Friday, April 27, 2012

लोबान की महक

Olibanum

दु निया में शायद ही कोई होगा जिसे खुशबू नापसन्द होगी । सुवास से न सिर्फ़ तन-मन बल्कि आसपास का माहौल भी महक उठता है । सुगन्धित पदार्थ की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है और इसमें लोबान का नाम भी शामिल है । अगरबत्ती, धूप और हवन सामग्री के निर्माण में लोबान का प्रयोग होता है । लोबान का प्रयोग दवा के रूप में भी होता है । इसे सुलगते हुए कंडे या अंगारे पर रख कर जलाया जाता है । इसका धुआँ सुगन्धित होता है । लोबान दरअसल एक क़िस्म की राल या वृक्ष से निकलने वाला पारदर्शी स्राव है जो सूख कर सफेद या पीली आभा वाले छोटे छोटे पिण्डों में रूपान्तरित हो जाता है । इसे हवन, पूजन के दौरान या अन्य आयोजनों में सुगन्धित वातावरण बनाने के लिए जलाया जाता है । इसके धुएँ से माहौल महक उठता है ।
लोबान या लुबान दरअसल असल भारत में फ़ारसी के ज़रिये आया है मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार की धातु ल-ब-न ( l-b-n ) से बना अरबी शब्द है । यह एक अनोखा शब्द है जिसके भीतर बहुत सारे आशय छुपे हैं । इसके मूल में एक देश का नाम है । श्वेत अर्थात सफेदी के विविध आयाम इसमें नज़र आते हैं । इसमें एक विशिष्ट वृक्ष का स्पर्श भी है । देखतें है लोबान के वंशवृक्ष को । अधिकांश राल आधारित सुगन्धित पदार्थों की तरह ही लोबान भी एक विशिष्ट पेड़ बोसवेलिया सेरेटा Boswellia serrata से निकलने वाला दूध है । सेमिटिक धातु ल-ब-न में सफेदी या दुग्ध जैसे स्राव का भाव है । इससे बने अल-लुबान में भी दूध या सफेद पदार्थ का आशय है जिसमें वृक्ष से निकली सुगन्धित राल का अर्थ ही उभरता है । लुबान या लोबान का रिश्ता हिब्रू से भी है । ए जनरल सिस्टम ऑफ़ बॉटनी एंड गार्डनिंग में जॉर्ज डॉन अरेबिक al-luban के हिब्रू सजातीय lebonah का उल्लेख करते हैं । लेबोनाह का अर्थ होता है श्वेतकण या सफेदी का ढेर । इससे ही ग्रीक भाषा में लिबेनोस libanos बना, जिसका आशय भी लोबान ही है । ओलिबेनम का इतालवी रूप ओलिबेनो है ।
सी तरह लैटिन का ओलिबेनम olibanumशब्द ओषधिविज्ञान का जाना पहचाना पदार्थ है जिसका उपयोग प्रायः सिरदर्द की दवा बनाने में होता रहा है । इसका आशय भी गोंद, राल या लोबान से ही है । कई संदर्भ इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लैटिन का ओलिबेनम दरअसल अरबी के अल-लुबान al-luban का सीधा सीधा लिप्यंतरण है जिसमें उच्चारण भिन्नता की वजह से हलका बदलाव आया । लोबान या ओलिबेनम का रिश्ता कई तरह से एशिया के सुदूर पश्चिमी छोर पर स्थित लेबनान से भी जुड़ता है । ऑक्सफोर्ड इन्साक्लोपीडिया के अनुसार ओलिबेनम दरअसल “ऑइल ऑफ़ लेबेनोज” या लेबेनान टर्म का संक्षेप है जिसका अर्थ है “लेबनान का तेल” । मगर यह बहुत पुख्ता आधार नहीं है । कुछ भाषाविदों का मानना है कि प्राचीनकाल से ही लेबनान में पाए जाने वाले ख़ास देवदार से निकलने वाले सुगन्धित पदार्थ की माँग भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के बाज़ार में खूब रही है । इसीलिए लेबनान से आने वाले राल को लोबान नाम मिला । कुछ हद तक स्वीकार्य होते हुए भी यह व्युत्पत्ति सही नही है ।
रअसल लेबनान lebanon शब्द भी सेमिटिक मूल का ही है और इसा जन्म भी ल-ब-न से हुआ है । पश्चिमी एशिया के इस पहाड़ी प्रान्त में बर्फ़ से लदी चोटियाँ हैं । शुष्क अरब क्षेत्र में बर्फीली चोटियों वाले लेबनान को ल-ब-न में निहित सफेदी, शुभ्रता की वजह से ही पहचान मिली । लेबनान यानी लुब + नान अर्थात सफेद धरती । तात्पर्य बर्फ़ से ढकी चोटियों से ही है । यहाँ का सबसे ऊँची चोटी का नाम भी माऊंट लेबनान ही है । स्पष्ट है कि लेबनान से ‘लोबान’ नहीं बना है बल्कि ल-ब-न से ही लेबनान और लोबान बने हैं । दोनों में खास बात सफेदी है । प्राचीन अरब के सौदागरों का दूर दराज़ तक व्यापार करने में कोई सानी नहीं था । दरअसल अफ्रीका और पूर्वी एशिया के देशों से भारी मात्रा में अरब के सौदागर लोबान loban खरीदते थे और उसे लेबनान में साफ़ किया जाता था । वहाँ से उसे फिर दुनियाभर के बाज़ारों में बेचा जाता था । लेबनान से लोबान का रिश्ता इसलिए है क्योंकि वह लोबान की बड़ी मण्डी थी ।
स संदर्भ में अल्बानिया, एल्प्स जैसे क्षेत्रों को भी याद कर लेना चाहिए । सेमिटिक धातु ल-ब-न से मिलती जुलती धातु है a-l-b ( कुछ लोग इसे गैर भारोपीय धातु भी मानते हैं)। एल्ब *alb- का अर्थ है श्वेत, सफेद, धवल, पहाड़, पर्वत । इससे मिलती जुलती प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार की एक धातु है *albho-जिसमें भी यही भाव है और माना जाता है कि इसका विकास *alb-से हुआ है । पूर्व से पश्चिम तक फैली यूरोप की प्रसिद्ध पर्वत शृंखला का नाम एल्प्स है । यह नाम इसी मूल से आ रहा है । ध्यान रहे आल्प्स के न सिर्फ उच्च शिखरों पर हमेशा बर्फ जमी रहती है । alps में alb धातु साफ दिखाई पड़ रही है । पर्वतीय या पहाड़ी के अर्थ में एल्पाईन शब्द भी इसी मूल से आ रहा है ।

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Wednesday, April 25, 2012

मुलम्मे की चमक

mulamma

कि सी हलकी धातु पर कीमती धातु की परत चढ़ाने की परम्परा दुनियाभर में प्राचीनकाल से प्रचलित है जिसे मुलम्मा कहा जाता है । मुलम्मा शब्द भारत की क़रीब क़रीब सभी प्रमुख भाषाओं में प्रचलित है । हिन्दी की तो ख़ैर सभी बोलियों में इसे खूब लिखा-पढ़ा-समझा जाता है । मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी, अरबी भाषा का यह शब्द भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । यह दिलचस्प है कि अपने ख़ास ठिकाने पर कोई शब्द किसी अन्य रूप में होता है और फिर बदली हुई अर्थवत्ता के साथ उसका कुछ और रूपान्तर किसी अन्य भाषा में होता है । वर्तमान में मुलम्मा का जो अर्थ प्रचलित है उसमें कलई करने या पॉलिश करने का आशय है । गिलट की हुई धातु यानी सोने-चांदी का पानी चढ़ी धातु को भी मुलम्मा कहते हैं । मुलम्मा में नकली पॉलिश का भाव अब प्रमुख हो गया है । तात्पर्य यह है कि ऐसा पदार्थ जो कभी जगमग था पर अब उसकी चमक फीकी पड़ गई है । अगर उसे घिस-माँज दिया जाए तो भी वह चमक उठता है । यानी किसी पदार्थ की चमक ही उसका मुलम्मा है । मगर अब मुलम्मा के साथ चमकीली परत, सतह, पॉलिश या आवरण का आशय जुड़ गया है ।
मूल अरबी में मुलम्मा से अभिप्राय चमक से है । आवरण, लेपन, कलई जैसे आशय इसमें बाद में जुड़े । मुलम्मा mukkama के मूल में है अरबी का लम्अ lam‘ जिसमें द्युति, दीप्ति, कांति, झलक, चमक जैसे भाव हैं । बनावटी, दिखावटी और आडम्बरपूर्ण व्यवहार के सम्बन्ध में भी मुलम्मा शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे – “कई बार लगता है मानो धर्मनिरपेक्षता हमारी सांविधानिक पहचान न होकर मुलम्मा है ।” सस्ती धातु से बने बरतनों और गहनों पर सोने चांदी का पानी चढ़ाने वाले कारीगर को मुलम्मासाज कहते हैं । यह प्रक्रिया मुलम्मासाज़ी या मुलम्माकारी कही जाती है । मुलम्मा के तद्भव रूप मुलमा में तुर्की का ची प्रत्यय लगाकर मुलमची जैसा शब्द भी बनाया गया जिसका अर्थ भी मुलम्मासाज़ ही होता है । मराठी में मुलम्मा को मुलामा कहते हैं । हैंस व्हेर और मिल्टन कोवेन के अरबी-इंग्लिश कोश के मुताबिक लम्अ का अर्थ ज्योति, झिलमिल, जगमग, दिपदिप, द्युति, चमक आदि का भाव है । यह चमक प्रतिभा की भी हो सकती है, किसी वस्तु की भी । इसमें परिमार्जन से पैदा कांति का भाव भी है और शुद्धिकरण से पैदा दीप्ति भी ।
फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगास के फ़ारसी अंग्रेजी कोश के में मुलम्मा के जो अर्थ प्राथमिक क्रम में दिए हैं उनके अनुसार अलग अलग रंगों के घोड़ों को भी मुलम्मा कहते हैं । एक विशिष्ट काव्य विधा जिसमें किसी छंद का आधा हिस्सा एक भाषा में और आधा किसी दूसरी भाषा में होता है । ऐसा प्रयोग दोहा या शेर जैसे छंद में किया जाता है जिसमें दो पंक्तियाँ होती हैं । आमतौर पर मुलम्मा विधा का ज़िक्र तुर्की फ़ारसी के संदर्भ में हुआ है जिसमे अरबी का मिश्रण होता है । गौरतलब है कि इस्लामी प्रभाव बढ़ने के बाद राजनीतिक संदर्भों में फ़ारसी और तुर्की पर अरबी प्रभाव बढ़ने लगा था । अरबी प्रभाव वाली फ़ारसी और अरबी प्रभाव वाली तुर्की का वहाँ के विद्वानों ने समय समय पर विरोध किया मगर फिर भी अरबी का असर बना रहा । अरबी की यही चमक या झलक जिस विधा में सर्वाधिक रही उसे ही मुलम्मा कहा गया । तीसरे क्रम पर स्टेंगास मुलम्मा का अर्थ किसी धातु पर दूसरी धातु के विद्युत-लेपन, आवरण अथवा परत चढ़ाना बताते हैं । स्पष्ट है कि मुलम्मा का मुख्य अर्थ चमक या झलक ही है ।
जो भी हो, यह चमक ही उस वस्तु की नई पहचान है । इसीलिए समझा जा सकता है कि एक काव्यविधा के तौर पर मुलम्मा से आशय उस विशिष्ट छंद से है जिसमें एक भाषा पर दूसरी भाषा की छाप नज़र आती है । इसे हिन्दी और हिन्दुस्तानी से समझ सकते हैं । आज़ादी से पहले की हमारी ज़बान हिन्दुस्तानी थी जिसमें अरबी, फ़ारसी शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग होता था । आज़ादी के बाद परिनिष्ठित हिन्दी ने ज़ोर पकड़ा और फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग काफ़ी कम हुआ । तो पहले की जो हिन्दुस्तानी थी वो मुलम्मा थी, क्योंकि उस में अरबी-फ़ारसी की झलक थी । ध्यान रहे मुलम्मा यानी झलक । चाँदी पर सोने का मुलम्मा यानी सोने की झलक । पीतल पर चांदी का पॉलिश यानी सोने की झलक ।

