Tuesday, June 30, 2009

मुंडन और चाचा की शादी [बकलमखुद-90]

logo baklam_thumb[19] दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, dinesh r आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और नवासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

ताते-बताते सरदार चूक गया। मुन्नी जिज्जी का ब्याह तो अगले साल जब वह तीसरी पास कर चुका था तब हुआ था। उस साल तो गर्मी में मोहन चाचाजी का ब्याह हुआ था और उस से पहले सर्दी में मुंडन भी हो चुका था। राखी के दूसरे दिन जब उस का पांचवां जन्म दिन था तभी दाज्जी ने घोषणा कर दी थी कि उस का मुंडन इसी साल होगा। छठे साल में मुंडन नहीं हो सकता। सातवें साल तक बहुत देर हो चुकी होगी। इतनी उम्र तक तक गर्भ के बाल रखना ठीक नहीं है। संक्रांति के बाद मुंडन का मुहूर्त तय हो गया। बारां से कोई सौ किलोमीटर उत्तर में पीपल्दा तहसील का डूंगरली ग्राम, जहाँ कोई सोलह फुट ऊंचे एक चबूतरे पर हनुमान जी की आदमकद मूर्ति थी। यहीं मुण्डन होना था। वहाँ तक जाने के लिए पीपल्दा के आगे सड़क नहीं थी। आगे खेतों में हो कर ही जाना होता था। सूखणी नाम की एक बारहमासी नदी बहती थी जो घूम फिर कर पीपल्दा और डूंगरली के बीच तीन बार आ जाती थी। सर्दियों में खेत खाली रहते, जिन में हो कर बस जा सकती थी। बाराँ से वहाँ तक जाने के लिए एक बस ठीक कर ली गई।
रदार के मन में बहुत कुछ चल रहा था। बचपन से सिर के बाल जूड़े में बंधे रहते थे। जिस ने उसे सरदार बना दिया था। सिख सरदारों की सारी चिढ़ें उसे झेलनी पड़ती थीं। हर कोई कभी भी बारह बजा देता था। पर इस से उसे एक विशिष्टता मिली थी। इस विशिष्टता के कारण बालों से एक तरह का मोह हो गया था। दशहरे पर या जब भी कोई जीवंत झाँकी बनानी होती, तुरंत मेकप कर राम बना दिया जाता। जो उसे अच्छा लगता था। राम उस की सब से प्रिय कहानी के नायक जो थे। अब उन बालों के कटने और सिर गंजा हो जाने के सोच से रुलाई फूट पड़ती थी। लेकिन जब वह दूसरे बच्चों को देखता, तो सब के करीने से कटे हुए अंग्रेजी ढंग के बाल। कोई झंझट नहीं, बस नहाए, बालों को तेल लगाया, कंघी की और झट तैयार। खुद भी नहा सकते थे। अभी तक तो अम्मा या कोई और ही इस काम को करता था। फिर बाल संवार कर जूड़ा बंधवाने के लिए दूसरे के भरोसे। अम्माँ को कोई काम आ गया तो बस बालों को बिखेर कर बैठे रहो। सोचते सोचते सरदार के बालों से विरह की रुलाई रुक जाती। सोचता कि फिर वह भी औरों की तरह दूसरों के भरोसे न रहेगा, अपने बहुत से काम खुद करने लगेगा। आखिर वह दिन नजदीक आ गया।
सुबह ही बस बारां से रवाना हुई, बारह बजते-बजते डूंगरली पहुँच गए। सब से पहले सरदार ने चाचा जी के साथ हनुमान जी के दर्शन किए। हनुमान जी बहुत बड़े थे, एक हाथ कमर पर, दूसरा सिर पर और एक पैर के नीचे कोई उकडूँ हो कर दबा हुआ। जैसे किसी राक्षस को मार कर उस की जीत पर नृत्य कर रहे हों। फिर बुआ उसे मंदिर से नीचे ले आई। वहाँ नाई कैंची ले कर तैयार था। उस क्षण सरदार को नाई उसी राक्षस की तरह लगा जिसे पैर के नीचे दबा हनुमान जी नृत्य कर रहे थे। वहाँ पिता जी के सांगोद के साथी चम्पाराम जी चौबे कैमरा ले कर हाजिर थे। यह कैमरा उन्हें विशिष्टता प्रदान करता था। सरदार से विशेष स्नेह के कारण वे उस के हर जन्मदिन  पर बाराँ आते थे। उन्हों ने बुआ के साथ एक फोटो खेंचा। उस के बाद नाई ने बिठा कर कैंची से सारे बाल उतार डाले। बाद में
ब्लागजगत के वकीलसाब बचपन में सरदार थे। सफर के पाठकों के लिए उन्होंने कुछ खास चित्र भेजे हैं। sardar copy-2
बुआ ने सिर पर गीली हल्दी का लेप कर दिया।
नुमान जी की पूजा की गई, हवन हुआ और उस के बाद साथ आए सभी मेहमानों ने सरदार को कपड़े पहनाए। उन में एक मखमल का पाजामा, मेहरून रंग का कोट था और गोल टोपी थी। तीनों पर सलमे-सितारे जड़े थे। वह कीमती पोशाक वहाँ से दो किलोमीटर दूर स्थित खेड़ली-बैरीसाल की जागीर के जमींदार के यहाँ से आई थी, जिन्हें इलाके के लोग राजा साहब कहते थे। सरदार के परदादा राजा के पुरोहित थे। दादा जी के एक रिश्ते के भाई अब भी यही काम करते थे। वह पोशाक सरदार को पहना दी गई, बालों की विदाई का सारा रंज जाता रहा। इस के बाद भोजन शुरू हो गया जिस के निपटते निपटते रात हो गई। कोई नौ बजे बस वापस रवाना हुई। सड़क तो थी नहीं ऊपर से रात का अंधेरा। बस खेतों में रास्ता भूल गई। जिधर जाती उधर सूखणी नदी आ जाती और उसे पार करने का रास्ता नदारद। थक हार कर ईंधन समाप्त होने के भय से बस को खड़ा कर दिया गया। सुबह जब प्रकाश होने लगा तो रास्ता तलाश कर बस ने पीपल्दा पहुँच कर सड़क पकड़ी। दोपहर होते-होते बारां पहुँचे।
केश विदा हो चुके थे। लेकिन सर गंजा हो गया था। नाई ने इस बेतरतीबी से उन्हें काटा था कि कहीं बाल दिखते थे तो कहीं गंजा सिर, हाथ बार-बार सिर पर जाता। दो दिन बाद दाज्जी की निगाह उन पर पड़ गई थी। दोपहर में नाई को बुलवा कर सिर पर उस्तरा चलवा दिया। जिस से सर बिलकुल साफ हो गए। गंजा सिर अच्छा नहीं लगता था तो सरदार अक्सर टोपी पहने रहता। गर्मियों में मोहन चाचा जी की शादी आ गई। बारात कोटा जानी थी। होने वाली चाची चाचा की तरह ही बीए पास थी। सरदार को यह अच्छा लग रहा था। ‘बा’ तो बिलकुल अनपढ़ थीं। अम्मा भी चार कक्षा ही पढ़ी थी। दादा जी भी बहुत प्रसन्न थे, उन्हें पढ़े लिखे लोग बहुत अच्छे लगते थे। वे लोगों को कहते -मोहन की लाडी (दुल्हन) बी.ए. का इम्तहान दे रही है। बारात में कोटा पहली बार देखा। वहाँ जगह-जगह पानी के खूबसूरत नल देखे, जिन से चौबीसों घंटे पानी आता। बारात नगर बीच की सुंदर धर्मशाला में दो दिन रुकी। पास ही चाची का घर था।
शादी हो गई, चाची आ गई। वह बहुत गोरी और सुंदर थीं। सरदार को बहुत प्यार से बुलाती, बात करतीं। सरदार भी बस हर दम चाची-चाची कहते उन के ही साथ चिपका रहता। इतना कि उन्हें और चाचा को परेशानी भी होने लगती। तभी अम्माँ या दादी सरदार को बुला कर ले जातीं किसी और खेल में लगा देतीं। चाचा ने कहीं से तीसरी कक्षा की पुस्तकें ला कर सरदार को दे दी। सरदार को उन्हें पढ़ने में मजा आ रहा था। गर्मियाँ बीतते बीतते उस ने हिन्दी, सामाजिक ज्ञान और विज्ञान की पुस्तकें पढ़ डालीं थीं। उन में कुछ समझ में आया था और कुछ नहीं आया। हाँ गणित की किताब के अधिकतर सवाल उस ने खुद हल कर डाले थे। जो नहीं आ रहे थे उन्हें दाज्जी ने हल करवा दिया था। स्कूल खुलने के दिन आ गए थे। अगले मंगलवार भी जारी

