Tuesday, May 23, 2017

सबै भूमि गोपाल की अर्थात चार पैरों में सारी दुनिया समायी


ब्दों का सफ़र के दौरान बीते वर्षों में अनेक भाषायी सन्दर्भों से गुज़रते हुए दिलचस्प तथ्य प्रकट हुआ है जिसे आप सबसे साझा करना चाहूँगा। वह यह कि चौपायों के सम्बन्ध में एक खास बात सभी प्राचीन संस्कृतियों-भाषाओं में समान है। एक ही पशु के कई अर्थ हो सकते हैं। मसलन संस्कृत का गो। इसका अर्थ सामान्य चौपाया भी है, कोई भी गतिशील पदार्थ या संज्ञा है। गऊ तो रूढ़ है ही।

गो यानी जो भी गतिशील है
गौरतलब है वैदिक शब्दावली में ‘ग’ ध्वनि का आशय गमन से है। गम् धातुक्रिया का अर्थ गमन करना ही है। गति का ग भी यही कहता है। इसलिए ‘गो’ का आशय सिर्फ़ धेनु अथवा गाय नहीं बल्कि पशु मात्र से भी है, क्योंकि वह चलता है, गति करता है। यूँ कहें कि प्राचीन मनीषियों ने हर उस पदार्थ को ‘गो’ के दायरे में रखा जो गतिशील है। इसीलिए पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र, तारे ये भी 'गो' ही हैं।


'गो' की गतियाँ
मन की गतियाँ भी 'गो' हैं। स्वाभाविक है तब इन्द्रियगतियाँ इसके दायरे से बाहर कैसे रहतीं? आँखों से जितना दिख रहा है वह भी गोचर और पैरों से जितना नापा जा सके वह भी गोचर। यहाँ पशुओं और मनुष्यों में फ़र्क़ न करें। पशुओं के पैर भी इन्द्री ही हैं सो कोई पशु जहाँ विचरण करे वह गोचर भूमि है। इसीलिए कहा जाता है “सबै भूमि गोपाल की”।


मृग यानी हिरन, कुत्ता, घास...
मृग का अर्थ भी मूलतः गतिशील से है। कुत्ते को मृग भी कहा गया है, गृहमृग और ग्राममृग भी। आमतौर पर हिन्दी में मृग से तात्पर्य हिरण प्रजाति के पशुओं जैसे सांभर, चीतल से है मगर इस शब्द की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। वैदिक काल में संस्कृत में मृग का अर्थ हिरण तक सीमित न होकर किसी भी पशु के लिए था। मृग शब्द का अर्थ हरी घास भी है। प्राचीनकाल में मृग शब्द में चरागाह या चरने का भाव प्रमुख था और इससे घास अर्थ की पुष्टि होती है। 


मृगया से मार्ग तक
संस्कृत शब्द मृगणा का अर्थ होता है अनुसंधान, शोध, तलाश। मृगया में शिकार का भाव है। हिन्दी का मार्ग शब्द बना है संस्कृत की मृग् धातु से जिसमें खोजना, ढूंढना, तलाशना जैसे भाव निहित हैं। मार्ग में भी खोज और अनुसंधान का भाव स्पष्ट है। कभी जिस राह पर चल कर मृगणा अर्थात अनुसंधान या तलाश की जाती थी, उसे ही मार्ग कहा गया। 


गायों का अनुसन्धान
अनुसंधान का मृगणा अर्थ उसी तरह है जिस तरह गवेषणा का अर्थ शोध-अनुसंधान हुआ। वेदों में पणियों के गाय चुरा ले जाने के उल्लेख हैं। गोपालक इनका सन्धान करने, ढूँढने निकलते थे जिसे गव+एषणा अर्थात गवेषणा कहा जाता था। कालान्तर सभ्यता के विकास के साथ मवेशियों को सामूहिक तौर पर हाँक ले जाने की प्रवृत्ति कम हो गई तो गवेषणा शब्द सिर्फ अनुसन्धान के अर्थ में रूढ़ हो गया। 


भल्लुक यानी कुत्ता और बंदर भी....
भल्लुक का अर्थ भी कुत्ता होता है। भालू तो ख़ैर है ही। इसके अलावा भल्लुक का अर्थ बंदर भी है। संस्कृत में बर्कर/वर्कर का अर्थ बकरा तो होता ही है इसके अलावा किसी कड़ियल चौपाए को भी बर्कर कहा जा सकता है। अरबी में बक्र शब्द का अर्थ भी हट्टाकट्टा ऊँट ही होता है किन्तु किसी जवान पशु को भी बक्र कहा जा सकता है। संस्कृत में जैसे गो के हवाले से सब कुछ चलायमान पदार्थ इसके दायरे में आ जाते हैं उसी तरह अरबी में बक्र का मामला है। 


