईन शब्द में लिनेन यानी एक विशिष्ट पौधे से लेकर उससे निर्मित फाईबर या तन्तु से बने वस्त्र तक का भाव इसकी इंडो-यूरोपीय ध्वनि से रिश्तेदारी स्थापित करता है। यूरोप में भी लीनम यानी अलसी के पौधे से उत्तम किस्म के रेशे तैयार किए जाते हैं। एथेंस के पास ए प्राचीन स्थल है माईसेने। प्राचीनकाल में यहां एक समृद्ध संस्कृति पनपी थी। पुरा ग्रीक काल की एक भाषा का नाम इसी क्षेत्र के नाम पर माइसेनियन है जिसमें लीनम का एक रूप री-नो ri-no भी है। यह माना जा सकता है यह ध्वनि बाद में में परिवर्तित हुई। बहरहाल ऋष् धातु से बनी रेखा का संबंध इसी मूल से बने फारसी शब्द रिश्ता, रिश्तः (सिंवई, सूत्र), रास्ता से भी है। इसी तरह रेशम यानी सूत्र भी इसी कड़ी का हिस्सा है। जब बात लिनेन जैसे कपड़े तक पहुंचती है तब भी यही ऋष् इसमें नजर आता है।
साफ है कि प्राचीन यूरोप में भी लिनेन यानी सूत का उपयोग वस्त्र निर्माण के साथ पैमाइश के लिए भी होता था। लिनेन का रेशा सरलता और सीध का प्रतीक था जिसमें सरणि, राह, क्रम, कतार का भाव उभरता था। अभिप्राय मनुष्यों अथवा वस्तुओं के क्रमबद्ध विन्यास से ही था। लाईन, लीनियर, लाईनेज, लेन, लाइंस (सिविल) जैसे शब्द इसी मूल से उपजे हैं। एक खास किस्म की फर्शीचटाई को लिनोलियम कहा जाता है जिस पर कोई दाग-धब्बा नहीं लगता। यह सामान्य पत्थर के फर्श की तुलना में चिकनी, हल्की और चमकदार होती है क्योंकि इसका निर्माण भी जूट यानी लीनम के रेशों से होता है। इसकी मोटाई और कठोरता राज़ इसमें छुपे तेल से रिस कर बाहर आ रहा है। लिनोलियम बना है लीनम+ओलियम (linum+oleum= linoleum) से। लैटिन में ओलियम का मतलब होता है तेल, तैलीय। अंग्रेजी का ऑईल शब्द इससे ही बना है। पेट्रा यानि मिट्टी, प्रस्तर आदि और ओलियम यानी तेल, इससे बने पेट्रोलियम शब्द से भी यह जाहिर है। गौर करें कि जिस तरह हमारे यहां अलसी के बीज तेल निकालने के काम आते है वैसे ही यूरोप में भी लाईनसीड linseed का उपयोग होता है। लिनोलियम में इस वनस्पति से निर्मित दोनों प्रमुख उत्पादों रेशा और तेल का उपयोग हो रहा है। तेल की गाढ़ी पर्त के साथ विभिन्न मोटाई वाले रेशों के सघन विन्यास से ही लिनोलियम बनता है जिससे टिकाऊ और खूबसूरत चटाई या मैट्रेस का निर्माण होता है।

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Tuesday, October 20, 2009

घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]