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Monday, June 29, 2009

क़िस्मत क़िसिम-क़िसिम की

Swastik 

र्म की महिमा का चाहे जितना बखान किया जाए, दुनिया में भाग्यवादियों की संख्या ज्यादा है। व्यावहारिक तौर पर भी आए दिन यही देखने में आता है कि लगन, मेहनत, प्रतिभा का संयोग होने के बाद भी किन्ही लोगों के लिए समृद्धि-सफलता की राह प्रशस्त नहीं होती। इसके विपरीत पात्रता, योग्यता और क्षमता न होने के बावजूद कई लोगों के जीवन में अप्रत्याशित सफलता आती है। भाग्य, किस्मत, लक, तकदीर, नसीब आदि ऐसे अनेक शब्द है जिनके मायने लगभग समान हैं और नियति अथवा प्रारब्ध के अर्थ में इनका आए दिन खूब इस्तेमाल होता है।
न तमाम शब्दों के मूल में जाएं तो एक बात स्पष्ट होती है वह है हिस्सा, बंटवारा, भाग, काट-छांट या अंश जैसे अर्थों के साथ प्रभाव, शक्ति और महिमा जैसे भावों से इन शब्दों की रिश्तेदारी। भाग्य शब्द बना है संस्कृत धातु भज् से जिसमें हिस्से करना, बांटना, अंश करना, वितरित करना, आराधना-पूजा करना आदि भाव शामिल हैं। भज् से ही बना है भक्त जिसका अर्थ भी विभक्त, बंटा हुआ, खण्ड-खण्ड आदि है। इस भक्त (विभक्त) की फारसी के वक़्त से तुलना करें। समय या वक़्त क्या है? सैकेन्ड्स, मिनट, घंटा, दिन-रात और साल में विभाजित काल ही तो है न!! फारसी का यह वक्त और संस्कृत का भक्त दोनों ही इंडो-ईरानी भाषा परिवार के शब्द हैं और एक ही मूल से बने हैं जिसमें अंश, बंटवारा या विभाजन के भाव हैं।  काल या वक्त ही भाग्य है जो भज् धातु से बना है। वक़्त का अगला रूप होता है बख़्त जिसका अर्थ भी भाग्य ही होता है। बख्तावर का मतलब होता है भाग्यवान या सिकंदरबंख्त का अर्थ हुआ सिकंदर जैसी तकदीरवाला। कुल मिलाकर जो भाव उभर रहा है वह यह कि ईश्वर की तरफ से मनुष्य को जो जीवन-काल मिला है, वही उसके हिस्से का भाग्य है। यह समय ही ईश्वर का अंश है जिसके जरिये वह इस सृष्टि में अपना जन्म सार्थक कर सकता है। मोटे तौर पर भाग्य का अर्थ अच्छे वक़्त या सौभाग्य से ही है पर यदि मनुष्य अपने कर्मों से अपने जीवन को अर्थात अपना समय अच्छे ढंग से व्यतीत नहीं करता है तो यही उसका दुर्भाग्य है। ये अलग बात है कि अच्छी और बुरी प्रवृत्तियोंवाले लोगों के लिए भी भाग्य और दुर्भाग्य की परिभाषाएं अलग-अलग होती हैं। एक चोर लगातार चोरी के अवसर मिलने को ही सौभाग्य  समझता है।
रबी का क़िस्मत भी ऐसा ही एक शब्द है जो हिन्दी के अलावा भी भारत की कई बोलियों में रच-बस चुका है। क़िस्मत बना है अरबी धातु क़सामा (q-s-m) से। भाग्य की तरह ही क़सामा में भी अंश, हिस्सा, भाग अथवा विभाजन जैसे भाव हैं। इसकी व्याख्या भी समय अथवा काल के संदर्भ में ही की जाती है। समय कई छोटे-छोटे हिस्सों में बंटा है। आयु के विभिन्न कालखंडों में हमारा जीवनानुभव अलग अलग होता है। उम्र के इन हिस्सों में सुख के क्षण भी हैं और दुख के भी। जीवन के यही हिस्से भाग्य अथवा क़िस्मत हैं। विभिन्नता, प्रकार, श्रेणी या वर्ग के अर्थ में अरबी का क़िस्म  भी q-s-m धातु से ही निकला है। किस्म को पूर्वी क्षेत्रों में किसिम भी बोला जाता है। आजकल वैचित्र्य पैदा करने के लिए खड़ी बोली में भी ‘किसिम-किसिम’ का मुहावरा इस्तेमाल होता है। एक अन्य शब्द है क़सम जिसका अर्थ है शपथ। गौर करें कि शपथ तभी दिलाई जाती है जब किन्हीं दो विकल्पों में से किसी एक को चुनने की नैतिकता का पालन करना हो। आमतौर पर यह भी विभाजन है जो अच्छे और बुरे के बीच ही होता है। इसीलिए किसी तथ्य की स्वीकारोक्ति के लिए शपथ दिलायी जाती
आयु के विभिन्न कालखंडों में हमारा जीवनानुभव अलग अलग होता है। उम्र के इन हिस्सों में सुख के क्षण भी हैं और दुख के भी। जीवन के यही हिस्से भाग्य अथवा क़िस्मत हैं। good_luck_graphics_08
है या क़सम दी जाती है। हिन्दी में शपथ से ज्यादा क़सम शब्द का इस्तेमाल होता है। मराठी में शपथ शब्द ही बोला जाता है मगर इसे जिस ढंग से उच्चरित किया जाता है, यह शप्पथ सुनाई पड़ता है। दुर्भाग्य के लिए क़िस्मत के आगे बद् उपसर्ग लगा कर बदकिस्मत शब्द बनाया गया।
सी कड़ी का हिस्सा है क़ासिम जिसका अर्थ होता है बहुतों में से बेहतर और अच्छे लोगों को चुननेवाला। यहां भी अंश, विभाजन जैसे भाव स्पष्ट हो रहे हैं। मुसलमानो में क़ासिम भी एक नाम होता है जिसका मतलब हुआ बहुतों के बीच से अच्छे लोगों को चुनना। भले मानुसों को चुननेवाला। यूं क़ासिम का शाब्दिक अर्थ बांटनेवाला या वितरक से लगाया जा सकता है किन्तु इसमें सर्वोच्च, शक्तिमान और प्रभुता का ही भाव है। ताकतवर ही बंटवारा कर सकता है। सृष्टि में सबको बांटने-वितरित करने का काम ईश्वर के सिवाय दूसरा कोई नहीं करता। अच्छे-बुरे लोगों के बीच से भले लोगों को चुनकर वही उन्हें नवाज़ता है। किस्म-किस्म के लोगों में से सिर्फ बेहतर को चुननेवाला ही क़ासिम हो सकता है। वह पथ-प्रदर्शक होगा, धर्मगुरू होगा, न्यायाधीश होगा और सबसे बढ़कर ईश्वर होगा।

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Sunday, June 28, 2009

लंबा क़द और लंबी ज़ुबान

हि न्दी में दीर्घ deergh का अर्थ होता है लंबा, दूर तक पहुंचनेवाला, ऊंचा, उन्नत आदि। इस तरह देखें तो दीर्घकाय का अर्थ हुआ लंबा व्यक्ति मगर दीर्घकाय शब्द का अभिप्राय आमतौर पर विशालकाय के अर्थ में ही लगाया जाता है। दरअसल जब किसी आकार के साथ दीर्घ शब्द का विशेषण की तरह प्रयोग होता है तब  लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के आयाम भी उसमें जड़ जाते हैं, इस तरह दीर्घाकार, दीर्घकाय जैसे शब्दों में बड़ा अथवा विशाल का भाव आ जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति को दूरदर्शी कहा जाता है। संस्कृत में इसके लिए दीर्घदर्शी शब्द भी है यानी दूर तक देखनेवाला। लंबी आयु के लिए दीर्घजीवी शब्द प्रचलित है।
"दराज़ शब्द के वही मायने हैं जो हिन्दी के दीर्घ शब्द के हैं।" 17213
भाषाविज्ञानियों नें संस्कृत के दीर्घ शब्द की रिश्तेदारी प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु dlonghos में खोजी है। अंग्रेजी का लाँग long शब्द भी इससे ही बना है जिसका अर्थ भी लंबा या दीर्घ ही होता है। गौरतलब है कि संस्कृत दीर्घ शब्द ने ही बरास्ता अवेस्ता, ईरानी परिवार की भाषाओं में जाकर दराग, दिरंग होते हुए फारसी के दराज़ शब्द का रूप लिया। फारसी के दराज़ का अर्थ होता है लंबा। गौरतलब है कि भारोपीय भाषाओं मे र-ल और क-ग-घ जैसे वर्णों में आपस में तब्दीली होती है। फारसी का दराज़ शब्द उम्रदराज़ के रूप में हिन्दी में भी इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ होता है लंबी आयु वाला अर्थात बूढ़ा, वृद्ध, बुजुर्ग। गौरतलब है कि फारसी के बुजुर्ग शब्द की भी संस्कृत-हिन्दी के वज्र से रिश्तेदारी है जिसका मतलब होता है महान, कठोर, वरिष्ठ आदि। बुजुर्ग में भी मूलतः आदरणीय, महान, प्रभुतासम्पन्न जैसे भाव ही हैं। मगर कालांतर में इसके साथ वरिष्ठता के विभिन्न भाव जुडते चले गए जिनका अर्थ विस्तार रसूख, प्रभाव में हुआ और बाद में आयु के उत्कर्ष के तौर पर ये सब बुजुर्ग में सिमट गए। वाचालता अथवा अशिष्ट सम्भाषण के लिए ज़ुबानदराज़ी शब्द भी हिन्दी में इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ है ज्यादा बोलना। जुंबानदराज़ी करना मुहावरा मूलतः फ़ारसी से ही हिन्दी में आया है जिसका मूल रूप है ज़ुबानदराज़ करदन यानी बढ़-चढ़ कर बोलना।
राज शब्द का एक अन्य अर्थ में भी हिन्दी में प्रयोग होता है जिसका मतलब होता है टेबल, मेज या आलमारी में बना हुआ काग़ज-पत्र या अन्य छोटी सामग्री रखने का खाना या खण्ड जिसे खींच कर बाहर निकाला जा सके। संभवतः इस दराज़ से इसका कोई रिश्ता नहीं है। मुहम्मद मुस्तफा खां मद्दाह के कोश के मुताबिक मूलतः यह अरबी के दरजः (दर्जः) से बना है। यह उर्दू में दर्जः हो गया और इसका हिन्दी उच्चारण दराज की तरह होने लगा। दर्जः का मतलब है वर्ग, खण्ड, ओहदा, श्रेणी आदि। गौरतलब है कि उत्तर भारत में आज भी कक्षा के लिए भी दर्जा शब्द का ही इस्तेमाल होता है। रेलवे की आरक्षण शब्दावली में श्रेणी शब्द चाहे लिखा जाता है, पर इस्तेमाल मे दर्जा शब्द ही आता है। दर्जा का मतलब इमारत की मंजिल या माला भी होता है। अवस्था के लिए भी दर्जा शब्द का प्रयोग होता है।

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Friday, June 26, 2009

सफ़र चालू आहेत …

फर से लौट आया हूं। दो साल में पहली बार इतना लंबा अंतराल आया है इस शब्दयात्रा में। हमें तो इसकी कमी बहुत खली, आपको भी कुछ खालीपन तो महसूस हुआ होगा। आज से फिर नियमित रूप से हम चलेंगे शब्दों का सफर पर। फिलहाल एक हलकी-फुलकी पोस्ट। दैनिक भास्कर ने हाल ही में अपने कलेवर में बदलाव किया है। बदली हुई सज्जा में साप्ताहिक कॉलम शब्दों का सफर के स्वरूप में भी हलकी सी तब्दीली हुई है। सफर के जो साथी दैनिक भास्कर नहीं देख पाते हैं उनके लिए इसकी दो सप्ताह पूर्व प्रकाशित कड़ी यहां दे रहा हूं।
पपप