मवेशी और हैवान
अरबी में मवाशी शब्द अब हिन्दी में पशु के अर्थ में मवेशी बन कर विराजमान है और इसका दूसरा विकल्प आसानी से नहीं मिलता। बलि-पशु के लिए अरबी में अज़हा शब्द है। हैवान का अर्थ यूँ तो कोई भी चौपाया है किन्तु आमतौर पर हिंस्र पशु के लिए इसका प्रयोग होता है। हिन्दी तक आते आते क्रूर, अत्याचारी और हिस्र मनुष्य को हैवान की अर्थवत्ता मिल गई। पशु के तौर पर हिन्दी में हैवान का प्रयोग कम होता है। “इन्सान हो या हैवान” जैसी अभिव्यक्ति के तहत ही इसका पशु अर्थ स्पष्ट होता होता है, अन्यथा नहीं। 


इस दिशा में अभी काम जारी है। आपके पास भी अगर कुछ महत्वपूर्ण या उल्लेखनीय लगे तो ज़रूर साझा करें।
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Saturday, May 13, 2017

घर का मालिक यानी पति

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दु नियाभर की भाषाओं में शब्द निर्माण व अर्थस्थापना की प्रक्रिया एक सी है। विवाहिता स्त्री के जोड़ीदार के लिए अनेक भाषाओं के शब्दों में अधीश, पालक, गृहपति जैसे एक से रूढ़ भाव हैं। हिन्दी में ‘पति’ सर्वाधिक बरता जाने वाला शब्द है। उसे गृहस्थ भी कहते हैं। अंग्रेजी में वह हसबैंड है। फ़ारसी में खाविन्द है। संस्कृत में शालीन। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओं में राजा, नरेश, नरश्रेष्ठ, वीर, नायक जैसे शब्दों में “पालक-पोषक” जैसे भावों का भी विस्तार हुआ। यह शब्द पहले आश्रित, विजित या प्रजा के साथ सम्बद्ध हुआ फिर किसी न किसी तौर पर स्त्री के जीवनसाथी की अभिव्यक्ति इन सभी रूपों में होने लगी।
हसबैंड जो घर में वास करे- ‘पति’ में स्वामी, नाथ, प्रभु, क्षेत्रिक, राज्यपाल, शासक, प्रधान, पालक के साथ-साथ भर्ता अथवा भरतार का भाव है जिसका अर्थ हसबैंड। दम्पति का अर्थ भी गृहपति ही है। यह दिलचस्प है कि पालक, भरतार यानी भरण-पोषण करने वाला जैसी अभिव्यक्ति के अलावा ‘पति’ जैसी व्यवस्था में रहने अथवा निवासी होने का भाव भी आश्चर्यजनक रूप में समान है। अंग्रेजी के हसबैंड शब्द को लीजिए जिसमें शौहर, पति, खाविंद, नाथ या स्वामी का भाव है। इसका पूर्वपद है hus जिसका अभिप्राय घर यानी house है। पाश्चात्य भाषाविज्ञानियों के मुताबिक पुरानी इंग्लिश में इसका रूप हसबौंडी था। विलियम वाघ स्मिथ इसे Bonda बताते हैं जिसका अर्थ है स्वामी, मालिक। इस तरह हसबैंड का मूलार्थ हुआ वह जो घर में रहता है। भाव स्थिर हुआ गृहस्थ, गृहस्वामी, गृहपति अर्थात पति।
खाविंद अर्थात स्वामी- फ़ारसी में पति को ख़ाविंद कहते हैं जो मूल फ़ारसी के خاوند खावंद का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है शौहर, पति-परमेश्वर, भरतार, सरताज और गृहपति आदि। भाषाविज्ञानियों के अनुसार (प्लैट्स, नूराई, मद्दाह, अवस्थी आदि) खावंद दरअसल خداوند खुदावन्द का छोटा रूप (संक्षेपीकरण) है। यह दो शब्दों, खुदा خدا और وند वन्द से मिल कर बना है। ग़ौर करें खुदा का अर्थ है प्रभु, स्वामी, ईश्वर, परम आदि। संस्कृत के वन्त / वान जैसे सम्बन्ध-सूचक जेन्दावेस्ता/फ़ारसी में वन्द/मन्द/बान में बदल जाते हैं। इस तरह खुदावन्द का अर्थ हुआ खुदा सरीखा, परमेश्वर सरीखा। ज़ाहिर है हिन्दी में पति, स्वामी या भरतार कहने के पीछे भी यही भाव है।
गृहस्थ यानी जो घर में रहे- हिन्दी का गृहस्थ शब्द भी इसी कड़ी में खड़ा नज़र आता है। उसे कहते हैं जो घर में रहता हो। जो घर में स्थिर/स्थित हो। गृहस्थ में विवाहित, बाल-बच्चेदार, गृहपति जैसे भाव हैं। घर और मकान दरअसल एक से शब्द लगते हैं मगर इनमें फ़र्क है। घर एक व्यवस्था है जबकि मकान एक सुविधा है। सो घर जैसी व्यवस्था में रिश्तों के अधीन होना ज़रूरी होता है। इसीलिए आमतौर पर घर होना, किसी रिश्ते में बंधने जैसा है। शादी-शुदा व्यक्ति को इसीलिए घरबारी कहा जाता है किसी स्त्री को गिरस्तिन तभी कहा जाता है जबकि वह विवाहिता हो।
