Friday, November 9, 2007

जलेबी-२ सुरीले जिरयाब ने बनाई जलेबी

जलेबी से कोयल की रिश्तेदारी की पहेली सिर्फ एक ही तथ्य से सुलझ सकती है और वह है मिठास। रस भरी जलेबी के ज़ायके में जो मिठास है वही मिठास कोयल की सुरीली कुहुक में भी है। अरबी ज़बान में जिरयाब का मतलब है एक काली चिड़िया यानी कोयल।
पहेली सुलझाने से पहले इतिहास में चलना होगा। अरबी संगीतजगत में एक महान संगीतकार हुए हैं अबु अल हसन अबी इब्न नफी उर्फ जिरयाब जो सन् 789 में बग़दाद में पैदा हुए । वे अफ्रीकी मूल के हब्शी थे और गुलामों के उस तबके से ताल्लुक रखते थे जिन्हें राज्यसत्ता ने आज़ादी दे दी थी । अबु में जन्मजात संगीत की प्रतिभा थी और उनका कंठ बेहद सुरीला था इसी के चलते उन्हें जिरयाब कहा जाने लगा।
किस्सा ए कोताह यूं कि वह दौर ख़लीफा हारूं अल रशीद का था जिनकी कलाप्रियता के चर्चे इतिहास में खूब मशहूर हैं। खलीफा के प्रमुख दरबारी संगीतका थे इशाक अल मवासिली । अपनी प्रतिभा के दम पर जिरयाब को उनसे संगीत सीखने का मौका मिला और बाद में खुद खलीफा उनकी संगीत कला का कायल हो गया। यह जानना ज़रूरी है कि अरब संगीत जगत में मवासिली, उनके गुणी पिता इब्राहिम और जिरयाब को सम्मिलित रूप से शास्त्रीय संगीत का पितृपुरूष माना जाता है। बहरहाल, जैसा कि अक्सर होता आया है उस्ताद मवासिली अपने शागिर्द की प्रतिभा से ईर्ष्या रखने लगे और खलीफा के एक आदेश पर जिरयाब को इराक छोड़कर स्पेन के अंडलूसिया प्रांत में जाना पड़ा। गौरतलब है कि ये वो वक्त था जब स्पेन के एक हिस्से समेत यूरोप में कई जगहों पर मुस्लिम रोबदाब कायम हो चुका था।
जिरयाब ने कोरडोबा में अपना मुकाम बनाया और वहां के अमीर अब्दुर्हमान (822–852) की ताबेदारी में खूब बरकत –शोहरत हासिल की।
जिरयाब बहुमुखी प्रतिभा के थे। न सिर्फ संगीत वरन कला के हर क्षेत्र में उनका दखल था यहां तक की फैशन और पाकशास्त्र में उन्होनें न सिर्फ अरबी बल्कि स्पेनी संस्कृति को भी प्रभावित किया। उन्होने एक खास किस्म की भुनी हुई मछली की रेसिपी बनाई जो आज भी मेडिटरेनियन मुल्कों में तक़लीयत जिरयाबी कहलाती है। इसी तरह खास अरबी पेस्ट्री जो खूब रसभरी होती है, पश्चिम में जिरयाबी कहलाती है। इसी का रूप हुआ जलाबिया जो फारस होते हुए जलेबी के रूप में हिन्दुस्तान में मशहूर हो गई , उन्हीं के नवाचार और खोजी प्रवृत्ति की देन है।
अरबी-स्पेनी समाज को जिरयाब की देन का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक खास आभिजात्य संस्कृति को जिरयाब ही कहा जाता है। इस नाम के रेस्टॉरेंट मिलेंगे, रेसिपी बुक्स मिलेंगी और मिलेंगे मोटेल्स। यही नहीं जलाबिया अगर वहां मिष्टान्न है तो एक खास किस्म की पोशाक जो हमारे यहां कश्मीर में कफ्तान भी कहलाती है उसका नाम भी जलाबिया है। यह है फैशन में जिरयाब की देन।
चलते चलते यह भी बता दें कि व्युत्पत्ति के नज़रिये से जिरयाब के मायने हुए स्वर्णजल अर्थात सोने का पानी । यह बना अरबी ज़र यानी सोना और आब यानी पानी के मेल से। इस ज़र और आब का हिन्दी से क्या रिश्ता है ये जानने के लिए आप देखें सफर की ये कड़ियां-पानी में समायी चमक और अर्जुन, अर्जेंटीना और जरीना

3 कमेंट्स:

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत सुंदर लिखा है भाई, बधाईयाँ !
तम से मुक्ति का पर्व दीपावली आपके पारिवारिक जीवन में शांति , सुख , समृद्धि का सृजन करे ,दीपावली की ढेर सारी बधाईयाँ !

Sanjeet Tripathi said...

वाकई गज़ब की जानकारी!!

मुझे लगता है कि इन जिरयाब साहब से संबंधित किताबें अगर कहीं मिली तो निश्चित ही दिलचस्प होगी!!!

दीपोत्सव की शुभकामनाएं!

अजित वडनेरकर said...

आप सबका बहुत बहुत आभार।

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