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Saturday, April 14, 2012

चालान और चाल-चलन

challan_bobशब्द-संदर्भःनीलाम, विपणन, पण्य, क्रय-विक्रय, गल्ला, हाट, दुकान, पट्टण, पोर्ट, पंसारी

जी विकोपार्जन और ज्ञानार्जन के निमित्त ही मनुष्य निरन्तर भटकता रहा है जिसके चलते कई तरह के काम और कार्यक्षेत्र विकसित होते चले गए । इन गतिविधियों से भाषाएँ भी विकसित होती रहीं । व्यापार-व्यवसाय ने ही भाषा को सर्वाधिक समृद्ध किया है । वही भाषाएँ विस्तार पाती रहीं जिनका बाज़ार से सीधा रिश्ता था । महाजनी व्यवस्था ने हिन्दी को कई शब्द दिए हैं । ऐसा ही एक शब्द है चालान, जिसका इस्तेमाल रोजमर्रा ही हिन्दी में खूब होता है । चालान का चलने से रिश्ता है । यह सिर्फ़ शब्द भर नहीं है, बल्कि ऐसी व्यवस्था का नाम है जिससे हर वर्ग के व्यक्ति का साबका पड़ता ही है । व्यापारी, कर्मचारी, छात्र, किसान और अपराधी, चाहे कोई भी हो, सभी को चालान से गुज़रना पड़ता है । यातायात के नियमों को ताक में रख कर गाड़ी तेज़ चलाई तो भी चालान कटाना पड़ता है । किसी परीक्षा में शामिल होने के लिए निर्धारित फीस के लिए जो दस्तावेज भरा जाता है उसे भी चालान कहते हैं । अपराधियों की अदालत में पेशी के संदर्भ में भी चालान शब्द का प्रयोग होता है ।
चालान शब्द बहुत प्राचीन नहीं लगता । इसमें मूलतः निकासी का भाव है । किसी चीज़ की निकासी या प्राप्ति का आशय इसमें निहित है । चालान chalan में अपराधियों का तबादला, भेजा हुआ या आया हुआ माल, असबाब, बड़ा ज़खीरा, रुक्का, रसीद, पावती, इनवॉइस, वाऊचर जैसे तमाम निहितार्थ हैं । अगर यह फ़ारसी भाषा का शब्द होता तो मुस्लिम शासन की राजस्व सम्बन्धी तमाम शब्दावलियों की तरह इसका उल्लेख भी प्राचीन दस्तावेज़ों में मिलता । चालान शब्द अठारहवी सदी के अन्त में ( 1790 ) कम्पनीराज में नज़र आता है । अनुमान है कि यह उस महाजनी व्यवस्था से उपजा शब्द है जो कम्पनीराज में खूब फली-फूली । ईस्ट ईंडिया कम्पनी ने व्यापार करने के लिए दलालों-महाजनों का एक सुगठित तन्त्र विकसित किया था । ये लोग भारत के दूरदराज़ कोनों से कच्चा माल इकट्ठा करता था और फिर उसे ब्रिटेन भेजने के लिए मुम्बई, कोलकाता के बंदरगाहों तक पहुँचाया जाता था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए काम करने वाले अनेक भारतीय एजेंट वहाँ तैनात होते थे । इसी तरह फ़सल खराब होने की स्थिति में किसानों को नई फ़सल बोने के लिए ऋण उपलब्ध कराने और फिर फ़सल को बाज़ार तक पहुँचाने की प्रक्रिया भी चालान की श्रेणी में आती थी । कम्पनी राज ने इस शब्द को अपनाया और इसका रूप challan हुआ । माल परिवहन की शब्दावली का यह खास शब्द बना ।
चालान शब्द में मूल रूप से रसीद, रुक्क़ा, बिल, बिल्टी, बीजक आदि का आशय है । कुछ सन्दर्भों में चालान को फ़ारसी का शब्द बताया गया है । द पर्शियन कंट्रीब्यूशन टू द इंग्लिश लैंग्वेज में गारलैंड हैम्पटन चालान शब्द का फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ रसीद, इनवॉइस या बंदियों का तबादला पत्र लिखते हैं । हालाँकि वे खुद इसका प्रचलन 1958 से मानते हैं । द इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (गूगल बुक्स) के मुताबिक- प्राप्तियों और भुगतान सम्बन्धी वित्तीय लेनदेन का ब्योरा जिस दस्तावेज़ में दर्ज़ किया जाता है उसे 'चालान' कहते हैं । सिल्करोड- एन एथ्नो-हिस्ट्री ऑफ़ लद्दाख में जेक्लीन फोक्स लिखती हैं- “चालान एक ऐसा रुक्का या रसीद है जिसमें माल की लदान का ब्योरा होता है और आमतौर पर इसकी तीन प्रतिलिपियाँ बनाई जाती है जो क्रमशः विक्रेता, मध्यस्थ या माल पहुँचाने वाला तथा क्रेता यानी खरीदार के लिए होती हैं । “
मूलतः रवानगी, निकासी, सिपुर्दगी या प्राप्ति जैसे भावों वाला चालान शब्द दरअसल चलान है जिसका अर्थ है चलना । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक मूल शब्द चलान है जिसका उर्दू में चालान रूप प्रसिद्ध हुआ और फिर यही हिन्दी में भी प्रचलित हो गया । संस्कृत में एक धातु है चर् जिसमें घूमना-फिरना, गति, चलना, चक्कर काटना, भ्रमण करना आदि भाव हैं । गौर करें चर् धातु का ही अगला रूप चल् है जिसमे हिलना, गति करना, कांपना, धड़कना, सैर करना जैसे भाव हैं । हिन्दी का चल, चलना, चलित, चालित जैसे शब्द इससे ही बने हैं । पहाड़ स्थिर होते हैं, कभी चलते नहीं इसलिए चल् में उपसर्ग लगने से मनुष्य ने पर्वत के लिए अचल शब्द बना लिया जिसका लाक्षणिक अर्थ हुआ जो अडिग रहे, टस से मस न हो । चलते-चलते एक लीक बन जाती है । यही चलन है अर्थात ढंग, रीत । प्रचलन भी इससे ही बना है जिसका मतलब भी परम्परा ही है । मार्ग से भटकना अथवा गलत राह पर चलना ही विचलन है । चलान या चालान इसी चल् की कड़ी में हैं । जॉन प्लैट्स के कोश में भी यही संदर्भ है । माल को भेजने या चलने की क्रिया । किसी असबाब को एक जगह से दूसरी जगह भेजना । अपराधियों को पकड़ कर अदालत में पेश करना या जेल भेजना । अदालत में चालान पेश किया जाता है । चालान कटना या चालान काटना यानी माल सिपुर्द करना । चालान आना या चालान मिलना यानी वह रुक्का या रसीद प्राप्त करना जिसमें माल के आने की सूचना होती है ।
मेरा आजीवन कारावास पुस्तक में क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर ने चालान का कई जगह उल्लेख किया है । वे लिखते हैं- “चालान हमारे काराशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । चालान का अर्थ है उस जहाज घाट का वह गुट, जिसके साथ विभिन्न कारागृहों में पड़े कालेपानी के दंडितों को इकट्ठा कर समुद्र पार अंदमान भेजने के लिए लाया जाता है । कालापानी की सजा पाए लोगों के लिए चालान एक आत्मगौरव से भरी संस्था का नाम था । कैदियों के जो जत्थे अंदमान भेजे जाने से पूर्व बंदरगाह की स्थानीय जेल में रखे जाते थे, वे चालान कहलाते थे ।” सबाल्टर्न लाइव्ज (1790-1920) में क्लेअर एंडरसन लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ़ से मॉरीशस, फिज़ी या अन्य उपनिवेशों में सज़ा भुगतने के लिए भेजे जाने वाले क़ैदियों के जत्थे चालान कहलाते थे । मूलतः इन्हें पानी के जहाज से भेजा जाता था और जहाज के यात्री-दस्तावेज को मूलतः चालान कहते थे, जो प्रकारान्तर से उस समूह की पहचान बन जाती थी । कुल मिला कर चालान में चलना शब्द अंतर्निहित है । औपनिवेशिक दौर की हिन्दी में प्रचलित आंग्ल-भारतीय शब्दों के प्रसिद्ध कोश हॉब्सन-जॉब्सन में चालान शब्द की प्रविष्टि न मिलना आश्चर्य की बात है ।

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Wednesday, April 11, 2012

बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही

Vue générale des grottes de Taq-e Bostanसम्बंन्धित आलेख-1.आखिरी मक़ाम की तलाश... पिया मिलन को जाना.…2. प्यारा कौन ? बैल , बालम या मलाई ?.3.लीला, लयकारी और प्रलय….
बो लचाल की भाषा को लय और अर्थवत्ता देने में मुहावरों का अहम क़िरदार होता है । एक मुहावरा पाँच वाक्यों के बराबर बात कह जाता है । इसीलिए मुहावरेदारा भाषा सहज और प्रवाही होती है । हिन्दी को समृद्ध बनाने में फ़ारसी के मुहावरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । आज़ादी के बाद जब हिन्दी के राजभाषा वाले स्वरूप के प्रति लोग कुछ सजग हुए तो उर्दू-फ़ारसी की ठसक वाली हिन्दुस्तानी ज़बान का रुतबा धीरे धीरे कम होने लगा । हालाँकि अरबी-फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल कम नहीं हुआ, मगर उनका बर्ताव हिन्दी शब्दों जैसी ही गै़रज़िम्मेदारी से होने लगा । कई शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल में असावधानी नज़र आने लगी क्योंकि इस ओर  हिन्दी वालों का ध्यान नहीं था । राजभाषा अब फ़ारसी, अंग्रेजी नहीं, हिन्दी थी । मिसाल के तौर पर एक मुहावरा है बलाए-ताक रखना । आमतौर पर किसी विषय को दूर रखने, उसकी उपेक्षा करने, मुख्यधारा से अलग रखने की कोशिश को अभिव्यक्त करने के लिए बलाए-ताक़ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है जैसे- “इमर्जेंसी में सत्ताधारी पार्टी ने कानून को बलाए-ताक रख दिया था ।“ ख़ास बात यह कि दशकों से इस मुहावरे का प्रयोग हो रहा है जबकि सही रूप है बालाए-ताक रखना । लोग समझते हैं कि किसी चीज़ को बला यानी दिक्क़ततलब समझ कर ताक पर रखा जा रहा है जबकि इसमें बला यानी मुश्किल, कठिनाई का भाव न होकर बाला यानी ऊँचाई का भाव है ।

