Thursday, December 25, 2014

// याद है ‘परकार’? जानिए ‘परकार’//

पिद्दी से दिनों में अपना स्कूल और बस्ता जितना नामुराद लगता था, उतना ही लुभाता था बड़े भाई-बहनों का स्कूल और उनका बस्ता। खास तौर पर कम्पास-बॉक्स के लिए बेहद कशिश थी। टीन का चपटा डिब्बा जिसमें अजीबोग़रीब आकार की चीज़ें और रबर-पैंसिल होती थीं। सोचते थे कब हम बड़े हों जाएँ और कब ये तिलस्माती बक्सा हमारे बस्ते में भी आ जाए। कुछ बच्चे अनुकरण के आधार पर कम्पाक्स-बॉक्स भी कहते थे। इस करिश्माती डब्बे में टिड्डे की टाँग जैसी दो नुकीली टाँगे होतीं- एक नुकीली होती। दोनों को घुमाने से कागज पर घेरा बन जाता। ये करतब हमें लुभाता था। बहरहाल, अब तक आप समझ चुके हैं कि हम ‘परकार’ की बात कर रहे हैं जो लगता हिन्दी का है पर आया फ़ारसी से है। ‘परकार’ का सही उच्चार ‘परगार’ है। बात थोड़ी अजीब लग सकती है कि यह ज्यामितीय उपकरण दरअसल हल जैसे कृषि उपकरण का विकसित रूप है। इस मिसाल से यह फिर साबित होता है कि हमारी आज की तरक्की दरअसल कृषि संस्कृति के लगातार विकसित होते जाने का परिणाम ही है।

‘परगार’ या ‘परकार’ में मूल आशय ऐसे उपकरण से है जो घेरा बनाता हो। ध्यान से देखें तो इस परकार में हमें भारोपीय भाषा परिवार का विस्तार नज़र आता है। गौरतलब है कि भारोपीय भाषा परिवार में 'पर' per / peri जैसी धातुएँ उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होती हैं। इसमें चारों ओर, आस-पास, इर्दगिर्द, घेरा जैसे भाव हैं। संस्कृत का ‘परि’ उपसर्ग इसी से व्युत्पन्न है जिससे बने दर्जनों शब्द हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं जैसे परिवहन, परिस्थिति, परिधान आदि। 'परि' इसका ही अवेस्ता रूप पइरी होता है। अवेस्ता के दाएज़ा यानि दीवार से जुड़ कर बने पइरीदाएज़ा (pairidaeza) में ऐसे स्थान का आशय है जिसके चारों ओर सुरक्षित परकोटा है। इसका अर्थ हुआ सुरम्य वाटिका, आरामग़ाह। प्रसंगवश पइरीदाएज़ा का कायान्तरण ग्रीक में paradeisos, लैटिन में पैराडिसस तो पुरानी फ्रैंच में यह पैरादिस में ढल गया। अंग्रेजी में इसका रूप पैराडाइज़ हुआ। इन तमाम रूपान्तरों में स्वर्ग, बहिश्त, वैकुण्ठ, जन्नत, ईडेनगार्डन जैसे अर्थ स्थिर हुए। बाद में अवेस्ता के पइरीदाएज़ा का बरास्ता पहलवी होते हुए फ़ारसी रूप बना फ़िर्दौस (हिन्दी में फिरदौस)।

तो बात चल रही थी भारोपीय धातु per / peri की जिसे उपसर्ग की तरह बरता जाता है। हिन्दी, अंग्रेजी, स्पैनिश, फ्रैंच, फ़ारसी आदि कई प्रमुख भाषाओं में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी में पेरीनियल, पर्सेप्शन, पर्सिव जैसे शब्दों में यही per / परि है। इसी तरह हिन्दी में परिधि, परिपक्व, परिप्रेक्ष्य, परिभाषा, परिवार आदि शब्दों में यह भलीभाँति अपनी अर्थछटाओं के साथ मौजूद है।

हम जानते हैं कि जिस तरह हिन्दी, संस्कृत से स्वतन्त्र भाषा है, उसी तरह फ़ारसी भी अवेस्ता से स्वतन्त्र भाषा है। अलबत्ता इन दोनों की रिश्तेदारियाँ सघन है। विकासक्रम में हिन्दी, संस्कृत के बाद आती है उसी तरह अवेस्ता के बाद फ़ारसी। अवेस्ता और संस्कृत में बहनापा रहा है। संस्कृत या वैदिकी का ‘परि’ उपसर्ग अवेस्ता में ‘पइरी’ हो जाता है। परकार का पहला पद 'पर' अवेस्ता के ‘पइरी’ से आ रहा है जो संस्कृत ‘परि’ का समतुल्य है। ‘परकार’ के अगले पद ‘कार’ में मूलतः करने का भाव है, ऐसा अनेक भाषाविदों का मानना है। यह ‘कार’ वैदिकी या संस्कृत के ‘कर’ का समतुल्य है जिसमें ‘कर्म’ करने का भाव है। अर्थात संस्कृत के ‘परिकर’ का समतुल्य है अवेस्ता का ‘पइरी-कार’। अर्थ हुआ जिससे परिधि बनाई जाए।

