Monday, May 31, 2010

आलूबड़ा और बड़ का पेड़…

VADA
भा रतीय शैली के व्यंजनों में एक बेहद आम शब्द है-बड़ा। उत्तर भारत में यह बड़ा के रूप में प्रचलित है तो दक्षिण भारत में यह वड़ा कहलाता है। इसके वडा और वड़ी रूप भी प्रचलित हैं। इस नाम वाले कितने ही खाद्य पदार्थ प्रचलित हैं मसलन मिर्चीबड़ा, भाजीबड़ा, पालकबड़ा, मूंगबडी, मिर्चबड़ा या बटाटा वड़ा वगैरह । इसी तरह दक्षिण भारत में वड़ासांभर, दालवड़ा या वड़ापाव मशहूर हैं। गौरतलब है कि इस बड़ा या वड़ा में न सिर्फ रिश्तेदारी है बल्कि बाटी और सिलबट्टा जैसे शब्द भी इनके संबंधी हैं। संस्कृत का एक शब्द है वट् जिसके मायने हैं घेरना, गोल बनाना, या बांटना-टुकड़े करना। गौर करें वटवृक्ष के आकारपर। इसकी शाखाओं का फैलाव काफी अधिक होता है और दीर्घकाय तने के आसपास की परिधि में काफी बड़ा क्षेत्र इसकी शाखाएं घेरे रहती हैं इसीलिए इसका नाम वट् पड़ा जिसे हिन्दी में बड़ भी कहा जाता है।

वट् से बने वटक: या वटिका शब्द के मायने होते हैं गोल आकार का एक किस्म का खाद्य-पिण्ड जिसे हिन्दी में बाटी bajji-2कहा जाता है। इसे रोटी का ही एक प्रकार भी माना जाता है। वटिका शब्द से ही बना टिकिया शब्द। संस्कृत वटक: से बड़ा का विकासक्रम कुछ यूं रहा वटक> वटकअ > बड़अ > वड़ा या बड़ा। का अपभ्रंश रूप हुआ वड़अ जिसने हिन्दी  मे बड़ा और दक्षिण भारतीय भाषाओं में वड़ा का रूप लिया। वट् से ही विशाल के अर्थ में हिन्दी में बड़ा शब्द भी प्रचलित हुआ। अब आते हैं खलबत्ता या सिलबट्टा पर। ये दोनों शब्द भी वट् से ही बने हैं। औषधियों, अनाज अथवा मसालों को कूटने - पीसने के उपकरणों के तौर पर प्राचीनकाल से आजतक खलबत्ता या सिलबट्टा का घरों में आमतौर पर प्रयोग होता है। हिन्दी में खासतौर पर मराठी में खलबत्ता शब्द चलता है्। यह बना है खल्ल: और वट् से मिलकर। हालाँकि मराठी का बत्ता वट से कम और अरबी के बत्तः से बना ज्यादा तार्किक लगता है। हिन्दी का बट्टा ज़रूर वटक से बनता नज़र आ रहा है।  संस्कृत में खल्ल: का मतलब है चक्की, गढ़ा। हिन्दी का खरल शब्द भी इससे ही बना है। वट् का अर्थ यहां ऐसे पिण्ड से है जिससे पीसा जाए। यही अर्थ सिलबट्टे का है। सिल शब्द बना है शिला से जिसका अर्थ पत्थर, चट्टान या चक्की होता है। जाहिर है पत्थर की छोटी सिल्ली पर बट्टे से पिसाई करने के चलते सिलबट्टा शब्द बन गया। [संशोधित पुनर्प्रस्तुति]
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Sunday, May 30, 2010

कुंदन जैसी आवाज वाले सहगल

logo_thumb[20] ... इस बार पुस्तक चर्चा कर रहे हैं सोलह वर्षीय अबीर जो भोपाल के केन्द्रीय विद्यालय में 12वीं कक्षा के छात्र हैं। इतिहास, भूगोल में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। मानचित्र-पर्यटन के शौकीन हैं। पिछले साल भी उन्होंने शब्दों का सफर के लिए पुस्तक समीक्षा की थी। इस बार  भी जब वे हमारे संग्रह से शरद दत्त की पुस्तक-कुंदनलाल सहगल पढ़ रहे थे, हमने सफर के लिए उनसे समीक्षा की मांग रख दी थी।

पंजाब से आया हुआ एक नौजवान कोलकाता के गली कूचों की ख़ाक छान रहा था। संयोग से उसकी मुलाक़ात न्यू
1946 में जन्मे शरद दत्त मूलतः बहुआयामी व्यक्तित्व के मीडियाकर्मी रहे हैं। फिल्म भी बनाई, कई वृत्तचित्र बनाए, sd फिल्म-संगीत पर खूब लिखा। सिनेमा के इतिहास पर बहुचर्चित लेखन।
थियेटर्स के संगीत निर्देशक आर सी बोराल से हो जाती है। वे उसके गाने से प्रभावित हो कर उसे न्यू थियेटर्स ले जाते हैं जहां उसकी नियुक्ति गायक अभिनेता के रूप में हो जाती है। बस, यहीं से भारत के पहले सुपरस्टार का जन्म होता है। यह बयान पिछली सदी के चौथे दशक में हिंदी फिल्मो के पहले महानायक का दर्जा हासिल करने वाले गायक अभिनेता कुंदन लाल सहगल पर हिंदी में लिखी गयी इकलौती पुस्तक का है। इसे लिखा है शरद दत्त ने जो दूरदर्शन में चीफ प्रोड्यूसर रह चुके हैं। इस पुस्तक को पेंगुइन बुक्स इंडिया ने प्रकाशित किया है। दो सौ दस पन्नो इस पुस्तक में हमें कुंदन के पूरे जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी मिल जाती है। उनकी बहुआयामी शख्सियत, उनके बचपन से लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक की विविध छवियां, उनके संघर्ष से लेकर उनकी लोकप्रियता तक, हर चीज़ जानने को मिलती है। सहगल का जन्म जम्मू में 4 अप्रैल 1904 को तहसील दार अमरचंद सहगल के घर हुआ था, वे उनके चार बच्चो में से तीसरे थे। बचपन में वे कभी पहाड़े तो याद नहीं कर पाए लेकिन भजन जरूर उन्हें याद हो जाती थे। पिता के सेवानिवृत्त होने पर 22 साल के होने पर वे जम्मू छोड़ जालंधर आ गए। यहाँ उनके पिता ने ठेकेदारी का काम शुरू किया। उसमे भी मन न लगने पर वे दिल्ली आ गए। यहाँ दो तीन नौकरियाँ बदलने के बाद उनके बड़े भाई की सिफारिश पर उन्हें रेलवे में नौकरी लग गयी। साथ ही साथ ही संगीत भी जारी रहा। यहाँ उनके मुलाकात राघवानंद गौतम से हुई जो उनके गाने से प्रभावित हो उन्हें अपने साथ शिमला के नॅशनल एमेच्योर ड्रामेटिक क्लब ले गए।
कुछ समय यहाँ काम करने के बाद वे कानपुर चले आए। कानपुर में उन दिनों रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद रशीद अहमद खां का मुकाम था। उनके चचेरे भाई उस्ताद गुलाम जाफर खां और उस्ताद गुलाम बाकर खां भी वहीं रहते थे। कानपुर की तवायफें भी उस दौर में संगीत में खूब दखल रखती थीं। सहगल इस बाबत जानते थे। बस, पहुंच गए कानपुर इन गुणीजनों की सोहबत में। रोजी रोटी के लिए रेमिंग्टन कंपनी में नौकरी कर ली। काम था टाईपराइटर बेचना। सहगल का ज्यादातर वक्त उस्तादों और तवायफों की सोहबत में गुजरता। कानपुर की एक तवायफ को वे मां का दर्जा देते थे। उनसे सहगल ने नायाब ठुमरियां सीखीं। कानपुर में भी जब बेकारी का साया मंडराया तो वे वे कोलकाता चले गए। यहीं उनकी मुलाक़ात आर सी बोराल से हुई और उनका न्यू थियेटर्स में प्रवेश हुआ और  फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ। 1935 में न्यू थियेटर्स की देवदास के साथ वे हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े अभिनेता बन गए। अपने जीवन काल में कुंदन ने 34 फिल्मो में काम किया और लगभग 176
 scan0001प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स इंडिया/ शरद दत्त/ मूल्य-150रु/ पृष्ठ 211
गाने गाए। सहगल ने बांग्ला, तमिल, पंजाबी, फारसी भाषाओं में गाने गाए।
बंगाली और हिंदी फिल्मो में अभिनय से उन्होंने सभी की वाहवाही हासिल की जिनमे रविंद्रनाथ टैगोर भी शामिल थे। टैगोर ने एक बार सहगल के बांग्ला गायन को सुनकर कहा था “की शुंदॉर गॉला तोमार...। ” सचमुच सहगल का संगीत सुनकर यह भरोसा करना कठिन है कि उन्होंने घरानेदार शास्त्रीय संगीत की तालीम हासिल नहीं की थी। वे खुद भी यही कहते थे कि उन्होंने जो कुछ भी सीखा, सुन सुन कर। विधिवत तालीम कभी नहीं ली। एक बार वे उस्ताद फैयाज खां साहब के पास सीखने पहुंचे। उस्ताद ने कुछ सुनाने को कहा। सहगल ने शायद कुछ अर्धशास्रीय बंदिश सुनाई थी। उस्ताद बोले, मेरे पास सिखाने को ऐसा कुछ नहीं जिसे तुम न जानते हो। किताब लिखने के लिए  शरद दत्त ने सहगल के दौर के लोगों और उन्हें जाननेवालों से गुफ्तगू के मौके तलाशे और  अपनी लेखनी के जरिए इन सुरीली यादों को बेशकीमती दस्तावेज में बदल दिया। 
चालीस के दशक में सहगल माया नगरी मुंबई आए। वे शोहरत की बुलंदियों पर थे पर सेहत जवाब देने लगी थी। यहां उन्होने कुरुक्षेत्र, तदबीर, उमरखय्याम जैसी फिल्में की जो साधारण समझी गईं। शाहजहां ने कुछ सहारा दिया, वह भी नौशाद के संगीत की वजह से। 18 जनवरी 1947 को सहगल ने सुरीले संसार से विदा ली। इस पुस्तक के लिए सामग्री इकठ्ठा करने के लिए शरद दत्त ने सहगल की सभी फिल्मे देखी। गाने हासिल किए और सहगल से जुड़े रहे सभी जीवित व्यक्तियों से मिले। शरद दत्त ने हाल ही में संगीत प्रेमियों के लिए पुराने दौर के महान संगीतकर्रों को समर्पत एक मंच '' कुंदन '' बनाया है। वे कुंदन लाल सहगल पर एक फिल्म भी बना चुके हैं। कुल मिलाकर कुंदन लाल सहगल के बारे में जानने की इच्छा रखने वालो के लिए ये एक जरूरी किताब है।