शालीन वही जो गृहस्थ हो- हिन्दी में सीधे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को शालीन कहा जाता है। दरअसल यह शालीन का अर्थविस्तार है। किसी ज़माने में शालीन का अर्थ था गृहस्थ। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक शालीन वह व्यक्ति है जिसके रहने का ठिकाना है। मोटे तौर पर यह अर्थ कुछ दुरूह लग सकता है, मगर गृहस्थी, निवास, आश्रय से उत्पन्न व्यवस्था और उससे निर्मित सभ्यता ही घर में रहनेवाले व्यक्ति को शालीन का दर्जा देती है। शाल् यानी रहने का स्थान, शाला, धर्मशाला, पाठशाला आदि इससे ही बने हैं। शाल शब्द के मूल में बाड़ा अथवा घिरे हुए स्थान का अर्थ निहित है। कन्या के लिए हिन्दी का लोकप्रिय नाम शालिनी संस्कृत का है जिसका अर्थ गृहस्वामिनी अथवा गृहिणी होता है। व्यापक अर्थ में गृहस्थ ही शालीन है। स्पष्ट है कि आश्रय में ही शालीनता का भाव निहित है।
घरबारी जिसका घरु-दुआर हो- गृहस्थ के लिए घरबारी शब्द बना है घर+द्वार से। घरद्वार एक सामासिक पद है जिसमें द्वार भी घर जैसा ही अर्थ दे रहा है। द्वार से ‘द’ का लोप होकर ‘व’ बचता है जो अगली कड़ी में ‘ब’ में तब्दील होता है। इस तरह घरद्वार से घरबार प्राप्त होता है जिससे बनता है घरबारी। गिरस्तिन भी दम्पति के अर्थ में असली घरमालकिन है। घर शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गृह से मानी जाती है। संस्कृत का गृह और प्राकृत घर एक दूसरे के रूपान्तर हैं। यहाँ ‘र’ वर्ण ‘ग’ से अपना दामन छुड़ा कर आज़ाद होता है और ‘ह’ खुद को ‘ग’ से जोड़ कर ‘घ’ में तब्दील होता है इस तरह ‘गृह’ से ‘घर’ बनता है।
दम्पती यानी घर के स्वामी- हिन्दी में संस्कृत मूल के दम्पति का दम्पती रूप प्रचलित है जिसका अर्थ है पति-पत्नी। संस्कृत में दम्पति का जम्पती रूप भी है। संस्कृत कोशों में दम का अर्थ घर, मकान,आश्रय बताया गया है वहीं बांधने का, रोकने का, थामने का, अधीन करने का भाव भी है। यही नहीं, इसमें सज़ा देने, दण्डित करने का भाव भी है। अनिच्छुक व्यक्ति या जोड़े को चहारदीवारी में रखना दरअसल सज़ा ही तो है। जिसका कोई ठौर-ठिकाना न हो वह आवारा, छुट्टा सांड जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाता है जबकि हमेशा घर में रहनेवाले व्यक्ति को घरू या घरघूता, घरघुस्सू आदि विशेषण दिये जाते हैं।
गृहपति भी है दम्पती- दम्पति का एक अन्य अर्थ है गृहपति। पुराणों में अग्नि, इन्द्र और अश्विन को यह उपमा मिली हुई है। दम्पति का एक अन्य अर्थ है जोड़ा, पति-पत्नी, एक मकान के दो स्वामी अर्थात स्त्री और पुरुष। दम् की साम्यता और तुलना द्वन्द्व से भी की गई है जिसमें द्वित्व का भाव है अर्थात जोड़ी, जोड़ा, युगल, स्त्री-पुरुष आदि। जो भी हो, दम्पति में एक छत के नीचे साथ-साथ रहने वाले जोड़े का भाव है। आजकल सिर्फ़ पति-पत्नी के अर्थ में दम्पति शब्द का प्रयोग होने लगा है जबकि इसमें घरबारी युगल का भाव है।
दम में है आश्रय- यह जो दम् शब्द है, यह भारोपीय मूल का है और इसमें आश्रय का भाव है। आश्रय के अर्थ में भारतीय मनीषा में धाम शब्द का बड़ा महत्व है। धाम का मोटा अर्थ यूं तो निवास, ठिकाना, स्थान आदि होता है मगर व्यापक अर्थ में इसमें विशिष्ट वास, आश्रम, स्वर्ग सहित परमगति अर्थात मोक्ष का अर्थ भी शामिल है। धाम इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत धातु ‘धा’ इसके मूल में है जिसमें धारण करना, रखना, रहना, आश्रय जैसे भाव शामिल हैं। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की dem/domu जैसी क्रियाओं से इसकी रिश्तेदारी है जिनका अभिप्राय आश्रय बनाने (गृहनिर्माण) से है।
दम यानी डोम यानी गुम्बद- यूरोपीय भाषाओं में dome/domu मूल से कई शब्द बने हैं। गुम्बद के लिए अंग्रेजी का डोम शब्द हिन्दी के लिए जाना पहचाना है। सभ्यता के विकासक्रम में डोम मूलतः आश्रय था। सर्वप्रथम जो छप्पर मनुष्य ने बनाया वही डोम था। बाद में स्थापत्य कला का विकास होते होते डोम किसी भी भवन के मुख्य गुम्बद की अर्थवत्ता पा गया मगर इसमें मुख्य कक्ष का आशय जुड़ा है जहां सब एकत्र होते हैं। लैटिन में डोमस का अर्थ घर होता है जिससे घरेलु के अर्थ वाला डोमेस्टिक जैसा शब्द भी बनता है।