दरहकीकत ऐसा नहीं है। कार का मूल 'कृष' है। ‘कृषि’ शब्द बना है ‘कृष्’ धातु से जिसका अर्थ है खींचना, धकेलना, उखाड़ना और हल चलाना। ध्यान दीजिए कि हल चलाने में ये सभी क्रियाएं पूरी हो रही हैं और हल चलाने का काम कौन करता है? हल खींचे बिना खेती मुमकिन नहीं सो कृष् से बना ‘कृषि’ जो संस्कृत-हिन्दी में समान रूप से है। कृष् से ही संस्कृत का एक अन्य शब्द जन्मा ‘कर्ष’ जिसका अर्थ भी खींचना, घसीटना, हल चलाना ही है। इसमें ‘आ’ उपसर्ग लगने से बना ‘आकर्षण’ जिसका मतलब है खिंचाव,रूझान या लगाव। अवेस्ता ने कृष् के स्थान पर ‘कर्ष’ को अपनाया। ‘र’ का लोप होते हुए ‘कश’ बाकी रहा। खींचने के अर्थ में फ़ारसी, उर्दू में यह ‘कश’ आज तक कई रूपों में नज़र आता है। धुएँ का कश, दिल के खिंचाव वाली ‘कशिश’, तनाव वाला खिंचाव यानी ‘कशमकश’, ‘रस्साकशी’ जैसे शब्दों में भी यह मौजूद है। ‘कशीदाकारी’ में यानी बेलबूटे बनाना जिसमें सूई में धागा पिरोने से लेकर टाँका लगाने तक में खींचने की क्रियाएँ शामिल है।

‘पइरी-कार’ में दरअसल ‘कर्ष’ से ही ‘कार’ बन रहा है। इसी ‘कर्ष’ से मध्यकालीन फ़ारसी में ‘काश्तन’ भी बनता है और फारसी रूप ‘कारीदन’ जिसमें बोने, जोतने, कुरेदने का भाव है। ‘कृष्’ से ‘कृषि’ और ‘कर्ष’ से ‘कश’ फिर ‘काश्तन’ और फिर ‘काश्तकारी’ जो हिन्दी में भी है। ‘परकार’ पर गौर करें तो इसकी दोनों नुकीली भुजाएँ दरअसल प्राचीनकाल में हल का जोड़ा ही है। पुराने ज़माने में हल के ज़रिये न सिर्फ़ जुताई होती बल्कि सीमांकन के लिए भी यही तरकीब आज़माई जाती थी। संस्कृत ‘परिकर’ की अर्थछटाओं को देखें तो उसमें से एक भी परकार में निहित भाव से मेल नहीं खाती। इससे ही साबित होता है कि ‘परिकर’ और ‘परकार’ का विकास अलग अलग ढंग से हुआ है। ‘परिकर’ में आसपास घूमना, अनुचर, परिचर जैसे भाव हैं या इसे कमरबंद, करधनी जैसा आभूषण बताया गया है। इसके विपरीत ‘परकार’ दरअसल प्राचीन सीमांकन तकनीक से विकसित हुआ शब्द है। पुराने ज़माने में ज़मीन में खूँटा गाड़ कर उसके इर्दगिर्द एक बड़ी रस्सी के छोर पर बैलों के गले में जुआ पहनाकर हल जोत दिया जाता था। वे दायरे में गोल चक्कर लगाते और इस तरह सीमांकन हो जाता। ‘परकार’ में कर्म वाला कर न होकर ‘कर्ष’ से विकसित ‘कार’ है जिसमें ‘श’ का लोप हो गया।

फ़ारसी में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ में होना आम बात है। परकार का ‘परगार’ बना। अरबी में इसका एक रूप ‘बिरकार’ है तो दूसरा ज्यादा प्रचलित रूप ‘फरजार’ है। गौरतलब है कि अरबी में ‘ज’ और ‘ग’ में भी रूपान्तर होता है जैसे अरबी में ‘जमाल’ को ‘गमाल’ भी कहा जाता है।
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Saturday, December 20, 2014