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Saturday, May 29, 2010

उपाय, तरीका, युक्ति

आज के दौर में निरुपाय लोग शत्रु के साथ सरेआम जूतमपैजार पर उतर आते हैं। अब कौटिल्य की कूटनीति तो राजा-रईसों के लिए थी, गरीब मजलूमों का उपायचतुष्टय तो हर रोज बदलता है।

रकीब अथवा युक्ति के अर्थ में उपाय शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है। उपाय बना है संस्कृत के उपायः से जिसमें राह, रास्ता, साधन, चातुरी, चाल, पद्धति जैसे भाव हैं। किसी कार्य को करने का उपक्रम यानी प्रयास का भाव भी इसमें निहित है। यह कर्म से जुड़ा शब्द है। उपाय बना है संस्कृत के प्रसिद्ध उपसर्ग उप में इ+घञ्च् के मेल से। संस्कृत उपसर्ग उप में चेष्टा, प्रयत्न, उपक्रम, आरम्भ जैसे भाव हैं। संस्कृत में क्रिया है जिसमें जाना, निकट आना, पहुंचना, पाना जैसे भाव हैं। उप+इ के मिलने से बना उपाय जिसमें ये तमाम अर्थ निहित हैं। उपाय मे निर् उपसर्ग लगने से बनता है निरुपाय जिसका अर्थ हुआ जो साधनहीन हो, जिसके पास कोई चारा न हो अर्थात बेचारा व्यक्ति ही निरुपाय है।

प्राचीन भारतीय कूटनीति उपायचतुष्टयम् पर आधारित थी अर्थात शत्रु पर विजय प्राप्त करने की चार तरकीबें। हम सब आए दिन इन्हें देखते और प्रयोग करते हैं। ग्रंथों में इन्हें कार्यसिद्धि का साधन माना गया है। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुसार इनके नाम हैं साम, दाम (दान), भेद, दण्डसाम का अर्थ होता है खुश करना। राजनय के नियमों के अनुसार शत्रु को हरमुमकिन तरीके खुश करना साम के अंतर्गत आता है। इसमें चापलूसी, रिश्वत, चमचागीरी से लेकर सुरा-सुंदरी का प्रलोभन तक शामिल है। दाम (दान) अर्थात द्र्व्य-पदार्थ देकर शत्रु को जीतने की कोशिश की जाए। इसी तरह शत्रु के कमजोर पक्ष, गुप्त रहस्यों अर्थात भेद जानकर भी उसे परास्त किया जाता है। ये तीनों उपाय जब निष्फल हो जाएं तब अंतिम उपाय दण्ड का बचता है अर्थात युद्ध में शक्तिप्रदर्शन के द्वारा उसे पराजित किया जाए। शास्त्रों के अनुसार इन उपायों को यं तो क्रमशः आजमाया जाना चाहिए किन्तु दुश्मन की ताकत को देख कर इन्हें एक साथ भी प्रयोग में लाया जा सकता है।
संस्कृत धातु ‘यु’ की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। इसमें जोड़ना, सम्मिलित होना, बांधना, जकड़ना जैसे भाव निहित हैं। इसी ‘यु’ से भारतीय भाषाओं में दर्जनों शब्द बने हैं। किन्हीं दो चीज़ों को जोड़ना कौशल की श्रेणी में आता है इसीलिए जोड़, बंधन के अर्थ में संस्कृत में युक्त शब्द इसी मूल से बना है। इसी कड़ी में आता है कौशल, तरकीब, उपाय जैसे अर्थ में युक्ति शब्द जिसका मतलब है मिलाप या संगम। यहां अर्थ विस्तार हुआ उपाय के रूप में। गौर कि उपाय या तरकीब से 136836 कुछ प्राप्ति होती है, दो बिन्दु जुड़ते हैं सो युक्त से बने युक्ति में तरकीब, साधन, उपाय अथवा योजना जैसे भाव सार्थक हैं। इसके देशी रूप जुगत, जुगुति या जुगुत खूब प्रचलित हैं। जूता शब्द भी इसी मूल से आ रहा है। पैरों को ढक कर रखने की युक्ति से जूता चप्पल या खड़ाऊं की तुलना में सौ फीसद सुरक्षित चरणपादुका है। जूते का नामकरण इसके आकार या ध्वनि-अनुकरण के आधार पर नहीं हुआ है बल्कि यह समुच्चयवाची शब्द है। दरअसल दो पैरों की जोड़ी के चलते पादुकाओं की जोड़ी को संस्कृत में युक्तम् या युक्तकम् कहा गया जिससे प्राकृत में जुत्तअम होते हुए जूता शब्द बन गया। हालांकि आज के दौर में निरुपाय लोग शत्रु के साथ सरेआम जूतमपैजार पर उतर आते हैं। अब कौटिल्य की कूटनीति तो राजा-रईसों के लिए थी, गरीब मजलूमों का उपायचतुष्टय तो हर रोज बदलता है। इसी तरह हल खींचने के लिए बैलों के गले में जो जुआ बांधा जाता है वह भी यु से बने युज् से ही बना है। इसमें भी युक्त होने के भाव के साथ भूमि को जोतने की युक्ति नजर आ रही है।
सी तरह उपाय के अर्थ में तरीका शब्द हिन्दी में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है। यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है। अरबी के तर्क Tarq से जन्मा है यह शब्द। अरबी में तर्क का मतलब होता है त्यागना, पीछे छोड़ना। भाव यही है कि किसी वस्तु, स्थान या वृत्ति को त्याग कर आगे बढ़ना। इससे ही बना है तराका जिसका मतलब है राह, रास्ता, मार्ग, पथ, रोड आदि। मुख्य भाव है मनुष्यों और पशुओं के एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगातार विचरण करने से, पदचिह्नों के आधार पर बनी राह अर्थात पगडण्डी। पदचिह्न हमेशा मार्गदर्शक ही होते हैं। अरबी का तारिक शब्द भी इसी मूल का है जो फारसी उर्दू में भी प्रचलित है और पुरुष-नाम है। तारिक का मतलब होता है रात में सफर करने वाला। गौर करें, पुराने जमाने में अरब लोग रात में ही सफर करते थे क्योंकि दिन की तपिश सफर की इजाजत नहीं देती थी। इसी मूल से बने तरीकः या तरीका शब्द का अर्थ हुआ प्रणाली, शैली, युक्ति आदि। इसका अर्थ धार्मिक पंथ या परम्परा भी होता है। सूफी दर्शन में तरीक़त एक प्रमुख मार्ग है ईश्वर प्राप्ति का जिसका अर्थ आत्मशुद्धि या ब्रह्मज्ञान है। तरीका व्यापक अर्थवत्ता वाला शब्द है। इस कड़ी का अगला शब्द है तरकीब जो हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में है। भाव वही है, युक्ति या उपाय। किसी काम को करने का विशिष्ट ढंग। खास तरह कि विधि।
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Friday, May 28, 2010

ज़र्रा ए नाचीज़ का ‘कुछ तो भी’ बयान...