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Friday, June 19, 2009

कुछ न कहो, कुछ भी न कहो…

शुद्ध अंतःकरण में सिर्फ मौन विराजता है। विभिन्न व्रतों में एक मौन व्रत भी है जो निर्वाण साधना का पहला पाठ है… samadhi1
सा मान्य तौर पर निर्वाण का अर्थ मोक्ष, परम गति, परम शांति और मुक्ति से लगाया जाता है। आध्यात्मिक शब्दावली के इस शब्द के लौकिक अर्थ सीधे सीधे मृत्यु से जुड़ते हैं। महान विभूतियों के न रहने की स्थिति के उल्लेख में अवसान, महायात्रा, प्रयाण, महाप्रयाण के साथ परिनिर्वाण शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह निर्वाण क्या है?
निर्वाण भारतीय दर्शन और अध्यात्म की महान परम्परा से उपजा शब्द है जिसका प्रयोग वेदोपनिषदों के ज़माने से ही मोक्ष, जीवन-चक्र से मुक्ति के अर्थ में हुआ है। बौद्ध मत के विस्तार के बाद इसमें नया चिंतन जुड़ा और निर्वाण का अर्थ परमपद हो गया जिसकी प्राप्ति के लिए सारे आध्यात्मिक यत्न होते हैं। तपस्या और साधनाओं का उद्धेश्य ही निर्वाण था जिसका अर्थ उस परम अवस्था से था जहां पहुंचकर व्यक्ति जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
निर्वाण शब्द बना है वाणी से। वाणी अर्थात ध्वनि, बोलने की शक्ति, साहित्यिक कृति, वाग्देवी सरस्वती आदि। वाणी शब्द बना है वण् धातु से जिसमें ध्वनि करना, बोलना आदि भाव है। संस्कृत के निर् उपसर्ग में रहित का भाव होता है। यह निर् जब वाणी के साथ लगता है तो

... जीवन की शुरुआत और जीवन के अंत में अखंड नीरवता ही है... buddha

बनता है निर्वाण। सदाचार ही ईश्वर प्राप्ति का वह सामान्य मार्ग है जिस पर हर प्राणी को चलना चाहिए। मन, कर्म और वचन अर्थात वाणी ये तीनों ही प्रमुख तत्व हैं जिनमें व्याप्त सत्य तक पहुंचने के लिए लगातार साधना करनी होती है। उसके बाद इन तीनों का समन्वय जीवन में ज़रूरी है। सत्कर्मों और सद्वचनों से अंतःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध अंतःकरण में सिर्फ मौन विराजता है। विभिन्न व्रतों में एक मौन व्रत भी है जो निर्वाण साधना का अंग है।
निर्वाण शब्द मुख्यतः बौद्धमत की वजह से चर्चित हुआ। परवर्ती उपनिषदों में एक निर्वाण उपनिषद का भी उल्लेख है। निर्वाण का अर्थ आत्मा की ऐसी अवस्था से है जब अन्तःकरण में सिर्फ परमशांति, परम मौन व्यापता है। किसी किस्म की अनुभूति नहीं रहती। मन की चेतना तो सजग रहती है पर उसकी अनुभूतियाँ दुःख-सुख से परे हो जाती हैं। भाव यही है कि जिस वाणी के होने से मनुष्य है, वह उसमें समा जाए। जीवन की शुरुआत और जीवन के अंत में अखंड नीरवता ही है। शांति की कल्पना करें। शांति बाहर है तो भी मौन  ही व्यापता है, शांति अंदर है तो भी मौन का ही साम्राज्य होता है। अभिप्राय यही है कि निर्+वाणी ही परमोपब्धि है। इसीलिए विष्णु का एक नाम भी निर्वाण है अर्थात परम लक्ष्य। अनंत। गौर करें, शब्द को ब्रह्म कहा गया है, जो वाणी ही है। शब्द के जाप से ब्रह्म की प्राप्ति होती है, जाप में उच्चार ज़रूरी नहीं है। वाणी जीवन को मुखरित करती है पर इसका प्रयोजन फिर से अनंत-अखंड मौन के साथ एकाकार होने में ही है। वाणी साधन है, मौन साध्य है। शरीर साधन है, आत्मा साध्य है। जीवित रहते हुए ही उस अनंत मौन की साधना ही निर्वाण का लक्ष्य है, क्योंकि मृत्यु के बाद तो मौन ही मुखरित होता है।
हस्रधारा में पांडुरंग राव लिखते हैं “शरीर को साधन बनाकर आत्मा के आलोक में विलीन होना ही निर्वाण है। इसीलिए निर्वाण भगवान का दूसरा नाम है” इस तरह निर्वाण शब्द एक पारिभाषिक शब्द बन गया। तपस्वियों-सिद्धो द्वारा निर्वाण अवस्था के प्रयत्नों में समाज की श्रद्धा रही। साधक द्वारा निर्वाण अवस्था की प्राप्ति को उसके नश्वर अस्तित्व की मुक्ति के तौर पर देखा जाने लगा। निर्वाण की गति वही हुई जो समाधि की हुई।

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Thursday, June 18, 2009

समाधि से समाधान की ओर

...  वृद्धावस्था होने पर तपस्वी अक्सर इच्छा मृत्यु चुनते थे जिसके तहत वे आहार त्याग कर निरंतर भाव-चिन्तन में लीन रहते। इन्ही क्षणों में वे देहत्याग करते जिसे समाधि कहा जाने लगा ... Buddha_Meditation

न्तिम संस्कार के सर्वाधिक प्रचलित तरीकों में एक है मृतदेह को भूमि में दबाना जिसे दफ़्न करना कहते हैं इसके बाद आता है दाहसंस्कार जो हिन्दू धर्म तथा उससे निकले कुछ पंथो में प्रचलित है। ईसाइयों, मुस्लिमों, यहूदियों समेत कई अन्य समाज-संस्कृतियों में शवों को दफ़नाने की परम्परा है। मुस्लिम समाज में शवों को जहां गाड़ा जाता है उसे कब्रिस्तान कहते हैं। हिन्दुओं में उस स्थान को श्मशान कहते हैं।
हिन्दुओं में आमतौर पर दाहसंस्कार की परम्परा है मगर उसके कुछ पंथो में शवों को दफ़नाया भी जाता है जिसे समाधि देना कहते हैं। हिन्दी के समाधि शब्द में कई अर्थ छिपे हैं। आमतौर पर चिंतन-मनन की मुद्रा अथवा ध्यानमग्न अवस्था को भी समाध कहते हैं और कब्र को भी समाधि कहते हैं। समाधि शब्द बना है आधानम् से जिसका अर्थ होता है ऊपर रखना, प्राप्त करना, मानना, यज्ञाग्नि स्थापित करना आदि। इसके अलावा कार्यरूप में परिणत करना भाव भी इसमें शामिल है। आधानम् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समाधानम्। जब सम् अर्थात समान रूप से बहुत सी चीज़ें अथवा तथ्य सामने रखे जाते हैं, गहरी बातों को उभारा जाता है तो सब कुछ स्पष्ट होने लगता है। यही है समाधानम् या समाधान अर्थात निष्कर्ष, संदेह निवारण, शांति, सन्तोष आदि।
माधि इसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें संग्रह, एकाग्र, चिंतन, आदि भाव हैं। जब बहुत सारी चीज़ों को सामने रखा जाता है तब उनमें से चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है। भौतिक तौर पर विभिन्न वस्तुओं के बीच इसे चुनाव कहा जाता है। पर जब यह प्रक्रिया मन में चलती है तब यह भाव चिन्तन कहलाती है। यह भाव-चिन्तन ही मनोयोग है, तपस्या है, समाधि है। आमतौर पर ऋषि-मुनि, तपस्वी ही समाधि अवस्था में पहुंचते हैं। ऐसे लोगों की आत्मा जब देहत्याग करती थी तो उसे मृत्यु न कह कर समाधि लगना कहा जाता था। मृत्यु यूं भी जीवन की सभी समस्याओं का समाधान है। दरअसल वृद्धावस्था होने पर तपस्वी अक्सर इच्छा मृत्यु चुनते थे जिसके तहत वे आहार त्याग कर निरंतर भाव-चिन्तन में लीन रहते। इन्ही क्षणों में वे देहत्याग करते जिसे समाधि कहा जाने लगा। बाद में कब्र या मृत्यु स्मारक अथवा छतरी के लिए भी समाधि शब्द रूढ़ हो गया।
पस्वियों की देह को समाधि मुद्रा में ही भूमि में दबाने की परम्परा रही है। बाद में इस स्थान पर एक चबूतरा बनाया जाता है। दाह-संस्कार स्थल पर भी यूं चबूतरे बनाए जाते रहे हैं। राजा-महाराजा आदि के दाह संस्कार के बाद उस स्थान पर गोल गुम्बद बनाया जाता था जिसे छतरियां कहते हैं। देशभर में जितनी भी पुरानी रियासतें रही हैं वहां ऐसी छतरियां खूब हैं।समाधियां जहां होती हैं उसे समाधिस्थल, छतरी-बाग या छार-बाग कहा जाता है। छार बाग शब्द से अभिप्राय निश्चित तौर पर क्षार से ही होगा। दाहसंस्कार से पैदा होने वाली राख को ही संस्कृत में क्षार कहते हैं। राख शब्द इसी क्षार का विपर्यय रूप है।
किसी ज़माने में प्राचीन भारत के आर्यों में भी शवों को दफ़नाने की परम्परा रही होगी। आजकल श्मशान उस स्थान को कहते हैं जहां मुर्दों को जलाया जाता है मगर भाषा-विज्ञान के नज़रिये से श्मशान शब्द कुछ और तथ्य बताता है। श्मशान शब्द के बारे में यास्क के निरुक्त में कहा गया है-शरीर के लेटने की जगह। आप्टे कोश के मुताबिक यह बना है शी+आनच से। संस्कृत की शी धातु में निंद्रा, विश्राम, शांति का भाव है। शी से ही बना है शयन जिसमें नींद का भाव है। पूर्ववैदिक काल में शरीर का अर्थ काया न होकर शव अर्थात मृतदेह ही था। शरीर के लिए तब काया अथवा देह शब्द प्रचिलित था। इसीलिए श्मशान का अर्थ हुआ शरीर के लेटने का स्थान। जाहिर है bosnian-graveyard-jeri-wyrick-a4553 प्राचीनकाल में श्मशान दरअसल कब्रिस्तान ही था जहां शवों को दफ़नाया जाता था। भाषाविज्ञानियों के साथ नृतत्वविज्ञानी भी यह मानते हैं कि विभिन्न आर्य समुदायों में दफ़नाने की परम्परा थी। शवदाह की प्रथा उन्होंने अनार्यों से सीखी। बौद्धों के चैत्य या स्तूप मूलतः समाधि ही हैं। चैत्य शब्द चिता की कड़ी में आता है जिसमें चुना हुआ, संग्रहित जैसे भाव हैं। गौर करें कि चिता लकड़ियों का चुना हुआ, संचित किया हुआ आधार ही होता है।
वों को दफ़नाने के स्थान को अरबी में कब्र कहते हैं जो सेमिटिक भाषा परिवार की धातु क़-ब-र q-b-r से बना है जिसमें संरक्षण, सुरक्षित, ढकी हुई जगह, घिरे हुए स्थान का भाव है। इससे बने कबारा का मतलब होता है छुपा हुआ, अदृश्य आदि। शव को दफ़नाने के लिए खोदे गए गढ़े में दबा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती है जिसे कब्र कहते हैं। इस तरह देह पूरी तरह अदृश्य हो जाती है। जिस कब्र के ऊबर गुम्बद या अन्य कोई निर्माण किया गया हो उसे मकबरा कहा जाता है। जहां कब्र खोदी जाती है उस जगह को कब्रिस्तान या कब्रगाह कहते हैं। किसी के अहित के लिए किए जाने वाले कार्य के संदर्भ में कब्र खोदना मुहावरा प्रचलित है। वृद्धावस्था की बीमारी या अंतिम अवस्था को कब्र में पैर लटकाना जैसे मुहावरे से व्यक्त किया जाता है।