बला’ और ‘बाला’ की रिश्तेदारी

ला शब्द का हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है । अरबी में विपत्ति, मुश्किल, कठिनाई, आपदा, दिक़्क़त, मुसीबत, कष्ट, संकट या परेशानी जैसी स्थितियों के संदर्भ में बला शब्द का प्रयोग किया जाता है । फ़ारसी कहावत सबने सुनी है- “ज़ल तू, ज़लाल तू, आई बला को टाल तू ।” इस कहावत में बला को उपरोक्त तमाम अर्थों में समझा जा सकता है । सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए फ़ारसी में नकारात्मक विशेषणों का प्रयोग भी होता है । क़यामत की ही तरह बला भी इस कड़ी में है । बला की खूबसूरती अथवा खूबसूरती या बला जैसे मुहावरों में बला विशेषण के तौर पर आया है । भाव है ऐसा सौन्दर्य जिसे देख कर आदमी सुध-बुध खो बैठे । जाहिर है ऐसा होना परेशानी वाली बात ही है, मगर इससे सौन्दर्य को भी सराहना मिल रही है । मगर बलाए-ताक़ में यह बला नहीं है क्योंकि बलाए-ताक का शाब्दिक अर्थ होगा ताक की बला यानी आले की परेशानी । इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता । हालाँकि बला और बाला दोनों ही शब्द सेमिटिक मूल के हैं और इनमें आपसी रिश्तेदारी है । मगर प्रस्तुत मुहावरे में ये बला और बाला दोनो अलग अलग छोर पर नज़र आते हैं । इसके लिए जानते हैं बालाए-ताक को ।

बाल का बोलबाला

सेमिटिक भाषा परिवार का एक ख़ास शब्द है बाल, जिसकी इस समूह की कई भाषाओँ में व्यापक अर्थवत्ता है । दिक्कत, परेशानी, अनिष्ट, कष्ट आदि अर्थों में ही यह अज़रबेजानी में बेला है, फुलानी में यह आलबला है तो ग्रीक में यह पेलास है । अफ्रीका की हौसा भाषा में यह बालाई है, हिन्दी और इंडोनेसियाई में इसे बला कहते हैं तो किरगिज़ी में यह बलाआ है । रोमानी में इसका रूप बेलिया है और उज्बेकी में यह बलो है । सुमेरी संस्कृति में इसका मतलब होता है -सर्वोच्च, शीर्षस्थ या सबसे ऊपरवाला । हिब्रू में इसका मतलब होता है परम शक्तिमान, देवता अथवा स्वामी । गौरतलब है कि लेबनान की बेक्का घाटी में बाल देवता का मंदिर है । हिब्रू के बाल (baal) में निहित सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान जैसे भावों का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। संस्कृत में इसी बाल या बेल का रूप बलम् देखा जा सकता है जिसका अभिप्राय शक्ति , सामर्थ्य , ताकत, सेना, फौज आदि है । एक सुमेरी देवता का नाम बेलुलू है। गौर करें कि संस्कृत में भी इन्द्र का एक विशेषण बललः है । अनिष्टकारी शक्ति के , आसमानी मुसीबत, विपत्ति आदि के लिए हिन्दी में बला शब्द खूब प्रचलित है । यह अरबी फारसी के जरिये हिन्दी में आया । अरबी में इसका प्रवेश हिब्रू के बाल की ही देन है अर्थात बला में बाल की शक्तिरूपी महिमा तो नज़र आ रही है। इससे कुछ हटकर संस्कृत में बला शब्द मंत्रशक्ति के रूप में विद्यमान है । गौर करें की दूध के ऊपर जो क्रीम जमती है उसे हिन्दी में मलाई कहते हैं। मलाई को उर्दू, फारसी और अरबी में बालाई कहते हैं क्योंकि इसमें भी ऊपरवाला भाव ही प्रमुख है । जो दूध के ऊपर हो वही बालाई । पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाख़ाना कहते थे । बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान।
क्या है ताक़
बालाए-ताक़ में यह ऊपर का भाव महत्वपूर्ण है । हिन्दी में आमतौर पर  ताक tak/tāḳ शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है मगर इसका मूल फ़ारसी है। अरबी केطاق  ताक़ taq ( tāḳ/ṭāq ) का अर्थ है बल, क्षमता, शक्ति है जिससे ताक़त, ताक़तवर जैसे शब्द बनते हैं। साथ ही इसका अर्थ मेहराब भी है और वो घुमावदार कमानीनुमा आधार भी जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है। वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है अर्थात उसके बूते छत टिकी रहती है। भाव है ताक़त देना। उसे क्षमता प्रदान करना। अरबी का طاقت ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है। हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान। यह भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था। पुराने ज़माने में ऐसे ताक़ आमतौर पर छत से कुछ नीचे, दीवार के ऊपरी हिस्से में रोशनदान के लिए बनाए जाते थे। ताक़चा tāḳchá यानी वह छोटा आला जो कुछ ऊँचाई पर दीवार में बना हो। लोगों की पहुँच से दूर, सुरक्षित रखने के लिए भी ऐसे मेहराबदार खाँचे बनाए जाते थे। इसे ही ताक़ कहते थे । बालाए-ताक़ का अर्थ हुआ ताक़ यानी मेहराबदार दीवार का सबसे बाला हिस्सा यानी सबसे ऊँचा हिस्सा । किसी मुद्दे, विषय या चर्चा सूत्र को दरकिनार करने के संदर्भ में बालाए-ताक़ का प्रयोग होता है। जैसे- इसी सत्र में महिला विधेयक पर बात होनी थी, मगर सत्ता पक्ष ने उसे बालाए-ताक़ रखा । स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि इस विषय पर चर्चा हो इसलिए इसे अलग – थलग करने, इसे पहुँच से दूर रखने के लिए उसने कई हथकण्डे अपनाए । यही है बालाए-ताक़ रखना मुहावरे का सही अर्थ।
ताक़ में नक़्क़ाशी
ताक़ शब्द अरबी में फ़ारसी मूल से गया है । जॉन प्लैट्स के कोश में ताक़ का अर्थ मेहराब, खिड़की, आला, कॉर्निस, खाँचा, कोना, छज्जा और बालकनी आदि है । ताक़ अगर अरबी में फ़ारसी से गया है तो ज़ाहिर है कि यह इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता किन्हीं अर्थों में संस्कृत, अवेस्ता आदि भाषाओं से भी होगा । इसका स्पष्ट संकेत कहीं नहीं मिलता । फ़ारसी संदर्भों में पश्चिमी ईरान के पहाड़ी प्रान्त करमानशाह में दूसरी से छठी सदी के बीच निर्मित महान स्थापत्य ताक़ ए बोस्ताँ से मिलता है । ये स्थापत्य दरअसल सासानी काल में ईरानी शिल्पकारों द्वारा पहाड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण कला के महानतम नमूने हैं । चट्टानों पर नक्काशी के जरिये मेहराबदार खुले कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर ईरान के इतिहास और जरथ्रुस्तकालीन प्रसंग उत्कीर्ण हैं । ईरान में इसे प्राचीनकाल से ही ताक़ ए बोस्ताँ कहा जाता है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता संस्कृत के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । तक्षन या तक्षक का अर्थ शिल्पकार, दस्तकार होता है । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो।
इन्हें भी देखें- 1.ठठेरा और उड़नतश्तरी
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Sunday, April 8, 2012

ट्रंक का खानदान

trपिछली कड़ियाँ-1.बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग.2कनस्तर और पीपे में समाती थी गृहस्थी.3

क्से की तरह ही ट्रंक trunk भी कई दशकों से भारतीय गृहस्थी की एक ज़रूरी व्यवस्था बना हुआ है । चीज़ों को उनके लक्षणों के आधार पर ही नाम मिलता है । शरीर को तन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें लगातार वृद्धि होती है । संस्कृत की तन् धातु में विस्तार, वृद्धि का भाव है । तानना यानी विस्तार करना क्रिया के मूल में तन् धातु ही है । जो लगातार विस्तारित हो, वही तन है । पेड़ के मुख्य हिस्से को भी तना कहते हैं जो सम्भवतः इसी कड़ी का शब्द है । पेड़ के तने का भी लगातार विस्तार होता है । तने में ही काष्ठ का भण्डार होता है । तने की लकड़ी से ही विभिन्न वस्तुएँ बनती हैं । बॉक्स के मूल पाइक्सोन में मुख्य भाव ठोस, सघन और भरपूर मात्रा का संकेत है । लकड़ी के संदर्भ में ये सारी बातें पेड़ के तने की और इशारा करती हैं जिसे ट्रंक कहते हैं । भारत में आमतौर पर धातु की पेटी को ट्रंक कहा जाता है । किसी ज़माने में ट्रंक भी लकड़ी के ही बनते थे । भारत में भी रईसों के यहाँ पहले लोहे के कब्ज़े वाले लकड़ी के ट्रंक इस्तेमाल होते थे मगर जब आम आदमी के पास ट्रंक पहुँचा, तब तक इसकी काया लौहावरण में ढल चुकी थी । आज भी कई घरों में खानदानी चीज़ों की तरह ट्रंक सहेज कर रखे जाते हैं । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला । जानते हैं, कैसे ।
ट्रंक मूलतः भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और वाल्टर स्कीट की कन्साइज़ एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद पुरानी फ्रैंच के ट्रांक tronc से हुई है जिसका मूल लैटिन ज़बान का त्रुंकस / ट्रंकस truncus शब्द है जिसका अर्थ है वह मुख्य हिस्सा, जिससे उसके सहायक हिस्से अलग किए जा चुके हैं । ज्यादातर संदर्भों में लैटिन के त्रुंकस का आशय पेड़ के ऐसे भारी तने से लगाया गया है जिससे उसके उसके उपांग अलग किए जा चुके हों अर्थात ऐसा तना जिससे जड़ और शाखाएँ का अलग की जा चुकी हों । त्रुंकसमें धड़ का भाव है । धड़ शरीर के उस मुख्य हिस्से को कहते हैं जिससे हाथ, पैर और सिर जुड़े रहते हैं । 1724 में प्रकाशित नैथन बैली की यूनिवर्सल एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी में ट्रंकस का आशय हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली महाधमनी और महाशिरा से भी है और किसी जगह का मुख्य आधार स्तम्भ से भी है । ध्यान रहे शरीर यानी तन का मुख्य आधार भी धड़ ही होता है । ट्रंक में धड़ का आशय भी है । हिन्दी का धड़ शब्द भी संस्कृत के धर् से बना है जिसका अर्थ है जो धारण करे । धड़ सभी अंगों को धारण करता है ।
ट्रंकस में मूलतः वृक्ष का अर्थ निहित है, न कि उपांगों से काट कर अलग किया जा चुका मुख्य आधार । विलियम फ्रॉली के इंटरनैशनल एन्साइक्लोपीडिया ऑफ लिंग्विस्टिक्स के मुताबिक त्रुंकसका मूल है dru-n [वृक्ष, काष्ठ] + -iko-s[ उपांग, हिस्से ] स्पष्ट है कि ट्रंकस से आशय उस मुख्यआधार से है जिसके साथ उसके दूसरे हिस्से भी जुड़े हों । बाद के दौर में त्रुंकस से बने ट्रंक में सिर्फ़ धड़ की अर्थवत्ता जुड़ गई । संस्कृत-हिन्दी में वृक्ष के लिए तरुवर, तरु, दारुकः, द्रु, द्रुम जैसे शब्द हैं जो इनके एक ही मूल की ओर इशारा करते हैं । संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसमें वृक्ष का भाव है। मूलतः यह गतिवाचक धातु है । इससे बने द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि होता है । वृक्ष के अर्थ में द्रु धातु का अभिप्राय भी गति से वृद्धि से ही है । इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है । कल्पद्रुम शब्द साहित्यिक भाषा में कल्पवृक्ष के लिए प्रचिलत है । द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष

