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Sunday, February 27, 2011
संस्कृत श्लोकों में फ़ारसी का “राजव्यवहार”
दुनिया के किसी भी क्षेत्र की भाषा समुचित विकास नहीं कर सकती अगर उसमें नए शब्दों को अपनाने की प्रवृत्ति न हो। यही नहीं, भाषा का इस्तेमाल करनेवाले समाज में इतना वाचिक खिलंदड़ापन भी ज़रूरी है कि वह भाषिक किलोल करते हुए उपसर्गों, प्रत्ययों के जरिए नए नए शब्दों का निर्माण भी करता चले। ये प्रक्रियाएँ ही भाषा को उस मुकाम पर पहुँचाती हैं जहाँ उसकी विविधताओं और विशिष्टताओं को समझने के लिए उसे कोश में संजोने की ज़रुरत पड़ती है। दुनिया की विभिन्न विकसित भाषाओं में कोशों की परम्परा रही है।
मराठी संस्कृति के प्रति शिवाजी का अनुराग जबर्दस्त था। समाज संस्कृति के विकास पर उनका विशेष ध्यान रहता था। भारत की आधुनिक भाषाओं में शिवाजी द्वारा रचित राजव्यवहार कोश को सबसे प्राचीन कहा जा सकता है जिसमें मराठी, फारसी और संस्कृत—तीनों भाषाओं की सहायता ली गई थी। करीब सत्रहवी सदी यानी 1670 के आसपास शिवाजी ने अपने मंत्री रघुनाथ नारायण जिनकी उपाधि पंडितराव थी, से इसका निर्माण कराया था। शिवाजी के समय तक मराठी में अरबी-फारसी का प्रचुरता से घालमेल हो चुका था और इसने तत्कालीन नागरी मराठी को प्रभावित किया था। ग्रामीण मराठी पर इसका असर अभी बाकी था। शिवाजी के राजकाज की भाषा हालाँकि मराठी थी, मगर उस पर फारसी का पर्याप्त प्रभाव था। पंडितराव ने क़रीब दोहजार वर्ष पहले संस्कृत के प्रसिद्ध अमरकोश की तर्ज पर अनुष्टुप छंदो में 384 छंदों के माध्यम से मराठी में समाये डेढ़ हजार यवनी संस्कृति अर्थात मुस्लिम परिवेश से जुड़े शब्दों की व्याख्या इसमें की थी। इस कोश का सबसे पहले प्रकाशन 1860 में काशीनाथ गंगाधऱ नामके सज्जन ने कराया था। राजव्यवहार कोश के छंद का एक नमूना इस प्रकार है-
खल्बता इति यत्तत्तु खल्वोपलमिति स्मृतम्।
शिकार्खाना पक्षिशाला, शिकारी मृगयुर्मतः।।
संभारलेखकः कारखानवीसः प्रकीर्तितः।
हवालदारस्त्र मुद्राधिकारी परिभाषितः।।
संस्कृत के साथ फारसी शब्दों का अनूठा घटाटोप आपने पहले नहीं पढ़ा होगा। शिवाजी के चरित्र के महान पहलुओं में एक यह विशिष्ट राजव्यवहार भी है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 7:55 PM
Saturday, February 26, 2011
सफ़र को राजकमल कृति पाण्डुलिपि सम्मान
दो दिन पहले राजकमल के प्रबंधनिदेशक श्री अशोक माहेश्वरी की ओर से एक शुभ सूचना मुझे मिली। कल देर शाम यह सूचना, एक प्रेस विज्ञप्ति की शक्ल में मुझे मिली। सफ़र के सभी साथियों को इस मौके पर बधाई देना चाहूँगा। उनके सहयोग के बिना सफ़र की सफ़लताएं मुमकिन नहीं थीं। एक अदना पत्रकार का नितान्त स्वान्तःसुखाय प्रयास, आप सबकी सोहबत से यादगार बन गया। बहुत शुक्रिया दोस्तों....सूचना जस की तस इस तरह है-
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 33 कमेंट्स पर 2:22 PM
Tuesday, February 15, 2011
शनिवार पेठ में वड़ापाव और मोफ़त सल्ला
बी ते पाँच दिनों से पुणे में हूँ। पुणे पहली बार आना हुआ है। मराठीभाषी होते हुए भी मेरा महाराष्ट्र से जीवंत सम्पर्क नहीं रहा। ये अलग बात है कि परिवार में मराठी संस्कृति रची-बसी है और तमाम संबंधी पुणे में भी हैं। मेरा वहाँ अब तक न जाना संयोग ही है। किसी भी शहर का पुराना इलाका मुझे आकर्षित करता है, सो मैं भीयहाँ के खास इलाके यानी शनिवारवाड़ा से लगे शनिवार पेठ में एक होटल में जम गया हूँ। घना बसा इलाका मगर अव्यवस्था का कहीं नामोंनिशां तक नहीं। पुणेवासियों में अपने शहर के लिए आत्मीय लगाव है। पुराने इलाके में शनिवार पेठ, सोमवार पेठ, बुधवार पेठ, रविवार पेठ जैसे बाज़ार हैं जो पेशवाकालीन साप्ताहिक बाजार थे।
