भारतीय समाज में गो अर्थात गाय की महत्ता जगजाहिर है। खास बात ये कि तीज-त्योहारों, व्रत-पूजन और धार्मिक अनुष्ठानों के चलते हमारे जन-जीवन में गोवंश के प्रति आदरभाव उजागर होता ही है मगर भाषा भी एक जरिया है जिससे वैदिक काल से आजतक गो अर्थात गाय के महत्व की जानकारी मिलती है। हिन्दी में एक शब्द है गुसैयॉं, जिसका मतलब है ईश्वर या भगवान। इसी तरह गुसॉंईं और गोसॉंईं शब्द भी हैं ।
ये सभी शब्द बने हैं संस्कृत के गोस्वामिन् से जिसका अर्थ हुआ गऊओं का मालिक अथवा गायें रखनेवाला। वैदिक काल में गाय पालना प्रतिष्ठा व पुण्य का काम समझा जाता था। जिसके पास जितनी गायें, उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा। यह इस बात का भी प्रतीक था कि व्यक्ति सम्पन्न है। कालांतर में गोस्वामिन् शब्द गोस्वामी और बाद में गोसॉंईं के रूप में समाज के धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए प्रचलित हो गया। इसी आधार पर साधु-संतों के मठों और आश्रमों का भी आकलन होने लगा। साधु-संतों के नाम के आगे गोसॉंईं लगाना आम बात हो गई। मराठी में गोस्वामी हो जाता है गोसावी।
गो का एक अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इस तरह गोस्वामी का मतलब हुआ जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो। शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में गोसॉंईं शब्द की व्याख्या इसी अर्थ में की जाती है।
शैव गोस्वामी शंकराचार्य के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाते हैं। ये मठवासी भी होते हैं और घरबारी भी। इसी तरह वैष्णवों में भी होता है। ये लोग मठों –अखाड़ों में रहते हैं और पर्वों पर तीर्थ स्थलों पर एकत्रित होते हैं। वल्लभकुल, निम्बार्क और मध्व सम्प्रदायों के आचार्य भी यह पदवी लगाते है। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के शासनकाल में शैव गोसाइयों ने शस्त्र धारण कर लिए थे। ये लोग मराठों की फौज में भी भर्ती हुए थे।
वैराग्य धारण करने के बाद साधु हो जाने के बावजूद जो लोग पुनः ग्रहस्थाश्रम में लौट आते हैं उनके वंशजों को भी गोसॉंईं या गुसॉंईं कहा जाता है। ( कृपया इसे भी ज़रूर पढ़ें- ग्वालों की बस्ती में घोषणा )
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Friday, November 30, 2007
गोस्वामी-गोसॉंईं-गुसैयॉं
जुए और गैंबलिंग में भी रिश्तेदारी [ चुनरी का सबसे पुराना दाग- 4]
यह आलेख अहा जिंदगी के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है उसी लेख की चौथी कड़ी।
अंग्रेजी में जुए को गैंबलिंग कहते हैं जिसका मतलब है समूह रूप में खेलना। यह बना है भारोपीय भाषा परिवार की गोथिक ज़बान के gamen से जिसका मतलब है खेलना। मूलतः यह पोस्टजर्मनिक भाषा का शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है ga और menn से मिलकर। गे यानी सामूहिक और मैन यानी व्यक्ति। दिलचस्प बात यह कि इसी शब्द समूह का एक अन्य शब्द है ग्ली ( glee ) जिसका मतलब भी आमोद-प्रमोद और खेल ही है । इस शब्द की द्यूतक्रीड़ा में प्रयोग होने वाले संस्कृत शब्द ग्लह् से समानता देखिये। द्यूत में इसका अर्थ होता है दांव पर लगाई जाने वाली राशि जो जीतने वाले को ही मिलती है।
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Thursday, November 29, 2007
बिहारी की है बुखारी से रिश्तेदारी
विहार शब्द मूलत: संस्कृत का है मगर हिन्दी में भी बोला-समझा जाता है। इसके कई अर्थ हैं जो रागरंग से भी जुड़ते हैं और धर्म-वैराग्य से भी। विहार के विभिन्न मायनों में शामिल है सैरसपाटा, भ्रमण, देशाटन,आमोद-प्रमोद, उद्यान या वाटिका, विलास ,मनोरंजन वगैरह-वगैरह। इसके कुछ अन्य अर्थ भी हैं जैसे बौद्ध या जैन मंदिर, पूजास्थल, मठ आश्रम,संघाराम,विश्राम,भिक्षुमठ, निवास,धर्मस्थली अथवा तीर्थाटन आदि। विहार के इन दूसरे अर्थों से ही रिश्ता जुड़ता है आज के बिहार प्रान्त और उज्बेकिस्तान के बुखारा नाम के प्रसिद्ध शहर का। ये दोनों ही नाम विहार शब्द से बने हैं और इनका बौद्धधर्म से बहुत गहरा संबंध है। विहार यानी बौद्धमठ। ईसापूर्व पांचवीं सदी तक लगभग समूचे उत्तरी भारत में बौद्धधर्म का झण्डा फहरा चुका था। आज का बिहार उस जमाने में मगध कहलाता था। और बौद्धधर्म का खास केन्द्र था। वह मौर्य और गुप्तकाल का समय था। न सिर्फ बौद्धमठों (विहार) की अधिकता के कारण बल्कि भिक्षुओं के निरंतर तीर्थाटन (विहार) के कारण इस समूचे भूक्षेत्र को विहार के नाम से प्रसिद्धि मिलने लगी और बाद में यह बिहार कहलाने लगा। मगध नाम इतिहास की किताबों में दर्ज होकर रह गया।
चौथी सदी तक बौद्धधर्म का डंका पूर्वी एशिया से लेकर मध्यएशिया तक बज चुका था। इस इलाके में आज के उज्बेकिस्तान,ताजिकिस्तान, किगिर्गिजिस्तान,तुर्कमेनिस्तान,कजाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान जैसे मुल्क आते हैं। प्राचीनकाल में बुखारा मध्यएशिया के बल्ख प्रान्त की राजधानी था और यहां तेरहवीं सदी ईसापूर्व से ही सभ्यता के निशान मिलते हैं। बल्ख का जिक्र प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में वाल्हीक के रूप में भी मिलता है। प्राचीनकाल से ही यूरोप को चीन से जोड़ने वाले मशहूर सिल्क रूट या रेशममार्ग पर होने की वजह से यहां बस्ती रही जो बाद में बड़े कारोबारी केन्द्र के रूप में बदल गई । उस जमाने में तक्षशिला ही बौद्धधर्म का केन्द्र नहीं था बल्कि काबुल, कंदहार और इस्फहान में भी बौद्धों का खूब बोलबाला था। मगर बुखारा की बात ही कुछ और थी। वहां इतने विहार बने कि नाम ही बुखारा हो गया । क्रम कुछ यूं
रहा -विहार > बिहार> बखार> बुखार> बुखारा । इस्लाम के जन्म तक यह स्थान इसी नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। यहां खड़े बौद्धविहारों के अवशेष यही कहते हैं कि ये कभी विहार था। भारत में मुस्लिम उपनामों में एक है बुखारी जो बुखारा से ही ताल्लुक रखता है। तो हो गई बिहारी की बुखारी से रिश्तेदारी ...