जेब शृंखला की ये कड़ियाँ ज़रूर देखें... peti1. पाकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना [जेब-1]
2 टेंट भी ढीली, खीसा भी खाली
3 बटुए में हुआ बंटवारा
4 अंटी में छुपाओ तो भी अंटी खाली
5 आलमारी में खजाने की तलाश
6 कैसी कैसी गांठें
7 थैली न सही , थाली तो दे[जेब-7]

है जिसका प्रचलित नाम देवदारु है । द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागना, पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएँ । पंजाब की प्रमुख नदी का सतलुज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है । अंग्रेजी का ट्री और फारसी का दरख्त इसी मूल से जन्में हैं ।
ध्यान रहे भारत-ईरानी परिवार में द्रु में बहाव, गति, ले जाने के साथ साथ स्थिरता का भाव भी है । द्रु काएक अर्थ अगर वृक्ष है तो इसमें वृद्थि के साथ साथ स्थिरता भी है । वृक्ष अपने स्थान पर दृढ़ होते हैं, अडिग होते हैं । जूलियस पकोर्नी  भारोपीय धातु deru में वृक्ष का भाव देखते हैं और कुछ अन्य भाषाशास्त्रियों नें tru धातु की कल्पना करते हुए इसमें दृढ़ता, पक्कापन, ठोस और मज़बूत जैसे भावों को देखा है । पुरानी आइरिश के derb में पक्का, भरोसा का भाव है तो अल्बानी के dru का अर्थ लकड़ी या छाल है । हित्ती भाषा के ता-रू , अवेस्था के द्रवेना, दारु, संस्कृत के द्रु, वेल्श के दरवेन, गोथिक के त्र्यु , ओल्ड इंग्लिश के ट्रेवो समेत कई यूरोपीय भाषाओं के इन शब्दों का अर्थ लकड़ी या पेड़ है । हाथी की सूंड को भी ट्रंक कहते हैं ।
डॉ रामविलास शर्मा एक और दिशा में संकेत करते हैं । वे स्थिरता के अर्थ में स्थर् की कल्पना करते हैं और उसके एक पूर्व रूप धर् के होने की बात कहते हैं जिससे धारिणी के रूप में धरती शब्द बना । संस्कृत दारु, द्रुम, तरु, ग्रीक द्रुस, अंग्रेजी के ट्री में दरअसल धर् के रूपान्तर दर् और तर् हैं । प्राकृत धड, हिन्दी धड़, पेड़ के तने की तरह, मानव शरीर के शीशविहीन भाग का अर्थ देते हैं । संस्कृत तण्डक ( तना ), तन् ( शरीर ), हिन्दी तना, अंग्रेजी स्टौक, ( तना ), आदि स्थिरताबोधक हैं । यह भी दिलचस्प है की धर में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । धरा यानी धरती को देखें तो यह स्थिर जान पड़ती है मगर यह न सिर्फ़ अक्ष पर घूमती है बल्कि सूर्य की परिक्रमा भी करती है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । धृ की ही समानधर्मा धातु दृ बाद में विकसित हुई होगी ।
स तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी के ट्रंक में मुख्य आधार का भाव है । यह आधार कहीं मार्ग है, कहीं स्तम्भ है और कहीं तना है तो कहीं धड़ है । ट्रंक शब्द का प्रयोग महामार्ग के रूप में भी होता है जैसे ग्रांड ट्रंक रोड । देश के सुदूर पश्चिमोत्तर को धुर पूर्वी छोर से जोड़नेवाला जो महामार्ग सदियों तक हिन्दुकुश के पार से आने वाले कारवाओं से गुलजार रहा, उसे शेरशाह सूरी ने व्यवस्थित राजमार्ग का रूप दिया था । अंग्रेजों ने उसका नाम ग्रांड ट्रंक रोड रखा जो पेशावर से कलकत्ता तक जाता था । इसे अब जीटी रोड कहा जाता है । रेलवे में भी ट्रंक लाईन होती है । जीटी एक्सप्रेस एक प्रसिद्ध ट्रेन का नाम है । ट्रंक का प्रयोग दूरसंचार प्रणाली में भी होता है । संचार नेटवर्क का खास रूट ट्रंक कहलाता है । पुराने ज़माने में दूरदराज स्थानों पर टेलीफ़ोन क़ॉल के लिए ट्रंक लाईन का इस्तेमाल होता था जिसे ट्रंककॉल कहा जाता था । ट्रंक में निहित बक्से का भाव वृक्ष के मोटे पुष्ट तने से स्पष्ट हो रहा है । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला ।

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Saturday, April 7, 2012

बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग

box

सामान रखने की व्यवस्थाओं, उपकरणों के लिए हिन्दी में कई शब्द प्रचलित हैं जिनमें बक्सा, डिब्बा, संदूक, ट्रंक, पेटी, कनस्तर ऐसे नाम हैं जो हिन्दी में सदियों से प्रचलित हैं । ध्यान रहे कि इन सभी में किसी भी तरह का सामान भरा जा सकता है । अटैची, ब्रीफ़केस, सूटकेस जैसी चीज़ें भी बक्से की श्रेणी में ही आती हैं मगर इनमें सिर्फ़ कपड़े या दस्तावेज़ रखे जा सकते हैं । इनका आकार छोटा होता है जबकि ट्रंक बड़े बक्से को कहते हैं । बड़े संदूक को संदूकचा और छोटे को संदूकची कहा जाता है । इसी तरह बॉक्स box बड़ा और छोटा भी हो सकता है । बक्से में बेशकीमती सामान से लेकर कपड़े, बर्तन और किराना जैसी गृहस्थी की हर तरह की सामग्री रखी जा सकती है ।
हिन्दी में बॉक्स का चलन कम से कम दो सदी पुराना है और अन्य कई आप्रवासी शब्दों की तरह यह भी यूरोपीय कारोबारियों के जरिये भारतीय बोलियों में प्रचलित हुआ । जहाजों से लद कर जो माल भारतीय तटों पर उतारा जाता था वह लकड़ी के बड़े बड़े संदूकों में भर कर लाया जाता था जिन्हें बॉक्स कहते थे । हिन्दी में यह शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ और इसके कई रूपान्तर सामने आए जैसे- बॉक्स, बाक्स, बकसा, बक्स, बकस, बकसी, बक्सा, बकसिया आदि । बॉक्स में जहाँ बड़ा आकार है वहीं संदूकची के अर्थ में देशी भाषा में बकसिया शब्द भी बना लिया गया । बॉक्स मूलतः लकड़ी से बना एक पात्र है जिसमें बहुत सारा सामान रखा जाता है । पुराने ज़माने से ही हल्की लकड़ी से डब्बे बनाए जाते थे क्योंकि उनमें माल ढोने में सुविधा होती थी ।
बॉक्स बना है लैटिन के बक्सिस buxis या बक्सस buxus से जिनमें लकड़ी के संदूक या एक किस्म की झाड़ी का भाव है । विभिन्न संदर्भों के मुताबिक यह ग्रीक भाषा के पाइक्सोस pyxos से बना है । एटिमऑनलाइन के मुताबिक ग्रीक पाइक्सोस का मूल अज्ञात है मगर इसका अर्थ अंग्रेजी में बॉक्स ट्री बताया गया है अर्थात बॉक्स प्रजाति का पेड़ । कुछ सन्दर्भों में बॉक्स-ट्री का आशय ऐसी वनस्पति से है जिसकी लकड़ी से संदूक बनता है मगर ऐसा नहीं है । बक्सस से बने बॉक्स में सघनता का भाव है । पाइक्सोस का एक और ग्रीक रूप पाइक्नोस है । चैम्बर्स डिक्शनरी में पाइक्नोस का अर्थ भीड़, समूह, भरा हुआ, संकुल आदि बताया गया है वहीं जॉन ओगिल्वी की स्टूडेन्ट इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें सघनता का भाव है ।
ध्यान रहे कि शुरुआती दौर में संदूक हल्की लकड़ी वाली बुश झाडियों के तने से भी बनाए गए और भारी तनों वाले वृक्षों की लकड़ी से भी । मूलतः पाइक्नोस में सघनता का भाव है जिसका रिश्ता मोटे तने वाले वृक्ष से है । प्रायः सभी सभ्यताओं में मानव विकास क्रम में समानता रही है । उपकरणों और वस्तुओं के विकास के पीछे की अवधारणा एक जैसी रही है और उनके निर्माण की प्रक्रिया भी । प्राचीन सभ्यताओं पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि कोई भी खोखला स्थान वस्तुओं को रखने, रहने के रूप में इस्तेमाल होता रहा है । चट्टानों को खोखला कर मनुष्य ने कंदरा बनाई-खुद के रहने के लिए और लकड़ी को खोखला कर उसने पात्र बनाए । पुराने दौर में समूचे वृक्ष को खोखला कर, कुरेद कर डोंगियाँ बनाई जाती थीं । इसके लिए वृक्ष का सघन तना होना ज़रूरी था । वृक्ष के आधार वाले सबसे चौड़े हिस्से को खोखला करने ही आदिम बॉक्स बने । पानी भरने की नांद भी इसी तकनीक से बनाई जाती थीं । बक्से का शुरुआती रूप यही था । बाद में लकड़ी के फट्टों को जोड़ कर सुंदर नक्काशीदार बक्से बनने लगे । एलिजाबेथ ब्रैमब्रिज और बॉबी मेयर द्वारा बॉक्स ट्री पर लिखी किताब से पता चलता है कि लैटिन का बक्सस ग्रीक भाषा के पाइक्नोस या पाइक्सोस का रूपान्तर है जिसका अर्थ है सुंदर नक्काशी के साथ बना हुआ लकड़ी का डिब्बा ।
पाइक्नोस शब्द में मूलतः सघनता पिण्ड का भाव था इसका पुख़्ता संकेत वाल्टर पी राइट के इन्साक्लोपीडिया ऑफ़ गार्डनिंग से मिलता है । वाल्टर के मुताबिक पाइक्नोस का अर्थ है गहन, घनीभूत, भरपूर जिसे आमतौर पर लकड़ी के तने की चौड़ाई और उसकी मोटाई के संदर्भ में लिया जाता है । किन्हीं संदर्भों में पाइक्नोस को सुगठित, ठोस, मोटा भी बताया गया है । कुल मिलाकर संदूक निर्माण के लिए वृक्ष को मुख्य स्रोत मानते हुए उसकी गुणवत्ता के ये आधार महत्वपूर्ण हैं और किसी बॉक्स ट्री में लकड़ी का भरपूर उपलब्धता सिद्ध होती है । यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रीक के पाइक्नोस से पाइक्सोस बना । इससे ही लैटिन का बक्सस बना जिससे अंग्रेजी का बॉक्स शब्द बना ।
मुक्केबाजी बेहद मशहूर खेल है जिसे बॉक्सिंग boxing कहा जाता है । बॉक्सिंग बना है बॉक्स से जिसका एक अर्थ घूँसा भी होता है । अंग्रेजी में बॉक्स का अर्थ है प्रचंड वेग, प्रचंड प्रहार । एटिमऑनलाइन के मुताबिक इसकी व्युत्पत्ति निश्चित नहीं है । सम्भवतः यह मध्यकालीन ड्यूश के बोक, मध्यकालीन जर्मन के बक या डेनिश बास्क से बना है । इन सभी का अर्थ प्रहार होता है । अंग्रेजी का बैश इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ है घूँसा, मुक्का । जॉन ओगिल्वी के मुताबिक घूँसे के अर्थ वाले बॉक्स का जन्म भी पाइक्नोस से हुआ है जिसमें ठोस, पुख्ता और भरपूर जैसा भाव है । ओगिल्वी बॉक्स चेहरे पर खुला छोड़ा गया ऐसा आघात बताते हैं जो कान तक जाता हो । हिन्दी में इसे ही कनचप्पा कहते हैं । बाद में यह आघात मुक्के या घूँसे के अर्थ में रूढ़ हो गया ।