पिछली कड़ी-आशियाना दर आशियाना [बकलमखुद-110]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 111वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
प्ला ट लिए साल भर गुजर गया। एक दिन मामा जी ने पूछा तुम मकान नहीं बना रहे? सरदार जवाब देने में अचकचा गया। उस ने कहा -पैसा हो तो बनाऊँ। पूछने लगे कितना कमाते हो? -मैं जितना कमाता हूँ उतना खर्च हो जाता है। हाथ में कुछ बचता ही नहीं। खर्च कितना करते हो? -बस कुछ ढंग से जी लेता हूँ। मामाजी कहने लगे –तुम बहुत कम खर्च करते हो। -आखिर उतना ही तो खर्च कर सकता हूँ जितना कमाता हूँ? तुम जितना खर्च करोगे उतना कमाओगे। इसलिए अपना खर्च बढ़ाओ। मामाजी के इस उत्तर पर सरदार अपना सिर खुजाने लगा। वे बोलते गए -मकान कोई अपने पैसों से बनता है। –तो फिर किस के पैसों से बनता है? उन्हों ने सरदार को दो-तीन मजेदार सच्चे किस्से सुना डाले। सरदार को यकीन हो गया कि उसे खर्च बढ़ाना चाहिए, और कि वह मकान बना सकता है। उस ने एलआईसी के साथी त्रिपाठी जी से बात की तो उन्हों ने मामाजी की बात का समर्थन किया और कहा कि अपने नाम रजिस्ट्री हो जाए उतना बना लो, फिर एलआईसी से गृहऋण मिल जाएगा। एक बुजुर्ग साथी ज्ञानी जी से बात की तो उन्हों ने मामा जी का समर्थन करते हुए एक मकान बनाने वाले ठेकेदार से मिला दिया। एक मुवक्किल ने चार-छह ट्रक पत्थर प्लाट पर डलवा दिए। अब चूने-रेत की व्यवस्था हो जाए तो नींव डालने का काम हो सकता था। उस की व्यवस्था ठेकेदार ने करवा दी। मामा जी ने मुहूर्त निकाला। उन्हों ने ही पूजा करवा दी। बैलदार जिसने पहली गैंती नींव खोदने के लिए चलाई, उसे टीका निकाल कर दक्षिणा देने को कहा तो सरदार ने मामाजी से पूछा क्या दूँ? उन्हों ने सौ रूपए देने को कहा। सरदार कहने लगा चेंज नहीं है। मामाजी ने खुद निकाल कर नोट दिया। बाद में कहने लगे –अब तुम्हारा मकान बन जाएगा। पहली बार में मुझ से पैसा निकलवा लिया। मकान बनने लगा। दो कमरों का ढांचा खड़ा हुआ कि रजिस्ट्री हो गई। बाद में एलआईसी से ऋण मिला तो एक किचन, स्टोर, बाथरूम और बरांडा और बना लिए। अपने घर में आ गए। जगह कम थी लेकिन सरदार के लिए पर्याप्त थी। वकालत के दस साल पूरे हो चुके थे। एलआईसी और एक और सामान्य बीमा कंपनी का काम मिल गया तो मकान का कर्ज भी चुकने लगा।
पिता जी दो वर्ष पहले ही रिटायर हो चुके थे, दो वर्ष बाद ही छोटे भाई के लिए रिश्ता आया, वह अभी रोजगार पर नहीं था। लेकिन यह निश्चित था कि कुछ दिनों में वह बारोजगार हो लेगा। उस की शादी हो गई। उस की शादी के तीन माह बाद माँ-पिताजी दोनों आए और दो दिन सरदार के साथ रहे। तीसरे दिन वापस बारां पहुँचे। दो दिन बाद रात को तीन बजे खबर मिली कि पिताजी नहीं रहे, दिल का दौरा पड़ा था। खबर पर यक़ीन न हुआ। तुरंत व्यवस्था कर सब बारां पहुँचे तो बाजार खुला न था और घर के बाहर लोगों का हजूम इकट्ठा था। अंदर पिताजी निष्प्राण लेटे थे। कुछ ही देर में उन की विदाई हुई। हजारों लोग बाहर और अंदर से रोते हुए साथ थे। बस एक सरदार था जिसे रुलाई नहीं आ रही थी। वह देख रहा था, अपनी विधवा माँ को, तीन बेरोजगार छोटे भाइयों को। सोच रहा था अब घर कैसे चलेगा? वह रोने लगा तो बाकी सब कैसे संभलेंगे? उस दिन बाजार न खुला। लोगों का खोलने का मन ही नहीं था। छोटे शहर की आधी आबादी किसी न किसी रूप में पिता जी की ऋणी थी। बस्ती के इस साथ ने शाम तक संबल बंधाया।