।।रईसनामा।।


हि न्दी में अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस पर गौर करें तो भाषा, समाज, संस्कृति को समझने का नज़रिया व्यापक होने के साथ आसान भी होता जाता है। ‘रईस’ शब्द को ही लें। भाषा को च्युइंगम की तरह इस्तेमाल करनेवालों को इसकी कतई परवाह नहीं होनी चाहिए कि यह कहाँ से आया, कब आया। उनके लिए इतना काफी है कि समृद्ध, धनवान, पैसेवाला, ऐश्वर्यशाली, धन्नासेठ, करोड़पति, अरबपति, अमीर, श्रीमन्त, धनाड्य, मालदार या हीरालाल-पन्नालाल टाईप शख़्सियत के लिए ‘रईस’ शब्द का इस्तेमाल करने से उनका काम चल जाता है। पर बात इससे आगे निकलती है जब हम यह जानने की कोशिश करें कि अपनी मूल भाषा अरबी में इस शब्द के क्या मायने हैं। अरबी में ‘रईस’ अर्थात सर्वोच्च, प्रमुख, नेता, खास, मूल, प्रथम, सरदार, अगुआ, स्वामी, मालिक, अध्यक्ष अथवा सरपरस्त।

रईस यानी अमीर। बोलचाल की हिन्दी में इसकी इतनी ही अर्थवत्ता है। इसी तरह अमीर का अर्थ भी हिन्दी में सिर्फ धनी है मगर अरबी-फ़ारसी में अमीर की भी वही अर्थछटाएँ हैं जो रईस की हैं। रईस के मूल में अरबी की त्रिवर्णी धातु ‘रास’ س ا ر अर्थात ‘रा’ ‘अलिफ़’ ‘सीन’ है जिसमें मूल रूप से शीर्ष अथवा सिर का भाव है। ध्यान रहे अरबी ज़बान सेमिटिक परिवार से आती है। हिब्रू भी सामी कुनबे से ही है और इराकी अरबी जिसे आरमेइक कहते हैं वह भी। हिब्रू में अरबी की ‘स’ ध्वनि अक्सर ‘श’ हो जाती है मसलन अरबी का ‘अस्सलाम’ या ‘सलाम’ हिब्रू में ‘शॉलोम’ हो जाएगा। सो ‘रास’ की तर्ज़ पर हिब्रू में rosh अर्थात ראש है। जिसका अर्थ वास्तविक तौर पर शीर्ष यानी सिर– गर्दन के ऊपर का हिस्सा है। रोश का शुरुआती अक्षर हिब्रू वर्णमाला का रेश ר अर्थात resh है।

हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि हिब्रू अधिक प्राचीन है या अरबी किन्तु यह तय है कि भाषा की प्राचीनता का शास्त्रीय आधार उसके अभिलेखीय प्रमाण है। इस आधार पर हिब्रू कि प्राचीनता निर्विवाद है। गौरतलब है कि हिब्रू वर्णमाला के 'रेश' ר अक्षर का आकार भी मनुष्य के सिर के पार्श्व जैसा है और इसका अर्थ भी शीर्ष ही है। ‘रेश’ का ही परिवर्तित रूप अरबी का ‘रा’ ر है। हिब्रू का ‘रोश’ ही अरबी में ‘रास’ हो जाता है। अरबी तक आते आते हिब्रू ‘रेश’, ‘रोश’ की अर्थछटाएँ काफी विस्तार पाती हैं और इससे कई अन्य शब्द भी विकसित होते हैं।

इसी ‘रास’ का रूपान्तर ‘रईस’ भी है जिसमें धनी-मानी की तमाम अर्थछायाओं के साथ स्वामी, प्रमुख या सरपरस्त जैसे भाव हैं। ‘रईस’ का विशेषण रूप ‘रईसी’ और ‘रईसाना’ हैं यानी रईसों जैसा। खास बात यह भी कि ख्यात भाषाविद् अर्न्स्ट क्लैन अपने हिब्रू व्युत्पत्तिकोश में ‘रईस का रिश्ता अंग्रेजी के उस ‘रेस’ शब्द से भी जोड़ते हैं जिसका अभिप्राय नस्ल, वंश, कुटुम्ब अथवा कुल है। हालाँकि भाषाशास्त्री इस पर एकमत नहीं हैं फिर भी इस बात की काफी सम्भावना है कि हिब्रू का ‘रोश’ ही अरबी में ‘रास होता हुआ स्पैनिश में रैज़ा हुआ| बरास्ता इतालवी रेज्ज़ा यह अंग्रेजी में ‘रेस’ हुआ। जातीय या जातिगत अर्थ में इससे ‘रैशल’ बनता है। सवाल उठता है प्रमुख, मुख्य, अधिपति, धनाड्य जैसे अर्थों से होते हुए कुल, कुटुम्ब जैसे अर्थ ‘रेस’ में कैसे समा गए ?