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Friday, April 6, 2012

टिकट की रिश्तेदारियाँ

ticket

गर पूछा जाए कि फ़िरंगी ज़बान के वे कौन से शब्द हैं जिनका इस्तेमाल भारतीय भाषाओं के लोक साहित्य में खूब हुआ है । फिरंगी शब्द का मतलब यूँ तो विदेशी होता है मगर हिन्दी में फ़िरंगी से अभिप्राय अंग्रेजों से है इसलिए फ़िरंगी भाषा यानी अंग्रेजी भाषा से ही आशय है । हिन्दी और उसकी आंचलिक बोलियों में जैसे राजस्थानी, मालवी, ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओं के लोकगीतों के संदर्भ में ऐसे शब्द गिने-चुने ही हैं मगर इनमें भी फ़िरंगी के साथ रेल और टिकट ऐसे हैं जिनका उल्लेख कई लोकगीतों में हुआ है । गौरतलब है कि भारत में रेल और टिकट शब्द का इस्तेमाल एक साथ ही शुरू हुआ । 1853 में भारत में रेल चलने के बाद ही लोग टिकट से परिचित हुए । ज़ाहिर है कि रेल से ज्यादा तेज यातायात सेवा इससे पहले तक नहीं थी । यह भी दिलचस्प है कि हिन्दी के तेज और अंग्रेजी के टिकट में रिश्तेदारी है क्योंकि टिकट शब्द भी भारोपीय मूल का ही है । टिकट शब्द अंग्रेजी के सबसे ज्यादा बोले जान वाले शब्दों में एक है । टिकस, टिकिट, टिकट, टिकटवा, टिकस बाबू जैसे अनेक शब्द हैं जो इससे बने हैं और लोकांचल में खूब बोले जाते हैं । टिकट जैसी व्यवस्था विभिन्न सेवाओं के लिए प्रचलित हुई और बाद में देशसेवा के लिए भी राजनीतिक पार्टियों में टिकट खरीदे बेचे जाने लगे ।
चिपकाना, सटाना, छेदना
टिकट शब्द का रिश्ता कि फ्रैंकिश भाषा में एस्टिकर से है जिसका अर्थ होता है चिपकाना, नत्थी करना आदि होता है । एटिमआनलाइन के मुताबिक इस एस्टिकर का रिश्ता पुरानी अंग्रेजी के stician से जुड़ता है जिसमें भेदना, चस्पा करना जैसे भाव हैं । एस्टिकर से पुरानी फ्रैंच का एस्टिकट शब्द बना जिसमें चिप्पी, रुक्का या पर्चा है । मध्यकालीन फ्रैंच में इससे एटिकट शब्द बना जिससे अंग्रेजी का टिकट शब्द सामने आया । एटिमआनलाइन के मुताबिक 1520 के दौर में यह शब्द मौजूदा रूप में प्रकट हुआ जिसमें शार्ट नोट, रुक्का या किसी दस्तावेज का भाव था । 1670 तक इसमें टिकट, लाइसेंस या परमिट जैसे भाव जुड़ गए । इनके मूल में भारोपीय धातु *steig- है जिसमें खोसना, खुबना, चुभोना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसमें तीक्ष्णता का आशय उभरता है । याद रहे महत्वपूर्ण दस्तावेज के साथ टिकट या रसीद नत्थी करने के लिए पिन का उपयोग किया जाता है । नत्थी करने या सटाने के आशय का अर्थ विस्तार चिपकाना हुआ । अंग्रेजी का स्टिकर भी इसी मूल का है जिसमें चिपचिपी सतह वाले लेबल का आशय है । कुल मिला कर टिकट एक ऐसी रसीद है जिसे किसी सेवा के उपयोग हेतु अधिकार पत्र, लाइसेंस या परमिट का दर्जा प्राप्त है । निर्धारित प्रारूप में आवेदन करने या सेवा का मूल्य चुकाने के बाद आधिकारिक सील ठप्पे वाला यह रुक्का टिकट कहलाया । रसीदी टिकट भी प्रचलित है । 
तीक्ष्ण, तीखा और मार्गदर्शक
भारोपीय धातु *steig- से रिश्तेदारी वाली संस्कृत धातु तिज् है जिसमें तीक्ष्णता का भाव है । मोनियर विलियम्स के कोश में तिज्, तिक् और तिग् समानधर्मी धातुओं का उल्लेख है जिनकी अर्थवत्ता में यही सब बातें हैं । तिज् का अवेस्ता में तिघ्री, तिग्रा जैसे रूपान्तर सामने आए । सिविलाइजेशन ऑफ़ द ईस्टर्न ईरानियंस इन एन्शिएंट टाइम्स पुस्तक में विल्हेम जैगर तिघ्री और तिग्मा की तुलना करते हुए प्राचीन ईरानी के स्तिज का उल्लेख करते हुए उसमें निहित तीखी नोक वाले हथियार का आशय बताते हैं । अंग्रेजी के स्टिक stick शब्द से छड़ी का अर्थ सबसे पहले उभरता है । नोकदार छड़ी आदिमानव का पसंदीदा हथियार था । मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में तिग्म का अर्थ तीखा, नोकदार, ज्वलनशील, प्रखर आदि बताते हैं । निश्चित ही भाला, तीर जैसे हथियारों का आशय निकलता है । इन तमाम शब्दों का रिश्ता स्टिक से है जिसके क्रिया रूप में सटाना, जोड़ना, चस्पा करना, चिपकाना जैसे भाव हैं और संज्ञा रूप में इसमें छड़ी, सलाख, दण्ड, डण्डी, संटी जैसे आशय हैं । मूल रूप से छड़ी या दण्ड भी प्राचीन काल में धकेलने, चुभोने, हाँकने, निर्देशित करने के काम आते थे । अंकुश की तीक्षणता और उसका शलाका-रूप याद करें । 
तेग़ यानी तलवार, कृपाण
त्तरी ईरान की जज़ाकी भाषा में चुभन और दंश के अर्थ में तिग शब्द है जिसे तलवार के अर्थ वाले तेग शब्द से जोड़ कर देखें । पहलवी में तिग्रा शब्द है जिसका अर्थ तलवार होता है । इसी तरह जॉन प्लैट्स के कोश में तेग़, तेग़ा जैसे फ़ारसी शब्दों का उल्लेख है जिनका अर्थ तलवार या कृपाण होता है । इन शब्दों का विकास ज़ेंद के तिघा से हुआ जिनका सम्बन्ध संस्कृत के तिज्, तिग्, तिग्म से ही है । तिग्म में प्रखरता, चमक , किरण का भाव है । तिग्मांशु का अर्थ सूर्य है । तलवार या कृपाण को हिन्दी में भी तेग ही कहते हैं । सिखों के दशम गुरू का नाम तेग बहादुर है । भारोपीय स्तिग, ईरानी स्तिज, संस्कृत की तिज, तिग और जेंदावेस्ता की तिघ् धातुओं में धार, तीक्ष्णता वाले अर्थों का विकास तिग्म, तेग, स्टिक जैसे शब्दों मे हथियार के रूप में हुआ । तीर का निशान राह बताता है । दिशासूचक के रूप में भी तीर लगाया जाता रहा है । पहलवी में तिग्रा तीक्ष्ण, धारदार है तो अवेस्ता का तिघ्री तीर का पर्याय है । स्टिक पहले हथियार थी, बाद में सहारा बनी । अशक्त, दृष्टिहीन व्यक्ति छड़ी से टटोलकर राह तलाशता है ।
तेज, तेजस, तेजोमय
तिज् से ही बना है हिन्दी का तेज शब्द । उर्दू-फारसी में एक मुहावरा है तेज़ी दिखाना। इसका मतलब है होशियारी और शीघ्रता से काम निपटाना। तेज शब्द हिन्दी में भी चलता है और फारसी में भी । फर्क ये है कि जहां हिन्दी के तेज में नुक़ता नहीं लगता वहीं फारसी के तेज़ में लगता है । फारसी-हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय यह शब्द मूलतः इंडो़-इरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत और अवेस्ता में यह समान रूप से तेजस् के रूप में मौजूद है । दरअसल हिन्दी , उर्दू और फारसी में जो तेज, तेज़ है उसके मूल में है तिज् धातु जिसका मतलब है पैना करना, बनाना । उत्तेजित करना वगैरह। तिज् से बने तेजस का अर्थ विस्तार ग़ज़ब का रहा। इसमें चमक, प्रखरता, तीव्रता, शीघ्रता जैसे भाव तो हैं ही साथ ही होशियारी, दिव्यता, बल, पराक्रम, चतुराई जैसे अर्थ भी इसमें निहित है । इसके अलावा चंचल, चपल, शरारती, दुष्ट, चालाक शख्सियत के लिए भी तेज़ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में तेजवंत, तेजवान , तेजस्वी, तेजोमय, तेजी जैसे शब्द इससे ही बने हैं । इसी तरह उर्दू – फारसी में इससे तेज़ निग़ाह, तेज़ तर्रार, तेज़ दिमाग़, तेज़तर, जैसे शब्द बने हैं जो व्यक्ति की कुशलता, होशियारी, दूरदर्शिता आदि ज़ाहिर करते हैं । दिलचस्प बात ये कि तीव्रगामी, शीघ्रगामी की तर्ज पर हिन्दी में तेजगामी शब्द भी है। सिर्फ नुक़ते के फर्क़ के साथ यह लफ्ज़ फारसी में भी तेज़गामी है ।
तीता और तीखा स्वाद
स्वाद के सन्दर्भ में जो तिक्त, तीखा जैसे शब्द भी इसी तिज् में निहित तीक्ष्णता से जुड़ते हैं । तेजी़ में तीखेपन का भाव भी है। तेज धार या तेज़ नोक से यह साफ है । दरअसल संस्कृत शब्द तीक्ष्ण के मूल में भी तिज् धातु है । तिज् से बना तीक्ष्ण जिसका मतलब होता है नुकीला, पैना, कठोर, कटु, कड़ा वगैरह। उग्रता , उष्णता, गर्मी आदि अर्थों में भी यह इस्तेमाल होता है । तीक्ष्ण का ही देसी रूप है तीखा जो हिन्दी के साथ साथ उर्दू में भी चलता है । इस तीखेपन में मसालों की तेजी भी है । तेज़ मिर्च-मसाले वाले भोजन को तीखा कहा जाता है । तिक्त भी इसी मूल का है जिससे मालवी, राजस्थानी में तीखे के अर्थ वाला तीता शब्द बना । भारतीय मसालों की एक अहम कड़ी के रूप में तेजपान, तेजपात, तेजपत्ता या तेजपत्री के रूप में समझा जा सकता है । अपनी तेज गंध और स्वाद के चलते तेजपत्र को भारतीय मसालों में खास शोहरत मिली हुई ।