पुणे के बाज़ार में पान या चाय की दुकानें कम और पावभाजी, वड़ापाव, मिसळपाव, दाबेली, कच्छी दाबेली, एक किस्म की कढ़ी, उबली मक्का की उसळ से लेकर दक्षिण भारतीय व्यंजनों की दुकानें बहुतायत में नज़र आती हैं। हर सातवीं आठवीं दुकान पर यही सब बिकता नज़र आता है। सामान्य समोसे तो यहाँ मिलते ही हैं, यहाँ की खासियत नारियल समोसा भी है। मुझे खूब पसंद आया। खान पान के प्रति इतना प्रेम मैने अबतक सिर्फ़ जोधपुरवासियों में ही देखा था। मैं जिस होटल में ठहरा हूँ, उसके मालिक आगरावासी अग्रवालजी हैं जो यहाँ दशकों से बसे हैं। होटल का समूचा स्टॉफ ग्वालियर, भिण्ड या आगरा का ही है। मैं दो दिनों से रात को रोज़ दाल-चावल की खिचड़ी बनवा कर खा रहा हूँ क्योंकि होटल के महाराज बनाते ही इतनी लज़ीज़ खिचड़ी हैं कि क्या कहा जाए। आप भी इसके दर्शन कर सकते हैं। खिचड़ी को खूब सारे अचार के साथ खाया जाए तो आनंद बढ़ जाता है। यूँ भी हमारी माँ ने बचपन में बताया था कि खिचड़ी के हैं चार यार , दही पापड़, घी अचार!! अपने साथी अमित देशमुख से इसकी तारीफ़ की तो उसने भी खिचड़ी-डिनर का आनंद लिया। दिन में हम लंच नहीं लेते बल्कि विभिन्न ठिकानों की पड़ताल करते हैं और फिर जो मन होता है, एक या दो पीस चख लेते हैं मसलन आज सुबह हमने साबूदाणे का वड़ा खाया, मगर वह कुछ मीठा सा लगा। हम तो साबूदाणे का वड़ा भरपूर तीखी हरी चटनी के साथ खाने के आदी रहे हैं। हमारे घर का वड़ा अपने आप में भी लाल और हरी मिर्च से भरपूर होता है। बहरहाल, हमने बुधवारपेठ तक मटरगश्ती की और एक होटल में पूरी-सब्जी का आनंद लिया।
जिस इलाके में मैं रुका हूँ वहां जवाहिरात की खूब दुकाने हैं। इन दुकानों पर ज्योतिषियों की तस्वीर वाले बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं मोफत सल्ला। रत्न-जवाहिरात खरीदनेवाले लोगों को दुकानदार खुद ही ज्योतिषियों के ज़रिये मुफ्त सलाह दिलवाते हैं। इस तरह उनकी बिक्री बढ़ती है। ज्योतिषीय सलाह की यह होड़ अब समूचे महाराष्ट्र में फैल रही है। लोग भी इसे पसंद करते हैं क्योंकि इस तरह अपने ज्योतिषी महाराज का शुल्क उन्हें अदा नहीं करना पड़ रहा है। होर्डिंगों में ज्योतिषी बड़े ठसके के साथ बैठे नज़र आते हैं, उतना ही ठसका उनका दुकान के भीतर भी नज़र आता है। मराठी महिलाएं गहने, जिसे मरराठी में दागिणे कहा जाता है, खूब बनवाती हैं। गहनों का यह शौक इतना ज्यादा है कि फूलों के गहने भी खूब पहने जाते हैं। फूलों के गहने, यानी पुष्पसज्जा। जगह जगह पर गजरों की दुकाने हैं। अपना कैमरा हम भोपाल में ही भूल आए हैं, जिसका अफ़सोस है। फ़िलहाल सेलफ़ोन से ली एक दो तस्वीरें ही दिखा रहे हैं।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 10 कमेंट्स पर 11:24 PM लेबल: इधर उधर, शरीर, स्थान
Wednesday, February 9, 2011
नर्मदा-तवा का संगम यानी बान्द्राभान
सा थियों, अत्यावश्यक यात्रा पर अभी निकल रहा हूँ। क़रीब दस दिनों का फेरा है और उसके बाद इस यात्रा का हैंगओवर चलेगा। उसके बाद फिर यात्रा और फिर फिर हैंगोवर। यह क्रम कुछ महिनों चलेगा। इस सफ़र मजाज़ी का पक्का असर सफ़र हक़ीक़ी पर न पड़े, इसकी पूरी पूरी कोशिश रहेगी और शब्दों के सफ़र पर हम बीच बीच में मिलते रहेंगे। मौका मिला तो शब्दों की बातें होंगी, वर्ना शब्दों के इर्दगिर्द जो दुनिया है, उसकी ख़बर ली जाएगी। तो शुरु आज से ही करते हैं। कुछ दिनों पहले अपने परिवार के साथ, दफ्तर के बड़े परिवार में शरीक़ हुआ और हम सब मिलकर चार बसों में बैठे और निकल पड़े पुण्यसलिला नर्मदा तट की ओर।
नर्मदा किनारे बान्द्राभान एक सुरम्य पर्यटन स्थल है। यह तवा और नर्मदा का संगम है और होशंगाबाद जिले में है। भोपाल से होशंगाबाद की दूरी क़रीब सत्तर किलोमीटर है और वहाँ से संगम-तट दस किलोमीटर। बान्द्राभान यात्रा एक अद्भुत अनुभव है। मैने अपने जीवन में कभी किसी नदी का ऐसा मायावी तट नहीं देखा। इलाहाबाद का संगम भी देखा और गोवा का समुद्रतट भी। पर इस तट की बात निराली है। प्रकृति के क़रीब दो नदियों का मिलन, पानी में उभरे रेतीले टापू, चट्टाने और कहीं तेज तो कहीं मंथर गति से बहती दो नदियां। दोनों धाराओं का अलग अलग चरित्र। भोपाल से होशंगाबाद की ओर बढ़ते ही विन्ध्याचल पर्वतश्रेणी शुरू हो जाती है। होशंगाबाद से कुछ ही आगे चलकर सतपुड़ा की प्रसिद्ध पर्वत शृंखला शुरू होती है। तवा सतपुड़ा को छूती हुई आती है, नर्मदा का सफ़र इन दोनों विशाल मगर सजग, शान्त प्रहरियों की निगहबानी में चलता रहता है। तवा के पानी की धार मंथर है तो नर्मदा की तेज। नर्मदा का पानी निर्मल, कंचन है तो तवा के पानी में कुछ शैवाल, कुछ रेतकण और नन्हीं मछलियाँ साफ़ नज़र आती हैं।
