Saturday, February 5, 2011

निंदक नियरे राखिए...

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हि न्दी में निकट, पास या समीप की अर्थवत्ता वाला नज़दीक शब्द बहुत प्रचलित है। दूरियाँ-नज़दीकियाँ जैसे मुहावरेदार प्रयोगों में भी यह नज़र आता है। नज़दीक शब्द हिन्दी में अरबी-फ़ारसी के ज़रिये आया है मगर यह सेमिटिक मूल का न होकर फ़ारसी ज़मीन से उपजा है और अवेस्ता-संस्कृत से इसकी रिश्तेदारी है। नज़दीक बना है फ़ारसी के नज़्द में मध्यकालीन फ़ारसी के इक प्रत्यय के लगने से। नज़्द का अर्थ है पास का, निकट का आदि। वैदिक संस्कृत में नेद जैसा शब्द कभी प्रचलित था जिसमें निकट, पास, समीप का भाव था। इससे सुपरलेटिव ग्रेड में नेद-नेदीयस्-नेदिष्ठ जैसे रूप बने। नेद यानी निकट, नेदीयस् यानी अधिक निकट और नेदिष्ठ यानी सर्वाधिक समीप। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है-‘पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्’ अर्थात अन्यान्य प्राणियों के बजाय पुरुष ही प्रजापति के सर्वाधिक नेदिष्ठ यानी समीपतम् माना जाता है। नेदीयस् या नेदिष्ट जैसे रूपों से वर्ण विपर्यय के जरिये ही अवेस्ता में नज्द शब्द का विकास हुआ जो बरास्ता पह्लवी होते हुए फारसी में नज़्द और फिर नज़्दीक में ढल गया। रामविलास शर्मा के मुताबिक ने में (मूलरूप से ) जोड़ कर नेद बनाया गया है। इसी नेद के आधार पर पंजाबी नेड़े,  हिन्दी नेरे और अंग्रेजी नियर शब्द बने हैं और सभी समीपता सूचित करते हैं। फारसी नज़्दीक में मूल नज़ (या नज़्द) का आधार प्राचीन रूप नध है।
रामविलासजी ने यहाँ राजस्थानी, मालवी के नेड़ा का उल्लेख नहीं किया जिसमें भी नज़दीक का भाव ही है। अनेक सन्दर्भों में नेड़ा और नियर की व्युत्पत्ति नेद या नेदिष्ठ से न होकर निकट से बताई गई है जो ज्यादा तार्किक लगती है। कबीर के प्रसिद्ध दोहे 'निंदक नियरे राखिए...' वाले दोहे में अंग्रेजी के निअर और निअरे में साम्य पर अक्सर चर्चा होती रहती है। नियर और नेड़ा शब्दरूपों का चलन खड़ीबोली हिन्दी में नहीं है पर हिन्दी की अन्य बोलियों में प्रचलित है। दोनों का मूल संस्कृत के निकटम् से है। पूर्वी और पश्चिमी शैलियों में बदलाव का क्रम कुछ यूं रहा- निकटम् > निअडम > नेड़ा (राजस्थानी) और निकटम् > निअडम > निअरा > निअर/नियर (अवधी, भोजपुरी)। राजस्थानी का नेड़ा शब्द कबीरबानी में भी देखने को मिलता है- नान्हां काती चित्त दे, महँगे मोल बिकाई। गाहक राजा राम हैं, और न नेड़ा आई।। इस दोहे में कबीर ने भक्ति के धागे को इतना महीन कातने की बात कही है कि वह बेशकीमती हो जाए। इतना कि उसका मूल्य आंकने के लिए कोई पास भी न फटक सके। ज़ाहिर है, ऐसे अनमोल प्रेम के ग्राहक तो सिर्फ भगवान राम ही हैं जो उसे महंगे मोल ही खरीदेंगे अर्थात सत्कर्मों का सही फल देंगे। यही कबीर अपनी अभिव्यक्ति के लिए नियरा शब्द का प्रयोग भी इस प्रसिद्ध दोहे में करते नज़र आते हैं- निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय। बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।। यानी मनुष्य को परिष्कार और आत्मोन्नति के प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। निंदा करनेवाले के जरिये ही हमें अपने परिष्कार का अवसर मिलता है। भाषाओं में ऐसे संयोग भी होते हैं, पर विरल।
