Thursday, December 8, 2016

गुडगाँव पर ‘द्रोण’ कैमरा



च्छा ख़ासा द्रोण था, घिस-घिस कर दोना रह गया। गुरु कितना ही गुरुतर रहा हो, भाषा के अखाड़े में ऐसी रगड़-घिसाई हुई कि जब हिनहिनाकर खड़ा हुआ तो गुड़ हो चुका था। यह भी कौरवी का ही चमत्कार था जिसके दाँव-पेच से चुस्त होकर खरी-बोली भी एकदम से खड़ी हो गई और देशभर में आज तक हिन्दी का झण्डा खड़ा किया हुआ है।

तो ये भाषा के मामले हैं, सियासी चश्मे से समझ नहीं आएँगे। बाकी तो इण्डिया को भारत या जम्बूद्वीप करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। हम अपने देश भारत का नाम दुष्यन्त-शकुन्तला के बेटे भरत की सन्तति से हट कर अगर ‘भरत’ समूह से जोड़ कर देखेंगे तो शायद ज्यादा बेहतर होगा।


कुछ दिनों पहले क्राइम रिपोर्टर को खबर मिली थी कि मणिकर्णिका घाट पर विदेशियों ने ‘द्रोण’ कैमरे से तस्वीरें उतारी हैं। यह अष्टाङ्गुल ‘द्रोण’ कैमरा इसी रूप में उनकी कलम से भी उतरता रहा। श्रीमानजी बोलते अब भी ‘द्रोण’ ही हैं 😀

बहरहाल, गुड़गाँव के गुरुग्राम हो जाने पर ज्यादा व्याकुल होने की ज़रूरत नहीं है। स्टालिनग्राद और लेनिनग्राद को याद कर लें। आज वोल्गोग्राद और पीटर्सबर्ग नाम ही आबाद हैं। गुड़गाँव का गुरुग्राम तो ख़ैर व्यक्तिपूजा का मामला भी नहीं है, उच्चार का ही प्रबन्ध है।

मराठी वालों का क्या कर लेंगे जो हर नाम बदल देते हैं। 'गोहत्ती' नाम का शहर पहचान पाएं तो जानें। यह असम की राजधानी का नाम है। यही नहीं, लखनऊ को लखनौ लिखा जाता है। यूपी, असम वालों को ऐतराज हो तो हो उनकी बला से !

कुछ लोग तो गुरुग्राम के पीछे कुरुग्राम भी देख सकते हैं। भई कुरुजनपद के सारे ग्राम कुरुग्राम हो सकते हैं। भोलानाथ तिवारी ने कूड़ेभार कस्बे का सही नाम खोज निकाला था। कूड़ेभार को उसके मूल नाम ‘कूचा-ऐ-बहार’ से पुकारे जाने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है !

इसी तरह पूर्वी उत्तरप्रदेश का जीयनपुर किसी ज़माने में ज्ञानानन्दपुर था और अंग्रेजों ने उसे G.N.PUR कर दिया जो घिस कर जीयनपुर हो गया। अब इसमें ज्ञानानन्दपुर के आनन्दी नागरिकों की क्या गलती जो उन्हें एक सुन्दर नाम से वंचित कर दिया जाए! वे अगर जीयनपुर से खुश हैं तो उसमें भी क्या बुराई !

पश्चिमोत्तर की अनेक बस्तियों को अंग्रेजों ने डीआई खान, डीजी खान जैसे नाम दे दिये थे जो मूलतः डेरा इस्माइल खान या डेरा ग़ाज़ीखान थे। क्या कर लेंगे आप! जयपुर की मिर्ज़ा इस्माइल रोड, एमआई रोड हो जाती है तो क्या लोगों की ज़बान काट लेंगे!

पूरब में मछलीशहर है तो दक्षिण में मछलीपट्टनम है। बात एक ही है। अब क्या दोनों को मत्स्यपुर कर दिया जाए! कुछ सौ साल बाद घिस-घिसा कर मच्छपुर > मछउर > मछौर हो जाएँगे। थोड़ा आगे मैसूर और इधर मछौर! अब एक शायर को तो अपने शहर से क़दर प्यार था कि नाम ही 'सलाम मछलीशहरी' रख लिया।

तो नाम में क्या रखा है। भाषा की टकसाल में छपे नाम सीधे दिलो-दिमाग़ पर दर्ज़ होते हैं। गुड़गाँव हो या गुरुग्राम, जिसे जो बोलना है, ज़बान से वही निकलेगा। अब हमें तो गुड़गाँव के अंग्रेजी हिज्जे Gurgaon के पहले पद में Gurga नज़र आ रहा है। गौरतलब है फ़ारसी के गुर्ग से ही हिन्दी का गुर्गा आया है जिसका अर्थ भेड़िया है। प्रचलित अर्थ में गुर्गा अब भाड़े के बदमाशों के लिए इस्तेमाल होता है।