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 13 कमेंट्स पर 3:50 AM
Wednesday, November 28, 2007
आन-बान-शान की पगड़ी
देशभर के लगभग सभी हिस्सों में हर समूदाय में पगड़ी पहननें का रिवाज है और खास मौकों पर इसे पहनना शान की बात समझी जाती है। देहातों में तो पुरुषों के रोज़मर्रा के पहनावे का ये आम हिस्सा है। दुनियाभर में सिर ढकने का चलन दरअसल मौसम की मार से बचने के लिए ही शुरू हुआ और साफा, टोपी , पगड़ी जैसी चीजें सामने आइ। बाद में पहनावे का जरूरी हिस्सा बनने के साथ-साथ मान-सम्मान, इज्जत जैसी भावनाओं से भी इनका रिश्ता जुड़ गया। पगड़ी शब्द का जन्म कुछ विद्वान पगरी से मानते हैं। उनके मुताबिक पहले सिर पर बांधा जाने वाला साफा पैर तक झूलता था इस लिए उसे पगरी कहा गया जो बाद में पगड़ी हुआ। कुछ का मानना है कि इसकी उत्पत्ति पट्टम् से हुई है। संस्कृत में इसका अर्थ हुआ रेशमी कपड़ा। पट्टम् से हिन्दी के पटका शब्द की उत्पत्ति को समझना ज्यादा आसान है बजाय पगड़ी के। भाषा विज्ञान के नजरिये से पगड़ी की उत्पत्ति का आधार संस्कृत शब्द परिकरः या परिकरोति में नजर आता है। परिकर का मतलब है स्वयं को सज्जित करना या तैयार करना।
गौर करें कि हिन्दी और संस्कृत के परि उपसर्ग का मतलब होता है चारों और, इधर-उधर या इर्दगिर्द। करोति का मतलब है करना बनाना आदि। जाहिर है तैय्यार होने के अर्थ में सिर को चारों और से किसी कपड़े से सज्जित करने की क्रिया को ही परिकरः या परिकरोति कहा गया और इसी से बनी हिन्दी की पगड़ी। गौरतलब बात ये कि पगड़ी अब अमेरिकन अंग्रेजी में भी paggree के रूप में मौजूद है जिसका अर्थ भी टोपी turban या ही होता है। यही नहीं इस शब्द से एक नई क्रिया भी बना ली गई है-paggreed, जिसका मतलब है कुंडली या घुमावदार।
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Thursday, November 22, 2007
रेखा लेखक और राइटर की
हिन्दी के लेखक और अंग्रेजी के राइटर शब्दों के अर्थ न सिर्फ एक हैं बल्कि दोनों शब्दों का उद्गम भी एक ही है । लेखक शब्द लेख् से बना है वहीं राइटर शब्द राइट से बना है। इन दोनों शब्दों के मूल में संस्कृत की धातु रिष् है जिसका मतलब होता है क्षति पहुंचाना, ठेस पहंचाना, चोट पहुंचाना ऋष् शब्द का अर्थ भी चोट पहुंचाना ही होता है। इसीलिए तलवार या भाला जैसी वस्तु के लिए ऋष्टि शब्द भी है। रिष् का अगला रूप बना रिख् जिसमें आघात करना, खरोचना, खींचना, जैसी क्रियाएं शामिल हैं। खुरचने-खरोचने की क्रिया से ही लकीर बनाने की क्रिया के लिए लिख शब्द चल पड़ा जिसके तहत आलेखन, उत्कीर्णन और चित्रण की क्रियाएं भी शामिल हो गईं। लिख से ही निर्माण हुआ रेखा का जिसका अर्थ हुआ लकीर , धारी, पंक्ति , आलेखन आदि। भाषाविज्ञानी डॉ रामविलास शर्मा का मानना है कि द्रविड़ भाषा परिवार की तमिल में लेखन के लिए वरि शब्द मिलता हैं जिस का अर्थ है लिखना , चित्र बनाना। थोड़े बदलाव के साथ तेलुगू में व्रायु, रायु जैसे रूप मौजूद हैं। व्रात का मतलब भी लेखन होता है। व्रात (vrat ) की तुलना अंग्रेजी के write से करें तो समानता साफ नज़र आती है। अंग्रेजी में इस शब्द के विकास क्रम में भी खुरचना जैसे अर्थ शामिल रहे हैं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Sunday, November 18, 2007
चंदूभाई की चिट्ठी आई [ डाकिया डाक लाया- 2 ]
सफर की पिछली पोस्ट- डाकिया डाक लाया ... समीर भाई.. में कई प्रतिक्रियाएं मिलीं। इनमें सबसे ज्ञानवर्धक थी पहलू वाले चंद्रभूषणजी की। जिन लोगों ने यह पोस्ट नहीं पढ़ी थी उनके लिए वह टिप्पणी जस की तस यहां पेश है –
-मुझे आपकी इस खोज में लंतरानी ज्यादा नजर आती है। मेरे ख्याल से पोस्टऑफिस का अनुवाद 'डाकघर' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का किया हुआ है, जिनकीएक कविता की पंक्ति है- 'जोदि तोमार डाक शुने केऊ ना आशे तोबे ऐक्ला चालोऐक्ला चालो ऐक्ला चालो रे...।' यहां डाक का सपाट अर्थ 'पुकार' है और डाकघर, डाकिया आदि शब्द इसी के व्युत्पन्न हैं। डाकिए या संदेशवाहक केलिए संस्कृत और पुरानी हिंदी का शब्द पायक है, जिसका द्रा धातु से कोई संबंध नहीं
डाकिये की पुकार और डाक की रफ्तार
मैने उक्त पोस्ट के अंत में क्रमशः इसीलिए लिखा था क्यों कि अभी यह जारी है। अगली कड़ी में बांग्ला के डाक का संदर्भ ही आने वाला था मगर चंदूभाई ने वह काम कर दिया। बेशक, गुरूदेव वाला, बांग्ला वाला संदर्भ सही हो सकता है। डाक के 'पुकार' अर्थ में अगर डाकिये को देखें तो यह बात नज़र भी आती है। संदेश-संवाद लाने के बाद उसे हांक लगाकर सुनाने या संदेश पाने वाले का नाम पुकारने वाले के तौर पर डाक से डाकिया शब्द चल पड़ा होगा। मगर बांग्ला डाक की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? पोस्टआफिस के अर्थ में डाकघर अनुवाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का किया हुआ माना जा सकता है मगर डाक में खाना लगाकर उर्दू का जो डाकखाना बना वह चलन कब का है ? ( ये अलग बात है कि उर्दू में ड वर्ण ही नहीं है। ) गुरूदेव द्वारा पोस्ट आफिस को डाकघर नाम देने से दशकों पहले से डाक शब्द अंग्रेजीराज में दाखिल हो चुका था। जाहिर है कि डाकखाना भी डाकघर से पहले बन चुका होगा । एक और बात है। बांग्ला के डाक ( पुकार ) शब्द में कहीं भी संवाद या संदेश जैसा अर्थ ध्वनित नहीं हो रहा है।
खासतौर पर चिट्ठी-पत्री या दस्तावेज़ी संदेश जैसी बात तो कतई नहीं। यही बात द्राक् के बारे में भी कही जा सकती है। मगर संदेश पहुंचाने की प्रणाली के संदर्भ में द्राक का रिश्ता जुड़ता हुआ लग रहा है।
रही बात पायक की सो संस्कृत में इसका रूप पायिकः है जो हिन्दी में पायक हो गया। संस्कृत में संदेश वाहक नहीं बल्कि पैदल सिपाही के तौर पर इसका अर्थ बताया गया है (आपटे कोश) और ज्ञानमंडल हिन्दी कोश में भी इसका अर्थ पैदल सिपाही, सेवक या दूत बताया गया है। संदेशवाहक की प्रकृति पर अगर ध्यान दें तो पायक की व्युत्पत्ति चाहे द्रा से न जुड़ती हो मगर प्रकृति एक ही है। पायक पैदल चलने वाला है और द्रा या द्राक् में शीघ्रता है। दोनों में ही गति तो है। दस्तावेज़ी संदेश के अर्थ में पुकार वाले भाव का डाक से रिश्ता थोड़ा पीछे जुड़ता हुआ लगता है बनिस्बत द्राक् या पायक में निहित गति या शीघ्रता वाले भाव के । आपटे के कोश में एक और भी शब्द है - ढौक् जिसका अर्थ है जाना, पहुंचाना,निकट लाना या प्रस्तुत करना । ये तमाम भाव भी डाक में निहित संदेश वाले अर्थ से जुड़ते हैं न कि पुकार वाले अर्थ से। अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य व्युत्पत्ति तलाशने वालों के प्रिय उपकरण रहे हैं और यहां ये दोनों ही काम दे रहे हैं।
ये लंतरानी कैसे हुई ?