बान्द्राभान के इस पवित्र तट पर वर्षाकाल के बाद कार्तिक सुदी पूर्णिमा पर बड़ा मेला लगता है। मेला बहुत प्राचीन है। यह संगम तट सिद्धभूमि और तपोभूमि रहा है और लोकांचलों में इसे पावन तीर्थ का दर्जा मिला है। पारम्परिक तीर्थों से हटकर बान्द्राभान के दोनों किनारों पर मंदिरों-मठों का जमघट नहीं है। यहाँ सिर्फ रेतीले तट हैं और कल कल निनादिनी दो सदानीरा धाराएं हैं। अफ़सोसनाक बात सिर्फ़ यह कि कार्तिक मेला इस पवित्र तट पर पॉलीथिन का कचरा फैला जाता है। आसपास के ग्रामीणजन चाहें तो स्वयंसेवा से इसे साफ कर सकते हैं, पर कौन करे? भाजपा के अनिल माधव दवे भी नर्मदा नर्मदा तो खूब जपते हैं मगर उन्हें भी इस तट की पावनता की वैसी फिक्र नहीं होती जैसी नर्मदा से जुड़े खुद की छवि चमकाने वाले अपने अभियानों की कामयाबियों की होती है। खैर, फ़िलहाल यहाँ पेश हैं कुछ तस्वीरें। आप भी बान्द्राभान तट का आनंद लें।
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Monday, February 7, 2011
निर्धन की ढाणी, अब राजधानी [आश्रय-32]
इस शृंखला की कड़ियाँ-कंगाल की ठठरी, ग़रीब का पिंजर[आश्रय-31]गुहा, गुफा और कोहिनूर [आश्रय-30]बस्ती बस्ती, कटरा कटरा[आश्रय-29]कुरमीटोला और चमारटोली [आश्रय-28] थमते रहे ग्राम, बसते रहे नगर [आश्रय-27]कसूर किसका, कसूरवार कौन? [आश्रय-26].सब ठाठ धरा रह जाएगा…[आश्रय-25] पिट्सबर्ग से रामू का पुरवा तक…[आश्रय-24] शहर का सपना और शहर में खेत रहना [आश्रय-23] क़स्बे का कसाई और क़स्साब [आश्रय-22] मोहल्ले में हल्ला [आश्रय-21] कारवां में वैन और सराय की तलाश[आश्रय-20] सराए-फ़ानी का मुकाम [आश्रय-19] जड़ता है मन्दिर में [आश्रय-18] मंडी, महिमामंडन और महामंडलेश्वर [आश्रय-17] गंज-नामा और गंजहे [आश्रय-16]
आ बादी या बसाहट की अत्यंत प्राचीन व्यवस्था के तौर पर हम शब्दों का सफ़र में ग्राम, नगर, कटला, शहर, गाँव, क़स्बा, कलाँ और खुर्द जैसे शब्दों से होकर गुज़र चुके हैं। इन विभिन्न नामोंवाली बसाहटें समूचे भारत ही नहीं बल्कि भारत के बाहर हैं जैसे शहर नाम वाली आबादियाँ सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान समेत एशिया के दर्जनभर देशों में हैं इसी तरह नगर भारत के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका समेत अनेक पूर्वीएशियाई देशों में हैं। यही हाल गाँव, कटला, खुर्द और कलाँ का भी है। सफ़र में आज चर्चा करते हैं ढानी शब्द की। इसके विभिन्न रूपान्तर समूचे देश में प्रचलित हैं और यह शब्द आज भी मानवीय बसाहटों की सबसे छोटी इकाई के तौर पर जानी जाती है। महाराष्ट्र में ढानी के लिए ढाणी, ढाणा या ढाणे शब्द प्रचलित है और दस बीस घरों की आबादी वाली बसाहटें इसके दायरे में आती हैं। इससे अधिक घरों की आबादी को मोठा ढाणा अर्थात बड़ा ढाना कहते हैं। इसके बाद गांव आता है। किसी ज़माने की ढाणी कालांतर में बड़ी बसाहट में तब्दील भी हुई। महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले का नाम यही उजागर करता है।
राजस्थान, पंजाब में ढानी शब्द का उच्चारण अक्सर ढाणी ही होता है जैसे ढाणीथार, ढाणीमौजी, लाला की ढाणी, रेबारियों की ढाणी, ढाणी लालाखान, दरियापुरढाणी आदि। मगर राजस्थान में ढानी का उच्चारण भी प्रचलित है। मध्यप्रदेश में ढाणी या ढाणा का प्रचलन न होकर ढानी शब्द का ढाना रूपान्तर प्रचलित है। बुंदेलखण्ड और महाकौशल क्षेत्र में दर्जनों गांव हैं जिनके आगे या पीछे ढाना शब्द लगा मिलता है जैसे ढाना (सागर), चिचौलीढाना, खमदौड़ाढाना, गुरैयाढाना या ढाढे की ढाना आदि। हरियाणा में ढाणानरसान, ढाणाकलाँ, हाँसीढाणा या ढाणारड्डा जैसी आबादियाँ खूब हैं। इन तमाम शब्दों के मूल में वही प्रसिद्ध शब्द धानी है जिसके जुड़ा सर्वाधिक प्रचलित शब्द है राजधानी। धानी मूलतः आवासीय व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई है। प्रवासी मानवसमूहों के सर्वाधिक छोटे जत्थे को आश्रय प्रदान करनेवाले स्थान को धानी की संज्ञा मिली। सभ्यता के विकासक्रम में भी यह धानी शब्द मनुष्य ने याद रखा और जन संकुलों की राजनीतिक व्यवस्था जब स्थिर हुई तो विभिन्न धानियों की प्रमुख धानी को राजधानी कहा गया। आज इस नाम की बड़ी महिमा है। बड़े बड़े प्रासाद, अट्टालिकाएं, रेलें, होटल-मोटल, मॉल और कारोबारी संस्थाओं तक के नाम के आगे राजधानी शब्द जुड़ा हुआ है। यूँ राजधानी में भी निर्धन बसते हैं, पर धानी के आगे लगे राज की चकाचौंध में निर्धन की धानी हमेशा अदृष्य रहती है। जयपुर की प्रसिद्ध आरामगाह चोखीढ़ाणी का नाम आज दुनियाभर में मशहर है और यह एक सफल व्यावसायिक केन्द्र भी है।