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Wednesday, June 17, 2009

केरल, नारियल और खोपड़ी…

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क्षिण भारत का बेहद खूबसूरत राज्य है केरल। भारत के विदेशी सम्पर्कों में केरल की लम्बी समुद्रतटीय सीमा का भी योगदान रहा है। सर्वाधिक साक्षरता वाला राज्य होने के नाते भी पूरे देश में इस प्रांत का सम्मान है। किसी ज़माने में केरल तमिल प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। यहां चेरवंशीय राजाओं का शासन था इसलिए इसका प्राचीन नाम चेरलम् था। प्राचीन तमिल प्रदेश के तीन प्रमुख हिस्से थे। चेर, चोल और पाण्ड्य जिन्हें क्रमशः चेरनाडु, चोळनाडु और पाण्डियनाडु कहते थे। ‘हमारी परम्परा’ पुस्तक के द्रविड़ और द्रविड़ भाषाएं अध्याय में र. शौरिराजन बताते हैं कि ये तीनों राज्य शिक्षा,संस्कृति, सभ्यता और वैभव में बेजोड़ थे जिनका उल्लेख वाल्मीकि ने भी किया है।
भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से चेरलम् का ही संस्कृत रूप है केरलचेर या चेरल शब्दों का अर्थ होता है जुड़ना या मिल जाना। एक अन्य व्युत्पत्ति के मुताबिक चेरलम् बना है चेर+अळम से। (मूलतः यह ष् है जिसकी ध्वनि ळ से मिलती जुलती है) चेर का मतलब होता है उच्च भूमि और अळम् यानी गहराई। मान्यता है कि तमिल राज्य के पश्चिमी क्षेत्र से समुद्र ने भूगर्भीय गतिविधियों के चलते मुख्य भूमि छोड़ दी जिसकी वजह से यह भूक्षेत्र उभर आया जिसे नाम चेरल+अकम् कहा गया अर्थात मिला हुआ प्रदेश, जुड़ा हुआ प्रदेश। भाव यही ही कि जो ज़मीन समुद्र में थी वह मुख्य भूमि से जुड़ गई इस तरह यह जुड़ा हुआ क्षेत्र कहलाया। इस क्षेत्र के वासी चेरर् या चेरलर् कहलाने लगे। चेरलकम् से चेरम् बना जिसे वहां के शासकों से जोड़ा गया जो आगे चल कर उनका वंश हो गया। चेरलम् के मूल में भी यही बात है। पानी अपना स्थान तभी छोड़ता है जब या तो मुख्य भूमि में उठाव हो या पानी का स्तर कम हो जाए। दोनों ही स्थितियों में भूमि का उठाव स्पष्ट होता है, सो चेरलम् में जुड़ना, उच्चभूमि दोनों ही अर्थ मूलतः एक ही भाव को इंगित कर रहे हैं। प्राचीनकाल में चेरनाडु, चोळनाडु और पाण्डियनाडु को मिलाकर ही तमिलनाडु प्रदेश कहलाता था। चेर शब्द का रिश्ता नागवंश से भी जोड़ा जाता है। चेरु यानी नाग। गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति में नागों का बड़ा महत्व है। घालमेल यह है कि व्याख्याकार, पुराणकार नाग शब्द का अर्थ सचमुच सर्प से लगाते हैं और कहीं पर्वत से। मूलतः सर्प जाति जैसी कल्पना पर हमारा विश्वास नहीं है अलबत्ता नग यानी पर्वत के तौर पर पहाड़ी जनजाति का नामकरण ज़रूर है। उच्चभूमि का अर्थ पठार या तना भी होता है।
प्रसिद्ध भाषाशास्त्री पादरी काल्डवेल ने केरल के मूल में केर जैसा शब्द भी तलाशा जो मूल रूप से नारियल से जुड़ता है। संस्कृत में नारियल को नारिकेलः कहा जाता है। इसके लिए नारीकेरः, नारिकेर, नारिकेल और नाडिकेर जैसे शब्द भी हैं। नारि या नाडि का अर्थ होता है किसी पौधे का पोला तना या डंठल। कमलनाल में यह पोलापन स्पष्ट हो रहा है। नारियल का मोटा तना भीतर से पोला होता है। नाडि या नाली एक ही मूल यानी नड् से जन्मे हैं। नड् का मतलब होता है तटीय क्षेत्र में  पाई जाने वाली घास, नरकुल, सरकंडा। गौर करें वनस्पति के इन सभी प्रकारों में तने kerala-का पोलापन जाना-पहचाना है। नाडि का अर्थ बांसुरी भी होता है जो प्रसिद्ध सुषिर वाद्य है। बांस का पोलापन ही उसे सुरीलापन देता है जिससे बांसुरी नाम सार्थक होता है। धमनियों-शिराओं के लिए भी नाडि शब्द प्रचलित है। प्राचीन चिकत्साशास्त्र की एक प्रसिद्ध शाखा नाडी-चिकित्सा भी थी जिसके जरिये अधिकांशतः रनिवास0617-01coconut की स्त्रियों की जांच की जाती थी क्योंकि साधारण लोगों की तरह रोग निदान के लिए उनका शरीर परीक्षण संभव नहीं था। नाडी-परीक्षण को ही फारसी में नब्ज देखना कहते हैं। मालवी राजस्थानी में आज भी सिंचाई की नालियों को नाडि या नाड़ा कहते हैं।
मरबंद को भी नाड़ा ही कहा जाता है। मूलतः यह होता सूत्र है मगर जिस वस्त्र को कमर पर बांधा जाता है उसके ऊपरी हिस्से में सूत्र डालने के लिए कपड़े को दोहरा कर पोली नाली  बनाई जाती है। यह सूत्र इस नाली में से गुज़रता है इसलिए इसका नाम भी नाड़ा पड़ गया। स्पष्ट है कि नारिकेल शब्द ही नारिएल होते हुए हिन्दी में नारियल हो गया। नारिकेल की बहुतायत होने से इसका नाम संस्कृत में केरलम् प्रचलित हुआ हो, यह सोच तो दिलचस्प है मगर विश्वसनीय नहीं क्योंकि भारत की समूची तटरेखा वाले विभिन्न प्रदेशों में नारियल की पैदावार होती है। बस्तर में जहां समुद्र नहीं है, वहां भी नारियल होता है। ऐसे सभी प्रदेशों का नाम केरल होना चाहिए। नारिकेल से केरल नाम की व्युत्पत्ति दिलचस्प मगर अविश्वसनीय है। कुल मिलाकर यह स्थानवाची शब्द ही है।
प्रसंगवश नारियल के लिए हिन्दी में खोपरा शब्द भी प्रचलित है। इसकी व्युत्पत्ति बड़ी दिलचस्प है। इसकी व्युत्पत्ति हुई है खर्परः से जिसका अभिप्राय भी मस्तक, भाल आदि है। इसी का अपभ्रंश रूप है खोपड़ी, खप्पर, खुपड़िया, खोपड़ा आदि। दिलचस्प बात यह कि नारियल के लिए हिन्दी में खोपरा शब्द चलता है जिसे मराठी में खोबरं कह कर उच्चारित किया जाता है। खोपरा शब्द का जो लक्षणार्थ है वह स्पष्ट है। नारियल की बाहरी परत आकार और प्रकृति में मनुष्य के सिर की तरह ही होती है। अर्थात गोल और कठोर होती है। खर्परः का सीधा सा अभिप्राय मनुष्य से सिर से हैं और इससे मिलते जुलते लक्षणों वाली वस्तु के लिए समाज ने इसी शब्दमूल से एक नया शब्द बना लिया।

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Tuesday, June 16, 2009

घोड़ी को पानी दिखाना [बकलमखुद-89]

logo baklam_thumb[19] दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, dinesh r आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही सफर के पंद्रहवें पड़ाव और अट्ठासीवें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