दादा जी के देहान्त के उपरांत से ही पिता जी उन की अधूरी छोड़ी भागवत रोज बांचने लगे थे। वर्ष में पूर्ण होती और फिर दुबारा आरंभ हो जाती। पिताजी फिर एक बार उसे अधूरा छोड़ गए थे। छोटे भाई ने सरदार से पूछा। कथा का क्या करें? सरदार ने कहा अधूरी को तो तुम पूरा करो। बाद की बाद में देखेंगे। उस ने कथा आरंभ कर दी। कुछ माह बाद एक भाई नौकरी में चला गया और साल पूरा होते होते दूसरा भाई भी। गृहस्थी मुकाम पर चलने लगी थी। कथा पूरी हुई तब तक श्रोताओँ को उस का कथा वाचन भा गया। कथा निरंतर हो गई। तीन साल होते-होते छोटे भाई की भी शादी हो ली। इस बीच बच्चे बड़े हो रहे थे। धर कोटा में जेके सिन्थेटिक्स में हुई हजारों मजदूरों-कर्मचारियों की छंटनी ने कर्मचारियों में दहशत का माहौल उत्पन्न कर दिया था। उस का लाभ उठा कर उद्योगों ने अपने कर्मचारियों पर काम का बोझा लादना आरंभ कर दिया था। कुछ उद्योग जो अब पर्याप्त मुनाफा नहीं दे पा रहे थे वे बंद होने लगे थे। राजस्थान की औद्योगिक नगरी कहलाने वाले नगर में उद्योग पिछड़ने लगे थे। हजारों मजदूरों के रोजगार छिनने से जो करोड़ों रुपया रोजमर्रा की जीवनोपयोगी वस्तुओं की खरीद से बाजार में आता था वह आना बंद हो गया था। दूसरी ओर बेरोजगार हुए लोगों ने दुकानें खोल ली थीं। लेकिन धन की कमी से बाजार में उदासी थी। एक तरह की स्थानीय मंदी। उस का असर पूरा नगर भुगत रहा था। श्रम न्यायालय मुकदमों से पट गया था। मुकदमे लम्बे होने लगे थे। मजदूरों को मिलने वाली राहत उन से दूर चली जा रही थी।
भी जे.के. से निकाले गए एक इंजिनियर ने आईआईटी और इंजीनियरिंग में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को कोचिंग देना आरंभ किया। परिणाम बहुत अच्छे थे। देखा देखी कुछ और लोगों ने इस काम को आरंभ किया। यह काम ऐसा परवान चढ़ा कि देखते-देखते चार-पाँच कोचिंग संस्थान खुले और सब ने इतना श्रम किया कि कोटा नगर आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल प्रवेश परीक्षाओं के लिए देश का नामी कोचिंग सेंटर हो गया। देश भर से छात्र कोटा कोचिंग के लिए आने लगे। इस से स्कूलों में उन की भर्ती की तादाद बढ़ी। वे पढ़ते कोचिंग में, प्रयोग स्कूलों में करते थे। एक-एक स्कूल में हजार से ऊपर प्रवेश होने लगे, जिन में पढ़ाने वाले अध्यापक दो सैंकड़ा विद्याथियों के लिए भी पर्याप्त नहीं थे। रहने के लिए कमरे चाहिए थे। लोगों ने दुमंजिले और तिमंजिले बनाना आरंभ किया। लोगों के मकानों के बरांडे तक दीवारें उठाने पर किराए पर उठने लगे। छात्रों को भोजन सप्लाई करने को सैंकड़ों मैस खुल गईँ। एक नया उद्योग पनपने लगा। कुछ ही वर्षों में शहर के बाजार वापस चमन हो गए। एक औद्योगिक नगर को सीधे-सीधे शिक्षानगरी कहा जाने लगा। हालांकि यह सही नहीं था। जिस नगर में एक विश्वविद्यालय नहीं था, और कोचिंग ने, जिस ने शिक्षा को उद्योग बना दिया था माध्यमिक शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया था, उसे शिक्षा नगरी कहा जा रहा था। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कोटा के विद्यार्थी धूम मचा रहे थे और कोटावासियों में उन के यहाँ आईआईटी खोले जाने की इच्छा बलवती हो रही थी।