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Friday, May 5, 2017

'फते' और 'फलास'


क्त दोनों ही शब्द किसी ज़माने की राजभाषाओं के शब्द है पर देसी रंग कुछ इस अंदाज़ में चढ़ा कि अब चाहें तो इन्हें मालवी का कह लें या अवधी का। ये भी नोट किया जाए कि अच्छी ख़ासी राजभाषाओं की कलई ज़माने की टकसाल में फीकी पड़ जाती है। किसी भी चीज़ पर जब तक 'देसी' का रंग न चढ़े तब तक वह लोकप्रिय भी नहीं हो सकती।

किसी ज़माने में अरबी-फ़ारसी राजभाषाएँ थीं। चूँकि तुर्क-मंगोल नस्लों के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था इसलिए उनकी अपनी भाषाओं पर अरबी-फ़ारसी रंग ज्यादा चढ़ा था। हिन्दुस्तान में जो ज़बान दाखिल हुई वह फौजी अमले द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। जो बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। हालाँकि शाही अमले में अरबी-फ़ारसी के आलिम भी होते थे पर उनकी तादाद बेहद कम।

तो बात थी 'फते' की जो अरबी के फ़तह का देसी रूप है। फ़तह के फते रूप पर मुस्लिम आलिमो हुक्काम सिर धुन लिया करते थे। पर ये देसी ज़बानों की फ़तह थी कि उन्होंने इसके फते, फत्ते जैसे रूप बना लिए। यही नहीं इससे संज्ञनाम भी बनाए जैसे फतेह सिंह, फतेसिंह, फतेपुर, फतेपुरा, फतेचंद आदि।
फलास का किस्सा तो और भी मज़ेदार। द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ-सट्टा का चलन भारतीय समाज में प्राचीनकाल से रहा।

तुर्क-मंगोल लोगों के साथ गंजीफा भी आया जो ताश, पत्ती का खेल है। अंग्रेजो के पास भी ताश-पत्ते का खेल कार्ड बनकर पूरब से ही गया था। जब वे हिन्दुस्तान आए तो ताश का ज़ोर और बढ़ा। अबकि बार अंदाज़ विलायती था। सो विलायती ताश के खेल में तीन पत्ती वाला फ्लैश या फ्लश भी जुआरियों या द्यूतप्रेमियों में प्रसिद्ध हो गया।

अब कोई भी शहराती चलन जब तक देसी रंगत में न आए, आनंद नहीं आता। सो विलायती का बिलैती हुआ, जनरल का जरनैल और प्लाटून का पलटन हुआ वैसे ही फ्लैश का 'फलास' हो गया।
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