चानक फूफाजी को किसी ट्रेनिंग में जाना पड़ा, उन के स्थान पर दूसरा अध्यापक आ गया। बच्चों को उस ने बताया कि अब से इस कक्षा को वही पढ़ाएगा। हाजरी ली तो एक छात्र ज्यादा। सरदार पकड़ा गया। पूछा गया कि उस का नाम स्कूल में क्यों नहीं है। उस ने बता दिया कि वह फूफाजी के साथ स्कूल आता था। अध्यापक ने उसे कक्षा छोड़ घर जाने को कहा। गुस्से से सरदार की रुलाई फूट पड़ने लगी थी। वह बस्ता उठा कर सीधा दाज्जी के पास मंदिर पहुंचा और एक ओर गुमसुम बैठ गया। दाज्जी का ध्यान गया तो पूछा –आज स्कूल नहीं गया? सरदार का बोल न निकला, मुहँ खुला तो जोरों से रुलाई फूट पड़ी। दाज्जी को समझ नहीँ आया क्या हुआ? सरदार को मुश्किल से चुप कराया गया। फिर दास्तान खुली। दाज्जी ने सिर्फ सरदार का मन समझाने को अध्यापक को खूब गालियाँ दीं। फिर कहा –अब दो दिन बाद दशहरे पर नन्दकिसोर आएगा। दिवाली बाद उस के साथ सांगोद जाना वहाँ वह स्कूल में नाम लिखा देगा।
दिवाली बाद फिर सांगोद आ गए। इस बार मकान बदल गया था। यहाँ भी पहली मंजिल पर रहते। पहली मंजिल पर ही मकान मालिक पत्नी सहित रहते। सरदार उन्हें चाचा-चाची कहता। चाचा ब्राह्मण थे सुबह सुबह बड़ी देर तक भजन गाते गाते पूजा करते। चाची को इशारे कर-कर कर गाते –मैया¡ कबहुँ बढ़ेगी चोटीईईई.... चाची भजन के चलते लगातार कुढ़ती रहती। माँ के पास आ कर शिकायत करती। भौजाई जी¡ आप ही समझाओ, ये भजन मुझे इशारे कर न गाएँ। चाचा सुन लेते। तो जोर से कहते। भौजाई जी¡ मेरी क्या हिम्मत कि इस (चाची) के रहते मैं किसी और को इशारे करूँ?
र बदला तो नदी का घाट भी बदल गया। अब नदी पास थी। माता ब्रम्हाणी का मंदिर के खाडे में हो कर जाना पड़ता। जिस के सामने ही बरांडे के पीछे नदी पर जनाना घाट था। यहाँ पानी बस सरदार की छाती तक आता। सप्ताह में तीन दिन माँ वहाँ कपड़े धोने जाती, सरदार भी साथ जाता। वहीं पानी में खेलता रहता। खेलते-खेलते तैरने का अभ्यास हो लिया। पिता जी मुहँ अंधेरे नदी निकल जाते और सरदार के सोकर उठते-उठते स्नान कर वापस आ जाते। कभी कभी रविवार को जब वे देर से जाते तो सरदार को भी ले जाते। घाट भूतेश्वर के नाम से प्रसिद्ध था। वहाँ इमली के पेड़ और एक शिव मंदिर था। पत्थर फैंक कर कटारे (कच्ची हरी इमलियाँ) गिराने में बहुत मजा आता। उन्हें घर ला कर नमक लगा कर खाते, कभी चटनी बनाते।
स्कूल में यहाँ भी नाम न लिखाया गया। पिता जी का एक विद्यार्थी उसी साल स्कूल में अध्यापक हो कर दूसरी कक्षा को पढ़ा रहा था। उसी कक्षा में सरदार को भेज दिया गया। सर्दियाँ बीतते बीतते होली आ गई। सांगोद में होली के पहले ही न्हाण का हल्ला शुरू हो जाता है। होली पर केवल सूखे रंग खेले जाते। होली के बाद सवारियाँ निकलतीं। सवारियों में तरह-तरह के स्वांग होते। सवारियाँ शाम को भी निकलतीं और सुबह तीन बजे भी। जिस दिन सुबह की सवारियाँ निकलनी होतीं बाजार सारी रात गर्म रहता। गैस लाइट में सवारियोँ की छटा निराली लगती। दूर दूर से लोग देखने आते। कस्बे में भीड़ बनी रहती। दो गुट सवारियाँ निकालते, आधा सांगोद बाजार गुट में और आधा सांगोद खाडे के गुट में। दोनों के बीच कंपीटीशन रहता। खाडे का न्हाण बाद में होता तो वही इक्कीस रहता। उसे देखने खूब भीड़ जुटती। इन दिनों कस्बे में सजे-धजे हिजड़े खूब आते। वे माता ब्रह्माणी को मानते और न्हाण को उस का पर्व मान कर समारोह में खूब नाचते। वे किसी को तंग भी न करते। होली के तेरहवें दिन न्हाण होता। उस दिन पानी का रंग खूब खेला जाता। बच्चों को पिचकारियाँ मिलतीं। बड़े लोग बाल्टियों और ड्रमों में रंगीन पानी भर कर डोलचियों से फेंकते। पिताजी के दोस्त घर आते तो माँ की मरम्मत हो जाती, उसे इतनी डोलचियाँ झेलनी पड़तीं कि उस की पीठ लाल पड़ जाती। आखिर माँ भी डंडा उठा लेती। डोलचियों में भगदड़ मचती वे डोलचियाँ छोड़ भागते। फिर माँ
बारां का बरड़िया बालाजी मंदिरbardyabalaji
उन सब को बुला कर मिठाई-पापड़ियाँ खिलाती। फिर चाय होती।
न्हाण के बाद सारे बच्चे न्हाण की सवारियों करतबों की नकल करने के जुगाड़ करते और अनुकरण में गली-गली में अनेक सवारियाँ निकलने लगतीं। पड़ौस का घर एक लखेरे का था। वहाँ दिन भर लाख की चूड़ियाँ बनतीं और बिकतीं। लखेरे का लड़का बनवारी सरदार का दोस्त हो गया था। उन के एक घोड़ी थी। बनवारी की माँ कहती घोड़ी को पानी दिखा ला। बनवारी घोड़ी को पानी दिखा कर लाता। छोटा सा बनवारी अच्छा घुड़सवार था। सरदार को पानी दिखाना पहेली लगता। वह एक दिन बनवारी के पीछे गया। बनवारी ने घोड़ी नदी किनारे ले जा कर खड़ी कर दी, पानी देख वह पानी की ओर बढ़ी और पेट भर पानी पिया। धीरे-धीरे सरदार भी घोड़ी पर बनवारी के पीछे बैठ पानी दिखाने जाने लगा।
 र्मी होने लगी थी। बच्चे खेल छोड़ इम्तिहान की तैयारियों में जुटे थे। पिताजी के पास भी बहुत बच्चे रात को पढ़ने आते। रात को जलाने को लालटेन साथ लाते। सब छत पर सोते और पिताजी से पढ़ते। बाराँ के मंदिर, दाज्जी और बा की याद सताने लगी थी। इम्तिहान के बाद मई में छुट्टियाँ हो गईं। सब बाराँ आ गए। तभी यह खबर सुन कर सरदार का दिल खुश हो गया कि मामा के यहाँ मनोहरथाना जाना है। मामा जी की इकलौती बटी मुन्नी जीजी का ब्याह है। ब्याह की तैयारियाँ शुरू हो गईं। माँ को और सरदार को नए कपड़े दिलाए गए। नए कपड़ों में एक फुल पेंट भी थी। वह तुरंत उसे पहनना चाहता था। पर माँ ने मना कर दिया। इस से ब्याह तक तो पेंट पुरानी हो जाएगी। पेंट बक्से में बंद हो गई। सरदार पेंट को अपने अंदर रखे बक्से को हसरत से देखता रहता। [अगले मंगलवार भी जारी]

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Monday, June 15, 2009

सिजदा करें, मस्जिद हो या वीराना…

आज कई एकड़ में फैला मक्का का काबा परिसर कभी बहुत संकुचित,संकरा था। 1880 के काबा की तस्वीरnormal_14
वि भिन्न संस्कृतियों में पूजा-अर्चना की अलग-अलग प्रणालियां हैं और आराधना स्थलों के नाम भी अलग अलग हैं। मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद में जाकर ईश वंदना करते हैं। मुस्लिमों की आऱाधना को नमाज़ कहा जाता है। मस्जिद में सभी लोग एक साथ पश्चिम की ओर मुंह कर नमाज़ पढ़ते हैं क्योंकि इस्लाम धर्म का सबसे पवित्र तीर्थ मक्का उसी दिशा में है।
स्जिद का मतलब होता है जहां जाकर ईश्वर की आराधना की जा जाए। यह शब्द बना है अरबी ज़बान के शब्द सज्दा (सज्दः) से जिसे हिन्दी में सिजदा भी कहा जाता है। सिजदा का अर्थ होता है झुक कर अभ्यर्थना करना। भारतीय संस्कृति में जिसे दंडवत कहते हैं दरअसल सिजदा में वही भाव है। यह उपासना की वही पद्धति है जिसमें माथा, नाक, घुटना, कुहनियां और पैरों की अंगुलियां ज़मीन को छूती हैं।  यह बना है अरबी भाषा की धातु स-ज-द ( s-j-d) से जिसमें प्रार्थना करने, घुटनों के बल झुकने, नमने या दंडवत करने का भाव है। अरबी भाषा का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है जिसमें सहित या शामिल का भाव होता है। लगने से सज्दा (सज्दः) बनता है मसजिद जिसका मतलब है प्रार्थना स्थल या इबादतगाह। जहां सज्दः या सिजदा होता है उसे ही मसजिद कहते हैं। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक मूल रूप से यह धातु सेमिटिक परिवार की आरमेइक भाषा से आती है जिसमें पवित्र स्तम्भ (पूज्य लक्ष्य) और आराधना दोनो ही भाव हैं।
गौर करें कि इस्लाम से पहले से ही समूचे अरब समुदाय के विभिन्न कबीलों में मक्का को पवित्र स्थान का दर्जा मिला हुआ था।  प्रतिवर्ष यहां की धार्मिक यात्रा करने की परम्परा इस्लाम से भी पहले से रही है। अरबी कबीलो में बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का बोलबाला था। लगभग सभी समुदायों में पूजित देवी-देवताओं का स्थान मक्का में काबा का पवित्र स्तम्भ या शिलाएं (मूर्तियां) ही थी।  कहा जाता है कि इस्लाम की स्थापना के बाद इन प्रतिमाओं को खंडित किया गया। मगर जहां ये रखी हुई थीं, उसी स्थान पर आज भी वह स्तम्भ है और प्रतिवर्ष इसी स्थान की यात्रा के लिए दुनियाभर से लोग आते हैं। पैगम्बर की मर्जी से यह परम्परा चल रही है। सिजदा से जुड़े कुछ अन्य शब्दों से भी हिन्दीभाषी परिचित हैं जैसे सज्जादानशीं। सभी प्रसिद्ध दरगाहों के पदाधिकारियों के उल्लेख के संदर्भ में यह शब्द आता है। इसका मतलब होता है किसी पंथ के नेता का वारिस या गद्दीनशीं

…नस्ली घ्रणा के चलते भी कई भाषाई दुराग्रह पनपते हैं। पश्चिमी विश्व में मस्जिद की एक मज़ाकिया व्युत्पत्ति भी बताई जाती है कि इसका मूल स्पेनिश शब्द मोस्किटो है…400000000000000035826_s4 islam copy