चंदूभाई की ऐक ही बात काबिले ऐतराज लगी और वह ये कि उन्होने हमारे लिखे को लंतरानी कहा। मैं सोचता हूं कि ये ज्यादती है। द्राक् का डाक से रिश्ता मैं अपने मन से नहीं जोड़ रहा हूं। यह व्युत्पत्ति जान प्लैट्स की हिन्दी उर्दू इंग्लिश डिक्शनरी में दी गई है। इसे लंतरानी कैसे कहेंगे ?
लंतरानी के मायने तो बढ़चढ़ कर बोलना होता है। दरअसल शुद्ध रूप में तो ये 'लनतरानी' है जो बिगड़कर लंतरानी हो गया। हजरत मूसा के मन में जब ईश्वर के दिव्य दर्शन की ख्वाहिश जगी तो आकाशवाणी हुई कि 'तू मुझे देख नहीं सकता'बाद में इसके मायने डींग हांकना या शेखी बघारना भी हो गए। हम क्या डींगें हांकेंगे ? जो कुछ पढ़ – समझ रहे हैं उसे सबके साथ शेयर कर रहे हैं। अपने ब्लाग के परिचय में पहले ही साफ कर चुके हैं। एक बार फिर कहे देते हैं-
शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया -अलगहोता है। मैं न भाषा विज्ञानी हूं और न ही इस विषय का आधिकारिकविद्वान। अब तक जो कुछ इस विषय में पढ़ा-समझा-जाना उसे आसान भाषा में छोटे-छोटे आलेखों में बताने की कोशिश है मेरी। [डाक पर कुछ और अगली कड़ी में ] ......क्रमशः
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Saturday, November 17, 2007
डाकिया डाक लाया....समीर भाई...
यह पोस्ट श्रीयुत समीरलाल जी को समर्पित है क्यों कि सबसे पहले उन्होंने ही इस शब्द के बारे में लिखने का आग्रह किया था। यह पोस्ट भी उस सामग्री का हिस्सा है जो कम्प्यूटर सुधारक महोदयजी की फुर्तीली कार्रवाई की भेंट चढ़ गई । इसे दोबारा लिखा गया है। अभी ऐसी मेहनत कई बार करनी होगी। कम्प्यूटर अभी भी ठीक नहीं हुआ है। छोटे भाई पल्लव बुधकरजी द्वारा बताई गई प्रॉक्सी व्यवस्थाओं से फिलहाल किसी तरह काम चला रहा हूं। ब्लागस्पाट अभी भी नज़र नहीं आ रहा है। यही वजह है कि मेरी सक्रियता में इन दिनों कमी आई है। इन परेशानियों के मद्देनज़र उम्मीद है आप स्नेह बनाए रखेंगे।
...कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में
डाक आमफहम हिन्दोस्तानी ज़बान का एक ऐसा लफ्ज है जिसके साथ समाज के हर वर्ग की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। डाक एक संवाद है अपनों से जो दूर बसे हैं। सुख,दुख के संवाद का जरिया। डाक यानी चिट्ठी-पत्री, पोस्ट। कहां से आया ये लफ्ज ? दरअसल यह शब्द संचार माध्यम की अत्यंत प्राचीन सरकारी व्यवस्था से भी जुड़ा हुआ है।
चिट्ठी-पत्री यानी डाक शब्द के साथ जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह है इसे पाने की भी जल्दी रहती है और भेजने की भी। एक शायर लिखते हैं - आती है बात बात मुझे याद बार बार / कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में । और दूसरी तरफ - दे भी जवाबे ख़त कि न दे , क्या ख़बर मुझे / क्यों अपने साथ ले न गया , नामाबर मुझे । मतलब यही कि शीघ्रता का जो भाव डाक के साथ जुड़ा है उसी में है इसके जन्म का मूल भी।
संस्कृत का एक शब्द है द्रा जिसके मायने हैं दौड़ना, शीघ्रता करना , उड़ना आदि। इसी से बना है द्राक् जिसका मतलब होता है जल्दी से , शीघ्रता से , तुरन्त, तत्काल, उसी समय वगैरह वगैरह। इसे ही डाक का उद्गम माना गया है। गौर करें कि प्राचीनकाल की संचारप्रणाली में जो अच्छे धावकों को ही संदेशवाहक का काम सौंपा जाता था। ये रिले धावकों की तरह निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश पहुंचाने तक भागते रहते थे। थोड़ी थोड़ी दूरी पर इन्हें बदल दिया जाता था। ये प्रणाली बड़ी कारगर थी और दुनिया के हर हिस्से में यही तरीका था संदेश पहुंचाने का।
अंग्रेजी दौर में फली-फूलीअंग्रेजी शासन व्यवस्था में यह शब्द खूब इस्तेमाल हुआ है। इसका रिश्ता जहाज के ठहरने के स्थान से भी जोड़ा जाता है जिसे डॉक कहते हैं। लंदन से राजशाही के कामकाज की चिट्ठियां भारतीय गवर्नर के नाम जहाजों से ही आती थीं। डॉक शब्द बना है पोस्टजर्मनिक के डोको से जिसका मतलब बंडल भी होता है।
भारत के लंबे चौडे शासनतंत्र को सुचारू रूप से चलाने में अंग्रेजों की चाक चौबंद डाक प्रणाली का बड़ा योगदान रहा। डाकखाना, डाकबंगला, डाकिया, डाकघर जैसे शब्द यही ज़ाहिर करते हैं। पुराने ज़माने के धावकों की जगह कालांतर में घुड़सवार संदेशवाहकों ने ले ली। अंग्रेजों ने बाकायदा इसके लिए घोड़ागाड़ियां चलवाईं जिन्हें डाकगाड़ी कहा जाता था। आज इन्हीं डाकगाड़ियों की जगह लालरंग की मोटरों ने ले ली है जिन्हें डाक विभाग चलाता है। .......क्रमशः
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 2:17 AM
Friday, November 16, 2007
चुनरी का सबसे पुराना दाग-3 जुआ खिलाने वाला सभापति
यह आलेख अहा जिंदगी के ताजे अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। कुछ दिनों पहले संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वही लेख।
प्राचीन रूप
आज जिस तरह जुए के कई रूप प्रचलित हैं मसलन- सट्टा, मटका, लॉटरी, रोलेट , इंटरनेट गैंबलिंग, पोकर, ताश, और स्लॉट मशीन आदि उसी तरह प्राचीन काल में भी जुआ के पच्चीस प्रकारों का उल्लेख है मगर आमतौर पर द्यूतक्रीड़ा और समाह्वय इन दो रूपों में प्रचलित था। महामहोपाध्याय डॉ पांडुरंग वामन काणे अपने धर्मशास्त्र का इतिहास में पुराणों के हवाले से लिखते हैं कि जुआ वह खेल है जो पासे अथवा हाथीदांत के गुटकों से खेला जाए और जिसमें कोई न कोई बाजी ज़रूर हो। इसी तरह समाह्वय वह खेल है जिसमें जीवों यानी मुर्गों, कबूतरों, भेड़ों, भैंसों अथवा पहलवानों ( मल्लों ) के बीच लड़ाई कराई जाए। इसमें भी हार-जीत की बाजी लगी रहती है।