बात ये है कि ‘शीर्ष’ अर्थात भौतिक ‘सिर’ ही शरीर का मुख्य हिस्सा होता है। सबसे पहले सिर ही दिखता है। सो हिब्रू के ‘रेश’ का ‘सिर’ जब अरबी में पहुँचता है तो इसका अर्थविस्तार होता है। गौर करें अंग्रेजी में ‘हेड’ का अर्थ प्रमुख भी होता है और ‘सिर’ भी। हेड यानी सिर से ही प्रमुख की अर्थवत्ता विकसित हुई। इसी तरह ‘मुख’ में जो ‘मुखड़ा’ है वह ‘प्रमुख’ में भी नज़र आता है। शीर्ष से सिर बनता है और फिर ‘सरदार’ भी बनता है। सरदार यानी मुखिया। सो ‘रास’ यानी ‘सिर’। सिर यानी शीर्ष यानी सर्वोच्च। इस तरह जो सर्वोच्च है वह स्वामी, सरदार। जो मालिक- मुखिया होगा वह निर्धन तो हो नहीं सकता सो सर्वोच्च के साथ ऐश्वर्य भी जुड़ गया। इस तरह अरबी रास वाला सिर ‘रईस’ तक आते आते मुखिया या धनी-मानी हो जाता है। जो प्रमुख है वह मुख्य है। मुख्य में ही मूल है अर्थात वही मूलस्रोत है। वही जड़ है। वही आदि है और आरम्भ है। इस तरह 'रास' से ही अंग्रेजी के रेस में आरम्भ, शुरुआत, मूल जैसे अर्थों से गुज़रते हुए कुल, कुटुम्ब, जाति जैसे अर्थ स्थापित हुए।
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Wednesday, December 17, 2014

//क्या मशगला है//


हिन्दी में शग़ल शब्द का प्रयोग खूब होता है। ऐसा कोई काम जिससे मन बहलता हो, इसी अर्थ में अक्सर हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। जबकि शग़ल के असली मायने हैं काम-धंधा या रोज़गार। सामान्य बातचीत में “...और क्या शग़ल इन दिनों?” के पीछे काम-धन्धे से ही तात्पर्य होता है। हिन्दी में शग़ल का मोटा अर्थ मनोविनोद या दिलबहलाव लिया जाता है। शग़ल सेमिटिक परिवार का शब्द है और अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। इसके निकट सम्बन्धी कुछ अन्य शब्द भी हिन्दी में प्रचलित हैं।

शग़ल बनता है शीन-घ़ैन-लाम (ل- غ- ش) से। अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स इसकी विवेचना यूँ करते हैं- “Business, occupation, employment, labour, study; anything to occupy or divert” हालाँकि वे इसका एक अर्थ amusement यानी मनबहलाव भी बताते हैं पर यह इसकी अर्थछटाओं का एक रूप है। मूल अर्थ तो रोजगार, खुद को व्यस्त रखना, कामधंधा आदि ही है।

उर्दू के नज़रिए से शग़्ल, शुग़्ल व्यवहार में आते हैं। हिन्दी में शग़ल लिखा बोला जाता है। मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी शब्दकोश में दिलबहलाव के संदर्भ में शग़लेमै लफ़्ज़ दिया है यानी मद्यपान के ज़रिये दिल बहलाना (शग़ल ऐ मै)। शग़ल में ही अरबी का ‘म’ उपसर्ग लगने से मश्ग़लः बनता है जिसका अर्थ व्यापार, शग़ल, व्यवसाय, रोज़ी, रोज़गार, काम-धंधा ही है। हिन्दी में इसे मशग़ला लिखा जाता है। व्यस्त, तल्लीन या मनोयोग से जुटे रहने के अर्थ में हिन्दी में मशगूल शब्द बड़ा आम है। इसकी वर्तनी मे गड़बड़ी की जाती है। कुछ लोग इसमें ह्रस्व स्वर लगाते हैं जो गलत है।

शग़ल से इश्ग़ाल और तश्ग़ील भी बनते हैं पर इनका चलन अरबी में ही है अलबत्ता उर्दू में इसी कड़ी का इश्तिग़ाल प्रचलित है जिसमें काम में लीन होना, मश्ग़ूल होना, तन्मयता, संलग्नता जैसे अर्थ हैं। गौरतलब है कि इश्तिग़ाल से मुँह फेरना या विमुख होना जैसी अभिव्यक्ति भी होती है। स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति काम में मशग़ूल होगा, उसे दीनो-दुनिया से तो मुँह फेरना ही होगा। तल्लीन व्यक्ति दुनिया से विमुख इसीलिए कहे जाते हैं।
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Saturday, December 13, 2014