हिन्दी की तत्सम शब्दावली का धानी शब्द मूलतः संस्कृत में धानम् या धानी है जिसमें आश्रय का भाव है। आप्टेकोश के अनुसार धानी या धानम् अर्थ है आधार, गद्दी, स्थान आदि। गौर करें बरतन या पात्र भी इसके दायरे में आते हैं क्योंकि ये किसी वस्तु के लिए आश्रय या आधार प्रदान करते हैं। फ़ारसी का प्रसिद्ध शब्द दान या दानी को याद करें जिसका प्रयोग किन्हीं शब्दों के आखिर में होता है, जैसे इत्रधान, फूलदान या इत्रदानी, फूलदानी, सियाहीदानी आदि। अचार के मर्तबान को अचारदानी कहा जाता है। इन तमाम शब्दों का अर्थ यही है धारण करनेवाला पात्र या आश्रय। हिन्दी संस्कृत में सियाहीदानी के लिए मसिधानी शब्द मिलेगा। धानम् या धानी शब्द बना है संस्कृत की धा धातु से जो अत्यंत व्यापक अर्थवत्ता वाली विशिष्ट धातु है जिसने दर्जनों शब्दों से भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया है। धा धातु में यूँ तो रखना, जमाना, पकड़ना, वहन करना जैसे भाव हैं और जिनसे धारण करने का अर्थ ही प्रकट होता है। कोई भी स्थान अपने भीतर एक परिवेश को धारण करता है चाहे वह जनसमूह हो, वनस्पतियाँ हों अथवा स्थावर रचनाएं जैसे झोपड़ी, मकान आदि। इस तरह देखें तो ख़ासतौर पर धानी वह है जहाँ या जिसमें कोई वस्तु रखी जाए। इसकी अतिरिक्त व्याख्या स्थान, पात्र आदि में हो सकती है। विस्तार से कहें तो रहने का स्थान भी धानी है जैसे राजधानी। किसी वस्तु के संग्रहण का स्थान भी धानी है जैसे इत्रदान या मसिधानि, किसी वस्तु का आधार भी धानी है जैसे पुष्पधानी या फूलदान। धानी में धारण करने का गुण ही सर्वोपरि है। इस धानी के अलग अलग क्षेत्रिय बोलियों में अलग अलग रंग और ढंग दिखते हैं। ज्यादातर लोक बोलियों में मूर्धन्य प्रभाव प्रमुख होने से ध का ढ हो गया है। धानी या तो ढानी हुई या ढाना मगर राजस्थान, पंजाबी और हरियाणवी में तो धानी के ध और न दोनों ही ध्वनियों की स्थितियाँ बदल कर मूर्धन्य हो गईं और ध बदला ढ में तो न बदला ण में और धानी, ढाणी बन गई।
अक्सर धानी का रिश्ता हरे-पीले रंग से भी जोड़ा जाता है। यह धानी रंग है जो लोकाचारों में मांगलिक माना जाता है। दरअसल धानी की मूल धातु धा है और इसके पीछे छुपा देवनागरी का ध वर्ण बड़ा चमत्कारी है जिसमें रखने वाला, धारण करने वाला जैसे भाव समाहित हैं। ब्रह्मा, कुबेर, भलाई, नेकी, संस्कार, धन-दौलत जैसे भाव भी इस वर्ण से जुड़े हुए हैं। धन ही समूची सभ्यता-संस्कृति को धारण करता है। धन है तो जन है, धन है तो जीवन है। जिसके पास धन नहीं वह निर्धन है। ताज्जुब तो यह कि हिन्दी का निधन शब्द इसी निर्धन से आ रहा है जिसमें धन को सर्वाधिक महत्व प्रधान कर दिया है। निर्धन जीवन मृत्यु समान है इसलिए निर्धन से उपजा निधन शब्द। समाज में हमेशा निर्धनों की तादाद ज्यादा रही है और धनिकों की निगाह में निर्धन की औक़ात कीड़े मकौड़े समान ही है। जाहिर है निर्धन होते ही व्यक्ति मनुष्य कहलानेयोग्य तो नहीं रह जाता। यह मृत्यु ही है। बहरहाल ध की महिमा धान्य में है जिसका अर्थ है अनाज। प्राचीनकाल में वस्तुविनिमय प्रणाली के तहत अनाज ही धन था और इसीलिए कृषिउपज को धान्य कहा गया। बाद में चावल के लिए धान शब्द रूढ़ हो गया। मोटे तौर पर पृथ्वी से जो कुछ अंकुरित रूप में सामने आया है, वह धान्य है। पृथ्वी के धरा, धरणी नाम में इसी ध की महिमा है क्योंकि प्राणि और प्रकृति को इसने धारण किया हुआ है। पृथ्वी की कोख से हमेशा सोना ही उपजता है इसलिए धानी रंग में स्वर्णिण, पीताभ के साथ हरितिमा का भाव है। पति स्त्री का धन भी है और स्त्री को आश्रय भी देता है सो राजस्थानी में पति को धणी कहने का रिवाज़ है। ग़रीब के लिए साहूकार धनी या धणी है क्योंकि कर्ज़ देकर वही उसे उबारता है।
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Saturday, February 5, 2011
निंदक नियरे राखिए...