मौर्य एवं गुप्तकाल में जुआ खेलने के स्थान यानी द्यूत भवन को सभा या द्यूतसभा कहा जाता था और जुआ खिलानेवाले को सभापति कहा जाता था। इसी से इसके लिए एक अन्य शब्द भी प्रचलित हुआ सभिक। इसके अलावा प्राचीनग्रंथों में माथुर शब्द भी इसी संदर्भ में आता है।
ईमानदारी की अपेक्षा
प्राचीनकाल में जुआ खेलना अगर ज़रूरी हो तो बजाए किसी अन्य स्थान पर खेलने के द्यूतभवन में सभापति या द्यूतअध्यक्ष की मौजूदगी में खेलना नैतिकता के दायरे में था, क्योंकि इससे राज्य को टैक्स के रूप में आय हो जाती थी। आज की तरह पुराने ज़माने में भी लड़ाई-झगड़े होते ही थे। अगर किसी झगड़ालू या फ़सादी जुआरी को कोई सभापति अपने जुआघर में न खेलने देता तो वह जुआरी राजा को उचित टैक्स चुकाकर मनमर्जी के किसी भी अन्य स्थान पर खेलने को स्वतंत्र होता। जिस मुद्रा में बाजियां लगाई जाती थीं वे पण या ग्लह् कहलाती थी। एक पण का दाम सौ कौड़ियों के बराबर होता। इस तरह १०० पणों या १००० कौड़ियों की या इससे अधिक राशियों की बाजी यदि खेली जाती तो सभिक यानी द्यूतअध्यक्ष को जुआरियों से १/२० हिस्सा या ५ फीसदी ऱाशि प्राप्त होती। कुछ संदर्भों में यह राशि सीधे सीधे दस फीसदी बताई गई है। इसकी एवज में सभापति (सभिक) या द्यूताध्यक्ष जुआरियों को बैठने का स्थान, जलपान और जुए की सामग्री उपलब्ध कराता था। शासन की आज्ञा के तहत जुआ खिलाने के लिए सभिक को एक निश्चित शुल्क राजा को देना पड़ता था।
महामहोपाध्याय डा काणें ने कात्यायन के हवाले से लिखा है कि अगर हारनेवाला जुआरी जीतनेवाले को रकम चुकाने से इन्कार कर कर दे या भाग खड़ा हो तो द्यूताध्यक्ष की जिम्मेदारी थी कि वह द्यूतकर यानी जुआरी को पकड़े, गिरफ्तार करे और उससे जीत की राशि वसूल कर विजेता को दिलवाए।
कुल मिलाकर सभिक के फैसले पर ही जुआरियों के झगड़े तय होते थे । ईसा से चार सदी पूर्व द्यूत सोलह हजार दीनारों की बाजी का आधा हिस्सा जीतनेवाले और आधा हिस्सा सभापति को देने का उल्लेख है।
दंड भी कैसा ?
अगर जुआरियों ने आपसी सहमति से किसी अन्य स्थान पर जुआ खेल लिया और राजा को कर न चुकाया तो उसे सजा दी जाती थी। सबसे पहले तो उन्हें उस जुए की समूची राशि से हाथ धोना पड़ता था। दूसरे उनके माथे पर कुत्ते के पैर का निशान दाग दिया जाता था या इसी तरह का कोई अपमानजनक चिह्न गोद दिया जाता था। इसके बाद गले में पांसों की माला डाल दी जाती थी। पकड़े गए लोगों में अगर कोई अबोध या जुए का नया पंछी होता तो उसे छोड़ दिया जाता मगर धुरंधरों के साथ कतई रियायात का प्रावधान नहीं था। यही नहीं उन्हें देशनिकाला तक दिया जाता था।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 4 कमेंट्स पर 1:42 PM लेबल: business money
ऋषि में समा गए मुर्शिद और राशिद
देवनागरी का ऋ अक्षर दरअसल संस्कृत भाषा का एक मूल शब्द भी है जिसका अर्थ है जाना, पाना। जाहिर है किसी मार्ग पर चलकर कुछ पाने का भाव इसमें समाहित है। इसी तरह र के मायने गति या वेग से चलना है जाहिर है मार्ग या राह का अर्थ भी इसमें छुपा है। ऋ की महिमा से कई इंडो यूरोपीय भाषाओं जैसे हिन्दी , उर्दू, फारसी अंग्रेजी, जर्मन वगैरह में दर्जनों ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ जिन्हें बोलचाल की भाषा में रोजाना इस्तेमाल किया जाता है। जरा देखें, कहा-किस रूप में। ऋ से ही बना है ऋत् जिसके मायने हुए पावन प्रथा या उचित प्रकार से । हिन्दी का रीति या रीत शब्द इससे ही निकला है। ऋ का जाना और पाना अर्थ इसके ऋत् यानी रीति रूप में और भी साफ हो जाता है अर्थात् उचित राह जाना और सही रीति से कुछ पाना। ऋ का प्रतिरूप नजर आता है अंग्रेजी के राइट ( सही-उचित) और जर्मन राख्त में।
मार्ग के अर्थ में हिन्दी में प्रचलित राह या रास्ता जैसे शब्द वैसे तो उर्दू-फारसी के जरिये हिन्दी में आए हैं मगर इनका रिश्ता भी ऋ से ही है। फारसी में रास के मायने होते हैं पथ, मार्ग। इसी तरह रस्त: या राह का अर्थ भी पथ या रास्ता के साथ साथ ढंग, तरीका, युक्ति भी है। उर्दू-हिन्दी में प्रचलित राहगीर, राहजनी, राहनुमा और राहत जैसे ढेरों शब्द भी इससे ही बनें हैं। कुछ अन्य शब्द भी देखे।
हिन्दी संस्कृत का जाना-पहचाना ऋषि शब्द देखें तो भी इस ऋ की महिमा साफ समझ में आती है। ऋ से बनी एक धातु है ऋष् जिसका मतलब है जाना-पहुंचाना। इसी से बना है ऋषिः जिसका शाब्दिक अर्थ तो हुआ ज्ञानी, महात्मा, मुनि इत्यादि मगर मूलार्थ है सही राह पर ले जाने वाला। फारसी के रशद या रुश्द जैसे शब्द जिसका अर्थ है सन्मार्ग, दीक्षा और गुरू की सीख। इसी से बना रशीद जिसके मायने हैं राह दिखानेवाला। राशिद भी इससे ही बना है जिसके मायने हैं ज्ञान पानेवाला। यही नही मुर्शिद यानी गुरू में भी इसी ऋ की महिमा है। इसी तरह सीधा - सरल और जाना-पाना का अर्थ विस्तार हुआ और अंग्रेजी के रैंक(श्रेणी) और स्ट्रैट (सीधा) जैसे कई अन्य शब्द भी बने।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
Wednesday, November 14, 2007
चुनरी का सबसे पुराना दाग-2 विशुद्ध मनोरंजन कला
यह आलेख अहा जिंदगी के ताजे अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। कुछ दिनों पहले संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वही लेख।
लाभ-हानि की संस्कृति से उपजी कला
ऐसा लगता है कि जुआ मानव समाज में लाभ-हानि और गुण-भाग की संस्कृति पनपने के के बाद जन्मी मनोरंजन की कला है। जुआ चाहे समाज में बुराई के तौर उभर कर आया हो मगर शुरूआत इसकी कला के रूप में ही हुई थी, विशुद्ध मनोरंजन की विधा के तौर पर। पुराणों में भी कला को शिव की शक्ति का एक रूप बताया गया है। कला यानी सृष्टि की क्रमिक विकास प्रक्रिया का नाम । जाहिर है ऐसे में जुआ जैसी विधा को कला के तौर पर गिना जाना अचरज नहीं। शैव तंत्रों में जो चौंसठ कलाएं बताई गई हैं उनमें अट्ठावनवें (५८) क्रम पर द्यूतविशेष का उल्लेख है।