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किं चित, थोड़ा या अत्यल्प के अर्थ में हिन्दी में ‘जरा’ शब्द सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है। जरा सी बात, जरा सी चीज या जरा सा काम जैसे वाक्यांशों से साफ है कि बोलचाल में इस जरा का बहुत ज्यादा महत्व है। हिन्दी में किंचित, क्वचित की तुलना में सर्वाधिक लोकप्रिय शब्द कुछ है जिसके देशज रूप कछु और किछु भी प्रचलित हैं। संस्कृत के किंचित का देशी रूप है कुछ जो किंचित > किच्चित > कच्चित > किछु > कछु > कुछ के क्रम में विकसित हुआ। किंचित बना है किम्+चित् से। बहुत कम, अत्यल्प जैसे भावों को व्यक्त करने में कुछ बहुत ज्यादा समर्थ है। कम-ज्यादा या थोड़ा-बहुत के अर्थ में बहुत कुछ का प्रयोग भी होता है। बेकार, महत्वहीन या अर्थहीन जैसे भावों को व्यक्त करने में भी कुछ तो भी जैसे वाक्यांशों में मुहारवरे की अर्थवत्ता विकसित हो गई। जब अर्थ का अनर्थ हो रहा होता है तब भी यह ‘कुछ’ काम आता है और कुछ का कुछ इसे जनसामान्य की अभिव्यक्ति बना देता है। सम्पूर्ण, समग्र या समस्त को जताने के लिए सामान्य बोलचाल में शब्दों के ये दो जोड़े हर कुछ या सब कुछ कहना पर्याप्त होता है।
‘जरा’ लफ्ज सेमिटिक मूल का है और हिन्दी में बरास्ता फारसी दाखिल हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति दिलचस्प है। अरबी भाषा में dh यानी ‘ध’ का उच्चारण अक्सर z यानी ‘ज़’ की तरह किया जाता है। अरबी में अत्यंत सूक्ष्म, लघु, छोटा आदि भाव के  लिए dh-r-r धातु है। इससे बना है dharrah जिसका अर्थ है सृष्टि की अत्यंत सूक्ष्म रचना। अरबी में इस शब्द का प्रयोग अणु (atom ) के लिए भी होता है। हालांकि यह उसका अर्थ विस्तार है। अपने मूल रूप में धर्रा का मतलब है चींटी क्योंकि अपने आसपास की दुनिया से परिचित होते हुए, प्रकृति की रचनाओं को भाषा में अभिव्यक्त करना सीखते हुए मनुष्य के सामने चींटी ही ईश्वर रचित सर्वाधिक छोटी रचना थी। आज भी क्षुद्रता, लघुता को अभिव्यक्त करनेवाली कहावतों में चींटी डटी हुई है जैसे चींटी की चाल,
ज़र्रा शब्द में तुच्छता का जो भाव है उसका एक अर्थ दीन, गरीब, कम हैसियतवाला आदि भी होता है। इसलिए ईश्वर को ज़र्रानवाज़ यानी दीनानाथ या दीनबंधु की उपमा दी जाती है
चींटी की तरह मसलना आदि। अरबी में धर्रा का प्रचलित रूप ज़रः या ‘ज़र्रा’ हुआ, ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी उर्दू में प्रचलित जिक्र zikr शब्द का शुद्ध अरबी रूप धिक्र dhikr 
है। ‘जर्रा’ यानी धूल, अणु, धूलिकण खासतौर पर यहां प्रकाश रेखा में नजर आते अत्यंत सूक्ष्म धूलिकणों से तात्पर्य है।
रबी के ज़र्रः में भी बहुत छोटा, सूक्ष्म, तुच्छ, हकीर, लघु या चींटी का ही भाव है। अरबी में सौत के लिए भी धर्रा या ज़र्रा शब्द ही हैं। एक विवाहिता के होते जब दूसरी स्त्री को ब्याह कर लाया जाता है तो उसे धर्रा या ज़र्रा कहा जाता है। जाहिर है सौत की उपस्थिति में पहली बीवी की स्थिति तुच्छ हो जाती है। इस रूप में तो ज़र्रा उसका विशेषण होना चाहिए। एक ही पुरुष से विवाहिता दो स्त्रियों को अरबी में ज़र्रतान कहते हैं। ज़र्रा शब्द में तुच्छता का जो भाव है उसका एक अर्थ दीन, गरीब, कम हैसियतवाला आदि भी होता है। इसलिए ईश्वर को ज़र्रानवाज़ यानी ‘दीनानाथ’ या ‘दीनबंधु’ की उपमा दी जाती है यानी जो छोटों पर कृपा करता है। अत्यधिक शिष्टाचार में विनम्रतावश अपने व्यक्तित्व को कमतर आंकते हुए चतुर सुजान सार्वजनिक रूप में खुद को ज़र्रा ए नाचीज़ बेहद तुच्छ साबित करते हैं। स्पष्ट है कि यह ज़र्रा ही बोलचाल में किंचित, थोड़ा या कुछ के अर्थ में ज़रा में बदला और फिर फारसी की राह चलकर ‘जरा’ के रूप में हिन्दी और दूसरी बोलियों में समा गया।

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Wednesday, May 26, 2010

इनकी रामायण, उनका पारायण!!!

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भा रतीय मनीषा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है आस्था जिसकी वजह से उसने ज्ञान के विविध आयामों को छुआ है। समष्टि के प्रति आस्था के भाव ने न सिर्फ सृष्टि के स्थूल रूप को अनुभव किया बल्कि इस स्थूल भाव में भी जीवन के स्पंदन का चिंतन किया। इस विराट विश्व चिंतन का मार्ग आस्था की राह से ही होकर गुजरता रहा है। भारतीयता को अगर आस्था की संस्कृति कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसी आस्था-संस्कृति से उपजा एक आम शब्द है पारायण। मोटे तौर पर इसमें किसी ग्रंथ के आदि से अंत तक पाठ करने का भाव है। वाणी की सत्ता और  शब्दों की अर्थवत्ता में लगातार परिवर्तन और विस्तार होता रहता है सो पारायण parayana शब्द में भी घोटा लगाने का भाव समा गया। पारायण मूलतः ज्ञानमार्गी शब्द है। किसी धार्मिक ग्रंथ को नियमित रूप से आदि से उपसंहार तक पढ़ना ही पारायण है। पारायण में अखंड पाठ का भाव भी समाया है अर्थात पाठ का क्रम एक बार शुरू होने के बाद उसकी समाप्ति तक न रूके। नवरात्रों में इस तरह के अखंड पाठ होते हैं। देशज बोली में इसक किस्म के आयोजनों को रतजगा या जगराता कहा जाता है। हालांकि ग्रहस्थ लोग धार्मिक ग्रंथ का एक निश्चित भाग रोज पढ़ने का अनुशासन बांधना ज्यादा पसंद करते हैं और इस तरह एक निश्चित अवधि में ग्रंथ का पाठ सम्पूर्ण हो जाता है और फिर नया क्रम शुरू होता है।
पारायण बना है पारः + अयन से। संस्कृत में पारः या पारम् का अर्थ होता है दूसरा किनारा, किसी वस्तु या क्षेत्र का अधिकतम विस्तार, सम्पन्न करना, निष्पन्न करना, पूरा करना आदि। पारः बना है पृ धातु से जिसमें उद्धार करना, अनुष्ठान करना, उपसंहार करना, योग्य या समर्थ होना जैसे भाव हैं। स्पष्ट है कि मूल रूप से किसी क्रिया के सम्पूर्ण विस्तार के साथ सम्पन्न होने का भाव ही पार में निहित है। दूसरा किनारे की कल्पना तभी साकार होती है जब बीच का अन्तराल अपनी सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न होता है। हिन्दी में परे हटना, परे जाना जैसे वाक्य आम बोलचाल में शामिल हैं। इनमें जो परे है उसका सम्बंध पृ धातु से ही है जिसमें निहित विस्तार का भाव दूर जाने, छिटकने जैसे अर्थों में उभर रहा है। पृ में निहित विस्तार का भाव पृथक में भी उभरता है और पृथ्वी में भी। असीम विस्तार की अनुभूति होने के बाद ही भारतीय मनीषियों नें धरती को पृथिवी कहा। अलग होना, छोडना, छिटकना में भी विस्तार का भाव है जो संस्कृत के पृथक में अभिव्यक्त हो रहा है।
पारायण का दूसरा हिस्सा है अयन् जिसका संस्कृत रूप है अयनम् या अयणम् जिसमें जाने, हिलने, गति करने का भाव है। अयनम् का अर्थ रास्ता, मार्ग, पगडण्डी, पथ आदि भी होता है। अवधि या संधिकाल जैसे भाव भी इसमें निहित हैं। अयनम् बना है अय् धातु से। इसमें फलने-फूलने, निकलने का भाव है जो गतिवाचक हैं। जाहिर है अयनम् में निहित गति, राह, बाट का स्रोत तार्किक है। उदय शब्द में छिपे अय् को पहचानिए और फिर इसमें निहित उदित होने, उगने जैसे मांगलिक भाव स्वतः स्पष्ट हो जाएंगे। संस्कृत की उद् धातु में ऊपर उठने का भाव है। उद् + अय् के योग का अर्थ हुआ अपनी सम्पूर्णता का, सकारात्मकता के
6_470x340पारायण इन्सान के हिस्से ही आया है, दीमकें कभी पारायण नहीं करती अलबत्ता हर सफे से गुजरना उन्हें भी आता है। सजी संवरी जिंदगी के विद्रूप ठहराव है। पारायण रट्टा या घोटा नहीं, जीवन से गुजरना है।
साथ ऊपर उठना। प्रकृति में सूर्य और चंद्र ही इस भव्यता और मंगल रूप में दिखते हैं। सूर्य और चंद्र मनुष्य के आदि-शुभंकर हैं और इसीलिए सूर्योदय, चंद्रोदय मांगलिक हैं। उदय से बने कुछ अन्य शब्द हैं अभ्युदय, भाग्योदय आदि। उत्तरायण, दक्षिणायन, चान्द्रायण जैसे शब्द भी इसी कड़ी से जन्मे हैं।
रामायण ramayana इस कड़ी का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है जिसका अर्थ हुआ राम का चरित्र मगर इसका भावार्थ है राम का अनुगमन करना, राम शब्द के पीछे जाना। चरित्र शब्द चर् धातु से बना है जिससे चरण भी बना है। राह –बाट  चलने की शैली से ही किसी व्यक्ति का किरदार यानी चरित्र बनता है।  घर के बुजुर्गों की चरणवंदना भी “चलते रहने” अर्थात उनकी अनुभवी जीवन यात्रा का सम्मान करना है क्योंकि जिन चरणों से वे चले हैं उन्हें छूकर, प्रकारांतर से उनके ज्ञानी होने को मान्यता देने की विनम्रता और कृतज्ञता ही चरणस्पर्श का उद्धेश्य है। सो राम की राह है रामायण। इसीलिए तुलसीदासजी द्वारा रामायण अर्थात रामकथा का भावानुवाद रामचरितमानस् अद्भुत है। यही भाव कृष्णायन मे भी है। आज हिन्दी में घोटा लगाने, रटने  के रूप में पारायण को नई अर्थवत्ता मिल मिल गई है और रामायण का भी असमाप्त कथा या ऊबाऊ किस्से के रूप में अर्थ-पतन हो गया है।
य् से बने अयनम् में जब पारः जुड़ता है तब बनता है पारायणम् जिसका भावार्थ हुआ किसी एक बिन्दु से यात्रा शुरू कर धीरे-धीरे विस्तार में जाना और उसे सम्पन्न कर अंतिम बिन्दु तक पहुंचना। पारायण में राह, गति, विस्तार और फिर विराम का भाव है। आदि से अंत तक ग्रंथ के नियमित पाठ का भाव इसमें रूढ़ हुआ, मगर पारायण में निहित दार्शनिक भाव में शून्य से अनंत की जीवन यात्रा का संकेत छुपा हुआ है। अगर हम जिंदगी की किताब के पन्ने भी पारायण वाली शिद्दत से पलटते रहे तो यकीनन जिंदगी का असली मज़ा भी ले पाएंगे। वर्ना शेल्फ में सजी-संवरी किताबों जैसी जिंदगी किसी काम की नहीं। याद रखें पारायण इन्सान के हिस्से ही आया है, दीमकें कभी पारायण नहीं करती अलबत्ता हर पृष्ठ से गुजरना उन्हें भी आता है। सजी संवरी जिंदगी का विद्रूप ठहराव है।  पारायण रट्टा या घोटा नहीं, जीवन से गुजरना है।