जॉन प्लैट्स के कोश में नज़दीक को नज़दीग या नज़्दिष्ठ का विकास बताया गया है। प्लैट्स भी नज्दिष्ठ को नज्द का सुपरलेटिव ग्रेड बताते हैं। नज्दिष्ठ की तुलना संस्कृत के नेदिष्ठ से की गई है जिसमें पास, समीप, द्वारा, संलग्न, सटा हुआ, समीपस्थ, निकटवर्ती जैसे भाव हैं। हिस्ट्री ऑफ यूरोपियन लैंग्वेजेज़ में अलेक्जेंडर मरे और डेविड स्कॉट इससे सुपरलेटिव ग्रेड में नेद > नेदीयस् > नेदिष्ठ की तुलना अंग्रेजी के near > near > near से करते हैं। हालाँकि व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह nigh > near > next होता है। एटिमऑनलाइन के अनुसार नाई में निकट का भाव है जबकि निअर में अधिक पास और नेक्स्ट में सटा हुआ या निकटतम का भाव है। इनका मूल गोथिक nehwa से माना जाता है। ओल्ड इंग्लिश में इसके neh-nah जैसे रूप थे। नेक्स्ट के ओल्ड इंग्लिश में niehsta, nyhsta रूपान्तर मिलते हैं जिसकी समानात संस्कृत नेदिष्ठ से गौरतलब है।
नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। हिन्दी का निकट इसका ही रूपान्तर है। नैकटिक का एक अन्य अर्थ भी है-साधु, सन्यासी या भिक्षु। नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। यही नैकटिकः दरअसल कामचोर, निकम्मा की अर्थवत्ता वाला निखट्टू है।
रीब या नज़दीक के लिए हिन्दी में निकट शब्द भी प्रचलित है। संस्कृत में एक धातु है कट् जिसमें जाना, स्पष्ट करना , दिखलाना आदि भाव समाहित हैं। संस्कृत-हिन्दी का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है नि जो शब्दों से पहले लगता है और कई भाव प्रकट करता है। नि में निहित एक भाव है पास आने का, सामीप्य का। कट् धातु में जब नि उपसर्ग का निवेश होता है तो बनना है- नि + कट् = निकट । कट् यानी जाना, इसमे नि जुड़ने से हुआ पास जाना, पाना आदि। इससे मिलकर संस्कृत का शब्द बनता है नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। हिन्दी का निकट इसका ही रूपान्तर है। नैकटिक का एक अन्य अर्थ भी है-साधु, सन्यासी या भिक्षु। नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। कट् धातु मे स्पष्ट करना, दिखलाना जैसे भाव तो पहले ही उजागर हैं जो संत-सन्यासियों का प्रमुख कर्तव्य है। अब मनुष्य सन्यास लेता ही इसलिए है ताकि वो खुद को पा सके । शास्त्रों में आत्मा को ही ब्रह्म कहा गया है। जिसने अपनी अंतरात्मा को पा लिया अर्थात् खुद को पा लिया वही, ज्ञानी। संन्यस्त होने का सुफल उसे मिल गया। इसीलिए उसे नैकटिकः कहा गया। यही नैकटिकः दरअसल कामचोर, निकम्मा की अर्थवत्ता वाला निखट्टू है। ईसा की शुरुआती सदियों में नैकटिकों के ऐसे सम्प्रदाय को यानी भिक्षुकों को निखट्टू कहा जाने लगा जो ढोंग और आडम्बर के बूते समाज में अपना प्रभामंडल कायम कर रहे थे। बुद्ध से बुद्धू और पाषंड से पाखंड और पाखंडी जैसी अर्थगर्भित नई शब्दावली बनाने वाले समाज ने अगर इधर-उधर डोलने वाले, आवारा, जिससे कुछ काम न हो सके अथवा नाकारा-निकम्मे के लिए नैकटिकः से निखट्टू जैसा शब्द बना लिया हो तो क्या आश्चर्य?
 

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2 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

कितने अच्छे अच्छे शब्दों से भी बुद्धू जैसे शब्द जन्म ले लेते हैं।

निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद।

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