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Wednesday, April 4, 2012

लियाक़त की नालायकी

लायक में ना उपसर्ग लगने से नालायक शब्द बनता है और किसी को मूर्ख, अयोग्य, नाकारा, निकम्मा, नाकाबिल क़रार देते हुए अक़्सर नालायक के ख़िताब से नवाज़ा जाता है ।
बोलचाल की हिन्दी में विभिन्न स्रोतों से आकर कई शब्द अपनी ख़ास पैठ बना चुके हैं । हिन्दी की तद्भव और देशज शब्दावली के साथ उनका हेलमेल इतना गहरा होता है कि उनके विदेशी मूल की शिनाख़्त मुश्किल लगती है । योग्यता और क़ाबिलियत का भाव प्रकट करने के लिए हिन्दी में लायक शब्द का खूब प्रयोग होता है । मूल रूप से लायक अरबी ज़बान का है और फ़ारसी के ज़रिए हिन्दी में प्रविष्ट हुआ है । “मेरे लायक कोई सेवा”, “फ़िलहाल बताने लायक कुछ नहीं है”, “ऐसा आदमी ढूंढो, जो लायक हो” इस तरह के वाक्य आए दिन हम बोलते-सुनते हैं । लायक में मूलतः उचित, उपयुक्त, पर्याप्त, ठीक, मुनासिब, योग्य, सही, सम्पूर्ण, गुणवान जैसे भाव हैं और प्रायः इन सभी अभिप्रायों को व्यक्त करने के लिए लायक शब्द का हम इस्तेमाल करते हैं ।
रबी में लायक का सही रूप है लाइक़ और हैन्स व्हैर की डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक के मुताबिक यह बना है लक़ा धातु से जिसमें गुण, पात्रता, क़ाबिलियत, उपयुक्तता, अनुकूलता जैसे भाव हैं । लायक का प्रयोग मूलतः गुणवाचक विशेषण या संज्ञा की तरह होता है । लायक वही है जो समर्थ, उचित, योग्य, गुणी या उपयुक्त है । लायक में ना उपसर्ग लगने से नालायक शब्द बनता है और किसी को मूर्ख, अयोग्य, नाकारा, निकम्मा, नाकाबिल क़रार देते हुए अक़्सर नालायक के ख़िताब से नवाज़ा जाता है । लायक से लायकी भी बनता है जिसमें शिष्टता, उपयुक्तता, समर्थता जैसी अर्थवत्ता है । लायक का एक रूप लईक़ भी है जो संज्ञानाम की तरह प्रयुक्त होता है जैसे लईक़ खान या लईक़ एहमद । लायक का इस्तेमाल लाइक़ की तरह अज़रबैजानी, तुर्की, फ़ारसी समेत कई भारतीय भाषाओं में होता है । मराठी में नालायक की तरह अयोग्य अथवा अनुचित के लिए ग़ैरलायक भी चलता है । इसका ग्रामीण रू ल्याख है । लायक की कड़ी में ही लियाक़त शब्द भी आता है जो बना है अरबी के लिआक़ा से । लिआक़ा भी विशेषण है जिसमें नेक, योग्य, आदरणीय, समर्थ, ईमानदार जैसे भाव हैं । लियाक़त में हर अर्थ में क़ाबिल, उचित, सही का भाव है । उसमें किसी चीज़ की लियाक़त नहीं है जैसे वाक्य से स्पष्ट है कि इसमें सर्वगुणसम्पन्नता वाली अर्थवत्ता समायी है । लईक़ की तरह लियाक़त भी संज्ञानाम की तरह इस्तेमाल होता है जैसे लियाक़त अली खान, लियाक़त हुसैन आदि ।
हिन्दी का काबिल भी ऐसा ही एक शब्द है जो बोलचाल की भाषा में बीती कई सदियों से हिन्दी का अपना शब्द बन चुका है । क़ाबिल यानी योग्य, कुशल, दक्ष, विद्वान, होशियार, बुद्धिमान और समझदार। हिन्दी में नुक़तों का चलन नहीं है मगर अरबी क़ाबिल में नुक़ता लगता है । क़ाबिल से ही बनता है क़ाबिलियत जिसका अर्थ विद्वत्ता, बुद्धिमानी, योग्यता, समझदारी है । क़ाबिल और क़ुबूल में रिश्तेदारी है और ये दोनों सेमिटिक धातु क़-ब-ल q-b-l से जन्में हैं । क़-ब-ल q-b-l में मूलतः स्वीकार का भाव है । अरबी में इससे क़बूलियत भी बना है जिसका अर्थ है स्वीकृति अथवा मंज़ूरी मगर यह हिन्दी में कम चलता है। हिन्दी ने कबूल से कबूलना जैसा शब्द भी बना लिया है। स्वीकार के अलावा इस धातु में निकटता, सामीप्य, विनम्रतापूर्वक लेना या पाना जैसे भाव भी हैं । इन भावों का विस्तार क़ाबिल में नज़र आता है । बिना ज्ञानार्जन के योग्यता नहीं आती । ज्ञान को सविनय हासिल करना पड़ता है । जिसे मन, वचन और कर्म से सिद्ध कर लिया जाए, वही विद्या सार्थक होती है । सो क़ाबिल में क-ब-ल धातु के सभी भाव निहित हैं । क़ाबिलियत के लिए क़बूलियत ज़रूरी है । जो योग्य है वही समर्थ है । सामर्थ्यवान व्यक्ति का समाज में मान-सम्मान होता है । क़ाबिल आदमी का यश होता है ।
क़ाबिल, लायक के लिए योग्य शब्द हिन्दी की तत्सम शब्दावली से आता है जिसके मूल में सस्कृत की युज् धातु है । युज् का अर्थ है उचित, सही तरीके से, जोड़ना, मिलाना, समान करना आदि हैं । इस धातु का उल्लेख शब्दों का सफ़र के कई आलेखों में विस्तार से हुआ है । उचित रीति से किन्हीं चीज़ों को साथ रखने से नया गुण पैदा होता है, यही योग्यता है । युक्त, उपयुक्त जैसे शब्द युज् से ही बने हैं । तरकीब के अर्थ में युक्ति और इसका अपभ्रंश जुगत होता है । मोनियर विलियम्स के कोश के मुताबिक योग्य का अर्थ है सही, उपयुक्त, काम के लायक, गुणवान, सामर्थ्यवान आदि जैसे- वह किसी योग्य नहीं है में संदर्भित व्यक्ति की अक्षमता, नाक़ाबिलित का उल्लेख है । युज् धातु में निहित मिलाने, जोड़ने जैसे अर्थों से योग्य में निहित योग्यता में चतुराई और युक्तिपूर्ण सामर्थ्य सिद्ध होती है ।
[इस कड़ी से सम्बद्ध क़ाबिल और योग्य से जुड़े शब्दों पर शब्दों का सफ़र में विस्तार से लिखा जा चुका है । कृपया देखे-1.क़िबला की क़ाबिलियत और क़बीला.2.जोड़तोड़ में लगा जुगाड़ी.3.चांदी का जूता, चंदन की चप्पल 4.जालसाज़ी के उपहार का योगदान !]

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Tuesday, April 3, 2012

तजुर्बाकारी की बातें

Scratchसम्बन्धित आलेख-1.मोची, मोजा, विमोचन और जुराब.2.लिफाफेबाजी और उधार की रिकवरी 3.चांदी का जूता, चंदन की चप्पल 4.जैकब, जैकेट और याकूब.5.जल्लाद, जल्दबाजी और जिल्दसाजी.6.सिर्फ मोटी खाल नहीं काफी…7.कृषक की कशमकश और फ़ाक़ाकशी

फ़ा रसी ज़बान से हिन्दी में आए अनेक शब्दों में तजुर्बा का भी शुमार है जिनका बोलचाल में रोज़ाना खूब इस्तेमाल होता है । तजुर्बा यानी अनुभव । अनुभव को भोगा हुआ यथार्थ भी कहा जाता है । आसान भाषा में समझना चाहें तो हमारे आसपास की वह सचाई जिसे इन्द्रियों के ज़रिए हमने जाना, परखा और फिर उसके बारे में अपनी राय कायम की, तजुर्बा बनती है । तजुर्बा मूलतः अरबी भाषा का शब्द है और हिन्दी में इसे अलग अलग ढंग से लिखा जाता है । हिन्दी के नामीगिरामी लेखकों के यहाँ इस शब्द की वर्तनी का बर्ताव अलग अलग मिलता है मसलन प्रेमचंद ने तजुर्बा भी लिखा है, तजरबा भी लिखा है और तजुरबा भी । इससे ज्यादा और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है । हिन्दी शब्दसागर तजरबा शब्द को तरजीह देता है जबकि ज्यादातर हिन्दी वाले तजुर्बा लिखना पसंद करते हैं । इसका शुद्ध अरबी रूप है तज्रिबह् या तज्रिबा । तजुर्बा में मूलतः अनुभव, प्रमाण, परीक्षण, सबूत, परीवीक्षण, जाँचना, कसौटी जैसे निहितार्थ है ।
रबी का तज्रिबा सेमिटिक धातु ज-र-ब ( j-r-b ) से बना है । हेन्स व्हेर, जे मिल्टन कोवेन, एन्थनी सेल्मॉन के अरबी कोश और बेवर्ली ई क्लैरिटी के इराकी अरेबिक कोशों को देखने के बाद यह स्पष्ट होता है कि इसमें मूलतः खुजली, खँरोंच और सूखी, पपड़ाई त्वचा जैसे मूल भाव हैं । विकास के दौर में मनुष्य ने काफ़ी वक्त उघाड़े बदन प्रकृति के सामीप्य में गुज़ारा है । खरोंच, ज़ख़्म, फोड़ा, फुंसी आदि को उसने सबसे पहले महसूस किया । ज-र-ब में इसी अर्थ में परीक्षण का भाव समाहित हुआ । किसी सतह को छू कर, स्पर्ष कर, कुरेद कर उसके बारे में जानना ही शुरुआती परीक्षण के दायरे में था । मद्दाह के कोश के मुताबिक ज-र-ब से जरब बनता है जिसका अर्थ है खुजली, ख़ारिश आदि । इससे ही जराब या जर्राब आते हैं जिसमें परीक्षण, आज़माईश, प्रयोग जैसे भाव हैं । इसी कड़ी में तज्रिबा बना जिसमें अनुभव वाली बात आती है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक वह ज्ञान जो परीक्षण द्वारा पाया जाए, तजुर्बा कहलता है । वह परीक्षा जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए दी जाए, यह भी तजुर्बा कहलाती है । अनुभवी के लिए तजुर्बेकार शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है । अनाड़ी को नातजुर्बाकार और अनाड़ीपन, अनुभवहीनता को नातजुर्बाकारी ( नातज्रुबाकारी ) कहते हैं ।
-र-ब का उल्लेख जुराब की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में हो चुका है । जुराब के सन्दर्भ में इसमें निकटता, सामिप्य जैसे भाव इसे खाल या त्वचा से जोड़ते हैं । जुराब मूलतः चमड़े से बना एक आवरण होता है । तजुर्बा के सन्दर्भ में भी ज-र-ब धातु सामने आती है । अनुभूति दो तरह की होती है । भौतिक और मानसिक । अनुभव का दायरा व्यापक है और हमारे अनुभव में वही यथार्थ सामने आते हैं जो मानसिक प्रक्रिया से गुज़रने के बाद सच के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं । मगर आदिकाल में मनुष्य अपने अनुभवों के दायरे में भौतिक अनुभूतियाँ ज्यादा थीं । ज-र-ब का एक अर्थ होता है सूखी, मोटी, खुरदुरी, रूखी त्वचा या पपड़ाई हुई सतह । ध्यान रहे शरीर से अलग की गई खाल का यही रूप होता है । शरीर की त्वचा इसलिए होती है क्योंकि उसकी ऊपरी कोशिकाएँ मरने लगती हैं । यह परत अपने आप अलग हो जाती है । रूखी त्वचा का आभास हमें खुजली के रूप में होता है । ज-र-ब धातु में खुजली का भाव भी है । ध्यान रहे त्वचा, हमारा रक्षा कवच है और इसका दूसरा महत्वपूर्ण गुण है अनुभूति होना । त्वचा बना है त्वच् धातु से जिसका मूलार्थ है स्पर्श । स्पष्ट है कि ज-र-ब का मूलार्थ भी स्पर्श के ज़रिये अनुभूति तक सीमित था किसी ज़माने में ।
सेमिटिक भाषा परिवार में और वर्ण आपस में बदलते हैं । ज-र-ब की समानधर्मा धातु है ज-र-र ( j-r-r )  जिसमें खींचने, कुरेदने का भाव है । शल्य चिकित्सक या सर्जन के लिए अरबी में जर्राह शब्द है जो चीरफ़ाड़ करके ज़ख्मों का इलाज करता है । यह शब्द पहले हिन्दुस्तानी में भी प्रचलित था, अब इसका प्रयोग कम हुआ है । जर्राह वाली चीरफ़ाड़ को खंरोंचना, कुरेदना वाले अर्थों में परखा जाए तो यह भी उसी मूल का शब्द निकलता है । इसी कड़ी में जरीब का परीक्षण भी कर लिया जाए । पुराने ज़माने में ज़मीन की नाप-जोख करने वाले व्यक्ति को जरीबकश कहते थे । मूलतः जरीब वह साँकलनुमा औज़ार होता था जिससे ज़मीन की पैमाईश होती थी । एक तरह से वह इंचटेप था । इसके दोनों छोरों पर लकड़ी या धातु का कीला होता था । एक सिरे पर इस कीले को गाड़ कर बाकी जंजीर को खींच कर दूसरे छोर तक ले जाया जाता था । ज़मीन पर लगातार रगड़ने की वजह से उसे धातु का बनाया जाता था । जरीब में उपजाऊ ज़मीन का आशय भी है और भूमि का नापने की एक इकाई भी जरीब कहलाती थी ।
गौर करें कि उपजाऊ ज़मीन ही जोती जाती है । जोतने की क्रिया को ही कृषि कहते हैं । संस्कृत में कृष् का अर्थ खींचना, खरोचना ही होता है । जोतने की क्रिया में हल का खींचना, उसके फाल से भूमि को कुरेदने, खरोचने की क्रिया स्पष्ट है । जरीब के जर्र में खींचने का निहितार्थ पैमाने के अर्थ में भी है और जोतने योग्य भूमि के अर्थ में भी । हिन्दी शब्दसागर में जरीब की माप 55 गज की और अग्रेजी जरीब 60 गज की होती है । एक जरीब में 20 कट्ठे होते हैं । जॉन प्लैट्स के मुताबिक एक जरीब भूमि का वर्गाकार टुकड़ा एक बीघा ज़मीन होती थी । इसी तरह पाँच जरीब का टुकड़ा एक हेक्टेयर के बराबर होता है ।