मुसलमानों में एक नाम होता है सज्जाद जिसका रिश्ता भी इससे ही है। सज्जाद वह है जो बहुत अधिक सज्दे करता हो। जाहिर है सज्दा ईश्वर के लिए ही किया जाता है सो सज्जाद में धार्मिक होने का गहन भाव है। सज्दा करने की जगह को सज्दागाह भी कहते हैं।
सजिद को इबादतगाह भी कहते हैं जो बना है अरबी के इबादा से। जिसका अर्थ होता है प्रार्थना स्थल, पूजा स्थल। इबादा बना है अरबी धातु अब्द से जिसका अर्थ होता है सेवक, चाकर, भक्त आदि। इससे ही बना है इबादा जो अब्द का बहुवचन भी है और क्रिया भी अर्थात इसमें सेवको, भक्तों के भाव के साथ साथ प्रार्थना, पूजा, सेवा और तपस्या आदि भाव भी शामिल है। फारसी में यह इबादत का रूप लेता है। मुसलमानों में आबिद और आबिदा नाम होते हैं जो इसी कड़ी से जुड़े हैं। आबिद यानी तपस्वी, आराधक और आबिदा यानी तपस्विनी, आराधिका। इबादतगाह को इबादतखाना भी कहते हैं जिसमें मंदिर, मसजिद, गिरजा आदि तमाम उपासनागृह आ जाते हैं। अलबत्ता मसजिद एक धर्म विशेष का प्रार्थनास्थल होती है।
अंग्रेजी का मौस्क शब्द मसजिद का पर्याय है। पश्चिमी दुनिया में खासतौर पर ईसाई जगत में मौस्क की व्युत्पत्ति मस्किटो अर्थात मच्छर से बताई जाती है। इसके पीछे जो वजह है वह बडी दिलचस्प है। पंद्रहवी सदी में जब स्पेन पर मुस्लिमों ने धावा किया तब वहां के राजा फर्डिनेंड और रानी ईसाबेला ने शेखी बघारी थी कि उनकी फौजों ने मुस्लिम पूजा-स्थलों को मच्छरों mosquito की तरह कुचल डाला। यह सिर्फ नस्ली घ्रणा से उपजा भाषायी परिहास है, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। जिस दौर में स्पेन पर फर्डिनेंड का शासन था, ईस्लाम उससे भी पहले वहां पहुंच चुका था और मसजिदें भी बन चुकी थीं। अरबी मसजिद का स्पेनी रूपांतर मेज़किता mezquita था जो पुरानी स्पेनी के मेसकिटा mesquite से बना था। अंग्रेजी का mosque  फ्रेंच शब्द mosquee का रूपांतर है जो उसने इतालवी के मोस्चेटा moscheta से ग्रहण किया। विद्वानों का मानना है कि संभव है इतालवी ने इसे सीधे अरबी के मसजिद से लिया हो या फिर यह स्पेनी के मेसकिटा से आया हो।
गौरतलब है कि अरब के बहुत से भाषायी क्षेत्र का उच्चारण करते हैं खासतौर पर पश्चिमी अरबी क्षेत्र जिसमें मिस्र आता है। यह परिवर्तन बहुत स्वाभाविकता से हो जाता है। जैसे पश्चिमी अरबी में अरबी मूल का जमाल हो जाएगा गमाल। यूरोपीय भाषाओं में जितने भी अरबी मूल के शब्द गए हैं वे ज्यादातर बरास्ता इजिप्ट ही गए हैं। ऊंट को अरबी में जमल कहते हैं। इजिप्शियन में यह बनता है गमल और फिर जब ये फ्रैंच, स्पेनी या इतालवी में पहुंचता है तो कैमल हो जाता है। इसी तरह मसजिद शब्द इजिप्शियन में अपने आप मसगिद हो जाता है। जाहिर है कि पुरानी स्पैनिश में मसजिद के लिए जो मेसकिटा शब्द बना वह मिस्री प्रभाव वाले मसगिद से  ही बना होगा।

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Sunday, June 14, 2009

टाटा के सपने का जन्म

 logo_thumb[7] इस बार टाटा घराने के पुरोधा जमशेतजी नसरवानजी टाटा की प्रसिद्ध जीवनी फॉर द लव ऑफ इंडिया (हिन्दी अनुवाद) की चर्चा जिसे लिखा है रुसी एम लाला ने। अनुवाद किया है कामता प्रसाद ने। पस्तक राजकमल ने प्रकाशित की है और कीमत 300 रुपए है। scan0005 Copy of scan0005 जमशेद जी की युवावस्था के दो चित्र जब वे यूरोप प्रवास पर थे। 

भा रत के सबसे पुराने और सम्मानित औद्योगिक घरानों में टाटा का स्थान अव्वल है। टाटा उद्योग की नींव जमशेतजी नसरवानजी टाटा ने डाली थी जिनका जन्म करीब 170 साल पहले 1839 में हुआ था। जाने-माने लेखक और पत्रकार रूसी एम. लाला ने लिखी जेएन टाटा की जीवनी फॉर द लव ऑफ इंडिया का हिन्दी अनुवाद भारत से प्यार करीब तीन साल पहले आया था। पिछले साल यह पुस्तक हम तक पहुंची और इस साल पढ़ कर समाप्त किया।
जीवनियों की सबसे बड़ी खासियत होती है शोध। आर.एम. लाला का पत्रकार होना इस पुस्तक को टाटा घराने के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की शक्ल तो देता ही है साथ ही करीब दो सदी पुराने भारत के सामाजिक, राजनीतिक इतिहास से भी परिचित कराता है। सामान्यतः बड़े लोगों, खासतौर पर उद्योगपतियों की जीवनियां शून्य से शिखर जैसे जुमलों से शुरू होती हैं। लाला ने ऐसी किसी अत्युक्ति का प्रयोग पुस्तक में नहीं किया  है। जमशेतजी टाटा ने अपने जीवन की शुरुआत शून्य से नहीं की थी। उनके पिता नसरवानजी टाटा अपने बेटे के युवा होने से पहले ही मुंबई आ गए थे। वे पारसी समुदाय के उन बिरले उद्यमियों में थे जिन्होंने अठारहवीं सदी के मध्यकाल में ही अपना व्यापार विदेशों तक पहुंचा दिया था। मूलतः वे गुजरात के नवसारी शहर के रहने वाले थे। जेएन टाटा का जन्म भी वहीं हुआ था। मुंबई आने के बाद नसरवानजी ने अफीम और कॉटन के निर्यात का काम शुरू किया जिसे वे पूर्वी देशों, खासतौर पर चीन को भेजा करते थे। आज से डेढ़ सौ साल पहले उनकी फर्म का शंघाई में दफ्तर था जिसे खोलने के लिए खुद जेएन टाटा वहां गए थे।
किताब में पारसी समुदाय की रस्मों, रिवाज़ों, उनके अतीत का रोचक बयान है। छह हजार वर्ष पुराने पारसी समुदाय के उद्गगम स्रोत की ओर scan0002इशारा करते हुए लेखक प्राचीन अग्निपूजक आर्यों की समृद्ध परम्परा से पारसियों को जोड़ते हुए, वैदिक आर्यों से उनके रिश्तों को याद करते हैं। तीन हजार साल तक विशाल फारसी साम्राज्य पर जरथुस्त्रवादी शासकों ने सन् 651 ईस्वी तक राज किया। इस्लामी जागरण के बाद नवोदित धर्म के उत्साही, उग्र और क्रूर शासकों ने महान पारसी समाज-संस्कृति को उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी। तंग आकर इनके कुछ समूह चीन की तरफ गए, मगर वहां वे अपनी पहचान कायम न रख पाए। अधिकांश समूह छोटे-छोटे बेड़ों में समुद्र के रास्ते भारत के पश्चिमी तट पर उतरे। यहां ये पारसी कहलाए। सूरत और नवसारी इनके शुरुआती गढ़ बने। गायकवाड़ रियासत का नागक्षेत्र उन्हें ईरान के ‘सारी’ शहर की याद दिलाता था, सो उसे वे नवसारी कह कहते रहे, बाद में यही इसकी पहचान बन गया। गुजरात में सबसे ज्यादा पारसी आज भी नवसारी में ही रहते हैं। उसके बाद मुंबई में  सर्वाधिक हैं। भारत में पारसियों ने अपनी सांस्कृतिक-जातीय पहचान कायम रखते हुए जो तरक्की की है, वह दुनियाभर में मिसाल है। पारसियों की नब्बे फीसद आबादी भारत में निवास करती है।
मुंबई में रहते हुए नसरवानजी ने अपने पुत्र को अंग्रेजी शिक्षा दिलाई जिसका व्यापारिक महत्व वे जान चुके थे। जेएन टाटा पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए जहां चार साल बिताए। दादा भाई नौरोज़ी जैसे राष्ट्रवादियों से उनकी तभी मैत्री हुई। जमशेतजी के ज़माने के बारे में लाला की लिखी ये पंक्तियां गौरतलब हैं- “तब समुद्र में जलयान तैरा करते थे और ज़मीन पर घोड़े और बैलगाड़िया आदमी और सामान को इधर से उधर ले जाया करते थे। बाद में भाप से चलनेवाले जहाज़ आए। जब वे नौ साल के थे तब दक्षिणी ध्रुव की खोज हुई। जब वे सत्रह साल के थे तब 1856 में बेस्सेमर ने इस्पात बनाने की क्रान्तिकारी प्रक्रिया खोज निकाली थी।” लंदन के लंकाशायर की एक सभा में प्रसिद्ध विचारक, साहित्यकार टामस कार्लाइल को उन्होंने यह कहते सुना, “वह राष्ट्र जिसके पास इस्पात है, समझो उसके पास सोना है।” यहीं से टिस्को की स्थापना के सपने ने जन्म लिया। पुस्तक मे टिस्को खोलने की उनकी लगन का महत्वपूर्ण बयान है।
ताज्जुब नहीं कि स्वप्नदर्शी युवा जेएन टाटा ने लंदन से लौटकर अपने सपनों को साकार करने की शुरुआत कर दी। उन्होने एक पुरानी ऑईल मिल खरीद कर उसे कपड़ा मिल में बदल दिया। यह चिंचपोकली में वहां थी जहां आज रेसकोर्स है। मिल का नाम रखा गया अलेक्जेंड्रा मिल। उसके कुछ समय बाद उन्होने नागपुर में एम्प्रेस कॉटन मिल लगाई जो अपने जमाने की मशहूर मिल थी। उसके बाद तो मिलें खरीदने, बेचने का क्रम चलता रहा।  जमशेत जी में एक बड़ा गुण था जो आज के उद्यमियों में शायद दुर्लभ है। वे  जबर्दस्त
scan0003 एक पारिवारिक चित्र- जेएन टाटा और उनकी पत्नी हीराबाई। साथ हैं छोटा पुत्र रतन टाटा। पीछे हैं बड़े बेटे दोराबजी अपनी पत्नी मेहर के साथ। बाईं और खड़ी हैं रतन की पत्नी नवाज़ बाई
विद्याव्यसनी थे। कुछ ऐसी ही बात बिड़ला घराने के पुरोधा घनश्यामदास बिड़ला में भी थी।
भारत में नई तकनीक लाने वाले अग्रणी लोगों में वे थे। कपास की बेहतर किस्म और पैदावार के लिए वे मिस्र गए क्योंकि इजिप्शियन कॉटन दुनियाभर में मशहूर है। कॉफी और रेशम की खेती में उन्होंने दिलचस्पी ली और बेंगलूर में इसके लिए संस्थान खोले। मुंबई से उन्हें बहुत प्यार था। बहुत कम जानते हैं कि इस शहर के उपनगरीय विकास के लिए उन्होने ऐसे वक्त में परिकल्पना कर डाली जब इस बारे में अंग्रेज भी नहीं सोच रहे थे। वर्ली जैसे इलाकों को शामिल करते हुए इसमें यूरोपीय शहरों की तर्ज पर विकसित करने की बात शामिल थी, जहां अक्सर वे जाते रहे थे। आज से सौ बरस पहले वह मुंबई साकार होने लगी थी। उनका राष्ट्रप्रेम लगातार चर्चा में रहता था। उन्हें अंग्रेजों से चिढ़नेवाला समझा जाता था। अपने मित्र सर जार्ज बर्डवुड  को उन्होने एक पत्र में लिखा था-अंग्रेजों की  प्रत्येक चीज़ से मेरी चिढ़ का जहां तक सवाल है, यह कपोल कल्पना है….पर मैं आपको बता दूं कि क्या आप मुझसे यह घोषणा कराना चाहते हैं कि पुराने वक्त के राजाओं की तरह अंग्रेज भी कभी गलती नहीं करते? 
भारत के भविष्य के लिए राजनीति और शिक्षा में भी उनकी गहन रुचि रही। बैंगलूर का इंडियन इन्स्टीट्यूट आफ साइंस उनके महान सपनों में एक रहा जिसकी स्थापना के लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन से खटपट चलती रही पर आखिरकार उसे मंजूरी देनी ही पड़ी। जहां से कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिक निकले। मुंबई का विश्वप्रसिद्ध ताजमहल होटल, जमशेदपुर का स्टील कारखाना उनके समय में ही बन चुके थे हालांकि इनकी शुरुआत और जबर्दस्त कामयाबी देखने के लिए उनकी उम्र के खाते में और वक्त नहीं बचा था। आरएएम लाला की लिखी यह किताब टाटा घराने के पुरोधा के जीवन का महत्वपूर्ण लेखा-जोखा है। महान लोग अपने समय से कितना आगे की सोचते हैं, इस दस्तावेज के जरिए उनकी मृत्यु की एक सदी बाद यह जानना बहुत दिलचस्प और आश्चर्यजनक लगता है। मौका मिले तो जरूर पढ़ें।