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Tuesday, May 25, 2010

हिन्दी का संस्कृतीकरण-2

सुप्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक-विचारक डॉ रामविलास शर्मा भारत की भाषा समस्या पर आधी सदी तक लगातार लिखते रहे। उनके मुताबिक देश की जातीय समस्या का ही एक हिस्सा है भाषा समस्या। यहां पेश है दो भागों में उनका एक महत्वपूर्ण आलेख जो उन्होंने  1948 में लिखा था।

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हिन्दी का संस्कृतीकरण-1

सुप्रसिद्ध प्रगतिशील आलोचक-विचारक डॉ रामविलास शर्मा भारत की भाषा समस्या पर आधी सदी तक लगातार लिखते रहे। उनके मुताबिक देश की जातीय समस्या का ही एक हिस्सा है भाषा समस्या। यहां पेश है तीन भागों में उनका एक महत्वपूर्ण आलेख जो उन्होंने  1948 में लिखा था।

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Monday, May 24, 2010

गरारे, खर्राटे, गार्गल और गर्ग

gargle पिछली कड़ी-अजगर करे न चाकरी… 

खां सी होने या गला खराब होने की स्थिति में अक्सर गरारा करने की नौबत आती है। गौरतलब है कि गरारा के लिए अंग्रेजी में भी इससे मिलता जुलता शब्द है गार्गल जिसका अर्थ है कुल्ला करना, गरारे करना आदि। गरारा यानी गर्म पानी के जरिये गले का सिकाव। इसमें पानी को बाहर जाती हवा के जरिये गले में ही रोक कर रखा जाता है। ध्यान रहे गरारा करने की क्रिया में गला तर करने के साथ साथ गले से निकलती पानी की गर-गर ध्वनि भी महत्वपूर्ण है। गर शब्द संस्कृत की गृ धातु से बना है जिसमें निगलना, तर करना, गीला करना जैसे भाव हैं।  गरारा अथवा गार्गल करना भी गले गले को तर करने की क्रियाएं ही हैं और इनके साथ एक विशिष्ट ध्वनि भी जुड़ी है जो कण्ठ से निकलती है।
रारा शब्द इंडो-ईरानी मूल का शब्द है। हालांकि इसका अर्थविस्तार इसे भारोपीय भाषा परिवार का साबित करता है। संस्कृत में गरारा के लिए गर्गरः शब्द है जिसका अर्थ जल आलोड़ने से उत्पन्न ध्वनि है। गर्गरः का अर्थ पानी का भंवर भी होता है और मथानी या दही बिलौने का उपकरण भी। ध्यान रहे तरल पदार्थ का मंथन करने से गर्गरः जैसी ध्वनि आती है। गले में पानी रोक कर गरारा करने से भी पानी का मंथन अथवा आलोड़न ही होता है। फारसी में भी गरारा की क्रिया जो शब्द है वह है गरारः। समझा जा सकता है कि हिन्दी-उर्दू का गरारा फारसी के इसी गरारः की देन है। दिलचस्प यह भी कि भारोपीय भाषा परिवार से अलग सेमिटिक भाषा परिवार की अरबी में भी गरारा के लिए ठीक संस्कृत की तरह ग़र्ग़रः शब्द है। फर्क सिर्फ नुकते का है। गर्गरः शब्द बना है गर्गः से। गर्गः हिन्दी का सुपरिचित शब्द है और हिन्दुओं का प्रसिद्ध गोत्र भी है। इस नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि भी हुए हैं जो यादवों के कुल पुरोहित माने जाते थे। इनकी पुत्री का नाम गार्गी था। गर्ग की कुल परम्परा में आने वाले गर्ग, गार्गेय, गार्ग्य या गार्गी कहलाते हैं। ध्यान रहे प्राचीन ऋषि परम्परा में वेदोच्चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। वैदिक सूक्तियों के सस्वर गान को सामवेद में व्यवस्थित स्वरूप मिला। गर्गः की व्युत्पत्ति भी गृ धातु से ही हुई है जिसमें मूलतः गले से ध्वनि निकलने का भाव ही है। इनके द्वारा रचित गर्ग संहिता एक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ है। गर्ग का एक अन्य अर्थ साण्ड भी होता है। सम्भवतः साण्ड के मुंह से डकराने की जो ध्वनि निकलती है उसके चलते उसे यह पहचान मिली है।
अंग्रेजी के गार्गल gargle शब्द का प्रयोग भी शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर होने लगा है। अंग्रेजी में इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच भाषा के gargouiller मानी जाती है जो प्राचीन फ्रैंच के gargouille से जन्मा है जिसमें मूलतः मूलतः गले में पानी के घर्षण और मंथन से निकलने वाली ध्वनि का भाव निहित है। इस शब्द का जन्म गार्ग garg- से हुआ है snoring जिसमें गले से निकलने वाली आवाज का भाव है। इसकी संस्कृत के गर्ग (रः) से समानता गौरतलब है। गार्गल शब्द बना है garg- (गार्ग) + goule (गॉल) से। ध्यान रहे पुरानी फ्रैंच का goule शब्द लैटिन के गुला gula से बना है जिसका अर्थ है गला या कण्ठ। लैटिन भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ी है। लैटिन के गुला और हिन्दी के गला की समानता देखें। गला शब्द बना है संस्कृत की गल् धातु से जिसमें टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना जैसे भाव हैं। गौर करें इन सब क्रियाओं पर जो जाहिर करती हैं कि कहीं कुछ खत्म हो रहा है, नष्ट हो रहा है। यह स्पष्ट होता है इसके एक अन्य अर्थ से जिसमें अन्तर्धान होना, गुजर जाना, ओझल हो जाना या हट जाना जैसे भाव हैं। जाहिर है हिन्दी के गलन, गलनांक, गलना, पिघलना जैसे शब्द इसी गल् से बने हैं। याद रहे कोई वस्तु अनंतकाल तक पिघलती नहीं रह सकती अर्थात वह कभी तो ओझल या अंतर्ध्यान होगी ही। गल् धातु के कंठ या ग्रीवा जैसे अर्थों में यह भाव स्पष्ट हो रहा है। मुंह के रास्ते जो कुछ भी गले में जाता है, वह उदरकूप में ओझल हो जाता है। रिसना, पिघलना जैसी क्रियाएं बहुत छोटे मार्ग से होती हैं। गले की आकृति पर ध्यान दें। यह एक अत्यधिक पतला, संकरा, संकुचित रास्ता होता है। गली का भाव यहीं से उभर रहा है। कण्ठनाल की तरह संकरा रास्ता ही गली है। गली से ही बना है गलियारा जिसमें भी तंग, संकरे रास्ते का भाव है। गल् में निहित गलन, रिसन के भाव का अंतर्धान होने के अर्थ में प्रकटीकरण अद्भुत है।
मतौर पर गर गर ध्वनि गले से अथवा नाक से निकलती है। इस ध्वनि के लिए नाक या गले में नमी होना भी जरूरी है। वर्णक्रम की ध्वनियां आमतौर पर एक दूसरे से बदलती हैं। नींद में मुंह से निकलनेवाली आवाजों को खर्राटा कहा जाता है। इसकी तुलना गर्गरः से करना आसान है। यहां ध्वनि में तब्दील हो रही है। ख, क ग कण्ठ्य ध्वनियां है मगर इनमें भी संघर्षी ध्वनि है और बिना प्रयास सिर्फ निश्वास के जरिये बन रही है। सो खर्राटा शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ रहा है।

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Sunday, May 23, 2010

अजगर करे न चाकरी…

संबंधित कड़ियां-jcrn54l 1.आस्तीन में सरसराया सांप 2.ये नागनाथ, वो सांपनाथ...
जगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।  इस दोहे में अजगर निरीह जंतुओं को भकोसने की वजह से नहीं बल्कि अपने निकम्मेपन की वजह से बदनाम हो रहा है। सर्प प्रजाति के इस विशालकाय जंतु का अजगर नाम हिन्दी में खूब लोकप्रिय है। मलूकदास ने चाहे अजगर के काम धाम न करने के दुर्गुण को नसीहत देने का जरिया बनाया हो मगर अजगर का यह नाम उसे भकोसने की खासियत के चलते ही मिला है। हालांकि बोलचाल में अजगर वृत्ति ( सब कुछ हड़पना ) और अजगर की तरह पसरना ( दबंगई और निकम्मापन ) जैसे मुहावरे भी प्रचलित हैं। अजगर संस्कृत का शब्द है और यह बना है अज + गरः से। वैदिक शब्दावली में भी इसका उल्लेख है।

