किसी ज़माने में अरबी-फ़ारसी राजभाषाएँ थीं। चूँकि तुर्क-मंगोल नस्लों के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था इसलिए उनकी अपनी भाषाओं पर अरबी-फ़ारसी रंग ज्यादा चढ़ा था। हिन्दुस्तान में जो ज़बान दाखिल हुई वह फौजी अमले द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। जो बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। हालाँकि शाही अमले में अरबी-फ़ारसी के आलिम भी होते थे पर उनकी तादाद बेहद कम।
तो बात थी 'फते' की जो अरबी के फ़तह का देसी रूप है। फ़तह के फते रूप पर मुस्लिम आलिमो हुक्काम सिर धुन लिया करते थे। पर ये देसी ज़बानों की फ़तह थी कि उन्होंने इसके फते, फत्ते जैसे रूप बना लिए। यही नहीं इससे संज्ञनाम भी बनाए जैसे फतेह सिंह, फतेसिंह, फतेपुर, फतेपुरा, फतेचंद आदि।
फलास का किस्सा तो और भी मज़ेदार। द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ-सट्टा का चलन भारतीय समाज में प्राचीनकाल से रहा।
तुर्क-मंगोल लोगों के साथ गंजीफा भी आया जो ताश, पत्ती का खेल है। अंग्रेजो के पास भी ताश-पत्ते का खेल कार्ड बनकर पूरब से ही गया था। जब वे हिन्दुस्तान आए तो ताश का ज़ोर और बढ़ा। अबकि बार अंदाज़ विलायती था। सो विलायती ताश के खेल में तीन पत्ती वाला फ्लैश या फ्लश भी जुआरियों या द्यूतप्रेमियों में प्रसिद्ध हो गया।
अब कोई भी शहराती चलन जब तक देसी रंगत में न आए, आनंद नहीं आता। सो विलायती का बिलैती हुआ, जनरल का जरनैल और प्लाटून का पलटन हुआ वैसे ही फ्लैश का 'फलास' हो गया।
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2 कमेंट्स:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-05-2017) को
"आहत मन" (चर्चा अंक-2628)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह, मजेदार जानकारी
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