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Saturday, June 13, 2009

श्रीमान-श्रीमती के बीच नारीवादी विमर्श…

करीब तीन माह पहले (11 मार्च को) अनूप सुकुलजी अचानक हमारी चैट खिड़की में नमूदार हुए और सवाल दागा कि श्रीमति सही है या श्रीमती और इसका मतलब क्या है। उस बहाने करीब दो ढ़ाई मीटर लंबी चैट हो गई थी जिसे उन्होने लेख की शक्ल देने की बात कही थी। आज लिखने का मूड नहीं था सो उसी चैट से सवाल जवाब हटा कर, थोड़ा तराश कर लेख की शक्ल में यहां पेश कर रहे हैं। इसे निठल्ल चिंतन कह सकते हैं.-अजित
भा रत में श्री, श्रीमान और श्रीमती शब्दों का सामाजिक शिष्टाचार में बड़ा महत्व है। आमतौर श्री, श्रीमान शब्द पुरुषों के साथ लगाया जाता है और श्रीमती महिलाओं के साथ। इसमें पेच यह है कि श्री और श्रीमान जैसे विशेषण तो वयस्क किन्तु अविवाहित पुरुषों के साथ भी प्रयोग कर लिए जाते हैं, किंतु श्रीमती शब्द सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के साथ ही इस्तेमाल करने की परम्परा है। अविवाहिता के साथ सुश्री शब्द लगाने का प्रचलन है।
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समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को श्रीमान कहा गया है। इसलिए वे श्रीपति हुए। इसीलिए श्रीमत् हुए।
हां परम्परा शब्द का इस्तेमाल हमने इसलिए किया है क्योंकि श्रीमती शब्द में कहीं से भी यह संकेत नहीं है कि विवाहिता ही श्रीमती है। संस्कृत के “श्री” शब्द की विराटता में सबकुछ समाया हुआ है मगर पुरुषवादी समाज ने श्रीमती  का न सिर्फ आविष्कार किया बल्कि विवाहिता स्त्रियों पर लाद कर उन्हें  “श्रीहीन”कर दिया। संस्कृत के “श्री” शब्द का अर्थ होता है लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि। सत्ता, राज्य, सम्मान, गौरव, महिमा, सद्गुण, श्रेष्ठता, बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत, जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है। भगवान विष्णु को श्रीमान या श्रीमत् की सज्ञा भी दी जाती है। गौरतलब है कि “श्री” स्त्रीवाची शब्द है। उपरोक्त जितने भी गुणों की महिमा “श्री” में है, उससे जाहिर है कि सारा संसार “श्री” में ही आश्रय लेता है। अर्थात समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को श्रीमान कहा गया है। इसलिए वे श्रीपति हुए। इसीलिए श्रीमत् हुए। भावार्थ यही है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त हैं।
प्रश्न यह है कि जब “श्री” के होने से भगवान विष्णु श्रीमान या श्रीमत हुए तो फिर श्रीमती की क्या ज़रूरत है? “श्री” से बने श्रीमत् का अर्थ हुआ ऐश्वर्यवान, धनवान, प्रतिष्ठित, सुंदर, विष्णु, कुबेर, शिव आदि। यह सब इनके पास पत्नी के होने से है। पुरुषवादी समाज ने श्रीमत् का स्त्रीवाची भी बना डाला और श्रीमान प्रथम स्थान पर विराजमान हो गए और श्रीमती पिछड़ गईं। समाज यह भूल गया कि “श्री” की वजह से ही विष्णु श्रीमत हुए। संस्कृत में एक प्रत्यय है वत् जिसमें स्वामित्व का भाव है। इसमें अक्सर अनुस्वार लगाय जाता
...क्या किसी वयस्क के नाम के साथ श्रीमान, श्री, श्रीमंत या श्रीयुत लगाने से यह साफ हो जाता है कि उसकी वैवाहिक स्थिति क्या है...
है जैसे बलवंत। इसी तरह श्रीमत् भी श्रीमंत हो जाता है। हिन्दी में यह वंत स्वामित्व के भाव में वान बनकर सामने आता है जैसे बलवान, शीलवान आदि। स्पष्ट है कि विष्णु श्रीवान हैं इसलिए श्रीमान हैं।
मारी आदि संस्कृति मातृसत्तात्मक थी। उसमें सृष्टि को स्त्रीवाची माना गया है, उसे ही समृद्धि का स्रोत माना गया है। वह वसुधा है, वह पृथ्वी है। वह हिरण्यगर्भा है। लक्ष्मी के योग के बिना विष्णु श्रीमान हो नहीं सकते, श्रीपति कहला नहीं सकते। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। “श्री” और श्रीमान शब्द अत्यंत प्राचीन हैं। इनमें मातृसत्तात्मक समाज का स्पष्ट संकेत है। विष्णु सहस्रनाम के विद्वान टीकाकार पाण्डुरंग राव के अनुसार समस्त सृष्टि में स्त्री और पुरुष का योग है। श्रीमान नाम में परा प्रकृति और परमपुरुष का योग है। मगर इससे “श्री” की महत्ता कम नहीं हो जाती। आज विवाहिता स्त्री की पहचान श्रीमती से जोड़ी जाती है उसके पीछे संकुचित दृष्टि है। विद्वान लोग तर्क देते हैं कि श्रीमान की अर्धांगिनी श्रीमती ही तो कहलाएंगी। विडम्बना है कि श्रीमानजी यह भूल रहे हैं कि वे खुद श्रीयुत होने पर ही श्रीमान कहलाने के अधिकारी हुए हैं।
श्री तो स्वयंभू है। “श्री” का जन्म संस्कृत की श्रि धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे “श्री” कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए,

... किसी भी स्त्री को सिर्फ श्रीमान नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा “श्री” और “सुश्री”  में कोई गड़बड़ी नहीं है। मांग के सिंदूर की तरह किसी स्त्री के नामोल्लेख में उसकी वैवाहिक स्थिति जानना इतना ज़रूरी क्यों है?...man_beer_woman_267195