बुराई तो बुराई है
भले ही शिव-पार्वती के बीच हुई द्यूतक्रीड़ा का उल्लेख हो मगर आमतौर पर हर समाज में जुआ को बुराई के तौर पर ही देखा गया और इसकी वजह रही बाजी लगाने जीतने का लालच और हारने पर सामने आने वाली पारिवारिक सामाजिक विषमताएं। प्राचीनकाल में लोग इस खेल में मनुश्यों तक को दांव पर लगा देते थे। महाभारत में द्रोपदी का प्रसंग सब जानते है। पांचवी-छठी सदी में गुप्तकाल में लिखे गए शू्द्रक के जगत्प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिक में भी उस समय के समाज में पनप चुके असर को रेखांकित किया गया है। नाटक में एक स्थान पर उल्लेख है कि खेल में दस स्वर्ण मुद्राएं हार कर भाग चुके जुआरी को जब जुआघर का अध्यक्ष पकड़ लेता है तो जुआरी रकम चुकाने में असमर्थता जताता है। इस पर जुआघर का अध्यक्ष उसे कहता है कि चाहे मां को बेच, अथवा पिता को। जब जुआरी कहता है कि इनमें से कोई भी नहीं है तो उसे खुद को बेचने का प्रस्ताव मिलता है जिसे वह कबूल कर लेता है। जाहिर है ये चलन तब आम था। ऋग्वेद में भी एक हारे हुए जुआरी के रूदन का उल्लेख है।
तब और अब में फर्क नही
आज के ज़माने में और प्राचीन युग में शासन का जुए के प्रति जो रवैया था उसमें कतई अंतर नहीं आया है । यह दिलचस्प बात है कि बुराई मानने के बावजूद तब और अब दोनों ही कालों में जुए पर कोई पाबंदी नहीं रही। इसका कोई न कोई रूप शासन की मर्जी से प्रचलित रहता आया है। पुराने ज़माने में जुआ को सही ठहराने के लिए दो प्रमुख कारण गिनाए जाते थे- (१) इसके जरिये चोरों का पता चल जाता है , कारण की चोरी करते ही माल ठिकाने लगाने के लिए चोर के पास जुआघर से बेहतर और कौन सी जगह होती ? वहां राजा के जासूस ऐसे ही लोगों पर निगरानी के लिए तैनात रहते थे। (२) द्यूतक्रीड़ा से राज्य को कर के रूप में आय होती है। गौर करें कि पुराने समय के ये दोनों कारण आज के समय में भी पूरी व्यावहारिकता के साथ शासन मान्य करता है। आय और अपराधों की गुप्तचरी दोनों ही बातें आज भी लागू हैं। जुआघरों, मदिरालयों और ऐसे ही अन्य ठिकानों पर आज भी सरकारी खुफिया एजेंसियों के कारिंदे छद्मवेष में तैनात रहते हैं ताकि उन्हें सुराग मिल सके।........क्रमशः
Monday, November 12, 2007
चुनरी का सबसे पुराना दाग - 1
यह आलेख अहा जिंदगी के ताजे अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। कुछ दिनों पहले संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वही लेख।
आज के जितने भी पर्व-त्योहार हैं उनकी शुरूआत प्राचीनकाल में लोकोत्सवों के रूप में ही हुई। लोकोत्सवों में सामूहिकता का भाव महत्वपूर्ण है । ये पर्व ही सदियों से समाज को समरस बनाते रहे और लम्बे समय के लिए समता-सौमनस्य उत्पन्न करते रहे । ये अलग बात है कि भिन्न – भिन्न अवसरों पर इनके अंदाज भी अलग रहते हैं अर्थात भदेस या नकारात्मक रूप अथवा मांगलिक और कल्याणकारी स्वरूप। दिवाली – होली पर जुए का प्रचलन संभव है इसी रूप में सामने आया हो। केशवदास की रामचंद्रिका में होली पर मस्ती( निर्लज्जता ) और दीवाली पर जुए का जिक्र कुछ यूं किया है – फागुहिं निलज लोग देखिये। जुआ दिवारी को लेखिये।।
प्राचीन ग्रंथों में जुआ सबसे पुराने दुर्गुण के तौर पर वर्णित है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने राजाओं के लिए दिशा निर्देश लिखे है जिनके मुताबिक जुआ राज्य के लिए वर्जित होना चाहिए। उन्होने इस खुलेआम चोरी कहा है। ऋग्वेद में एक जुआरी के रूदन का उल्लेख है। अथर्ववेद में भी इस खेल के प्रकार , दांव लगाने , और पांसों एवं ग्लह् का उल्लेख है। शास्त्रों में तो राजाओं के लिए जूआ पूरी तरह वर्जित कहा गया है क्योंकि इससे वे पथभ्रष्ट हो सकते हैं। महाभारत के उद्योगपर्व में कहा गया है- अक्षद्यूतं महाप्राज्ञ सतां मति विनाशनम् । असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च ।। द्यूत समान पाप कोई नहीं। यह समझदार की बुद्धि फेर सकता है। अच्छा व्यक्ति बुरा बन सकता है।
महज़ रस्मो-रिवाज़ नहीं
दिवाली के साथ जुआ का उल्लेख महज़ परम्परा या रस्मो-रिवाज़ नही है बल्कि इन दोनों में बहन - भाई का रिश्ता है। दरअसल ये दोनों शब्द एक ही कोख से जन्में है इसलिए सहोदर संबंध तो स्थापित हुआ न ! दीपावली या दिवाली शब्द की व्युत्पत्ति
संस्कृत धातु दिव् से हुई है। द्यूतक्रीड़ा , जिसे हिन्दी में जुआ कहा जाता है ,जन्म भी इसी दिव् से हुआ है। दिव से द्यूत और फिर जूआ यह रहा इसका विकास क्रम। दिव् का मतलब होता है दांव पर लगाना, चमकना, फेंकना, पांसे चलना, हंसी-मज़ाक , परिहास करना , प्रकाश, उजाला, आदि। दिया ,प्रदीप, दीपक और दिव्य जैसे शब्द भी इसी श्रंखला से बंधे हैं।
दीपावली अपने पारम्परिक रूप में देश भर में पांच दिनों तक मनाई जाती है जिनमें से एक दिन होता है बलिप्रतिपदा (वीरप्रतिपदा) का । इसे ही वामनपुराण में द्यूतप्रतिपदा भी कहा गया है। उल्लेख है कि इस दिन देवी पार्वती ने द्यूतक्रीड़ा में भगवान शंकर के हराया था। मान्यता है कि इस दिन की जीत से वर्षभर जीत का सिलसिला चलता रहता है और हार पर वर्षभर हानि होती है। यानी दीवाली पर जुआ खेलने का औचित्य तो धर्मशास्त्र में भी बताया गया है। ........ क्रमशः
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Friday, November 9, 2007