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Sunday, October 18, 2009

सूत्रपात, रेशम और धागा [रेखा-5]

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तार या रेखा के लिए जितने भी शब्द हैं उनका संबंध या तो बिन्दु से है अथवा तन्तु से। ध्यान रहे निर्माण कार्य से लेकर गणनाओं तक बड़े पैमाने पर सीमांकन और रेखांकन का कार्य भूमि पर लकीर खींच कर नहीं किया जाता बल्कि इसके लिए रस्सी या डोर काम में लाई जाती है। सूत्र भी एक ऐसा ही शब्द है जिसमें रेशा, तन्तु या रेखा का भाव है। सूत यानी रूई से बुना हुआ धागा। इस धागे से बुने हुए कपड़े को सूती कपड़ा कहा जाता है। सूत शब्द बना है संस्कृत के सूत्र से जिसका मतलब होता है बांधना, कसना, लपेटना वगैरह। जाहिर है रूई अथवा रेशम को बटने की क्रिया में ये शामिल हैं। इससे बने सूत्रम् शब्द का अर्थ हुआ धागा, डोरा, रेशा, तंतु, यज्ञोपवीत अथवा जनेऊ आदि। सूत्र का अर्थ रेखा भी होता है। एक सूत्र में पिरोना, पंक्तिबद्ध करना, एक प्रणाली अपनाना, ठीक पद्धति में रखना जैसे भाव इसमें निहित हैं। जनेऊ को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। गौरतलब है कि संस्कृत के सूत्रम का अर्थ केवल कपास से बना रेशा नहीं है बल्कि रेशमी धागे को भी सूत ही कहा जाता है। हालांकि संस्कृत में कपास के लिए सूत्रपुष्पः शब्द भी है। सूत्र का एक अर्थ गुर, संक्षिप्त विधि अथवा तरीका भी है। मोटे धागे को हिन्दी में सुतली कहा जाता है। इसी तरह पिटाई या खिंचाई के अर्थ में मालवी में सूतना शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह इसी मूल से आ रहा है। कपास को बटने से सूत बनता है सो अंगों को मरोड़ने की क्रिया में प्रताड़ना स्पष्ट हो रही है। किसी की सुताई करना में उसकी प्रताड़ना या मरम्मत का भाव ही है।
सूत्र से ही बना है सूत्रधार। सामान्य तौर पर किसी घटना या कार्य का श्रीगणेश करने वाले को सूत्रधार कहते हैं। यूं सूत्रधार रंगमंच का वह प्रमुख व्यक्ति होता है जिसके हाथ में पर्दे की डोरी यानी सूत्र होता है और जब वह डोरी खींचता है तभी नाटक का श्रीगणेश होता है। यह सूत्रधार नाटक की प्रस्तावना में भी प्रमुख भूमिका अदा करता है। पुराणों में रंगमंच प्रबंधक के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा बढ़ई व दस्तकार को भी सूत्रधार कहते है। आज अपराध, राजनीति, कला या अन्य किसी भी क्षेत्र में शुरूआत करने वाले या अगुआ रहने वाले के लिए इस शब्द का प्रयोग हो जाता है।  इसी तरह किसी कार्य के आरम्भ के लिए सूत्रपात शब्द भी है। सूत्र यानी डोरा और पात् यानी गिरना या गिराना। यानी डोरी गिराना। वैसे यह कर्म संस्कृति से जुड़ा शब्द है और निर्माण यानी भवन निर्माणकार्य में प्रयुक्त होता है। गौरतलब है कि पुराने ज़माने से आज तक भवन निर्माण अथवा भूमि की नाप-जोख के लिए एक किस्म के धागे या डोरी का प्रयोग ही होता रहा है। प्राचीनकाल में एक डोरी या धागा जिसके सिरे पर लकड़ी का गुटका बंधा होता था, ज़मीन की पैमाइश के काम आता था। निर्माण कार्य शुरू करने से पहले की नापजोख के लिए इस गुटके को हाथ से नीचे गिराया जाता था जिसके साथ डोरी भी ज़मीन पर गिरती थी, इस पैमाइश की इस क्रिया को ही सूत्रपात कहते थे । बाद में किसी भी बड़े काम की शुरूआत के लिए सूत्रपात शब्द चल पड़ा।
संस्कृत में ऋष या रिष् धातु का अर्थ है कुरेदना, खुरचना, जख्मी करना आदि। संस्कृत के ऋष् शब्द में कुरेदना, खंरोचना, काटना, छीलना आदि भाव समाहित हैं। ऋष् का अपभ्रंश रूप होता है रिख जिसका मतलब होता है पंक्ति। हिन्दी का रेखा इससे ही बना है। मराठी में रेखा को रेषा कहते हैं। प्राचीनकाल में अंकन का काम सबसे पहले पत्थर पर शुरू हुआ था। गौर करें अंग्रेजी के
संस्कृत, मराठी का रेषा और हिन्दी का रेशा एक ही धागे से बंधे हैं… Blanket Flower
रो rowऔर रेखा की समानता पर। बसाहट के अर्थ में भी कतार, पंक्ति का भाव आता है। रो हाऊसिंग भी इसी तरह का प्रयोग है। या सरल रेखा के अर्थ में ही राह की पहचान होती है जिसका संबंध धातु से है। फारसी में रिश्ता तन्तु, सूत्र या धागा को कहते हैं जिसे रेखा के अर्थ में समझा जाता है और जिसका अर्थ विस्तार संबंध में होता है। संस्कृत, मराठी का रेषा और हिन्दी का रेशा एक ही धागे से बंधे हैं जिससे रेशम, रेशमी जैसे शब्द भी बने हैं। रेशम मूलतः एक नर्म, मुलायम और अत्यंत पतला तन्तु होता है जो एक कीट से मिलता है। रिश्ता भी एक धागा है जो दो लोगों में रिश्तेदारी अर्थात संबंध बनाता है। कुरेदने, खरोचने की क्रिया के जरिये ही प्राचीन मानव ने चिह्नांकन सीखा। यही रेखांकन है। रेखा, क्रम का विस्तार ही पदानुक्रम में आता है जिसके लिए अंग्रेजी में रैंक शब्द प्रचलित है और हिन्दी में भी यह आम बोलचाल में प्रचलित है। आर्डर व्यवस्था से जुड़ा शब्द है जिसमें आदेश और क्रम दोनों ही भाव हैं। यह इसी सिलसिले की कड़ी है।  व्यवस्था तभी बनती है जब उसकी कोई प्रणाली हो। यही रीति कहलाती है जो ऋत् धातु से बनती है। ऋत् में भी क्रम निहित है।
डोरी या रस्सी के लिए हिन्दी में धागा शब्द बेहद लोकप्रिय है। धागा शब्द काफी पुराना है। रहीम भी रिश्तों की बाबत जब कहते हैं तो धागा शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं-रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुडे़ गांठ पड़ जाए।। धागा शब्द बना है संस्कृत के तन्तु से। कहीं कहीं इसे तागा भी कहा जाता है। दरअसल धागा शब्द तागा का बिगड़ा हुआ रूप है। यह बना है तन्तु+अग्र के मेल से पहले यह ताग्गअ हुआ , फिर तागा और अगले क्रम में धागा बन गया। सुई में पिरोने से पहले धागे के अग्र भाग को ही छेद में डाला जाता है।