संस्कृत में अज का अर्थ है जो जन्मा न हो। यह अ + ज से मिलकर बना है। संस्कृत की धातु में जन्म, जीवन, जीव आदि का भाव है। संस्कृत हिन्दी के उपसर्ग में नकार या निषेध का भाव है सो अज का अर्थ अजन्मा के अर्थ में अज का निहितार्थ स्पष्ट है। ईश्वर को अज कहा जाता है क्यों कि वे अनादि-अनंत हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश को अज कहा जाता है। इस कड़ी में कामदेव भी आते हैं। चन्द्रमा को चूंकि काम का प्रतीक माना जाता है इसलिए चांद का एक नाम अज भी है। हिन्दू मान्यताओं में आत्मा अनश्वर होती है अतः जीव, आत्मा को भी अज कहते हैं। कालांतर में अज या अजा में जीव का स्थूल भाव प्रमुख होकर इसके मायने बकरा, बकरी, मेढ़ा, मेढ़ी आदि हुए। अनुमान लगाया जा सकता है कि दार्शनिक धरातल से उठे इस शब्द की अभिव्यक्ति कालांतर में कर्मकाण्डों अर्थात दान और बलि जैसी प्रथाओं के विकसित होने से बकरे या मेढ़े के अर्थ मे सीमित हुई होगी। डॉ राजबली पाण्डेय के हिन्दू  धर्मकोश के अनुसार यह नाम अथर्ववेद में अश्वमेध यज्ञ के संदर्भ में दी गई पशुओं की तालिका में आता है। यह भी उल्लेख है कि अथर्ववेद में शवक्रिया के अंतर्गत अ के महत्व की बात कही गई है और उसे प्रेत का मार्गदर्शक माना गया है। यह दान या बलि की सामग्री तभी बन चुका होगा।
snर्प परिवार के एक विशालकाय जीव को अजगर नाम तभी मिला होगा जब इसमें निहित अज में बकरा या मेढ़े का भाव समा चुका था। अजगर का गर बना है गृ धातु से जिसमें गीला करने या तर करने का भाव है। गृ से बने गर का अर्थ हुआ निगलना, पीना, ओषधि, गटकना आदि। गौर करें कुछ निगलने के लिए जिव्हा उसे तर या गीला जरूर करती है। यूं भी सीधे निगले जाने वाले पदार्थ रसीले होते हैं। दवाइयां भी निगली जाती हैं क्योंकि उनके सेवन का उद्धेश्य जायका लेना नहीं होता। सो अज यानी बकरा या मेढ़ा और गर यानी निगलना, भकोसना से मिलकर बने अजगर का जो अर्थ निकलता है उसकी कल्पना सृरीसृप परिवार के विशालकाय अजगर के रूप में की जा सकती है जो देखते ही देखते भेढ़, बकरी को निगलने के लिए कुख्यात था और आज भी है। दबंगई के साथ बहुत कुछ हड़पने के बाद एक किस्म की निष्क्रियता आनी स्वाभाविक है। हालांकि अजगरी निष्क्रियता में दानिशमंदों को बेवकूफी भी नजर आती है जिसके चलते कई अजगर अपने सुखोपभोग से ही नहीं, जान से भी जाते रहे हैं। इतिहास गवाह है। [कुछ अन्य दिलचस्प रिश्तेदारियां अगली कड़ी में ]
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Friday, May 21, 2010

अंतर्धान हुआ अंतर्यामी…

feelings पिछली कड़ी-अंदरखाने की बात और भितरघात
सं स्कृत का अंतर शब्द बड़ा करामाती है। इससे बने अंतर्धान और अंतर्यामी हिन्दी में खूब इस्तेमाल होते हैं। इन दोनों शब्दों में अंतर की महिमा झलक रही है। इन पर बात करने से पहले इस अंतर को कुछ और जान लें जिसका अर्थ मूलतः भीतरी या अंदरूनी है किन्तु फर्क, भेदभाव, दूरी, दर्म्यान, भिन्नता जैसे भाव भी इसमें हैं। अंतर को संस्कृत में अन्तर लिखा जाता है। यह बना है अंतर् से। यह मूलतः क्रियाओं के साथ उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होता है जिसकी वजह से हिन्दी में कई शब्द बने हैं। इसमें कई भाव छुपे हैं जैसे …के बीच, …के मध्य, ..,के नीचे आदि जैसे अंतर्गत, अंतर्निहित, अन्तर्भूत आदि। किन्हीं शब्दरचनाओं में अंतर् में का लोप होकर विसर्ग का रूप लेता है जैसे अंतःकरण यानी हृदय, मन, अंतःपुर यानी रनिवास आदि। हिन्दी में अब अन्तर की बजाय अंतर शब्द ज्यादा चलन में है जिसमें भीतरी, निकट का, संबंद्ध जैसे भाव हैं। भेद, परिवर्तित, बदला हुआ, अन्य जैसे अर्थ भी इसमें निहित हैं।

किन्ही दो बिन्दुओं के मध्य की दूरी के लिए अंतराल शब्द का प्रयोग होता है। मध्यांतर शब्द का अर्थ होता है बीच की दूरी या बीच का समय। दूल्हा-दुल्हन के बीच वरमाला की रस्म होने से पूर्व जो परदा रखा जाता है उसे अंतर्पट कहते हैं। यहां …के बीच या अंतराल का भाव स्पष्ट है। वैसे अंतर्पट का एक अर्थ कच्छा या अंडरवियर भी होता है। इसमें भीतरी या आंतरिकता का भाव भी निहित है अर्थात वह वस्त्र जिसे भीतर धारण किया जाए। भूमि के उस नुकीले या तिकोने हिस्से को अंतरीप कहते हैं जिसका विस्तार समुद्र में दूर तक हो अर्थात जो सागर की सतह पर दूर तक उभरा रहता है। इसी कड़ी से जुड़ा शब्द है अंतर्धान जिसका प्रयोग हिन्दी में खूब होता है। हालांकि अक्सर हिन्दीवाले इसे अंतर्ध्यान लिखते हैं जो अशुद्ध है। वाशि आप्टे के कोश में एक अन्य शब्द अन्तर्धा भी है जिसमें अपने आपको छुपाना, ओझल होना जैसे भाव है। इसके अतिरिक्त अन्वीक्षण, जाँच पड़ताल, पूछताछ जैसे भाव भी इसमें हैं। यह बना है अन्तर् + धा + अङ से। संस्कृत के धा धातुमूल में रखने, धारण करने का भाव है। जबकि अन्तर्धानम् अन्तर् + धा + ल्युट् के योग से बना है।  अंतर्धान का अर्थ हुआ जिसे छुपाया गया हो, जो गुप्त हो, जिसे ढका गया हो। जाहिर है जो वस्तु अंतर में यानी अंदर रखी होगी उसका दिखना असंभव है। स्पष्ट है कि अंतर्धान का सर्वाधिक लोकप्रिय अर्थ गायब, लुप्त, गुप्त, अदृष्य, विलुप्त या विलीन हैं। किसी चमत्कार का खुलासा अक्सर अंतर्धान या प्रकट करने जैसी क्रियाओं से ही होता है। वाशि आप्टे के कोश के मुताबिक अंतर्धान शब्द में अपने आपको छुपाना, ओझल होना, मन में रखना जैसे भाव हैं। इसके अतिरिक्त अन्वीक्षण, जांच पड़ताल, पूछताछ जैसे भाव भी इसमें हैं। सांसारिक मामलों से लेकर आध्यात्मिक मामलों में अगर कुछ जानना-समझना हो तो खुद को मिटाना पड़ता है, स्व को भूलना पड़ता है। स्पष्ट है कि संसार को समझने के लिए आत्मलीन या colors_of_nature_ अंतर्धान होना जरूरी है। खुद की पहचान भूलकर अर्जित किए ज्ञान से ही मनुष्य की सच्ची पहचान होती है, वर्ना फ्रेम में बंद डिग्रियां ही हर पढ़े-लिखे का चेहरा होती हैं पर उस सूरत में सीरत कहा?