इशरत आफरीन की शायरी
पाकिस्तान की शायरा इशरत आफरीन की कविता पूरे उपमहाद्वीप में औरतों की सामाजिक स्थिति और सरोकारों के प्रति रिवायती सोच से क़रीब-क़रीब विद्रोह सा करती है। कराची की इस तरक्कीपसंद कवयित्री ने सामंती परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद नारी के दमन , शोषणके खिलाफ अपने अल्फाज़ दुनिया के सामने रखे। यहां पेश हैं उनकी दो रचनाएं -
इंतसाब
मेरा कद
मेरे बाप से ऊंचा निकला
और मेरी माँ जीत गई।
( इंतसाब-समर्पण)
एक ग़ज़ल
लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है
तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं
औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यूँ रखती हैं
वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यूँ रखती हैं
वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पाँव
बचा बचा कर सर की चादर क्यूँ रखती हैं
बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यूँ रखती हैं
सुबह ए विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यूँ रखती हैं
(सान्हें - हादिसे, सुबह ए विसाल-मिलन )
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जलेबी-२ सुरीले जिरयाब ने बनाई जलेबी
जलेबी से कोयल की रिश्तेदारी की पहेली सिर्फ एक ही तथ्य से सुलझ सकती है और वह है मिठास। रस भरी जलेबी के ज़ायके में जो मिठास है वही मिठास कोयल की सुरीली कुहुक में भी है। अरबी ज़बान में जिरयाब का मतलब है एक काली चिड़िया यानी कोयल।
पहेली सुलझाने से पहले इतिहास में चलना होगा। अरबी संगीतजगत में एक महान संगीतकार हुए हैं अबु अल हसन अबी इब्न नफी उर्फ जिरयाब जो सन् 789 में बग़दाद में पैदा हुए । वे अफ्रीकी मूल के हब्शी थे और गुलामों के उस तबके से ताल्लुक रखते थे जिन्हें राज्यसत्ता ने आज़ादी दे दी थी । अबु में जन्मजात संगीत की प्रतिभा थी और उनका कंठ बेहद सुरीला था इसी के चलते उन्हें जिरयाब कहा जाने लगा।
किस्सा ए कोताह यूं कि वह दौर ख़लीफा हारूं अल रशीद का था जिनकी कलाप्रियता के चर्चे इतिहास में खूब मशहूर हैं। खलीफा के प्रमुख दरबारी संगीतका थे इशाक अल मवासिली । अपनी प्रतिभा के दम पर जिरयाब को उनसे संगीत सीखने का मौका मिला और बाद में खुद खलीफा उनकी संगीत कला का कायल हो गया। यह जानना ज़रूरी है कि अरब संगीत जगत में मवासिली, उनके गुणी पिता इब्राहिम और जिरयाब को सम्मिलित रूप से शास्त्रीय संगीत का पितृपुरूष माना जाता है। बहरहाल, जैसा कि अक्सर होता आया है उस्ताद मवासिली अपने शागिर्द की प्रतिभा से ईर्ष्या रखने लगे और खलीफा के एक आदेश पर जिरयाब को इराक छोड़कर स्पेन के अंडलूसिया प्रांत में जाना पड़ा। गौरतलब है कि ये वो वक्त था जब स्पेन के एक हिस्से समेत यूरोप में कई जगहों पर मुस्लिम रोबदाब कायम हो चुका था।
जिरयाब ने कोरडोबा में अपना मुकाम बनाया और वहां के अमीर अब्दुर्हमान (822–852) की ताबेदारी में खूब बरकत –शोहरत हासिल की।
जिरयाब बहुमुखी प्रतिभा के थे। न सिर्फ संगीत वरन कला के हर क्षेत्र में उनका दखल था यहां तक की फैशन और पाकशास्त्र में उन्होनें न सिर्फ अरबी बल्कि स्पेनी संस्कृति को भी प्रभावित किया। उन्होने एक खास किस्म की भुनी हुई मछली की रेसिपी बनाई जो आज भी मेडिटरेनियन मुल्कों में तक़लीयत जिरयाबी कहलाती है। इसी तरह खास अरबी पेस्ट्री जो खूब रसभरी होती है, पश्चिम में जिरयाबी कहलाती है। इसी का रूप हुआ जलाबिया जो फारस होते हुए जलेबी के रूप में हिन्दुस्तान में मशहूर हो गई , उन्हीं के नवाचार और खोजी प्रवृत्ति की देन है।
अरबी-स्पेनी समाज को जिरयाब की देन का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक खास आभिजात्य संस्कृति को जिरयाब ही कहा जाता है। इस नाम के रेस्टॉरेंट मिलेंगे, रेसिपी बुक्स मिलेंगी और मिलेंगे मोटेल्स। यही नहीं जलाबिया अगर वहां मिष्टान्न है तो एक खास किस्म की पोशाक जो हमारे यहां कश्मीर में कफ्तान भी कहलाती है उसका नाम भी जलाबिया है। यह है फैशन में जिरयाब की देन।
चलते चलते यह भी बता दें कि व्युत्पत्ति के नज़रिये से जिरयाब के मायने हुए स्वर्णजल अर्थात सोने का पानी । यह बना अरबी ज़र यानी सोना और आब यानी पानी के मेल से। इस ज़र और आब का हिन्दी से क्या रिश्ता है ये जानने के लिए आप देखें सफर की ये कड़ियां-पानी में समायी चमक और अर्जुन, अर्जेंटीना और जरीना
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Thursday, November 8, 2007
मेरा शोक, अशोक....
शीर्षक पढ़कर आप चौंक सकते हैं। फिलहाल हम यहां शब्द विलास नहीं कर रहे हैं जैसा कि शब्दों के सफर में अक्सर करते हैं। बीते तीन दिनों की हमारी गैरहाजिरी की वजह ही यही थी कि हम त्योहार के मौसम में शोकग्रस्त थे।वजह ? वजह ये थी कि लगातार तीन महिनों शब्दों का सफर समेत ब्लागस्पॉट की कोई साइट न देख पाने की परेशानी के चलते हमने अपना कम्प्यूटर फॉरमेट कराने के लिए दे दिया।
हमने अपने कम्प्यूटर सुधारक महोदयजी को साफ-साफ बता दिया था कि हमारे काम की चीज़ें किस ड्राइव में किस नाम से हैं। अतिआत्मविश्वास के साथ उन्होनें हमें बेफिक्र रहने को कहा मगर होनी होकर रही। सफर की लगभग दो सौ कड़ियों में जाने लायक सामग्री जिस पर लगातार मैं काम कर रहा था , नष्ट हो गई
( या उनके अतिआत्मविश्वास की भेंट चढ़ गई ) । इसके अलावा करीब आठसौ विभिन्न शब्दों से संबंधित शोध सामग्री का डेटाबेस जो मैने बड़ी मेहनत से रातें काली कर , कई पुस्तकों, और नेट से आंखें आंखें फोड़कर जुटाया था , अन्तर्ध्यान हो गया। इसे क्या कहेंगे आप ?