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Saturday, October 17, 2009

मेहरौली, मुंगावली, दानाओली, दीपावली[लकीर-4]

   diwali-greetings

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क़ तार के अर्थ में हिन्दी के के अवलि, पंक्ति जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं। हालांकि अवलि मूलतः संस्कृत का शब्द है। इसका देशज रूप अवली है। बोलचाल की हिन्दी में यह कम प्रयुक्त होता है मगर कई शब्दों में इसकी अर्थछाया नज़र आती है। कई कोशों में इसके अवलि, अवली, आवलि, आवली, औली, आलि जैसे रूप मिलते हैं। मूलतः इस शब्द में रेखा, पंक्ति, कतार, सजावट आदि का भाव है। दीपावली, दीवाली, दिवाली जैसे विभिन्न शब्दरूपों में यही आवलि झांक रही है जिसका अर्थ है दीयों की क़तार। संस्कृत में आलि शब्द है जिसका प्रयोग काव्य में किसी स्त्री की सहेली के तौर पर भी होता है। आलि में रेखा, लकीर, पुल, पुलिया का भाव है। आलि शब्द बना है अल् धातु से जिसमें साज-सज्जा का भाव प्रमुख है। इसके अलावा इसमें रोकना, थामना जैसे भाव भी है। स्तम्भ को परिनिष्ठित हिन्दी में आलम्ब कहते हैं अर्थात लम्बवत स्थिति। एक पुल कई आलम्बों पर टिका रहता है जो एक पंक्ति में होते हैं। आलि शब्द में पुल और क़तार शब्द का भाव एक साथ स्पष्ट हो रहा है। यही नहीं ध्यान दें तो कतार या पंक्ति सज्जाविधान का एक प्रमुख अंग भी है। सो पंक्ति के रूप में आलि में निहित सजावट का भाव भी स्पष्ट है। अल् से बने हैं अलंकार, आलंकारिक, अलंकरण जैसे शब्द जिनमें गहना, सजावट, शृगार के भाव हैं। सजावट के बिना दीपावली की कल्पना नहीं की जा सकती। 

आलि में निहित पंक्ति, कतार के भाव की तुलना और आलि शब्द की ध्वनियों की तुलना अवली, अवलि से की जा सकती है। ये दोनों ही शब्द निकट के हैं। आप्टे कोश में अवलि शब्द नहीं मिलता इसकी जगह आवलि शब्द है। हिन्दी शब्दसागर में अवलि शब्द को संस्कृत का बताया गया है और अवली को देशज हिन्दी शब्द। संस्कृत का आवलि शब्द वल् धातु से बना है जिसमें जाने का, गति का, आगे बढ़ने का, मुड़ने का, घेरने, लुढ़कने, लुढ़काने का भाव है। बिंदु को रेखा का उद्गम माना जाता है। बिंदुओं का वृद्धिक्रम ही रेखा कहलाता है। सो रेखा में गति और वृद्धि का भाव स्पष्ट है। क़तार में क़तरा-क़तरा यानी बूंदों के टपकने का भाव साफ नजर आ रहा है जो एक लम्बवत लकीर ही होती हैं। वृद्धिक्रम ज़रूरी नहीं कि सीधा हो। रेखाएं सरल भी होती है और वक्र भी। ऊर्ध्व भी होती है और क्षैतिज भी। गोल घेरा भी रेखा से ही निर्मित होता है। वल् शब्द में घेरने और मुड़ने का भाव भी निहित है। जाहिर है किसी पदार्थ को मोड़ने, dघुमाने के अर्थ में हिन्दी में बल शब्द का प्रयोग किया जाता है जो शक्ति वाले बल से अलग होता है। माथे पर बल पड़ना में यही बल झांक रहा है। वल्लरी में भी यही बल है जो वृक्ष के सहारे घूमते हुए ऊपर चढ़ती है। इसका ही देशज रूप है बेल। रोटी बनाने का उपकरण बेलन भी इसी मूल से जन्मा है क्योकि इसे घुमाया जाता है।