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Monday, April 2, 2012

हिम्मतवालों की मुहिम

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सा हस का सबसे पसंदीदा विकल्प अगर हिन्दी में कोई दूसरा है तो वह हिम्मत है । फ़ारसी की प्रसिद्ध कहावत हिन्दी में भी सैकड़ों बरसों से जस की तस हौसलाअफ़ज़ाई के लिए कही जाती है – “हिम्मते मर्दाँ, मददे खुदा । “ जो बात तीन अक्षरों वाले साहस में है, वही बात साढ़े तीन अक्षरों वाले हिम्मत में है । हिन्दी के खाते में साहस के मुकाबले हिम्मत का पलड़ा थोड़ा भारी इसलिए भारी नज़र आता है कि संज्ञानाम के तौर पर भी हिम्मत हिन्दी में डटा हुआ है जबकि साहस से कोई भी नाम नहीं बनता । राय, सिंह, मल, लाल जैसी प्रसिद्ध संज्ञाओं के साथ मिल कर हिम्मतराय, हिम्मतसिंह, हिम्मतमल, हिम्मतलाल जैसे नाम बनते हैं जबकि साहस के साथ ऐसा नहीं है । इस कड़ी में मशहूर लेखक राही मासूम रज़ा के प्रसिद्ध उपन्यास हिम्मत जौनपुरी को भी याद कर लें । यह इस उपन्यास के नायक का नाम ही है । सैकड़ों साल पहले सुदूर अरब से चल कर हिन्दी में दाखिल हुए हिम्मत के साथ साथ उसके और भी न जाने कितने नाते-रिश्तेवाले शब्द हिन्दुस्तानी बोलियों में डेरा डालने चले आए और फिर यूँ घुल मिल गए कि अब इनकी परदेसी शिनाख़्त भी कोई बताए तो भरोसा न हो । शब्दों का सफ़र यानी शब्दों-भाषाओं की यात्रा करते हुए सभ्यताओं, संस्कृतियों की विभिन्नता के बीच भी मानवीय विकास के ऐसे अनेक सूत्र मिलते हैं जहाँ धर्म-संस्कृतियों से परे, विभिन्नता के बीच भी हमारी एकता सिद्ध होती है । अग्नि, ताप के लिए सेमिटिक भाषा परिवार और इंडो-यूरोपीय भाषा परिवारों में वर्ण से जुड़ी शब्दावली में एकरूपता आश्चर्यजनक है ।
हिम्मत के मूल में है सेमिटिक धातु हम्म है जिसमें मूलतः एक किस्म के ताप का भाव है । अधिकांश अर्थों में यह यह मानसिक ताप है मगर यह भौतिक ताप भी है । ध्यान रहे सेमिटिक मूल के हम्म में जो ताप का भाव है वही भारोपीय भाषा के होम में भी ही । होम बना है संस्कृत की हु धातु से जिसका अर्थ है देवता के सम्मान में भेंट प्रस्तुत करना। वृहत्तर भारत के प्राचीन अग्निपूजक समाज में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञकुंड में ही अग्नि के माध्यम से भेंट समर्पित करने की परंपरा थी। आस्था कहती थी कि अग्नि के माध्यम से वह सामग्री देवताओं तक पहुँच जाएगी। इस तरह हु धातु का एक अर्थ यज्ञ करना भी हुआ। इससे ही बना हुत शब्द जिसका अर्थ है अग्नि में डाला हुआ मगर भाव दाह, ताप और अग्नि का ही है क्योकि ऐसा करने से अग्नि ही प्रज्जवलित होती है। हुत में उपसर्ग लगने से बना आहुति शब्द जिसका अर्थ भी यज्ञ कुंड में हवन सामग्री डालना है। हवन बना है हवः से जिसका मूल भी हु से है। इसी तरह होम शब्द भी इसी कड़ी में आता है जिसमें यज्ञाग्नि, आहुति देना, आदि शामिल है।
सामी मूल के हम्म में बुखार के साथ साथ दुख, रंज , खेद आदि भाव भी शामिल हैं। गौर करें कि ये सभी भाव मानसिक संताप ( ताप ) से जुड़े हुए हैं। हम्म में उद्विग्नता, संताप, व्याकुलता, उत्साह, शोक, दुख, बेचैनी या फ़िक्र जैसे तमाम भावों के साथ कुछ कर डालने का भाव जुड़ा हुआ है । इसी तरह अल सईद एम बदावी, एमए अब्देल इस्लाम, डिक्शनरी ऑफ कुरानिक यूसेज़ में हम्म के साथ उद्धेश्य के साथ कुछ करना, ज़िम्मेदारी वहन करना, किसी के लिए कुछ करना, अपने लिए कुछ प्राप्त करना आदि बातें में इसमें हैं । हम्म से बना है अरबी का हिम्मा जिसमें कुछ ठानना, संकल्प करना, जोश के साथ प्रयत्न में जुटना जैसी बाते हैं । फ़ारसी में इसका रूप हेम्मत / हिम्मत होता है । हिन्दी ने हिम्मत रूप अपनाया जिसमें साहस, उत्साह, बहादुरी, वीरता, हौसला, जुर्रत, धृष्टता जैसे भाव हैं । “उसने बड़ी हिम्मत दिखाई” मे साहस का भाव है जबकि “...तुम्हारी ये हिम्मत ?” में धृष्टता सिद्ध हो रही है । “वह बड़ी हिम्मत से लड़ा” में वीरता की बात है । हिम्मत करना, हिम्मत दिखाना जैसे मुहावरे हिन्दी में उत्साह, साहस प्रदर्शन के सन्दर्भ में कहे जाते हैं । हिम्मतवाला वह है जो साहसी है । विपरीत परिस्थिति में निराश हो जाने की स्थिति को हिम्मत हारना कहा जाता है । हम्म में निहित ताप के भाव की व्याख्या हिम्मत के सन्दर्भ में बेहद आसान है । जोश, उत्साह की अवस्था शरीर में रक्त का संचार बढ़ाती है । हमारी नसों में बहते गर्म खून की आभा से चेहरा भी दमकता है । जोश के साथ जिस गर्माहट का ज़िक्र होता है वह यही है ।
किसी विकट कार्य, बड़े उद्धेश्य के लिए किए जा रहे कार्य को हिन्दी में अभियान भी कहा जाता है और योजना भी । फ़ारसी के ज़रिए हिन्दी में आया अरबी का मुहिम शब्द अभियान के लिए काफ़ी प्रचलित है । मुहिम के मूल में भी हिम्मा ही है जिससे हिम्मत बना है । यहाँ भी ताप का जो भाव है वह मुहिम में निहित सरगर्मी में स्पष्ट हो रहा है । मद्दाह के कोश के मुताबिक मुहिम का अर्थ है कोई बड़ा काम, लड़ाई, युद्ध या संग्राम आदि । पुराने ज़माने में युद्ध ही अधिक होते थे और राज्यविस्तार ही प्रत्येक शासक का एकमात्र उद्धेश्य होता था । उसके लिए विभिन्न योजनाएँ, अभियान और मुहिम बनती थीं । हालाँकि मूल अरबी में मुहिम में भी व्यग्रतापूर्ण, फ़िक्रमंद जैसे भाव हैं और क्रिया रूप में मुहिम में खतरनाक, रोमांचक अभियान अथवा बड़े उद्यम की अर्थवत्ता निहित है । मगर अब तो जिनका नैतिक पतन हो चुका है, उनके भ्रष्टाचरण को हम उनकी मुहिम मानते हैं और फिर उसे मिटाने की जो क़ानूनू पहल होती है उसे क़ानून की मुहिम मानते हैं । मुहिम अब सिर्फ़ अभियान भर रह गया है ।
सार्वजनिक स्नानागार, गुस्लख़ाना को अरबी-फारसी में हम्माम कहा जाता है । यह अरबी भाषा का शब्द है और उर्दू- फारसी-हिन्दी में हमाम के रूप में भी प्रचलित है। इसका मतलब होता है गर्म पानी पानी के प्रसाधनों से युक्त स्नानागार। यह बना है सामी परिवार की हिब्रू, आरमेइक, अरबी जैसी भाषाओं की प्रसिद्ध धातु हम्म में गर्म, ऊष्ण, तप्त जैसे भाव हैं । हिब्रू में ही गर्म के लिए होम और हम शब्द भी हैं । हम्म के ही एक अन्य धातुरूप हाम् का अर्थ हिब्रू में काला, सियाह होता है । गौर करें आग की भेंट चढ़ने के बाद वस्तु काली पड़ जाती है । हम्माम की परंपरा प्राचीन सुमेरी सभ्यता से चली आ रही है । पत्थर की शिलाओं को तेज आंच में तपा कर उन पर पानी छोड़ा जाता था जिनसे उत्पन्न वाष्प से ये स्नानागार गर्म रहते थे । बाद में यह प्रणाली समूचे पश्चिम में फैल गई और हमाम शब्द भी कई भाषाओं में प्रसारित हुआ जैसे अंग्रेजी में यह हमाम है , अज़रबैजानी में यह हमाम है तो अफ्रीका की स्वाहिली में यह हमामू है और हिन्दी मे हम्माम । ग्रीक में इसका रूप हमामी है और ताजिकिस्तानी में यह हमोम है । उज्बेकी में यह ख़म्मोम है ।

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Sunday, April 1, 2012

नामालूम का अता-पता

सम्बन्धित आलेख-1.गुमशुदा और च्यवनप्राश.2.address-book-appsलोक क्या है ?