हमारी पीड़ा आप समझ गए होंगे। बमुश्किल तमाम सुधारक महोदय भी दुख की उस भावभूमि पर पहुंचे और कोई रिकवरी टूल लगाकर डेटाबेस बरामद करने का भरोसा उन्होनें दिलाया। हुआ भी मगर पूरा नहीं। और जो मिला वो इतनी भ्रष्ट अवस्था में आ चुका है कि उसे व्यवस्थित करने में महिनों नहीं तो हफ्तों तो ज़रूर लगेंगे। चिट्ठाजगत की सक्रियता सूची में तेजी से गिरे सफर के सूचकांक ने भी धड़का सा लगा दिया। इस उत्सवी माहौल में ये किसका अभिशाप है ?
इसके बावजूद हमारे मन में उत्साह का उजाला है। हम इस सफर को जारी रखेंगे। तीन दिनों की अनुपस्थिति की जो वजह हमने बताई , उसके मद्देनज़र आप नज़रअंदाज़ करेंगे। इसी लिए कहा कि मेरा शोक, अशोक ...
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जलेबी-1 जल-वल्लिका, जलाबिया या जिलबी
जलेबी जैसी रस भरी मिठाई को नापसंद करने वाले कम ही होंगे । इस लजी़ज मिठाई की धूम भारतीय उपमहाद्वीप में तो है ही मगर हम में से कई लोगों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि यह गोल-गोल रसीली कुंडली धुर पश्चिमी देश स्पेन तक में जानी जाती है। इस बीच भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, ईरान के साथ तमाम अरब मुल्कों में भी यह खूब जानी-पहचानी है।
जलेबी मूल रूप से अरबी लफ्ज़ है और इस मिठाई का असली नाम है जलाबिया । यूं जलेबी को विशुद्ध भारतीय मिठाई मानने वाले भी हैं। शरदचंद्र पेंढारकर (बनजारे बहुरूपिये शब्द) में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताते हैं। वे रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने की विधि का उल्लेख है। भारतीय मूल पर जोर देने वाले इसे ‘जल-वल्लिका’ कहते हैं । रस से परिपूर्ण होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका रूप जलेबी हो गया। फारसी और अरबी में इसकी शक्ल बदल कर हो गई जलाबिया। मगर ज्यादातर प्रमाण जलेबी का रिश्ता अरब से ही बताते हैं। उत्तर पश्चिमी भारत और पाकिस्तान में जहां अरबी जलाबिया के जलेबी रूप को ही मान्यता मिली हुई है वहीं महाराष्ट्र में इसे जिलबी कहा जाता है और बंगाल में इसका उच्चारण जिलपी करते हैं। जाहिर है बांग्लादेश में भी यही नाम चलता होगा।
जलेबी से मिलती-जुलती एक और मिठाई है इमरती। यही अमृती से बना है और मुखसुख के चलते ( शायद फारसी प्रभाव के कारण भी ) इसका रूप इमरती हो गया। मूलतः अमृती नाम भी अमृत से बना है जिसका एक अर्थ मीठा और मधुर पदार्थ भी होता है।
शायद यह जानकर ताज्जुब होगा कि जलेबी का रिश्ता एक काली चिड़िया (कोयल) से है। एक दसवीं सदी के महान अरबी-स्पेनी संगीतकार से है और इन्हीं दोनों संबंधों का गहरा रिश्ता है जलेबी के नामकरण से।
(विस्तार से सफर के अगले पड़ाव में)
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Sunday, November 4, 2007
तेज, तेजस्वी, तेजतर.....
उर्दू-फारसी में एक मुहावरा है तेज़ी दिखाना। इसका मतलब होता है होशियारी और शीघ्रता से काम निपटाना। तेज शब्द हिन्दी में भी चलता है और फारसी में भी । फर्क ये है कि जहां हिन्दी के तेज में नुक्ता नहीं लगता वहीं फारसी के तेज़ में नुक्ता लगता है।
फारसी-हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय यह शब्द मूलतः इंडो़-इरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत और अवेस्ता में यह समान रूप से तेजस् के रूप में मौजूद है।
दरअसल हिन्दी , उर्दू और फारसी में जो तेज, तेज़ है उसके मूल में है तिज् धातु जिसका मतलब है पैना करना, बनाना। उत्तेजित करना वगैरह।
तिज् से बने तेजस् का अर्थ विस्तार ग़ज़ब का रहा। इसमें चमक, प्रखरता, तीव्रता, शीघ्रता जैसे भाव तो हैं ही साथ ही होशियारी, दिव्यता, बल, पराक्रम,चतुराई जैसे अर्थ भी इसमें निहित है। इसके अलावा चंचल, चपल, शरारती, दुष्ट, चालाक शख्सियत के लिए भी तेज़ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में तेजवंत, तेजवान , तेजस्वी, तेजोमय, तेजी, जैसे शब्द इससे ही बने हैं। इसी तरह उर्दू – फारसी में इससे तेज़ निग़ाह, तेज़ तर्रार, तेज़ दिमाग़, तेज़तर, जैसे शब्द बने हैं जो व्यक्ति की कुशलता, होशियारी, दूरदर्शिता आदि ज़ाहिर करते हैं। दिलचस्प बात ये कि तीव्रगामी, शीघ्रगामी की तर्ज पर हिन्दी में तेजगामी शब्द भी है। सिर्फ नुक्ते के फर्क़ के साथ यह लफ्ज़ फारसी में भी तेज़गामी है।
तेजी़ में तीखेपन का भाव भी है। तेज धार या तेज़ नोक से यह साफ है। दरअसल संस्कृत शब्द तीक्ष्ण के मूल में भी तिज् धातु है। तिज् से बना तीक्ष्ण जिसका मतलब होता है नुकीला, पैना, कठोर, कटु, कड़ा वगैरह। उग्रता , उष्णता, गर्मी आदि अर्थों में भी यह इस्तेमाल होता है। तीक्ष्ण का ही देसी रूप है तीखा जो हिन्दी के साथ साथ उर्दू में भी चलता है। इस तीखेपन को भारतीय मसालों की एक अहम कड़ी के रूप में तेजपान या तेजपात के रूप में समझा जा सकता है। अपनी तेज-तीखी गंध और स्वाद के चलते ही तेजपत्र को भारतीय मसालों में खास शोहरत मिली हुई ।
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Saturday, November 3, 2007
ये भी पाखण्डी और वो भी पाखण्डी
🙏इस शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर अनेक मत हैं। लगभग बात इस तथ्य पर आ टिकती है कि पाषण्ड का रिश्ता सम्प्रदाय, पन्थ से है। इसका अर्थ धर्म भी लगाया गया है। बौद्ध धर्म से भी इसका तात्पर्य रहा। ऐसा माना जाता है कि ईसा से करीब पांच सदी पहले जब भारत में बौद्ध धर्म ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे, परिव्राजकों के एक संप्रदाय का नाम था पाषण्ड और इसी से बना पाखण्ड।
🙏संस्कृत की ‘पा’ धातु से इस शब्द का जन्म हुआ है जिसका मतलब होता है पालना, निर्देशित करना , चिंतन-मनन करना आदि। ये सभी भाव साबित करते हैं कि किसी ज़माने में यह एक पंथ अथवा सम्प्रदाय था। पाषण्ड साधुओं के लिए समाज में बड़ी आदर-श्रद्धा थी। मौर्यकाल तक यह दौर चला। खुद सम्राट अशोक इस संप्रदाय के साधुओं को खुले हाथों दान देता था। मगर बाद में इस संप्रदाय का अस्तित्व समाप्त हो गया।
🙏इसकी दो वजह रहीं। पहली ये कि बौद्ध धर्म की तेज आंधी में पूजा-पाठ करने वाला यह संप्रदाय अपने को बचा नहीं पाया। दूसरी वजह-जैसा कि होता आया है, उचित नेतृत्व के अभाव में इस समुदाय में मठाधीशों का बोलबाला हो गया। लोगों पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए साधु-सन्यासी ढोंग-आडम्बर आदि करने लगे। जाहिर है समाज में इनके प्रति श्रद्धा का भाव घटना ही था। बाद में ये पाषण्ड सन्यासी धर्म के नाम पर आडम्बर करने वालों के तौर पर पहचाने जाने लगे। और जब इन साधुओं की न जमात रही न संप्रदाय तो ठगी, धूर्तता और ढोंग जैसे अर्थों से विभूषित होकर पाखण्डी के रूप में सारे हिन्दी समाज में कुख्यात हो गया।
🙏कुछ संदर्भो के अनुसार शिवोपासना की कुछ विचित्र विधियों के जरिये ये पाखण्डी साधु (महंत ) लोगों को उल्लू बनाया करते थे। डॉ राजबली पाण्डेय के हिन्दू धर्मकोश के मुताबिक पद्मपुराण में पाषण्डोत्पत्ति अध्याय है जिसके मुताबिक इस मत को पाखण्डी मत कहा गया है वहीं तन्त्र शास्त्र में इसी को शिवोक्त आदेश भी कहा गया है।
🙏एक दिलचस्प बात यह है कि बौद्ध ग्रंथों में बौद्ध धर्म के अलावा अन्य सभी पंथो को पाखण्ड कहा गया है वहीं प्राचीन धर्मशास्त्र में जैन व बौद्ध सम्प्रदायों का मतलब पाखण्ड बतलाया गया है। इसका अभिप्राय यही है कि पाषण्ड की अनेक व्याख्याओं में इसका अर्थ विधर्मी या अन्य धर्म को मानने वाला भी है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 10 कमेंट्स पर 1:46 AM
Friday, November 2, 2007
आइये गाँव की कुछ खबर ले चलें.....