वलि शब्द का सर्वाधिक प्रयोग बसाहटों के अर्थ में हुआ है। वल् में निहित घेरने का भाव किसी ग्राम-नगर की सीमा में स्पष्ट हो रहा है। किसी भी बसाहट के लिए सीमांकन ज़रूरी है। गांव-आबादी की कैसी भी बसाहट हो, बिना घेरे के पूरी नहीं होती। घेरा का अर्थ गोल-चक्र ही नहीं होता बल्कि वह समूचा क्षेत्र जो चारों दिशाओं में किसी कृत्रिम रचना से आवृत्त हो, घेरा हुआ कहलाता है। जगप्रसिद्ध कुतुबमीनार दुनियावालों के लिए दिल्ली में है मगर हमारे लिए वह मेहरौली में स्थित है जो दिल्ली के पास स्थित एक प्राचीन बसाहट है। जब दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ था, तब प्रख्यात खगोलशास्त्री वराहमिहिर का इस इलाके में आश्रम था। इतिहासकारों के मुताबित चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा वहां में 27 मंदिरों का निर्माण कराया जा रहा था। यह काम वराहमिहिर के मार्गदर्शन में चलता रहा। इन मंदिरों को मुस्लिम शासको द्वारा नष्ट किया गया मगर इस स्थान को मिहिरावली यानी वराहमिहिर की देखरेख में बन रहे मंदिरों की पंक्ति के नाम से जाना गया। इसी तरह चंदौली, अतरौली, मुंगावली, डबवाली, बिलावली जैसी आबादियों के नामों के पीछे भी यही आवलि छुपी नजर आती है। भण्डौली शब्द का मतलब हुआ बरतनों की कतार। यही नहीं एक वनौषधि का नाम होता है पंचौली क्योंकि उसके फूल में पांच दल होते हैं जिसकी वजह से उसे पंचावलि कहा गया जो पंचौली हो गया। ब्राह्मणों का एक गोत्र पंचौली होता है। संभवतः इस व्युत्पत्ति से उसका रिश्ता नहीं है। पंचाल जनपद के ब्राह्मण पांचाल कहलाते होंगे जो कालांतर में पंचौली हो गया। मराठी में ओळी किसी गली या कतारनुमा रिहाइश को कहते हैं। मराठा शासकों की राजधानी ग्वालियर में इस शब्दमूल से जुडे कई स्थाननाम मिलते हैं जैसे दानाओली जिसका अर्थ हुआ जहां दाना यानी अनाज मिलता हो। साफ है कि आशय ग्रेन मार्केट से है। इसी तरह दर्जीओली का मतलब हुआ जिस गली में दर्जियों की दुकानें हों।यहां अवलि का मतलब कतार, पंक्ति से ही है जो अंत में गली के अर्थ में रूढ़ होता है।

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Thursday, October 15, 2009

कोलतार पर ऊंटों की क़तार [लकीर-3]