जिसके गर्भ से सब जन्मे हों। सर्वस्व जिसका हो। अब ऐसी “श्री” के सहचर श्रीमान कहलाएं तो समझ में आता है मगर जिस “श्री” की वजह से वे श्रीमान हैं, वह स्वयं श्रीमती बन जाए, यह बात समझ नहीं आती। तुर्रा यह की बाद में पुरुष ने “श्री” विशेषण पर भी अधिकार जमा लिया। अक्लमंद सफाई देते हैं कि यह तो श्रीमान का संक्षिप्त रूप है। तब श्रीमती का संक्षिप्त रूप भी “श्री” ही हुआ। ऐसे में स्त्रियों को भी अपने नाम के साथ “श्री” लगाना शुरु करना चाहिए, क्योंकि वे ही इसकी अधिकारिणी हैं क्योंकि श्री ही स्त्री है और इसलिए उसे लक्ष्मी कहा जाता है। पत्नी या भार्या के रूप में तो वह गृहलक्ष्मी बाद में बनती है, पहले कन्यारूप में भी वह लक्ष्मी ही है।  
धर कुछ दशकों से कुमारिकाओं या अविवाहिता स्त्रियों के नाम के साथ सुश्री शब्द का प्रयोग शुरू हुआ है। अखबारों में गलती से भी कोई साथी किसी महिला की वैवाहिक स्थिति ज्ञात न होने पर उसके नाम के साथ सुश्री शब्द लगाना चाहता है तो वरिष्ठ साथी तत्काल रौब दिखाते हैं- मरवाएगा क्या? शादीशुदा निकली तो? हालांकि भारत में श्रीमती और सुश्री जैसे संबोधनो-विशेषणों से वैवाहिक स्थिति का पता आसानी से चलता है और इस रूप में ये सुविधाजनक भी हैं किन्तु इनके पीछे की सच्चाई जानना भी ज़रूरी है। किसी भी स्त्री को सिर्फ श्रीमान नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा “श्री” और “सुश्री”  में कोई गड़बड़ी नहीं है। मांग के सिंदूर की तरह किसी स्त्री के नामोल्लेख में उसकी वैवाहिक स्थिति जानना इतना ज़रूरी क्यों है? जब कि किसी प्रौढ़ या वयस्क पुरुष के नामोल्लेख में श्रीमान, श्रीयुत, श्रीमंत या श्री आदि कुछ भी लगाइये तब भी यह पता लगाना असंभव है कि मान्यवर की वैवाहिक स्थिति क्या है। किसे धोखा दे चुके हैं, किसे जला चुके हैं, किसे भगा चुके हैं, किससे बलात्कार कर चुके हैं....कुछ भी तो पता नहीं चलता। फिर श्रीमती के लिए आग्रह क्यों ?
रीब बीस वर्ष पहले गायत्री परिवार की तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रीराम शर्मा की पत्नी भगवतीदेवी शर्मा जयपुर आईं थीं। मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला। अपनी अखबारी रिपोर्ट में मैनें हर बार उनका उल्लेख श्री माताजी के तौर पर ही किया। इसे मैने बहुत साधारण समझा मगर बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे ऐसा लिखने से वे प्रसन्न थीं जबकि अन्य समाचार पत्रों में श्रीमती शब्द का प्रयोग भी बहुधा हुआ।

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Friday, June 12, 2009

प्रेमलता और इश्क के पेचो-ख़म…

...मंजिलें यूं ही नहीं होतीं हासिल ...
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मा नवीय भावनाओं में प्रेम ( ishq  )का दर्ज़ा सबसे ऊंचा बताया गया है। दुनियाभर की संस्कृतियों में जितने तरह के पंथ प्रचलित हैं वे सभी प्रेममार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। आमतौर पर प्रेम को स्त्री-पुरुष के संदर्भ में ही जाना-पहचाना जाता है। अपने इस रूप में प्रेम समाज में हमेशा अस्वीकार्य रहा है, विवाद का विषय रहा है, क्योंकि प्रेम का दायरा अत्यंत व्यापक है। ये सारी सृष्टि प्रेमतत्व की वजह से ही जन्मी है और इसके असर से ही कायम है। प्रेम वह रसायन है जो द्वैतभाव को मिटाकर एकत्व के यौगिक रचता है। यह एकत्व ही सृष्टि के विस्तार का मूल भी है। विभिन्न व्याख्याओं में यही बात उभरती है कि प्रेम वह भाव है जिसमें अपने इष्ट की चाह
 single_yellow_rose...प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो नहीं सकताप्रेम में लगाव के साथ समष्टिभाव है, समभाव है ...
में खुद के अस्तित्व को विस्मृत कर देना, विलीन कर देना अनिवार्य है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ने देश भर के जनमानस में प्रेम का राग पैदा कर दिया था। इस राग में सूफियाना कलामों की जुगलबंदी शामिल थी।
नुष्य ने भी प्रेम प्रकृति से ही सीखा है। निसर्ग के कण कण में पल पल चल रहे क्रियाकलापों को उसने देखा और प्रेमतत्व का ज्ञान पाया। सूरज-चांद का उगना-अस्त होना, रात और दिन का होना, कीट-पतिंगों का फूलों और रोशनी से लगाव और लता-वल्लरियों की वृक्षों से जुगलबंदी को उसने समझा और इस तरह जाना प्रेम का अर्थ और उस की पराकाष्ठा। हिन्दी में प्रेम के अर्थ में इश्क-मोहब्बत जैसे शब्द खूब प्रचलित हैं और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग होता रहा है। ये दोनों शब्द सेमिटिक भाषा परिवार के हैं। इश्क बना है सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) से जिसमें समर्पण, लगाव,लिपटना, चाहत या प्रेम करना जैसे भाव हैं। सेम की फली से मिलती जुलती एक वल्लरी या बेल होती है जो पेड़ के तने से लिपट कर ऊपर चढ़ती है, जिसे अरबी में आशिका कहते हैं। इस इश्क के दार्शनिक अर्थ अरबी संस्कृति ने यहीं से ग्रहण किए। आशिका जिस पेड़ का आधार लेकर ऊपर बढ़ती है और फलती है,
"…इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है… "Rumicard
बाद में वह सूख जाता है। मतलब यही है कि प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो ही नहीं सकता। प्रेम में समष्टिभाव है, समभाव है। दो के बीच लगाव हो सकता है, पर प्रेम की पूर्णता इसी में है कि दोनों में से कोई एक खुद को दूसरे में विलीन कर दे। आशिका से ही बना इश्क जिसके मायने हुए प्रेम। इस प्रेम में दैहिक अनुराग न होकर प्रकृति के साथ समभाव स्थापित करने की बात है।
प्रेम के मूल में प्रकृति का आधार बनना यूं ही नहीं है। आशिका नाम की जिस बेल के नाम में प्रेम के बीज छुपे हैं, अरबी में इसका एक नाम लिब्लाब है जबकि फारसी में इसे इश्क-पेचां कहते हैं। इश्क-पेचां यानी प्रेम की बेल। गौर करें, यहां लक्षणा नहीं बल्कि व्यंजना ही प्रमुख है और तात्पर्य सेमफली की बेल से ही है। संस्कृत का वल्लरी शब्द ही हिन्दी के बेल शब्द का मूल है। बेल की प्रकृति वलय बनाते हुए ऊपर चढने की होती है। वलय यानी छल्ला, घुमाव, ऐंठन आदि। पेच का मतलब बल भी होता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि दानिशमंद आशिको-माशूक को इश्क के पेचो-ख़म से आग़ाह करते रहते हैं। क्योंकि ये इश्क नहीं आसान। ये पेच इसीलिए हैं क्योंकि प्रेम की बेल जब परवान चढ़ती है तो उसमें न जाने कितने घुमाव आते हैं। प्रेम वल्लरी वृक्ष को अपने पाश में पूरी तरह जकड़ते हुए शीर्ष की ओर बढ़ती है। तब वृक्ष को भी अपनी विशालता का गर्व नहीं रहता क्योंकि इश्क (आशिका) सिर चढ़ कर बोल रहा होता है। आखिरकार वृक्ष को अपने अस्तित्व का गुमान छोड़ना पड़ता है। भारतीय साहित्य में भी प्रेम के संदर्भ में आशिका अर्थात वल्लरी की उपमाएं हैं। प्रेम-लता, प्रेम-वल्लरी जैसे शब्द-प्रतीक महज़ यूं ही नहीं आ गए हैं। इसे अरबी प्रभाव भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान में अरबी भाषा के फैलने का समय सातवी-आठवी सदी से शुरू होता है जबकि प्रेम-लता या प्रेम-वल्लरी शब्द संस्कृत साहित्य में पहले से रहे हैं। जाहिर है प्राचीनकाल में मनुष्य का प्रकृति से गहरा तादात्म्य था और अलग-अलग समाजों में इसी वजह से विभिन्न लक्षणों के आधार पर बने शब्दों की अर्थवत्ता भी एक सी रही है। भाषा विज्ञानियों ने इश्क शब्द के भारोपीय संदर्भ भी ढूंढे हैं।भारत हो या अरब, पेड़ पर बेल के चढ़ने का अंदाज़ तो एक ही होगा!! मीरा बाई का एक पद है- अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बीज बोई।। अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई।।
सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) ही स्थूल अर्थों में प्रेमी के लिए आशिक और प्रेमिका के लिए आशिका शब्दों का मूल है।इसी तरह माशूक और माशूका शब्द भी हैं। आशिक का अर्थ जहां प्रेमी होता है वहीं आशिक का लक्ष्य माशूका है अर्थात प्रेमपात्र के लिए माशूका सम्बोधन है। इसी तरह आशिका के लिए माशूक लक्ष्य है अर्थात प्रेमपात्र है। प्रेम में अपने लक्ष्य को पाने का प्रयत्न और उसकी प्राप्ति अनिवार्य है। सूफ़ी पंथ में इश्क के दार्शनिक अर्थ ही प्रमुख हैं जिसमें दो स्वरूप प्रमुख हैं एक इश्के-मजाज़ी यानी सांसारिक प्रेम, भौतिक प्रेम, प्राणियों से प्रेम। दूसरा, इश्के-हक़ीक़ी यानी आध्यात्मिक प्रेम, परमात्मा की भक्ति। प्रेमियों की भांति बर्ताव ही आशिकाना रुख कहलाता है जबकि प्रेमपात्र की तरह व्यवहार माशूकाना कहलाता है। प्रेमी सब कुछ निछावर करने पर आमादा रहता है फिर भी माशूक के लिए नाज़ो-अंदाज़ और नखरा दिखाना लाज़मी है क्योंकि मंजिल यूं ही हासिल नहीं होतीं। इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है।
बीर ने अपनी बानी में प्रेम-गली की बात कही है। महान शायर इब्ने-इंशा ताउम्र चांद पर फिदा होकर कभी चांदनगर और कभी प्रेमनगर की बात करते रहे। प्रेमीजन अक्सर प्रेमनगर की कल्पना करते हैं जहां वे प्यार के नग़में गाते रहें। तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्काबाद है जिसे वहां के लोग इश्काबाद [अर्थात प्रेमनगर] से बना हुआ मानते हैं मगर भाषाविज्ञानियों और इतिहासकारों ने उनके इस खूबसूरत से भरम को तोड़त हुए साबित किया कि राजधानी का नाम अश्काबाद इश्क से नहीं बल्कि हैलेनिक दौर के शासक अर्शक (ग्रीक अर्सेसस) के नाम से बना है जो ईसा से दो सदी पहले इस क्षेत्र का शासक था।  [भारोपीय भाषा परिवार के संदर्भों के साथ सफ़र में आगे भी हैं इश्क़िया रंग। यहां देखें]
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