हि न्दी में निकट, पास या समीप की अर्थवत्ता वाला नज़दीक शब्द बहुत प्रचलित है। दूरियाँ-नज़दीकियाँ जैसे मुहावरेदार प्रयोगों में भी यह नज़र आता है। नज़दीक शब्द हिन्दी में अरबी-फ़ारसी के ज़रिये आया है मगर यह सेमिटिक मूल का न होकर फ़ारसी ज़मीन से उपजा है और अवेस्ता-संस्कृत से इसकी रिश्तेदारी है। नज़दीक बना है फ़ारसी के नज़्द में मध्यकालीन फ़ारसी के इक प्रत्यय के लगने से। नज़्द का अर्थ है पास का, निकट का आदि। वैदिक संस्कृत में नेद जैसा शब्द कभी प्रचलित था जिसमें निकट, पास, समीप का भाव था। इससे सुपरलेटिव ग्रेड में नेद-नेदीयस्-नेदिष्ठ जैसे रूप बने। नेद यानी निकट, नेदीयस् यानी अधिक निकट और नेदिष्ठ यानी सर्वाधिक समीप। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है-‘पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्’ अर्थात अन्यान्य प्राणियों के बजाय पुरुष ही प्रजापति के सर्वाधिक नेदिष्ठ यानी समीपतम् माना जाता है। नेदीयस् या नेदिष्ट जैसे रूपों से वर्ण विपर्यय के जरिये ही अवेस्ता में नज्द शब्द का विकास हुआ जो बरास्ता पह्लवी होते हुए फारसी में नज़्द और फिर नज़्दीक में ढल गया। रामविलास शर्मा के मुताबिक ने में द (मूलरूप से ध) जोड़ कर नेद बनाया गया है। इसी नेद के आधार पर पंजाबी नेड़े, हिन्दी नेरे और अंग्रेजी नियर शब्द बने हैं और सभी समीपता सूचित करते हैं। फारसी नज़्दीक में मूल नज़ (या नज़्द) का आधार प्राचीन रूप नध है।
रामविलासजी ने यहाँ राजस्थानी, मालवी के नेड़ा का उल्लेख नहीं किया जिसमें भी नज़दीक का भाव ही है। अनेक सन्दर्भों में नेड़ा और नियर की व्युत्पत्ति नेद या नेदिष्ठ से न होकर निकट से बताई गई है जो ज्यादा तार्किक लगती है। कबीर के प्रसिद्ध दोहे 'निंदक नियरे राखिए...' वाले दोहे में अंग्रेजी के निअर और निअरे में साम्य पर अक्सर चर्चा होती रहती है। नियर और नेड़ा शब्दरूपों का चलन खड़ीबोली हिन्दी में नहीं है पर हिन्दी की अन्य बोलियों में प्रचलित है। दोनों का मूल संस्कृत के निकटम् से है। पूर्वी और पश्चिमी शैलियों में बदलाव का क्रम कुछ यूं रहा- निकटम् > निअडम > नेड़ा (राजस्थानी) और निकटम् > निअडम > निअरा > निअर/नियर (अवधी, भोजपुरी)। राजस्थानी का नेड़ा शब्द कबीरबानी में भी देखने को मिलता है- नान्हां काती चित्त दे, महँगे मोल बिकाई। गाहक राजा राम हैं, और न नेड़ा आई।। इस दोहे में कबीर ने भक्ति के धागे को इतना महीन कातने की बात कही है कि वह बेशकीमती हो जाए। इतना कि उसका मूल्य आंकने के लिए कोई पास भी न फटक सके। ज़ाहिर है, ऐसे अनमोल प्रेम के ग्राहक तो सिर्फ भगवान राम ही हैं जो उसे महंगे मोल ही खरीदेंगे अर्थात सत्कर्मों का सही फल देंगे। यही कबीर अपनी अभिव्यक्ति के लिए नियरा शब्द का प्रयोग भी इस प्रसिद्ध दोहे में करते नज़र आते हैं- निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय। बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।। यानी मनुष्य को परिष्कार और आत्मोन्नति के प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। निंदा करनेवाले के जरिये ही हमें अपने परिष्कार का अवसर मिलता है। भाषाओं में ऐसे संयोग भी होते हैं, पर विरल।
जॉन प्लैट्स के कोश में नज़दीक को नज़दीग या नज़्दिष्ठ का विकास बताया गया है। प्लैट्स भी नज्दिष्ठ को नज्द का सुपरलेटिव ग्रेड बताते हैं। नज्दिष्ठ की तुलना संस्कृत के नेदिष्ठ से की गई है जिसमें पास, समीप, द्वारा, संलग्न, सटा हुआ, समीपस्थ, निकटवर्ती जैसे भाव हैं। हिस्ट्री ऑफ यूरोपियन लैंग्वेजेज़ में अलेक्जेंडर मरे और डेविड स्कॉट इससे सुपरलेटिव ग्रेड में नेद > नेदीयस् > नेदिष्ठ की तुलना अंग्रेजी के near > near > near से करते हैं। हालाँकि व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह nigh > near > next होता है। एटिमऑनलाइन के अनुसार नाई में निकट का भाव है जबकि निअर में अधिक पास और नेक्स्ट में सटा हुआ या निकटतम का भाव है। इनका मूल गोथिक nehwa से माना जाता है। ओल्ड इंग्लिश में इसके neh-nah जैसे रूप थे। नेक्स्ट के ओल्ड इंग्लिश में niehsta, nyhsta रूपान्तर मिलते हैं जिसकी समानात संस्कृत नेदिष्ठ से गौरतलब है।
नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। हिन्दी का निकट इसका ही रूपान्तर है। नैकटिक का एक अन्य अर्थ भी है-साधु, सन्यासी या भिक्षु। नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। यही नैकटिकः दरअसल कामचोर, निकम्मा की अर्थवत्ता वाला निखट्टू है।
करीब या नज़दीक के लिए हिन्दी में निकट शब्द भी प्रचलित है। संस्कृत में एक धातु है कट् जिसमें जाना, स्पष्ट करना , दिखलाना आदि भाव समाहित हैं। संस्कृत-हिन्दी का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है नि जो शब्दों से पहले लगता है और कई भाव प्रकट करता है। नि में निहित एक भाव है पास आने का, सामीप्य का। कट् धातु में जब नि उपसर्ग का निवेश होता है तो बनना है- नि + कट् = निकट । कट् यानी जाना, इसमे नि जुड़ने से हुआ पास जाना, पाना आदि। इससे मिलकर संस्कृत का शब्द बनता है नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। हिन्दी का निकट इसका ही रूपान्तर है। नैकटिक का एक अन्य अर्थ भी है-साधु, सन्यासी या भिक्षु। नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। कट् धातु मे स्पष्ट करना, दिखलाना जैसे भाव तो पहले ही उजागर हैं जो संत-सन्यासियों का प्रमुख कर्तव्य है। अब मनुष्य सन्यास लेता ही इसलिए है ताकि वो खुद को पा सके । शास्त्रों में आत्मा को ही ब्रह्म कहा गया है। जिसने अपनी अंतरात्मा को पा लिया अर्थात् खुद को पा लिया वही, ज्ञानी। संन्यस्त होने का सुफल उसे मिल गया। इसीलिए उसे नैकटिकः कहा गया। यही नैकटिकः दरअसल कामचोर, निकम्मा की अर्थवत्ता वाला निखट्टू है। ईसा की शुरुआती सदियों में नैकटिकों के ऐसे सम्प्रदाय को यानी भिक्षुकों को निखट्टू कहा जाने लगा जो ढोंग और आडम्बर के बूते समाज में अपना प्रभामंडल कायम कर रहे थे। बुद्ध से बुद्धू और पाषंड से पाखंड और पाखंडी जैसी अर्थगर्भित नई शब्दावली बनाने वाले समाज ने अगर इधर-उधर डोलने वाले, आवारा, जिससे कुछ काम न हो सके अथवा नाकारा-निकम्मे के लिए नैकटिकः से निखट्टू जैसा शब्द बना लिया हो तो क्या आश्चर्य?
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Wednesday, February 2, 2011
कंगाल की ठठरी, ग़रीब का पिंजर[आश्रय-31]
क हते हैं कंगाली में आटा गीला या ग़रीबी में आटा गीला अर्थात मुसीबत के वक्त में और विपत्तियों का आना। इस मुहावरे में कंगाल और ग़रीब शब्द एक दूसरे के पर्याय हैं। कंगाल जहाँ हिन्दी का तद्भव शब्द है वहीं ग़रीब सेमिटिक मूल से आया अरबी शब्द है। यह जानना दिलचस्प है कि निर्धन और विपन्न जैसे अर्थों में प्रयोग होने वाले इस शब्द का मूल अर्थ कुछ और था। अपने सेमिटिक मूल में ग़-र-ब gh-r-b धातु में अस्त होने, वंचित होने का भाव था। इसकी पुष्टि होती है इसके प्राचीन हिब्रू रूप गर्ब Gh-Rb से जिसमें मूलतः अंधकार, कालापन, पश्चिम का व्यक्ति या शाम का भाव है। गौर करें ढलते सूरज में अपनी प्रखरता से वंचित होने का भाव है। इसका अर्थ है शाम का समय। चाहें तो साहित्यिक भाव में सूर्य को हम ग़रीब मान सकते हैं। gh-r-b में निहित अजनबी, दूरागत अथवा परदेसी के भाव पर गौर करें। प्राचीनकाल में यात्राएं पैदल चलकर तय होती थी और बेहद कष्टप्रद होती थीं। राहगीर चोर-उचक्कों और बटमारों की ज्यादती का शिकार भी होते थे। परदेश से आया यात्री आमतौर पर थका हारा, फटेहाल और पस्त होता था। गरीब शब्द की अर्थवत्ता विपन्न और वंचित के अर्थ में यहाँ समझी जा सकती है।