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कीर या रेखा के अर्थ में पंक्ति और क़तार शब्द भी हिन्दी के चिर-परिचित हैं। क़तार शब्द का इस्तेमाल खूब होता है। रेखा और लकीर के अर्थ में पंक्ति या कतारमें थोड़ा सा अंतर है, हालांकि भाव इन सबका एक ही है। वस्तुओं अथवा जीवों के समूह की सरल रैखिक अवस्था या स्थिति पंक्ति या कतार कही जाती है। आसमान में तारों का समूह विद्यमान है, मगर उसमें किसी विशिष्ट तारामंडल की स्थिति सरल रैखिक हो सकती है, तब हम उस समूह को पंक्ति कहेंगे। आसान शब्दों में कहें तो पंक्ति भी समुच्चयबोधक शब्द है, जिसकी विशिष्ट रचना उसे पंक्ति या कतार का रूप देती है। रेखा के अर्थ में कतार शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता मगर कतार दरअसल एक रेखा या लकीर ही होती है।
कतार शब्द हिन्दी में अरबी से आया है मगर मूलतः यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। यह शब्द भारोपीय और सेमिटिक भाषा परिवारो कें बीच संबंधों का भी उदाहरण है। मानव के विकासक्रम का असर भाषा पर भी नज़र आता है। पशुपालन संस्कृति से शुरुआत कर मनुष्य ने समूह में स्थायी निवास बनाया। कृषिकर्म और वाणिज्य-व्यवसाय का श्रीगणेश हुआ। फिर हुआ नागर संस्कृति का विकास। इस समूचे दौर में शब्द लगातार अपना चोला बदलते रहे। क़तार का मूल इंडो-यूरोपीय रूप प्रकृति के अवलोकन से उपजा ज्ञान है, वहीं जब यह सेमिटिक भाषा
trees वृक्ष के लिए संस्कृत में द्रुम शब्द है। इसी मूल से उपजा है देवदारु । अंग्रेजी के ट्री की द्रुम से समानता पर गौर करें।
परिवार में दाखिल हुआ तब यह पशुपालन-कृषि संस्कृति से जुड़ गया। हिन्दी के कतार शब्द का अरबी रूप क़तार या क़तारा है जिसमें बूंद, बिंदु, टपकना या गिरने का भाव है। गौर करें कि कोई रेखा या लकीर विभिन्न बिंदुओं का समुच्चय ही होती है। कई बिंदु जब एक ही दिशा में क्रमबद्ध रूप में बने हों तो उसे सरल रेखा कहा जाता है। इसी तरह कई वस्तुएं अवस्थित हों तो उस रचना या फार्मेशन को क़तार कहते हैं। इस रूप में क़तार की लोकप्रिय व्युत्पत्ति रेगिस्तान के जहाज ऊंट से जुड़ती है। रेगिस्तान में ऊंटो के पथ-संचलन को क़तार कहा जाता है। ऊंट एक समूह में रहनेवाला प्राणी है और दुर्गम इलाकों के अधिकांश पशुओं की तरह इसमें भी स्वतंत्र या बिखरे रहने की बजाय समूह मे रहने की वृत्ति होती है। ये एक के पीछे एक चलते हैं। इस रेगिस्तानी पशु के साहचर्य के बिना बेदुइन् यानी अरबी बद्दुओं का जीवन मुश्किल था। सभ्यता के पहले चरण में बद्दुओं को यही रेगिस्तानी देवदूत मार्गदर्शक के रूप में मिला। अरबों ने ऊंटों के बल पर दुनिया जीत ली। ऐसे में अगर एक क्षेत्र विशेष को अगर क़तर नाम ऊंटों के सामाजिक चरित्र [क़तार में चलना ] से मिल गया तो आश्चर्य क्या !! मगर बात इतनी आसान नहीं है।
खाड़ी का एक प्रमुख देश है क़तर या क़तार जिसका नामकरण इसी शब्द मूल से हुआ है। सेमिटिक भाषा परिवार की दो धातुओं से इसकी रिश्तेदारी मानी जाती है Qutr या Qutra जिनका अर्थ है क्रमशः प्रदेश या प्रांत और बूंद, बिंदु। Qutr के भावार्थ पर गौर करते हुए ध्यान रखना होगा कि बिंदु-बिंदु से ही रेखा बनती है जो सीमांकन या दायरा बनाने के काम आती है। किसी क्षेत्र का सीमांकन रेखा खींच कर ही किया जाता है। इसी तरह Qutra का अर्थ तो एकदम स्पष्ट ही है। खाड़ी का एक छोटा सा मगर पेट्रो-डॉलर के बूते अमीर बना एक देश है क़तर या क़तार जो इसी मूल का शब्द है। क़तर की व्युत्पत्ति अभी तक जिन संदर्भों पर यहां चर्चा हो चुकी है उसके अलावा कत्रन qatran या कत्रुन qatrun से भी बताई जाती है। ये दोनों अरबी शब्द है जिनमें रेज़िन, राल, चिपचिपा द्रव, अवलेह जैसे भाव है। मूलतः राल एक वानस्पतिक उत्सर्जन को कहते हैं जो पौधों या वृक्षों के तनों से निकलता है। इसका एक रूप टार भी होता है जिसका अभिप्राय जीवाश्म तेल भी है।  डामर के लिए प्रचलित कोलतार शब्द का रिश्ता इसी टार tar से है। कोलतार एक किस्म का रेज़िन या राल ही होता है। गौरतलब है कि qa-tar-an शब्द में tar भी छुपा हुआ है। क़तर दजला-फरात नदियों के उपजाऊ मुहाने पर बसा एक द्वीप है जहां खनिज तेल और गैस का अकूत भंडार है। प्राचीन काल में धरती से निकलनेवाले कच्चे तेल का औद्योगिक प्रयोग नहीं था। यह सिर्फ ओषधीय या दीया-बाती करने के  काम आता था। टॉलेमी ने क़तर शब्द का प्रयोग अरब क्षेत्र के लिए किया था इससे स्पष्ट है कि खाड़ी के इस इलाके में टार की मौजूदगी की ख्याति सुदूर ग्रीस और रोम तक थी।