हमारे प्रिय कवि-गीतकार रामकुमार कृषकजी की एक ग़ज़ल पेश कर रहे हैं। ये हमारी पसंदीदा ग़ज़ल है। हमने इसे स्वरबद्ध भी किया था और जयपुर में बिताए दस वर्षों में मित्रों के आग्रह पर सर्वाधिक सुनाई गई यही रचना होती थी। अवसर मिला और तकनीक सीख पाए तो आपको भी सुनवा देंगे अपनी आवाज़
में कृषकजी की ये बेहतरीन रचना। दिल्ली में कृषक जी से तो कभी मिलना हुआ नहीं मगर उनकी रचनाओं को पढ़कर उन्हें हमेशा याद कर लेते हैं।
आइये गांव की कुछ खबर ले चलें
इक नज़र अपना घर खंडहर ले चलें
धूल सिंदूर होगी कभी मांग में
एक विधवा सरीखी डगर ले चलें
लाज लिपटी हुई भंगिमाएं कहां
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें
एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
सांझ होती हुई दोपहर ले चलें
देह पर रोज़ आंकी गई सुर्खियां
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें
राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायू के पर ले चलें
खेत सीवान हों या कि हों सरहदे
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें
राजहंसों को पाएं न पाएं तो क्या
संग उज़ड़ा हुआ मानसर ले चलें
देश दिल्ली की अंगुली पकड़ चल चुका
गांव से पूछ लें अब किधर ले चलें
-रामकुमार कृषक
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Thursday, November 1, 2007
दान या डोनेशन की दाद
‘द’ वर्ण का का प्रभाव देना या सौपना के अर्थ में यूरोपीय परिवार की कई भाषाओं पर देखा जा सकता है। इनमें फारसी से लेकर लैटिन, फ्रेंच, अंग्रेजी जैसी भाषाएं हैं।
द’ से ही संस्कृत में दद् या दद जैसे शब्द भी बने हैं जिनमें देने का भाव ही समाया है। ददसे ही बना दादः जिसका मतलब हुआ देने वाला या दानी । गौर करें कि प्रशंसा करने के अर्थ में हिन्दी उर्दू में अक्सर एक शब्द बोला जाता है दाद देना । देने का भाव तो दाद में खुद ही शामिल है । यह शब्द फारसी का है और इसका अर्थ भी दान करना, प्रशंसा करना , बख्शीश देना या कुछ भी देना है। यह इसी दादः से बना है। फारसी में दाद का एक अर्थ न्याय और इंसाफ भी होता है। गौरतलब है कि न्याय भी किसी को मिल रहा होता है और शासन या व्यवस्था की तरफ से किसी को दिया जा रहा होता है। फारसी में इसीलिए इंसाफ चाहने वाले यानी फरियादी को दादख्वाह और मजिस्ट्रेट को दादगर, दादार और दादबख्श भी कहते हैं।
अंग्रेजी में दान का पर्याय है डोनेशन । इसका भी इसी धातु से रिश्ता है। अंग्रेजी में इसकी आमद हुई पुरानी फ्रेंच के डोनेशन से जहां ये लैटिन के donationem से आया। मूल रूप से इसकी उत्पत्ति प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार के डोनम (donum) से मानी जाती है । यूरोप की कई भाषाओं में देने के भाव ने उपहार , भेट का रूप ग्रहण कर लिया। लिथुआनी भाषा में इससे बना ड्यूओनिस इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है। आपसी वस्तु या मौद्रिक व्यवहार के लिए लेन-देन शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ता है
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दान का बखान तो दुनिया में
दान की महिमा का बखान दुनिया की हर संस्कृति में है। भारत में तो इस शब्द के साथ अक्सर महाभारत के चरित्र कर्ण का हवाला दिया जाता है। धन, सम्पत्ति से बढ़कर विद्या का,ज्ञान का दान दुनिया में सबसे बड़ा दान माना जाता है। इस शब्द के महत्व का पता इसी से चलता है कि देवनागरी वर्णमाला का ‘द’ वर्ण ही अपने आप में एक धातु है जिसमें देना का भाव समाया हुआ है।
‘द’ वर्ण से मूलतः ‘दा’ धातु बनी जिसमें देना, स्वीकारना, सौंपना आदि भाव शामिल हैं। लौटा देना, छोड़ देना-त्याग देना जैसे अर्थ भी इसमें निहित हैं मसलन दान, दानी, दाता, आदान-प्रदान आदि शब्द। इसे जयप्रदा शब्द के जरिये समझें। जो विजय प्रदान करे या जिसके जरिये जीत हासिल हो, सफलता मिले। मराठीभाषियों में एक उपनाम होता है दातार अर्थात देनेवाला, प्रदान करने वाला । बाद में महाजन वाला भाव भी इसमें जुड़ गया। दातव्य अर्थात दान से चलनेवाला या देने योग्य जैसे शब्द इससे ही बना है दत्त शब्द जिसका मतलब भी देना, सौंपना,समर्पित या प्रस्तुत आदि होता है मसलन प्रदत्त यानि दिया हुआ या सौंपा हुआ। पुराणों में अत्रि और अनुसूया के पुत्र का नाम भी दत्त है। इन्हें आत्रेय से उत्पन्न होने के कारण दत्तात्रेय भी कहते हैं। ये ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अवतार माने जाते हैं। गोद लेने या देने के अर्थ में दत्तक शब्द भी इसी कड़ी में आता है। संयोग देखिये कि ‘द’ में छुपी दान की महिमा देखिये कि दक्षिणा शब्द का हालांकि इससे रिश्ता नहीं है मगर दक्षिणा अपने आप में दान ही है। इसी तरह दधिची ऋषि ने राक्षसों के संहार के लिए अपने शरीर की अस्थियां तक दान कर दीं।
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