।।डण्डा करना।।


जकल एक मुहावरा चल पड़ा है- डण्डा करना। इसका लाक्षणिक अर्थ है किसी को डण्डे से आगे ठेलना। भावार्थ हुआ किसी काम में सक्रिय करना। इसका अर्थविस्तार अब किसी काम में व्यवधान डालना, अड़चन पैदा करना या उकसाना भी हो गया है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पुलिसिया कार्यप्रणाली से जन्मा शब्द है। लोक-व्यवहार में अतीत से ही डण्डे के ज़रिये उकसाने, ठेलने के काम आदि किए जाते रहे हैं। पहुँच से दूर किसी व्यक्ति तक उठ कर जाने की बजाय डण्डे के स्पर्श और दबाव से उसे संकेत देना या प्रेरित करना बहुत पुरानी तकनीक रही है। गौर करें किसी नाली को अवरुद्ध हो जाने पर डण्डे के ज़रिये ही सुचारू बनाया जाता है। यूँ इस मुहावरे का अश्लील अर्थ लेने वालों की भी कमी नहीं है। यन्त्रणा देकर अपराध कबूलवाने के लिए गुदा में डण्डा डालना भी एक आम पुलिसिया हथकण्डा है।

दुनियाभर की संस्कृतियों में डण्डे को बतौर कानूनी प्रतीक मान्यता मिली हुई है। इसी लिए डण्डे का पुलिस से भी स्वाभाविक रिश्ता है। मूलतः पुलिस-प्रशासन की जिम्मेदारी कानून का पालन कराने की है। डण्डा इसे लागू कराता है। डण्डा यानी बाँस या लकड़ी का लम्बा टुकड़ा , छड़ी या सोंटा। मोनियर विलियम्स दण्ड का रिश्ता ग्रीक डेन्डरॉन/ डेन्ड्रॉन- dendron से भी बताते हैं। डॉ. जेम्स स्ट्राँग के बाइबल-कोश में डेन्डरॉन/ डेन्ड्रॉन का अर्थ वृक्ष या पेड़ है। डण्डा के मूल में वैदिक क्रियारूप दण्ड है जिसमें लकड़ी, छड़ी, सोंटा जैसे अर्थ तो हैं ही कालान्तर में प्रताड़ना, सजा आदि के तौर पर दण्ड का अर्थविस्तार हुआ। किसी को “तीन डण्डे लगाने” में सजा देने का भाव निहित है। पुराने ज़माने में डण्डे जमा कर ही दण्डित किया जाता था। गौर करें “दण्डित करने” में डण्डे लगाने की क्रिया ही है। इस तरह दण्ड, सजा का पर्याय बना। दण्ड का अर्थ जुर्माना भी होता है। इसके लिए अर्थदण्ड शब्द भी प्रचलित हुआ।

बाद के दौर में नियन्त्रण, समूहन, सेना, न्यायशक्ति आदि जैसी अभिव्यक्तियाँ भी दण्ड में निहित हुईं। प्राचीनकाल से डण्डे के जोर पर दुनिया चल रही है। राजा के हाथ में हमेशा दण्ड रहता था जो उसके न्याय करने और सजा देने के अधिकारी होने का प्रतीक था। आज भी जिलाधीश के पास दंडाधिकारी के अधिकार होते हैं। इसीलिए उसे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कहते हैं। वह न्याय करता है। मजिस्ट्रेट की टेबल पर रखा हथोड़ा इसी दंड का प्रतीक है। पौराणिक ग्रंथों में यम, शिव और विष्णु को भी दण्डाधिकारी कहा गया है। कानून व्यवस्था सम्भालने वाले अफसर को दण्डनायक शब्द मिलता है। अर्दली या चौकीदार को दण्डधर कहा जाता था।

भुजदंड भी एक प्रयोग है। प्रणिपात के अर्थ में भी 'दंडवत' शब्द का प्रयोग होता है जिसमें दण्ड की भाँति भूमि पर लेट कर नमन करने का आशय है। दंड धारण करने वाले सन्यासी को दंडीस्वामी कहा जाता है। दंड धारण करने की परंपरा प्रायः दशनामी सन्यासियों में प्रचलित है। शंकराचार्य परंपरा के ध्वजवाहक मठाधीश भी दंडधारण करते है। प्राचीन धर्मशास्त्र मे दंड का महत्व इतना अधिक था कि मनुस्मृति में तो दंड को देवता के रूप में बताया गया है। एक श्लोक है-
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
(दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है)
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Tuesday, December 9, 2014