ब आते हैं कत्र, कुत्र, कुत्रन या क़तर आदि शब्दों की भारोपीय यानी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से रिश्तेदारी पर जिससे इसके तमाम अर्थों का रहस्य साफ हो जाएगा। संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसमें वृक्ष का भाव है। मूलतः यह गतिवाचक धातु है। इससे बने द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि होता है। वृक्ष के अर्थ में द्रु धातु का अभिप्राय भी तीव्र गति से वृद्धि से ही है। गौरतलब है कि पहाड़ी वृक्षों के बढ़ने की रफ्तार मैदानी वृक्षों की तुलना में अधिक होती है क्योंकि इनकी गति ऊर्ध्वाधर होती है, ये पतले होते हैं जबकि मैदानी वृक्ष चौड़े तनेवाले और जटा-जूटधारी होते हैं। इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है। कल्पद्रुम शब्द साहित्यिक भाषा में कल्पवृक्ष के लिए प्रचिलत है। द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष है जिसका प्रचलित नाम देवदारु है।  द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागना, पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि। द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएं। पंजाब की प्रमुख नदी का सतलज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है। अंग्रेजी का ट्री और फारसी का दरख्त इसी मूल से जन्में हैं।
petroleum क़तर में राल या रेज़िन की अर्थवत्ता ने एक मुल्क को पहचान दिलाई
स्पष्ट है कि द्रव शब्द के निर्माण में द्रुत गति महत्वपूर्ण है। गति अंततः वृद्धि का प्रतीक है। द्रुम शब्द में जब वृक्ष का भाव आया तो उससे टपकनेवाला जल या तरल पदार्थ जो गोंद, रेजिन, राल कुछ भी हो सकता था, उसके लिए भी द्रव शब्द का प्रयोग हुआ। यही द्रव भारोपीय परिवार की अन्य भाषाओं में भी अलग रूपों में प्रचलित हुआ। गौर करें अंग्रेजी में वृक्ष के लिए ट्री शब्द है जो द्रु से ही आ रहा है। बूंद के अर्थ में ड़्रॉप शब्द का उद्गम भी यही है। अश्रुजल के लिए अंग्रेजी में टियर शब्द की रिश्तेदारी आसानी से इस मूल से जोड़ी जा सकती है। स्पष्ट है कि यहां जिस क़तार, क़तर की चर्चा पंक्ति, लकीर या रेखा के तौर पर की जा रही है वह भारोपीय मूल से ही जुड़ रहा है। आर्यों की घुमक्कड़ी इस शब्द में खूब नजर आ रही है। आर्यों के जो जत्थे पश्चिम की ओर गए उनके साथ द्रु, द्रुम जैसे शब्दों का रूपांतर ट्री, टियर, टार जैसे शब्दों में हुआ। रूसी में द्रेवो drevo का मतलब होता है पेड़। दक्षिण-पूर्वी यूरोप के दर्जनों शब्द हैं जो इस मूल से निकले हैं और जिनमें पानी, बहाव, गति, पेड़, बूंद, तरल आदि भाव समाए हैं जैसे जर्मन का थीर theer, लिथुआनी का darwa, derwa जैसे तमाम शब्दों में मूलतः राल वाले वृक्षों का ही भाव है। टार tar भी जर्मनिक के प्राचीनतम रूप ट्यूटानिक के terwo का ही रूपांतर है जिसका अर्थ है वृक्षद्रव। जाहिर है कि सेमिटिक शब्द क़-तारा में निहित टपकने, गिरने का भाव यहां स्पष्ट हो रहा है।
स्पष्ट है कि चिपचिपे द्रव या राल का यह भाव ही टार में समाहित रहा। इससे अरबी के कत्रन या कत्रुन जैसे शब्द बने जिसमें अभिप्राय था भूमि से निकलनेवाले चिपचिपे पदार्थ का। वृक्षों से बूंद बूंद टपकते द्वव में अरबी बद्दुओं को सरल रेखा नज़र आई जिसे उन्होने क़तारा कहा और तरल के अर्थ में, बूंद के अर्थ में भारोपीय द्रव, ड्रॉप जैसे शब्द अरबी का क़तरा बन गए। क़तरा–क़तरा यानी बूंद-बूंद। बूंद ही बिंदु है जिससे रेखा बनती है। यही है क़तार। बिंदु-बिंदु में व्याप्त अंश की अर्थवत्ता पर गौर करें तो मामला कतरनी तक पहुंचता है।

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