इससे क्या? बाल की खाल निकालने वाले यह सब करते रहेंगे। गुरुग्राम को द्रोणाचार्य का गाँव माने या गुरु-ग्राम यानी किसी ज़माने का संकुलकेन्द्र मानते हुए उसका गुरुत्व स्वीकारें। गुरु तो गुरु ही रहेगा। चाहे गुड़ हो, शकर। अब पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो गुरु को ‘छिच्छक’ कहते हैं और शिक्षा को सिच्छा। अब बोलिये?

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Wednesday, December 7, 2016

हे गणमान्य !! हे गण्यमान्य !!!



‘ग

णमान्य’ और ‘गण्यमान्य’ को लेकर हिन्दी में बड़ा झमेला है। हिन्दी में शब्दकोशों को अद्यतन न करने की वृत्ति पुरानी है। सामाजिक बदलाव का सबसे ज्यादा प्रभाव ‘भाषा’ और ‘भूषा’ अर्थात बोली और वेश पर नज़र आता है। भाषा का बदलाव नए मुहावरों, शब्दों के बरताव, उच्चारण और उसके बदलते मायनों में छुपा रहता है। इसे हिन्दी के शब्दकोश दर्ज नहीं करते। प्रायः सौ-सवा सौ वर्ष पुराने ज़माने के शब्दभंडार से हम आज भी काम चलाते हैं जबकि इस बीच हिन्दी ने लम्बा सफर तय कर लिया है।

दलते वक्त के साथ अनेक शब्द नए अवतार में सामने आते हैं और अनेक शब्दों का प्रयोग खत्म हो जाता है पर हमारे शब्दकोश इसे दर्ज़ नहीं करते। यह भाषा के प्रति बड़ा अन्याय है क्योंकि लोकव्यवहार में जो शब्द नए रूप और अर्थ के साथ भाषा में घुलमिल जाते हैं शब्दकोश उसके दस्तावेज नहीं बनते। शुद्धतावादी लोग ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध करार देते रहते हैं और प्रमाण स्वरूप एक सदी पुराने कोश रख देते हैं जिनमें इन नए शब्दों-प्रयोगों का जाहिर है, कोई भी हवाला मिलने से रहा। कोशों को समय--सापेक्ष होना चाहिए न कि अपरिवर्तनीय। भाषा की प्रकृति सतत परिवर्तन है तब कोश की प्रामाणिकता समय-सापेक्ष होने में है।

सा ही एक शब्द है ‘गणमान्य’, जिसे गलत प्रयोग समझा जाता है और कोशों में संस्कृत के कहते में दर्ज ‘गण्यमान्य’ शब्द का हवाला देकर अक्सर इसे गलत ठहरा दिया जाता है। मेरा स्पष्ट मानना है कि ‘गणमान्य’ और ‘गण्यमान्य’ दोनों शब्द एक ही भाव को व्यक्त करते हुए दो अलग-अलग शब्द हैं। विनम्रता से कहना चाहूँगा कि ‘गणमान्य’ को ‘गण्यमान्य’ का अशुद्ध प्रयोग मानना सही नहीं।

रअसल ‘गण्यमान्य’ का प्रयोग असावधानीश समास की तरह किया जाता है जबकि यह शब्दयुग्म है और इसका सही रूप ‘गण्य-मान्य’ है। इसके बरअक्स ‘गणमान्य’ का चलन हिन्दी में समास की तरह होता है। ‘गणमान्य’ और ‘गण्य-मान्य’ अलग-अलग शब्द हैं और दोनों में बारीक मगर स्पष्ट अन्तर है जिसे समझा जाना ज़रूरी है। सबसे पहले ‘गण’ की बात करें। गण’ में समूह का आशय है। दल, झुण्ड, यूथ आदि। मनुष्यों का समूह भी गण है। ‘जनगण’ का अर्थ हुआ जन समूह। यूँ ‘जन’ का एक अर्थ समूह भी है।

‘गण’ में गणना का भाव भी है। गणना जो गिनती भी है। प्रकारान्तर से इसमें परख का भाव निहित है। ‘गण’ से बने ‘गणनीय’ का अर्थ हुआ गिनने योग्य। इस तरह गण्य का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है, जिसे गिना जाए या गिनने लायक। जिसकी माप-तौल-परख हो चुकी हो। तुच्छ, न गिनने योग्य, नाचीज़ के अर्थ में ‘नगण्य’ का अर्थ भी स्पष्ट है। तो ज़ाहिर है ‘गण्य’ वह है जो प्रतिष्ठित है, सम्मानित है, प्रभावशाली है।