सी कड़ी का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है अंतर्यामी जिसकी अंतर्धान की तरह ही मुहावरेदार अर्थवत्ता है। गुप्त बातों का ज्ञान रखने या सब कुछ जाननेवाले को अक्सर अंतर्यामी कहा जाता है। मूलतः इसका मतलब होता है आत्मा, सर्वशक्तिमान परमेश्वर अर्थात परमात्मा। अंतर्यामी शब्द बना है संस्कृत के अंतर्यामः से। संस्कृत में यामः का अर्थ होता है धैर्य, नियंत्रण, निरोध आदि। यामः बना है संस्कृत की यम् धातु से जिसका अर्थ है रोकना, दमन करना, नियंत्रण करना, बंद करना आदि। हालांकि यम् की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है पर यहां हम निरोध, नियंत्रण जैसे भावों का संदर्भ लेते हुए अंतर्यामी शब्द को समझने की कोशिश कर रहे हैं। यामः से ही बने हैं यामि या यामीः अथवा यामी। अंतर + यामः से मिलकर बने अंतर्यामी शब्द का अर्थ हुआ दिल की बात जाननेवाला, भीतर की बात जाननेवाला। खुद पर नियंत्रण रखनेवाला वही हो सकता है जो खुद को बेहतर जानता हो। जिसने खुद को जान लिया, दुनिया को जान लिया। बड़े बड़े आत्मज्ञानियों की शिक्षाओं का सार यही है कि खुद को पहचानो। सो अंतर्यामी वह नहीं है जो बाहर की दुनिया का हाल जानता है बल्की वह है जो खुद को पहचानता है। जिसका खुद पर वश है। जो स्वनियंत्रित है। जाहिर है कि इंसान ऐसा बनना चाहता है, पर बन नहीं पाता। अभी तक ऐसी किसी भी शख्सियत के तौर पर सिर्फ ईश्वर को ही जानता है सो अंतर्यामी तो ईश्वर ही है।
क अन्य शब्द जो हिन्दी के सर्वाधिक प्रयुक्त शब्दों में है, इसी कतार में खड़ा है वह है अंतर्गत जो बना है अंतर+ गम् + क्त से और जिसका अर्थ है के बीच या मध्य में, शामिल अथवा समाया हुआ है। आमतौर पर संबंधवाचक की तरह भी इसका प्रयोग होता है जैसे भूगोल के अंतर्गत द्वीप, महाद्वीप आते हैं। योजनाओं, कार्यक्रमों के संदर्भ में अंतर्गत शब्द का प्रयोग खूब होता है और वहां इसमें के बीच, मध्य में या उसमें शामिल होने का भाव ही रहता है। अंतर से बने शब्दों की कतार काफी लम्बी है जैसे अंतर्विरोध (यहां निहित का भाव भी है और फासले का भी), अंतरात्मा, अंतरिम, अंतरा, अंतरंग, अंतर्वस्त्र, अंतर्बोध आदि। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय और अंतर्देशीय शब्दों पर भी बात करना दिलचस्प होगा। मूलतः देश और राष्ट्र मे एक ही भाव है सो अंतराष्ट्रीय और अंतर्देशीय में एक जैसे ही भाव लगते हैं। अंतर्राष्ट्रीय में जहां विभिन्न देशों के बीच ( देशों का अंतराल स्पष्ट है ) संबंध का संकेत है वहीं अंतर्देशीय में इसके ठीक उलट देश के भीतर का भाव है।
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Thursday, May 20, 2010

अंदरखाने की बात और भितरघात

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बोलचाल में अंदरखाना शब्द का खूब प्रयोग होता है जिसका अर्थ है भीतरी कक्ष। हालांकि इस अर्थ में इसका इस्तेमाल नहीं होता बल्कि सिर्फ भीतरी या आंतरिक या अंदर की जैसे भाव ही अंदरखाना में निहित हैं। अंदरखाना में मुहावरे की अर्थवत्ता है जैसे अंदरखाने की बात। अंदर या अंदरखाना जैसे शब्द इंडो-ईरानी भाषा परिवार के हैं और हिन्दी में फारसी से आए हैं। इसी कड़ी का एक अन्य शब्द है अन्दरूनी जिसका इस्तेमाल हिन्दी में खूब होता है। इसका संक्षिप्त रूप अंदरूँ भी होता है। इसका अर्थ है भीतरी या आन्तरिक, मानसिक अथवा रूहानी। अन्दरखाने की बात या अन्दरूनी बात का भावार्थ एक ही है। इन तमाम शब्दों की रिश्तेदारी संस्कृत के अन्तः शब्द से है। संस्कृत में इससे ही अंतर जिसमें भीतरी का भाव है। अवेस्ता में भी इसका यही रूप है। इसका फारसी रूप अंदर हुआ।
गौर करें भीतर, भीतरी जैसे शब्दों पर जिनका जन्म भी इसी मूल से हुआ है। भीतर बना है संस्कृत के अभि+अंतर से बना है भ्यंतर जिससे भीतर बनने का क्रम कुछ यूं रहा-अभ्यंतर >अभंतर >भीतर। अभ्यंतर का मतलब होता है आन्तरिक, अंदर का, ढका हुआ क्षेत्र आदि। इसमें हृदय का भाव भी है। अन्तर्गत होना, किसी समूह या शरीर का एक हिस्सा होना भी इसकी अर्थवत्ता में निहित है। दीक्षित, परिचित, कुशल अथवा दक्ष के अर्थ में भी अभ्यन्तर का प्रयोफारसी के अंदरून का अर्थ भीतर, अंदर के साथ ही पेट भी होता है। पूर्वी बोली में भीतर का एक रूप भितर भी होता है। भितरिया का मतलब हुआ अंतरंग या जिसकी खूब पैठ हो। वल्लभ सम्प्रदाय में मंदिरों के अंदर ही निवास करनेवाले पुजारी को भितरिया कहा जाता है। षड्यंत्र या धोखे का शिकार होने के लिए भितरघात शब्द भी इसी शृंखला में आता है। यह बना है। भीतर की बात का अर्थ जहां ढकी-छुपी, गोपनीय बात होता है वहीं इसका एक अर्थ दिल की बात या inner हृदय की बात भी होता है। भीतर की आवाज में यह भाव और भी उजागर है। बाहर भीतर एक समाना जैसी उक्ति में पारदर्शिता का भाव है यानी ऐसा व्यक्ति जो दिल का साफ है। अंतर से बने अंदर में भी मुहावरेदार अर्थवत्ता है। अंदर की बात यानी गुप्त तथ्य या चोरी-छिपे का भाव है वहीं अंदर होना या अंदर करना में हवालात में बंद करने का भाव है।
कुश्ती में अक्सर पैंतरा शब्द का प्रयोग होता है। कुश्ती या पटेबाजी में प्रतिद्वन्द्वी को  पछाड़ने के लिए सावधानी के साथ घूम घूम कर अपनी स्थिति और मुद्रा बदलना ही पैंतरा कहलाता है। पहलवान जब कोई नया दांव आजमाता है तो वह अपने खड़े होने की स्थिति में बदलाव लाता है। उसकी यही शारीरिक हरकत पैंतरा कहलाती है। पैंतरा बना है पाद + अंतर + कः से जिससे पैंतरा बनने का क्रम कुछ यूं रहा – पादान्तर >पायांतर >पांतरा >पैंतरा। आमतौर पर तलवारबाजी या कुश्ती में योद्धा या पहलवान अपनी अपनी स्थितियां बदलते हैं, जिसे चाल कहते हैं। गौर करें चाल बना है चलने से जिसका रिश्ता भी पैर से ही है। पैंतरा और चाल एक ही है। इसका अभिप्राय चतुराईपूर्ण ऐसा कदम उठाना है जिससे प्रतिद्वन्द्वी को हराया जा सके। पैंतरा बदलना, पैंतरा दिखना जैसे मुहावरे इसी मूल से निकले हैं। चालबाजी, धोखेबाजी या झांसा देने के संदर्भ में पैंतरेबाजी मुहावरे का भी हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है। पैंतरा भांपना यानी प्रतिपक्षी की चाल का पता चलना होता है। –जारी

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Friday, May 14, 2010

शुद्धतावादियों, आंखे खोलो…

Communication

भा षायी शुद्धतावाद के समर्थकों को इस बात का गुमान भी न होगा कि हिन्दी में बेरोजगार शब्द का कोई प्रचलित विकल्प ही नहीं है। ऐसे अनेक शब्द हैं जो अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं से आकर हिन्दी में घुलमिल गए हैं और हम उनके साथ देशी बोलियों के घुले-मिले शब्दों जैसा ही बर्ताव करते हैं। कभी एहसास नहीं होता कि कुछ सौ साल पहले तक ये हमारे पुरखों के लिए अजनबी थे। साबुन के लिए हिन्दी में ढूंढे से कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता। इसी तरह शर्त लगाने के लिए क्या हिन्दी के पास कोई आसान सी अभिव्यक्ति है? चाय पीने के लिए जिस पात्र का हम प्रयोग करते हैं उसके लिए फारसी मूल से प्याला, प्याली ( फारसी में पियालः) जैसे शब्द हिन्दी में बना लिए गए हैं मगर क्या हिन्दी में इनका कोई आसान विकल्प नजर आता है? सर्वाधिक लोकप्रिय जो शब्द इस संदर्भ में याद आता है वह कप है जो अंग्रेजी का है। संस्कृत का चषक शब्द जरूर हमारे पास है मगर वह ग्रंथों में है, दिल, दिमाग और जबान पर उसका कोई स्पर्श अब बाकी नहीं रहा। बोलचाल में सिफारिश ही की जाती है, शुद्धतावादियों के अनुशंसा जैसे शब्द से कलम को तो कोई परहेज नहीं पर जबान को जरूर है। अपने दिल से पूछ कर देखिए। शुद्धतावाद दरअसल एक किस्म की कट्टरता है जिससे न समाज का कल्याण होना है, न भाषा का और न ही साहित्य का। भाषा का भला होता है तभी संस्कृति भी समृद्ध होती है।
म कब तक किसी भी भाषा के एक काल्पनिक मूल स्रोत को ही पवित्रतम् और सर्वोपरि मानते रहेंगे? यात्रा के दौरान आंखों के आगे से गुजरते उन नजारों को हम क्यों उन शब्दों में नही कहना चाहते जिन्हें बयां करने को आतुर हमारी जबान ने मुंह खुले बिना ही हजारों लाखों बार कसरत की होगी। हजारों साल पहले का अनदेखा अतीत हमें सुहाता है और आज का वह यथार्थ हम नहीं देख पाते जो सिर चढ कर बोल रहा है। मेरा आग्रह है कि आप जो भाषा बोलते हैं उसमें  ऐसे शब्दों को तलाशें। अगर उनकी शिनाख्त विदेशज शब्द के रूप में होती है तो क्या आप हम उनसे पीछा छुड़ाने के बारे में सोच सकते हैं जिनसे हमारी भाषा-संस्कृति सदियों से  समृद्ध होती रही  है। आज से कुछ दशक पहले बनी फिल्मों की हिन्दी सुनना और नाटकीय अंदाज में बोलना मनोरंजक चाहे लगे पर व्यवहार में उसे बोलना नामुमकिन है।  हम कल्पना नहीं कर सकते  एक हजार साल पहले की उस भाषा को अपनाने की जो अरबी-फारसी के मिश्रण से मुक्त थी। हिन्दी ही नहीं, तमाम भाषाओं को अगर हम खांचों में बांट कर देखेंगे तब यही समस्या होगी। शुद्धतावादी भी आज ऐसी हिन्दी नहीं बोल सकते जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का इस्तेमाल न हो। फिर व्यर्थ का बवाल क्यों? भाषायी परिमार्जन अलग बात है और भाषायी शुद्धता अलग। तरह तरह के खाद्य पदार्थों के सेवन से जैसे काया पुष्ट होती है, से ही अलग अलग क्षेत्रों की बोलियों के आपसी मेल-जोल से भाषाएं भी समृद्ध होती हैं। भाखा बहता नीर जैसी उक्तियां यही साबित करती हैं कि किसी भी भाषा के विकास में उद्गम का नहीं, परिवेशी धाराओं का महत्व होता है। इस विषय पर फिलहाल इतना ही। आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। अनुरोध है कि अन्य भाषाओं के उन शब्दों की आप भी पड़ताल करें जिन्होंने आपकी वाग्मिता को समृद्ध किया है।