कि सी बात की जानकारी होने के सम्बन्ध में आए दिन हम ‘मालूम’ और ‘पता’ शब्द का प्रयोग करते हैं । “मालूम नहीं”, “पता नहीं” कह कर दरअसल हम आई बला को टालने में खुद को कामयाब समझते हैं, दरअसल यह हमारी अज्ञानता का प्रदर्शन होता है । मालूम malum शब्द को कई तरह से इस्तेमाल करते हैं जैसे – “मालूम नहीं”, “मालूम है” अथवा “मालूम करो” आदि वाक्य हमारे इर्दगिर्द सुबह से शाम तक तैरते रहते हैं । हमें अक़्सर बहुत कुछ मालूम रहता है मगर हम किसी को कुछ मालूम नहीं चलने देते और पूछे जाने पर मालूम नहीं कह कर काम चला लेते हैं । मालूम में मूलतः जानकारी, ज्ञान का भाव है और इसका बहुवचन ‘मालूमात’ malumat है । मालूम में ख्यात, विलक्षण, सर्वज्ञात, प्रसिद्ध, असाधारण जैसे भाव भी हैं । मालूम के साथ जब ‘ना’ उपसर्ग लगाया जाता है तब यह अर्थवत्ता उभरती है मिसाल देखें – “मेरे सरीखे नामालूम शख़्स को कौन पूछता है ?” इसी तरह जब पता के साथ जब अरबी का ला उपसर्ग लगाया जाता है तो बनता है ‘लापता’ जिसका अर्थ है गुमशुदा । आइये शब्दों के सफ़र में इस मालूम का अता-पता लगाते हैं ।
मालूम सेमिटिक भाषा परिवार की अरबी से बरास्ता फ़ारसी होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ । इसके मूल में ‘इल्म’ ilm शब्द है जिसका अर्थ है ज्ञान, जानकारी । ‘इल्म’ से ही बनता है तालीम जिसका अर्थ है शिक्षा, पढ़ाई, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन आदि । तालीम शब्द का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है । शोधकर्ता, विद्वान के अर्थ में ‘अलीम’ या ‘आलिम’ शब्द से भी हिन्दीवाले खूब परिचित हैं  और इसी सन्दर्भ में ‘आलिम-फ़ाज़िल’ मुहावरा भी याद आ जाता है । संस्कृत का एक शब्द है लोक जो बना है लोक् धातु से जिसमें देखना जानना का भाव है । लोक का अर्थ है विश्व, दुनिया, समस्त दृष्यजगत, व्यक्ति आदि । स्पष्ट है कि हमारे सामने जो कुछ नज़र आता है वही लोक है । इस तरह लोक यानी देखना का अर्थविस्तार “जो दिख रहा है” के रूप में हुआ । कुछ यह प्रक्रिया ‘आलम’ में भी नज़र आती है । अरबी का आलम शब्द फ़ारसी-हिन्दी में भी प्रचलित है । हमें जिस किसी भी चीज़ का इल्म होता है, जो कुछ भी हमें मालूम है, दरअसल वही सब तो हमारा ज्ञात-विश्व है । जो हम नहीं जानते, वह हमारे अनुभूत जगत का हिस्सा भी नहीं होता । ‘आलम’ अर्थात विश्व, ब्रह्माड या जो कुछ भी दृष्यजगत में शामिल है, सब ‘आलम’ है । आलम की अर्थवत्ता में अब ‘हाल’, ‘परिस्थिति’ जैसे भाव भी समाहित हो गए हैं जैसे – “आलम ये है कि कोई सुनने को राजी नहीं ।” यहाँ प्रयुक्त आलम शब्द में परिस्थिति पर ज़ोर है किन्तु प्रकारान्तर से दुनिया की प्रवृत्ति की ओर ही संकेत है ।
लम alam का एक रूप अलम alam भी है जिसमें चिह्न, प्रतीक का आशय है ।  इसमें ध्वज, पताका या झण्डे की अर्थवत्ता समा गई । किसी भी समूह या देश का ध्वज दरअसल एक चिह्न ही होता है ताकि उसकी शिनाख्त हो सके । इस शिनाख्त में ही ज्ञान अथवा जानकारी का भाव है । अब आते हैं अलमबरदार पर । कुछ लोग इसे हिन्दी में अलंबरदार भी लिखते हैं जो ग़लत प्रयोग है । यह शब्द भी अरबी फारसी के ज़रिये हिन्दी उर्दू में आया । अलमबरदार भी शाही दौर में एक पद था । जब सेना या राजा का काफिला निकलता था तो सबसे आगे ध्वजवाहक ही चलते थे जिन्हें अलमदार या अलमबरदार कहा जाता था । आज इसका मुहावरे के तौर पर भी प्रयोग होता है जिसका अर्थ है किसी खास पंथ, धर्म अथवा राजनीतिक विचारधारा के बडे नेता। आलम शब्द का प्रयोग उपनाम की तरह भी होता है जैसे आफ़ताब आलम ।
ल्म का असर नीलाम पर भी नज़र आता है । बोली लगाकर किसी वस्तु की सार्वजनिक बिक्री की क्रिया नीलाम कहलाती है । सफ़र में इस पर विस्तार से लिखा जा चुका है । दरअसल यह शब्द हिन्दी में पुर्तगाली के leilao से जन्मा है । प्रख्यात प्राच्यविद चार्ल्स फिलिप ब्राऊन (1798-1884) ने अपनी तेलुगू-इंग्लिश डिक्शनरी में पुर्तगाली leilao की व्युत्पत्ति अरबी मूल के अल-इल्म से मानी है जिससे बना है इल्म जिसमें जानकारी होना, बतलाना, ज्ञान कराना, विज्ञापन जैसे भाव है। गौर करें कि नीलाम की प्रक्रिया में खरीददार को वस्तु के मूल्य और वस्तु के अन्य विवरणों से अवगत कराया जाता है । प्रकाण्ड पण्डित के अर्थ में उर्दू का अल्लामा शब्द इसी मूल का है । स्पष्ट है कि मालूम शब्द में सबसे ज्यादा ‘इल्म’ यानी ज्ञान का महत्व है । ‘मालूम’ के सन्दर्भ में ‘इल्म’ शब्द का प्रयोग देखें- “मुझे इस बात का इल्म था कि बात तो बिगड़नी है ।” इसे यूँ भी कहा जा सकता है – “मुझे मालूम था कि बात बिगड़ जाएगी ।”
ब करते हैं पते की बात । पता शब्द भी हिन्दी की सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली शब्दावली में शामिल है । “क्या पता”, “पता नहीं”, “पता चलेगा” जैसे अल्फ़ाज़ बोलते हुए हम दिन भर अपना काम चलाते हैं । इस ‘पता’ का प्रयोग लगभग मालूम की तर्ज़ पर ही होता है और पता शब्द में भी जानकारी या ज्ञान का ही आशय है ‘पता’ को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं । ‘पता’ शब्द सामने आते ही किसी व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित विशेष स्थान की स्थिति का बोध होता है । इस सन्दर्भ में अक्सर पता-ठिकाना जैसा पद इस्तेमाल किया जात है । किसी को पत्र लिखते समय पते का सर्वाधिक महत्व होता है । जॉन प्लैट्स पता का रिश्ता संस्कृत के पत्रकः से ही जोड़ते हैं, मगर यह तार्किक नहीं लगता । ध्यान रहे संस्कृत के पत्रकः संस्कृत के पत्त्र से बना है और चिट्ठी के सन्दर्भ में इसमें पेड़ का पत्ता, छाल, धातु की पतली सतह जैसा भाव है । प्राचीन काल में संदेशों का आदान-प्रदान पेड़ की छाल या पत्तों पर लिख कर होता ता जैसे ताड़-पत्र या भोज-पत्र । पत्र में मूलतः मज़मून लिखने की बात है । जॉन प्लैट्स पत्रकः में चिह्न, संकेत, निशानी जैसे अर्थ देखते हैं मगर इससे एड्रेस यानी पता नहीं उभरता । संस्कृत का पत्त्र शब्द पत् धातु से बना है जिसका अर्थ है गिरना । पतित, पतिता, पतन जैसे शब्द इसी मूल के हैं । पत्ता पेड़ पर लगता है और अन्ततः सूख कर गिरता है । इस गिरने की क्रिया में वे तमाम लक्षण नहीं है जिनका आशय चिट्ठी का पक्का ठिकाना होना चाहिए ।
कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में पता की व्युत्पत्ति ‘प्रत्यय’ से बताई गई है । प्रत्यय एक बहुआयामी शब्द है मगर आम हिन्दी भाषी इसे व्याकरण का शब्द समझता है जिसका अर्थ है किसी शब्द के अन्त में लगने वाला परसर्ग । मोनियर विलियम्स के कोश के मुताबिक प्रत्यय का अर्थ है भरोसा, विश्वास, निश्चितता, दृढ़ता, सिद्धि, हासिल, ठोस प्रमाण, सबूत, आधार, स्थापना आदि । वैदिक शब्दावली में ‘प्रत्यय’ का अभिप्राय ऐसे गृहस्थ से है जिसने अपने घर में पवित्राग्नि की स्थापना की हो । यहाँ ‘पते’ की मूल बात उभर रही है । आप्टे कोश में ‘प्रत्यय’ का अर्थ स्थान की दृष्टि से अंदाज़ लगाते हुए बताया गया है । साथ ही इसमें प्रसिद्धि, यश, कीर्ति भी शामिल है । मुहर लगी, मुद्रांकित अंगूठी या मुद्रिका को भी ‘प्रत्यय’ कहा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में भी ‘पता’ की व्युत्पत्ति ‘प्रत्यय’ ही बताई गई है । ‘प्रत्यय’ का प्राकृत रूप पत्तअ होता है जिसका अगला रूप पता हुआ । कोश में इसका रूप-विकास यूँ बताया गया है –प्रत्यायक > पत्ताअ > पताअ > पता । ध्यान रहे, कीर्ति, प्रसिद्धि अथवा यश का एक ठोस आधार होता है । यह आधार ही प्रत्यय है, ‘पता’ है । पता शब्द में मुहावरेदार अर्थवत्ता है जैसे काम की, सटीक या भेद खोलने वाली बात के लिए पते की बात मुहावरा प्रसिद्ध है । ‘अता-पता’ मुहावरा भी खूब प्रचलित है जिसमें किसी व्यक्ति या वस्तु की खोज-खबर, सूचना या समाचार जानने का भाव है । हिन्दी में गुमशुदा को लापता कहते हैं जबकि मराठी में यह बेपत्ता होता है ।

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