ब बात ‘मान्य’ की जिसका मूल ‘मान’ है। यह भी संस्कृत की तत्सम शब्दावली से आ रहा है। ‘मान’ का सामान्य अर्थ है आदर, प्रतिष्ठा, इज्जत। सम्मान इससे ही बना है। यह भी दिलचस्प है कि जिस तरह ‘गण’ में गणना और प्रकारान्तर से परख का भाव है उसी तरह मान में भी माप-तौल-परख का भाव है। जिस तरह गण से ‘गणनीय’ का भाव गिनने योग्य होता है और इस तरह ‘गण्य’ से प्रतिष्ठित, सम्मानीय जैसी अर्थस्थापना होती है उसी तरह ‘मान’ से ‘माननीय’ बनता है जिसका अर्थ है जिसका मान किया जाए, मान के योग्य, मानने योग्य। इसका ही एक रूप ‘मान्य’ हो जाता है।

तो इस तरह गण्य-मान्य’ युग्मपद का अर्थ होता है जो प्रतिष्ठित भी हों, सम्मानित भी हों। अर्थात यह नामी-गिरामी, जाना-माना, मान-प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान जैसा पद है। कुछ विद्वान ‘गण्य’ का अर्थ “गण के द्वारा” लगाते हैं जो सही नहीं है। जिस तरह मान से बने ‘मान्य’ में माननीय यानी सम्मानित की अर्थवत्ता स्थापित होती है उसी तरह गण से बने ‘गण्य’ से गणनीय यानी प्रतिष्ठित का अर्थ निकलता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली बोलने के आदी समाज में ‘गण्य-मान्य’ बोलना सहज है किन्तु सामान्य हिन्दी भाषी ‘गण्यमान्य’ का उच्चार भी ‘गणमान्य’ या ‘गण्यमान’ करेगा।

हिन्दी की प्रचलित लोकधारा ने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली के ‘गण्यमान्य’ की बनिस्बत ‘गणमान्य’ जैसा ज्यादा आसान शब्द बनाया। ‘गणमान्य’ का अर्थ हुआ “समाज द्वारा मान्यता प्राप्त”। इसका भाव है- “जो सर्वसाधारण में लोकप्रिय, प्रतिष्ठित और सम्मानित है”। देखा जाए तो आशय ‘गण्य-मान्य’ जैसा ही है पर अर्थग्रहण की प्रक्रिया में पर्याप्त भिन्नता है। हिन्दी में ‘गण्य-मान्य’ को भी युग्मपद की तरह न लिखते हुए समास की तरह ‘गणमान्य’ लिखा जाने लगा, जो गलत है।

ब समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति के संदर्भ में जब ‘गणमान्य’ का प्रयोग होने लगा तब शुद्धतावादियों ने इसे गलत बताया, पर इस पर कभी विमर्श नहीं हुआ और न ही गलत बताने की वजह स्पष्ट की गई। रही-सही कसर आकाशवाणी के ज़माने के उद्घोषकों ने पूरी कर दी जिनके हवाले से शुद्धतावादी गण्यमान्य की पैरवी करते थे। दरअसल आकाशवाणी-दूरदर्शन के शैली-निर्देशों में प्रतिष्ठित, सम्मानित के अर्थ में ‘गण्यमान्य’ शब्द को ही मान्य किया गया था इसलिए इसका उच्चार होता रहा।

स्पष्ट है कि ‘गण्यमान्य’ और ‘गणमान्य’ दो अलग-अलग शब्द हैं। दोनों का अर्थ किंचित भिन्नता के साथ एक ही है। हिन्दी में ‘गणमान्य’ प्रचलित है, गण्यमान्य नहीं। ‘गणमान्य’ को ‘गण्यमान्य’ का अशुद्ध रूप समझना दरअसल खामखयाली है। सच तो ये है कि ‘गण्यमान्य’ लिखना ही ग़लत है। इसका सही रूप गण्य-मान्य है जो हिन्दी में अल्पप्रचलित है। हिन्दी में गणमान्य शब्द का ही प्रयोग अधिक है और इसे अशुद्ध प्रयोग कहना गलत है। हमें गणमान्य ही लिखना चाहिए क्योंकि गण्यमान्य अपने आप में असंगत है। शब्दकोश अगर अद्यतन नहीं हो रहे हैं तब उनकी गवाही और प्रमाण भी हमेशा सही नहीं हो सकता। आज के दौर के हिन्दी के तमाम साहित्यकारों के यहाँ ‘गणमान्य’ का प्रयोग आप देख सकते हैं।
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