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Thursday, May 13, 2010

“शहीद” का शहादतनामा

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हि न्दी की विकास यात्रा के दौरान सैकड़ों वर्षों में अरबी-फारसी के हजारों शब्द दाखिल होते रहे हैं जो अब बोलचाल की भाषा में इस कदर घुलमिल गए हैं कि उनके विदेशज होने का आभास भी नहीं होता। शहीद या शहादत भी ऐसे ही शब्द हैं। किसी पवित्र उद्धेश्य की खातिर संघर्ष करते हुए अपनी हस्ती मिटा देनेवाले व्यक्ति को शहीद कहा जाता है। पुराने दौर में धार्मिक मान्यताओं की खातिर दो फिरकों में अक्सर लड़ाइयां होती थीं। ऐसे अवसरों पर राज्यसत्ता भी धार्मिक मान्यता के लिए विरोधी शक्तियों के साथ संघर्ष करती थी और आम आदमी भी इस लड़ाई में हिस्सा लेता था। इस टकराव में जान निछावर करनेवालों को शहीद कहा जाता था। धर्म से हटकर राष्ट्रीयता अथवा मातृभूमि को शत्रुओं से बचाने की खातिर प्राणोत्सर्ग करनेवाले बहादुर योद्धा भी शहीद का दर्जा पाते रहे हैं। शहीद का शुमार भी अरबी के उन्हीं शब्दों में हैं जो इस्लामी दर्शन से उपजे हैं।
हिन्दी में आमतौर पर बलिदानी के अर्थ में शहीद शब्द का इस्तेमाल होता है और शहादत का अर्थ बलिदान होता है। हालांकि इन शब्दों के ये सीमित अर्थ हैं जबकि इनकी अर्थवत्ता व्यापक है। शहीद शब्द का रिश्ता अरबी की क्रिया शहादा से है जो मूल रूप से अरबी की धातु श-ह-द sh- h- d से बनी है। शहादा में देखने, चश्मदीद होने, गवाह होने अथवा साक्षी होने का भाव है। sh- h- d धातु में भी प्रमाण, सिद्ध, साक्ष्य, भरोसा, विश्वास, आस्था जैसे भाव हैं और शहादा में निहित अर्थ, इन्हीं भावों का सार हैं। गौर करें कि हिन्दी में चाहे शहादत का अर्थ बलिदान के अर्थ में सीमित हो गया हो मगर हिन्दुस्तानी में इसके वही मायने हैं जो मूल अरबी में हैं। एक सदी पहले तक फारसी राजकाज की भाषा थी और आज भी न्याय-प्रशासन की शब्दावलियों में अरबी-फारसी के अवशेष बड़ी तादाद में मौजूद हैं। इन शब्दों को अवशेष इसलिए कहना पड रहा है क्योंकि सौ बरस पहले भी इन शब्दों के मायने आम आदमी की समझ से दूर थे। इसलिए फारसी को पढ़ो लिखों या आलिमों की भाषा कहा जाता था। ठीक वैसे ही जैसे संस्कृत पंडितों की भाषा थी। कानूनी और अदालती भाषा में प्रयुक्त अरबी-फारसी के शब्द बोलचाल वाली हिन्दी में घुलेमिले अरबी फारसी के शब्दों से अलहदा हैं। बहरहाल,

martyr ... इस्लामी मान्यता के मुताबिक शहीद कभी मरता नहीं है इसलिए शहादा में जो साक्षी या गवाही का भाव है वही शहादत में भी है। देश, धर्म या विचार के लिए संघर्ष करनेवाला व्यक्ति अपने उद्धेश्य की सच्चाई का गवाह होता है। ... 

कानूनी भाषा में शहादत का वही अर्थ है जो मूल अरबी में है अर्थात बलिदान नहीं बल्कि साक्ष्य। शहादत देना यानी गवाही पेश करना। साक्ष्य प्रस्तुत करना आदि जबकि बोलचाल की हिन्दी में शहादत का प्रयोग बलिदान के अर्थ में होता है। साक्ष्य या प्रमाणीकरण के लिए अरबी-फारसी मूल का ही गवाही शब्द सर्वाधिक प्रचलित है।
हादा से बने शहीद में भी बलिदानी का भाव नहीं है। दरअसल शहादा इस्लाम के पांच प्रमुख पायों में से एक पाया है। ये पांच स्तम्भ हैं 1) शहादा यानी आस्था, विश्वास या भरोसा। 2) सलात यानी दुआ, प्रार्थना, उपासना, पूजा आदि। 3) सौम यानी व्रत, उपवास रखना। 4) ज़कात यानी दान करना, भिक्षा देना, त्याग करना आदि और 5) हज अर्थात मक्का की तीर्थयात्रा करना। इस अर्थ में शहादा यानी ईश्वर में आस्था या भरोसा रखना इस्लाम के पांच आधारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इस एकेश्वरवादी विचारधारा पर भरोसे की पहली शर्त इसमें निहित है। नमाज से पूर्व अजान की शुरुआती पंक्तियों से यह बात और भी साफ हो जाती है, देखें- अल्लाहु अकबर। अशहदू अन ला इलाहा इल्लल्लाह। अशहदू अन्ना मुहमदन रसूल्लुल्लाह। इसका अर्थ है- विश्वास करता हूं उस अल्लाह पर जिसके सिवाय और कोई परमशक्ति नहीं है और भरोसा करता हूं उस के नाम (मुहम्मद) पर जो अल्लाह का पैगम्बर है। यहां अशहदू शब्द का रिश्ता शहादा से ही है जिसमें भरोसा, विश्वास और साक्षी होने का भाव है।
ब बात करते हैं बलिदानी के रूप में शहीद की अर्थवत्ता पर। इस्लामी मान्यता के मुताबिक शहीद कभी मरता नहीं है इसलिए शहादा में जो साक्षी या गवाही का भाव है वही शहादत में भी है। देश, धर्म या विचार के लिए संघर्ष करनेवाला व्यक्ति अपने उद्धेश्य की सच्चाई का गवाह होता है। उसका संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि सत्य के पक्ष मे, सत्य के प्रति उसकी आस्था और निष्ठा अडिग है। इस्लामी दर्शन के मुताबिक संघर्ष के दौरान अगर कोई व्यक्ति बलिदान देता है तब वह एक प्रतिमान स्थापित करता है। वह स्वयं एक मिसाल बनता है उस सत्य की जिसकी खातिर उसने जंग लड़ी। वह व्यक्ति अपने उद्धेश्य की शहादत यानी गवाही है। इसलिए ऐसा व्यक्ति शहीद यानी ईश्वर की गवाही या ईश्वर का साक्षी माना जाता है। उसे मृत नहीं बल्कि अमर समझा जाता है। बलिदानी भी अमर होता है पर शहीद शब्द की अर्थवत्ता ही गवाही, साक्ष्य, प्रमाण या मिसाल जैसे भावों से निर्मित है सो शहादत या शहीद में उक्त भाव हैं। इसी कड़ी का एक अन्य शब्द शाहिद है जिसका अर्थ भी गवाह, साक्षी, श्रेष्ठ, उत्तम होता है। शहीद से बने कई अन्य शब्द भी हिन्दी उर्दू में प्रचलित हैं जैसे शहादतनामा यानी प्रमाणपत्र, सनद या वह दस्तावेज जिसमें शहीद की विरुदावली हो। शहादतगाह उस स्थान को कहते हैं जहां कोई शहीद हुआ हो। शहीदेआजम यानी सबसे बड़ा बलिदानी। इस्लाम में हजरत इमाम हुसैन को यह उपाधि मिली हुई है। भारत में अमर क्रान्तिकारी भगतसिंह को आदर के साथ शहीदेआजम कहा जाता है।