अर्थान्तर की कुछ इसी क्रिया से बना है कंगाल शब्द जिसका मूल रूप है संस्कृत कङ्कालः या कङ्कालम् जिसका अर्थ है जरावस्था या बीमारी क्षीण शरीर, हड्डियों का ढाँचा, अस्थिपंजर। कंकाल के बारे में अमरकोश में लिखा है-कं शिरः कालयति क्षिपति। यह बना है कम् + कल् + णिच् + अच् के मेल से। मूलतः इसमें ठठरी या ढाँचे का भाव है जो शरीर का आधार है। कङ्कालय का अर्थ होता है शरीर। यूँ देखा जाए तो कंकाल के होने से शरीर है मगर प्रचलित अर्थों में शरीर के न रहने से या शरीर के दुर्बल होने से कंकाल बचता है। यही हीन भाव कंगाल शब्द के पीछे महत्वपूर्ण है। ग़रीब में निहित वंचित-विपन्न वाली बात यहाँ भी है। कंगाल वही है जो अपनी सुख समृद्धि खो चुका है। जो दीन, हीन और बहुत दरिद्र है। भाव स्पष्ट है कि विपन्नता के चलते जिसकी अवस्था कंकालमात्र रह गई हो, वही कंगाल है।
कंकाल के ही अर्थ में हिन्दी का पंजर, पिंजर शब्द भी प्रचलित हैं। अस्थिपंजर में यह भाव एकदम स्पष्ट हो जाता है। संस्कृत की पिंज् धातु से बना है पिंजर जिसमें सजाना, रंगभरना, स्पर्श देना, रहना-बसना जैसे भावों के साथ चोट पहुँचाना, क्षति पहुँचाना जैसे भाव भी हैं। पिंज धातु में मूलतः आश्रय या निर्माण के भाव है जिनका खुलासा इससे बने हिन्दी शब्दों की अर्थवत्ता से होता है। पिंजर का अर्थ है हड्डियों का ढाँचा, अस्थिपंजर, कंकाल आदि। वह जालीदार कक्ष जिसमें पंछियों का बसेरा होता है, पिंजरा कहलाता है। पिंजरा भी पिंज् से ही बना है ( पिञ्जरकः) और उसमें वास-निवास का भाव उजागर हो रहा है। इसी तरह पिंजर भी एक तरह का पिंजरा यानी आश्रय ही है। कबीर दार्शनिक भाव से कहते हैं- दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन। जिस तरह अस्थियों का ढाँचा पूरे शरीर को संभालता है, उसी तरह का ढाँचा किसी भी आश्रय के निर्माण का स्थायी आधार होता है। पिंज् धातु में निहित सजाने या स्पर्श देने का भाव उभरता है पिंजारा शब्द में जो रुई धुनकनेवाली जाति है। मालवा में यह शब्द आमतौर पर प्रचलित है। दरअसल संस्कृत में पिंञ्जन ( पिंजन ) क्रिया का अर्थ धुनना है। धुनने में स्पर्श देने का भाव भी है। स्पर्श की तीव्रता से ही चोट पहुँचाना और क्षति पहुँचाने के नतीजे सामने आते हैं। पिंजारा जब रुई धुनकता है तो उसमें ये सारी क्रियाएँ शामिल रहती हैं। पिंजारे को धुनिया भी कहते हैं। इस शब्द से जुड़े कुछ मुहावरे हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे खूब श्रम करने से उत्पन्न थकान के संदर्भ में अंजर-पंजर ( इंजर-पिंजर ) ढीले होना कहा जाता है जिसमें शरीर के जोड़ों के शिथिल होने का भाव है। बंदी को पिंजरे का पंछी कहा जाता है।
पिंजर के अर्थ में ही ठठरी शब्द भी हिन्दी में चलता है। ठठरी के मूल में स्थातृ शब्द है जो संस्कृत की स्थ् धातु से बना है। स्थ् में खड़े रहना, स्थिर होना, किसी जगह पर उपस्थिति होना, डटे रहना, विद्यमान होना, किसी आधार पर टिकना आदि भाव हैं। यह भारोपीय भाषा की धातु है और इस परिवार की सर्वाधिक व्यापक अर्थवत्ता वाली धातुओं में इसका शुमार है जिससे निकले शब्द दुनियाभर की कई भाषाओ में हैं। भाषाविज्ञानियों ने स्थ् से मिलती जुलती स्त् (sta) की कल्पना की है । अंगरेजी के स्टे stay यानी स्थिर होना, टिकना, स्टैंड यानी खड़े होना, स्टूल यानी मूढ़ा अथवा स्टेट यानी राज्य जैसे अनेक शब्दों के मूल में यही धातु है। स्थातृ से बना है ठठरी ( ठाट्ठरी > ठठरी > ठटरी ) जिसका अर्थ होता है कंकाल, ढांचा या पंजर। गौर करें कि मनुष्य का शरीर अस्थियों के ढांचे पर ही है। अस्थिपंजर के रूप में किसी भी जीव की देह को ठठरी कहा जाता है। स्थातृ का देशज रूप ही ठाठ बना। ठाठ का असली अर्थ है घास-फूस या बांस के जरिये बनाया गया कोई ढांचा जिसे सब तरफ से ढक कर कोई आश्रय या निर्माण किया जाए। ठाट्ठरी से इसका रूप ठट्ठर हुआ और फिर टट्टर जिसका अर्थ ओट या रक्षा के लिए बांस की फट्टियां जोड़ कर बनाया गया ढांचा। नज़ीर की प्रसिद्ध पंक्ति- सब ठाठ धरा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा में जो ठाठ है, उसका तात्पर्य बंजारों के अस्थाई डेरों यानी झोपड़ियों वाले ठाठ-ठट्टर से ही है।
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Tuesday, February 1, 2011
गुहा, गुफा और कोहिनूर [आश्रय-30]