//थाँके टिपे नी काँईं ?//


प्र

त्येक बोली-भाषा में कुछ अनोखे शब्द होते हैं। मालवी भाषा में देखने के लिए एक खास क्रिया का प्रयोग होता है- ‘टिपना’ जैसे- “थाँके कम टिपे काँई?” अर्थात तुझे कम दिखता है क्या? यह ‘टिप’ कहाँ से आ रहा है? गौर करें प्रचीनकाल से ही ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य रहा है। अन्तरिक्ष की ओर ताकना प्रागैतिहासिक काल से मनुष्य का प्रिय शगल रहा। ऊष्मा, ऊर्जा, चमक ये सब अग्नि के गुणधर्म हैं। सूर्य उगने पर ही मनुष्य के सामने दृष्यजगत उजागर होता था। हमें कुछ भी दिखता इसलिए हैं क्योंकि वह प्रकाशित है। यानि प्रत्येक वस्तु में कुछ न कुछ भासित है क्योंकि वह दीप्त है। व्ह जो दीप्त है उसे हिन्दी में दिपना कहते हैं| यही मालवी का टिपना है| दिपना-टिपना के ज़रिये जानते हैं हिन्दी के कुछ बेहद प्रचलित शब्दों के बारे में। 

हर भाषा में किन्हीं ध्वनियों में बदलाव का अलग अंदाज़ होता है जिससे शब्दों का विकास होता है। हिन्दी-ईरानी में एक ही वर्णक्रम की ध्वनियों में बदलाव होता जाता है जैसे ‘प’ और ‘व’ में परस्पर बदलाव होता है। उदाहरण के लिए वैदिक शब्द ‘तप्’ को लें जिसमें अग्नि, चमक, ऊर्जा के साथ कष्ट, साधना, अभ्यास का भाव भी है। इससे ही तपस्वी, तपस्या, तापस जैसे शब्द बने। ‘तप’ का विकास ताप है। हिन्दी-फ़ारसी में ‘ताप’ से ‘ताव’ बनता है जिसमें गर्मी का भाव है। ‘ताव’ से ही मालवी-राजस्थानी में ‘तावड़ा’ बनता है यानी धूप। ‘तपः’ का एक रूप फारसी में तबाह बनता है जिसका अर्थ है बर्बादी, विनष्ट, जर्जर, ध्वस्त, निर्जन, वीरान आदि। समझा जा सकता है कि किसी जमाने में अग्नि से जुड़ी विभीषिका को ही तबाही कहा जाता रहा होगा।

हम जिसे दिन कहते हैं उसका एक रूप दिवस है। दिवस का मूल दिव है। गौर करें, यह दिव दरअसल दिप् रहा होगा और यह भी कि तप, ताप जैसे शब्द इसी दिप् से विकसित हैं। वैदिकी में दिप् नहीं है, दीप् क्रिया है किन्तु इसका पूर्वरूप दिप् ज़रूर रहा होगा क्योंकि कालान्तर में ऐसे अनेक वैदिक-संस्कृत शब्दरूप बने जिनका मूल दिप् ही सिद्ध होता है। यही दिप्, टिपना क्रिया का मूल है। ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-1” में ऋग्वेद के तपस् /तवस रूपों की चर्चा करते हैं। तपस् जो ऊष्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ तथा तवस् जिसका प्रयोग ऊर्जा, शक्ति के अर्थ में हुआ है, इससे साबित होता है कि दिव् का पूर्वरूप भी दिप् रहा होगा जिससे दीप् क्रिया बनी होगी जिसमें जलना, ऊर्जा, ऊष्मा, चमक, प्रकाश जैसे भाव है और इससे ही दीप, दीपक, दीवाली जैसे अनेक शब्द बने। यह साबित होता है हिन्दी की ‘दिपना’ क्रिया से जिसका अर्थ चमक, प्रकाश या प्रदीपन है। मूल भाव है दिखना। यह न माना जाए कि ‘दिपना’ का अगला रूप ‘टिपना’ है। टिपना ‘टिप’ से आ रहा है और दिपना ‘दिप’ से। ‘दिप्’ के ‘टिप्’ रूप से मालवी की ‘टिपना’ क्रिया बनी।

‘दिप’ में निहित दीप्ति, चमक, प्रकाश जैसे भाव ही ‘टिप’ में भी समाहित है। कोई चीज़ जब चमकती है तो ही नज़र आती है। हाँ, संस्कृत में इसका अर्थविस्तार भी हुआ और इसमें चमक, झलक, दिखाना, व्याख्या जैसे भाव हैं। किसी वस्तु का दीप्तिमान होना या उसका दीपन, प्रदीपन होना ही उजागर होना है। टिप से ही मालवी बोली में ‘टिपना’ शब्द बना जिसका अर्थ है दिखना। हिन्दी में ‘टिप्पणी’ या टीका-टिप्पणी शब्द भी खूब प्रचलित है। टिप्पणी का अर्थ है किसी वाक्य, वस्तु, स्थान अथवा विचार को स्पष्ट करने वाला विवरण। इस में भी मूलतः उजागर करने का ही भाव है और इसीलिए इसे टिप्पणी कहा जाता है।
‘टिपना’ पर ये टिप्पणी कैसी लगी ?
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Thursday, December 4, 2014

||टंटा और ताण्डव||


टं टा हिन्दी की प्रचलित शब्दावली का एक लोकप्रिय शब्द है। झगड़ा, फ़साद, दंगा, लड़ाई, अड़चन या बखेड़ा के अर्थ में इसका खूब इस्तेमाल होता है। यही नहीं प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए टंटा-फ़साद या झगड़ा-टंटा जैसे युग्म शब्द भी बोले जाते है। टंटा की रच-बस हिन्दी समेत तमाम उत्तर भारतीय भाषाओं में है। जानकर ताज्जुब हो सकता है कि द्रविड़ भाषाओं में भी इसकी व्याप्ति है। मराठी में टंटा का तंटा रूप देखने को मिलता है। कन्नड़ में इसका रूप तंटे है जिसके मायने झगड़ा, फ़साद, उपद्रव या उलझन है। मराठी-कन्नड़ में उपद्रवी या फ़सादी व्यक्ति को तंटेखोर कहा जाता है। टंटा करना, टंटा मचाना जैसी मुहावरेदार अभिव्यक्तियाँ हिन्दी में आम है। इसी तरह ताण्डव फैलाना या ताण्डव मचाना भी हिन्दी में खूब बोला जाता है। टंटा और ताण्डव में क्या रिश्ता है?

र्य-द्रविड़ संस्कृतियों के बीच निरन्तर भाषायी सम्पर्क रहा है। शाब्दिक घुसपैठ इतनी ज्यादा है कि कभी कभी यह लगने लगता है कि कहीं संस्कृत और द्रविड़ दोनों भाषाओं का मूलस्रोत एक ही तो नहीं! बहरहाल हिन्दी के टंटा शब्द का रिश्ता कन्नड़ के तंटे से है। कन्नड़ का तंटे तमिल के ताण्टु से विकसित हुआ जिसमें नाचने का भाव है। एमेनो-बरो के द्रविड़ व्युत्पत्ति कोश में तण् क्रिया का उल्लेख है जो गतिवाचक है। इससे तण्टु, ताण्टि जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उछल-कूद, फलांग, लांघ, छलांग और कूद-फांद का आशय है। इसी कड़ी में आता है ताण्टवम् जिसका अर्थ है रौद्र एवं उन्मत्त मुद्राओं वाली नृत्यशैली। बरो भारोपीय मूल की जर्मन भाषा के टान्त्स (नाच), टान्त्सन (नाचना) और अंग्रेजी के डान्स शब्द को द्रविड़ मूल तण्टु से रूपान्तरित ही मानते हैं। हालाँकि जॉन प्लैट्स टंटा शब्द की व्युत्पत्ति स्तनित से बताते हैं जिसका अर्थ मोनियर विलियम्स के कोश में कानफाड़ू शोर दिया हुआ है। टंटा में निहित कलह या उपद्रव का भाव कहीं नहीं है जबकि प्लैट्स स्तनित का सीधा सीधा अर्थ झगड़ा या लड़ाई बताते हैं जो ध्वनिसाम्य के आधार पर खींच-खांच कर व्युत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास लगता है।

मिल ताण्टवम के सादृष्य पर संस्कृत का ताण्डव है। शिव की प्रसिद्ध नटराज शैली की नृत्यमुद्रा। इसे संहार से भी जोड़ा जाता है। इस शैली में नृत्य की चिर-परिचित चेष्टाओं का उल्लंघन है| सीमाओं को तोड़ कर, दायरे से बाहर निकलते हुए विलक्षण अंग-विक्षेपों और हाव-भाव-मुद्राओं की वजह से इसे ताण्डव कहा जाता है। तण्टु, तण्टि जैसे शब्दों में निहित उछल-कूद और फिर के शिव के रौद्ररूप को प्रदर्शित करने वाले ताण्टवम वाले परवर्ती विकास से कन्नड़ में तण्टे, तंटे जैसे शब्दरूप सामने आए और हलचल, उपद्रव जैसी अर्थछटाएँ विकसित हुईं। तण्टु में सीमोल्लंघन के साथ अंगविक्षेप का भाव महत्वपूर्ण है। टंटा में निहित झगड़ा, बखेड़ा, फ़साद, कोहराम, कलह, प्रपंच, तकरार या खटराग जैसे अर्थ इसी वजह से सहज विकसित होते चले गए।