प र्वतों-पहाड़ों में बने प्राकृतिक आश्रयस्थलों को गुफा या कंदरा कहा जाता है। किसी भी प्राणी को निवास के लिए हमेशा घिरे हुए स्थान की ही तलाश रहती है जहां वह सुरक्षा और सुविधा अनुभव करता है। हिन्दी का गुफा शब्द बना है संस्कृत के गुहा से जिसका अर्थ है कंदरा, कोटर, छिपने का स्थान, गड्ढा या बिल आदि। आप्टेकोश के मुताबिक बंद या सुरक्षित स्थान के अर्थ में गुहा का एक अर्थ हृदय भी होता है क्योंकि यह छाती के भीतर है। गुहा बना है गुह् धातु से जिसमें ढकने, छिपाने, परदा डालने, गुप्त रखने का भाव है। आदिकाल से प्राणियों को आश्रय की खोज रही है। आश्रय का सामान्य अर्थ यही निकलता है जहाँ आराम किया जा सके, मगर आदिम युग में आश्रय का अर्थ सुरक्षित स्थान से था। जहाँ शरण ली जा सके। उस काल में अपने शत्रुओं से खुद को बचाने की जद्दोजहद अहम थी, ऐसे में ऐसे स्थान की खोज, जहाँ खुद को शत्रु की नज़रों से छुपाया जा सके, ज़रूरी थी। सो आश्रय का अर्थ था गुप्त जगह, जहाँ खुद को छुपाकर बचाव किया जा सके। सो गुह् धातु से बने गुहा में गुप्त स्थान का भाव प्रमुख है। बाद में गुहा का अर्थ संरक्षित-सुरक्षित स्थान हुआ। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक गुहा यानी वह गहरा अँधेरा गड्ढा जो जमीन या पहाड़ के नीचे वहुत दूर तक चला गया हो।
गुह् का पूर्ववैदिक रूप कुह् रहा होगा। याद रहे क वर्णक्रम में ही ग भी आता है। निश्चित ही कुह् में वही भाव थे जो गुह् में हैं। संस्कृत में कुहरम् शब्द है जिसका मतलब है गुफा, गढ़ा आदि। आप्टेकोश में इसका एक अर्थ गला या कान भी बताया गया है। जाहिर है, इन दोनों ही शरीरांगों की आकृति गुफा जैसी है। नाभि के साथ नाभिकुहर जैसी उपमा भी मिलती है। संस्कृत के पूर्वरूप यानी वैदिकी या छांदस की ही शाखा के रूप में अवेस्ता का भी विकास हुआ जिससे फ़ारसी का जन्म माना जाता है। फ़ारसी में पहाड़ के लिए कोह शब्द है जो इसी मूल से आ रहा है। बरास्ता अवेस्ता कुह् में निहित गुप्त स्थान या गुफा का अर्थ विस्तार फ़ारसी में कोह के रूप में सामने आया अर्थात वह स्थान जहाँ बहुत सी गुफाएँ हों। स्पष्ट है कि गुफाएँ पहाड़ों में ही होती हैं, सो कुह् से बने कोह का अर्थ हुआ पहाड़। कोहिनूर जैसे मशहूर हीरे के नामकरण के पीछे भी यही कुह् धातु है। कोहिनूर बना है कोह-ए-नूर से। अक्सर इसका मतलब लगाया जाता है रोशनी का पहाड़। इसका मतलब होता है पर्वत से उत्पन्न या पहाड़ से निकला वह पत्थर जो जिसमें सबसे ज्यादा चमक हो। याद रहे, कोहिनूर सदियों पहले गोलकुंडा की हीरा खदान से निकाला गया था, जो सदियों पहले दुनिया की इकलौती हीरा खदान थी।
पहाड़ों की कंदरा, गुफा या वृक्ष के कोटर ऐसे ही घिरे हुए स्थान थे जहां प्रारम्भिक मानव ने अपने ठिकाने बनाए। यह बना है कुट् धातु से जिसका मतलब हुआ वक्र या टेढ़ा । इसका एक अन्य अर्थ होता है वृक्ष। प्राचीन काल में झोपड़ी या आश्रम निर्माण के लिए वृक्षों की छाल और टहनियों को ही काम मे लिया जाता था जो वक्र होती थीं। एक कुटि (कुटी) के निर्माण में टहनियों को ढलुआ आकार में मोड़ कर, झुका कर छप्पर बनाया जाता है। इस तरह कुट् से बने कुटः शब्द में छप्पर, पहाड़ (कंदरा), जैसे अर्थ समाहित हो गए। भाव रहा आश्रय का। इसके अन्य कई रूप भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे कुटीर, कुटिया, कुटिरम्। छोटी कंदरा या गुफा आदि। विशाल वृक्षों के तने में बने खोखले कक्ष के लिए कोटरम् शब्द भी इससे ही बना है जो हिन्दी में कोटर के रूप में प्रचलित है और यह पहाड़ी गुफा भी हो सकती है। अंग्रेजी में गुफा को केव कहते हैं जो भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और इसकी रिश्तेदारी भी कुह् से है। डगलस हार्पर की एटिमआनलाइन के मुताबिक केव CAVE बना है प्रोटो इंडोयूरोपीय धातु क्यू *keue- से जिसका अर्थ है मेहराब या पहाड़ के भीतर जाता ऐसा छिद्र जो भीतर से चौड़ा हो। काकेशस पर्वत को फ़ारसी ग्रन्थों में कोहकाफ़ कहा गया है।
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