प्रसंगवश यह भी चर्चा कर लेना ठीक होगा कि शिव को द्रविड़ मूल का देवता मानने जैसी धारणा को अब अधिकांश विद्वान सही नहीं मानते हैं। भाषा विज्ञान से प्रमाणित भी होता है। तमिल के चॅ, चॅम् जैसे शब्दों में लालिमा का भाव है। चिव क्रिया में लाल होने का अभिप्राय है। डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं कि इसे ही शिव के द्रविड़ देवता होने का प्रमाण मान लिया गया। देखा जाए तो तमिल में श् ध्वनि नहीं है। संस्कृत में शिव, शंभु और शंकर तीनों नाम श् से आरम्भ होते हैं। संस्कृत में च् ध्वनि है। शिव का चिव रूप आत्मसात करने में संस्कृतभाषियों को समस्या नहीं थी। वैदिक शिव ही तमिल में चिव हो जाते हैं। वैदिक वाङ्मय में रुद्र का उल्लेख है। रुद्र के साथ शिव का एकाकार बाद में हुआ। इसी रुद्र से रौद्र शब्द बनता है। यही रौद्र रूप द्रविड़ संस्कृति वाले शिव में अभिव्यक्त होता है। इसीलिए शिव की रौद्र-मुद्रा वाली अभिव्यक्ति को वहाँ ताण्टवम कहा गया। संस्कृत ने इसे ताण्डव के रूप में ग्रहण किया।
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Tuesday, December 2, 2014

सचिन और राखी


राखी और सचिन में भला क्या रिश्ता हो सकता है? इसमें कोई दो राय नहीं कि क्रिकेट वाले सचिन की वजह से भारत में के लोकप्रिय नामों की सूची में सचिन का शुमार भी हो चुका है। हालाँकि जो सचिन हिन्दी में बरता जा रहा है वह हिन्दी का अपना न होकर मराठी प्रभाव वाला सचिन है। हिन्दी में शुद्धरूप स पहले तो ये जानें की सचिन के मायने क्या हैं।

चिन का मूलार्थ दरअसल इन्द्र है। यह शचीन्द्र का ही घिसा हुआ तृतीय रूप है। द्वितीय रूप है सचिन्द्र। इसकी पृथक अर्थवत्ता नहीं है। बांग्ला-मराठी के स्वरतन्त्र में अन्त्य व्यंजनलोप की प्रवृत्ति है जैसे मिलिन्द > मिलिन, देवेन्द्र > देवेन या सचिन्द्र > सचिन। मराठी और बांग्ला में "न्द्र" का लोप होकर सिर्फ 'न' ध्वनि रह जाती है।
ची या शचि और कहीं कहीं सची का उल्लेख पुराणों में इंद्र की पत्नी के तौर पर है। इसे भी इंद्राणी कहते हैं। शचि दानवराज पुलोमा की कन्या थी। इसी लिए इन्द्र को शचीपति भी कहा जाता है। इसकी कई अर्थछटाएँ हैं। जैसे- सारतत्व। वाग्मिता। प्रज्ञा। शक्ति। भक्ति। प्रीति। पवित्रता।

प्रसंगवश रक्षाबंधन से भी इसका रिश्ता है। भविष्य पुराण के अनुसार देवासुर-संग्राम में असुरों से दुःखी और पराजित इन्द्र को विजयश्रीवरण की युक्ति उनकी पत्नी शची ने जो स्वयं असुर पुत्री थीं, सुझाई थी। जिसके मुताबिक़ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ब्राह्मणों के विशिष्ट विधान से तैयार रक्षासूत्र खुद उन्होंने इन्द्र की कलाई पर बांधा। यह भी उल्लेख है की शची के कहने पर ब्राह्मणों ने उसे इंद्र की कलाई पर बांधा| जो भी हो, कहते हैं इसी के प्रभाव से देवताओं की विजय हुई। रक्षाबंधन तभी से मूलतः ब्राह्मणों के पर्व के तौर पर प्रचलित हो गया। धीरे धीरे प्रतिज्ञा रक्षा, क्षात्रधर्म, ब्रह्मरक्षा से होते होते इसकी भावना विश्वबंधुत्व तक पहुंची। लेकिन बहन-भाई के बीच स्नेह-रक्षा सूत्र के रूढ़ अर्थ में यह सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ।
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