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Wednesday, May 12, 2010

नकल-नवीस के नैन-नक्श

पिछली कड़ी-नकदी, नकबजन और नक्कारा

अरबी में नक्ल का अर्थ Egy Pottery Seal 2स्थानान्तरण भी है। गौर करें कि किसी दस्तावेज की अनुकृति बनाना दरअसल मूल कृति की छवि का स्थानान्तरण ही है।
रबी का नक़ल शब्द अनुकरण के विकल्प के तौर पर हिन्दी में कुछ इस क़दर प्रचलित हुआ कि अब नकल शब्द के लिए कोई दूसरा शब्द ध्यान ही नहीं आता। मूलतः अरबी में इसका रूप नक़्ल है मगर हिन्दी में नकल ही प्रचलित है। अरबी में नक़ल की अर्थवत्ता जितनी व्यापक है उतनी व्यापकता से हिन्दी में इसका प्रयोग नहीं होता, मगर यह हिन्दी के सर्वाधिक बोले जाने वाले शब्दों में एक है। हिन्दी में नकल का सामान्य अभिप्राय किसी चीज़ की कॉपी करने, हाव-भाव-भंगिमाओं का अभिनय करने और अनुकृति तक ही सीमित है। अरबी में नक़्ल का अर्थ होता है स्वांग, कहानी, अनुकरण, स्थानान्तरण, प्रतिलिपि, चुटकुला आदि है। नक़्ल में मूलतः प्राचीनकाल में स्थानान्तरण का ही भाव था जो निर्माण और रचनाकर्म से जुड़ा था। गौर करें नक़्ल करना यानी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। किसी विचार या वस्तु का विस्तार या प्रसारण इसके दायरे में आता है। इसका अर्थविस्तार किस तरह से अनुकृति बनाने, स्वांग रचने में हुआ इसके पीछे मनुष्य की कल्पनाशक्ति की दाद देनी होगी। गौर करें कि किसी दस्तावेज की अनुकृति बनाना दरअसल मूल कृति की छवि का स्थानान्तरण ही है। कैमरे से छवि उतारना मूलतः नक्ल बनाना ही है। इसी तरह किसी चरित्र के हाव भाव के अनुरूप अभिनय करना भी एक व्यक्ति विशेष के किरदार का किसी अन्य व्यक्ति में स्थानान्तरण ही है। साफ है कि नकल में स्थानान्तरण का भाव है। 
क़्ल में स्थानान्तरण के भाव को सिक्कों की ढलाई से समझा जा सकता है। आज से करीब ढाई हजार साल पहले लीडिया के महान शासक क्रोशस, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में कारूँ (खजानेवाला) के नाम से जाना जाता है, के राज्य में पहली बार सिक्के ढालने की डाई अर्थात सांचा बनाने की तकनीक ईजा़द हुई। उससे पहले सिक्के ठोक-पीट कर बना लिए जाते थे और उस पर राज्य मुद्रा उत्कीर्ण कर दी जाती थी। मगर डाइयों के जरिये सिक्के ढालने से सब आसान हो गया। डाई की एक परत पर राज्यमुद्रा की मूल प्रति उत्कीर्ण की जाती है। उसके बाद पिघली हुई धातु इसमें डालने पर सांचे की आकृति धातु पिंड पर उभर आती थी और ठंडा होने पर वह सिक्का बन जाता था। सिर्फ पिघली हुई धातु डालने से ही सिक्का नहीं 26-Igbomina बनता था बल्कि इसे सही आकार में लाने के लिए इसे ठोका-पीटा भी जाता था। इस तरह डाई की छवि का स्थानान्तरण धातुपिंड पर होने की क्रिया के लिए नक़्ल शब्द प्रचलित हुआ। फिर इसी किस्म की स्थानान्तरण क्रियाओं का विस्तार होता गया और नकल में अकल नज़र आने लगी। सरकारी काग़जा़त की प्रतिलिपि को भी नकल कहा जाता है। इसके लिए नकलनवीस नाम का एक कर्मचारी होता है। अरबी फारसी में किसी दस्तावेज की सत्य प्रतिलिपि को नक्ल मुताबिक ऐ अस्ल कहा जाता है। नक्ल शब्द का प्रयोग मुहावरों में भी होत है जैसे नकल करना यानी स्वांग भरना। नकली माल कहने मात्र से किसी भी वस्तु की गुणवत्ता के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगता है।
क़्क से ही बनी है नक्श जैसी क्रिया जिसमें चित्रांकन, रूपांकन, किसी आकृति में रंग भरना आदि क्रियाओं को नक्श कहा जाता है। मूर्तिकला में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है। उत्कीर्णन के लिए अरबी का नक़्काशी शब्द हिन्दी के किसी भी शब्द की तुलना में ज्यादा प्रभावी है। नक्काशी यानी किसी पदार्थ पर छवियां अथवा अक्षर उकेरना। गौर करें की उकेरने की क्रिया में आघात और चोट पहुंचाना दोनो ही शामिल है। चेहरे के विभिन्न अंगों अर्थात नाक, कान, आंख आदि को साहित्यिक शब्दावली में नैन-नक्श कहा जाता है। गौर करें कि किसी भी छवि में सर्वाधिक प्रभावी अगर कुछ है तो वे आंखें ही होती हैं। आखों का नक्श बनाना यानी नैन-नक्श बनाना। पुराने ज़माने में वरिष्ठ कलाकार किसी भी छवि-चित्र में चेहरे का रूपांकन खुद करते थे जिसे नैन-नक्श बनाना कहते हैं। इसके जरिये ही असली व्यक्ति के चेहरे की सही अनुकृति बन पाती थी। एक व्यक्ति के रूपाकार को सीधे सीधे केनवास, प्रस्तर या धातु पर उतार देना भी स्थानान्तरण का ही उदाहरण है।
क्श से ही बना है मानचित्र के लिए नक्शा शब्द। अंग्रेजी मैप के लिए नक्शा शब्द का भी कोई आसान हिन्दी विकल्प हमारे पास नहीं है इसीलिए क्योंकि नक्शे को हिन्दी ने सदियों पहले ही अपना लिया था। यूं अरबी के नक्शा शब्द में रेखाचित्र भी शामिल है। मगर हिन्दी में नक्शा का अर्थ सिर्फ मानचित्र ही होता है। इस संदर्भ में  एटलस शब्द पर भी गौर करें। भू-रेखाचित्र बनानेवाले को नक्शानवीस कहा जाता है। मुहावरेदार भाषा में नक्शा दिखाना या नक्शेबाजी शब्द का प्रयोग हाव-भाव दिखाने या अदाए दिखाने के लिए भी होता है। सूफी भक्ति आंदोलन के दौर में सूफियों की एक प्रसिद्ध शाखा थी नक्शबंदिया। इस शाखा के सूफी अपने अदेखे प्रियतम अर्थात खुदा की आकृतियां भी बनाते थे। गौरतलब है कि इस्लाम धर्म में चित्रकारी, मूर्तिकारी अर्थात अनुकृति बनाने की मनाही है इसलिए नक्शबंदी या नक्शबंदिया जमात के लोगों को खूब आलोचनाएं भी सहनी पड़ीं मगर इसमें कोई शक नहीं कि उनकी बनाई तस्वीरें कला का उत्कृष्ट नमूना थीं। [समाप्त]

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Tuesday, May 11, 2010

नकदी, नकबजन और नक्कारा

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लो गों की भाव-भंगिमाओं को हाव-भाव के साथ प्रस्तुत करने को नकल करना या नकल उतारना कहते हैं। ऐसा करनेवाला व्यक्ति नक़लची या नक्काल कहलाता है। नकलची में ची तुर्की-फारसी का प्रत्यय है और नक्काल में आल प्रत्यय हिन्दी का लगा है। कुछ बदले हुए अर्थों में इसे मसखरा भी कहते हैं। हिन्दी में ऐसा व्यक्ति भांड कहलाता है। भांड दरअसल एक सरकारी पद था अर्थात हास्याभिनय करनेवाला ऐसा कलाकार जिसका काम ही राजा और सदन का मनोरंजन करना था। इसे ही दरबारी विदूषक कहते थे। नक़ल शब्द अरबी मूल का है और सेमिटिक भाषा परिवार की धातु नक़्क n-q-q से इसकी रिश्तेदारी है। यह हैरान करनेवाली बात है कि हिन्दी और उसकी बोलियों में इस धातुमूल से निकले इतने शब्द रोजमर्रा की भाषा में प्रचलित है कि यह आभास ही नहीं होता कि उनका रिश्ता किसी अन्य भाषा परिवार से है।
क़्क में कुछ करने, रचने का भाव है। इसके नक़्र, नक़्ल जैसे रूप भी नज़र आते हैं। भाषा के आविष्कार के बाद जिन मूलभूत ध्वनि-संकेतों का जन्म हुआ था उनमें या क़ ऐसी ध्वनियां है जिनमें काटने-छांटने, आघात पहुंचाने का भाव था। गौरतलब है कि ईश्वर की रची इस दुनिया को निखारने-तराशने में मनुष्य को बहुत कुछ श्रम करना पड़ा है जिसके  clowns तहत काटना, पीटना, ठोकना, खोदना जैसी क्रियाएं शामिल हैं। इन्हीं क्रियाओं के लिए प्राचीनकाल से ही प्राय इंडो-यूरोपीय और सेमिटिक भाषा परिवारों में किसी न किसी रूप में क या क़ ध्वनियों का रिश्ता रहा है। इन्हीं भावों का विस्तार होता है निर्माण, संगीत, अनुकरण, चित्रण, अनुलेखन, उत्कीर्णन आदि क्रियाओ में जिनके जरिये मानव ने विकास की कई मंजिलें तय की हैं।
रबी नक्क से जुड़ी नक्र धातु का मतलब होता है खोदना, पीटना, आघात करना आदि। गौरतलब है, इससे ही बना है नक्कारा शब्द जिसका मतलब होता है एक बड़ा ढोल जिसे बजा कर किसी के आगमन की सूचना या हर्षध्वनि की जाए। नक्कारा का ही देशी रूप नगाड़ा है। पुराने ज़माने में राजाओं की ड्योढ़ी के बाहर या मंदिरों में नक्कारखाना भी होता था। तब पहरों के हिसाब से लोगों को वक्त बताने या किसी विशिष्ट अवसरों की सूचना नगाड़ा बजा कर दी जाती थी। उर्दू-फारसी में एक शब्द होता है नक्क़ाद जो अरबी से आया है और इसी कड़ी का हिस्सा है जिसका अर्थ होता है टकसाल में खरे और खोटे सिक्कों की जांच करनेवाला। ध्यान रहे टकसाल वह जगह है जहां राज्य की मुद्रा यानी सिक्के ढाले जाते हैं। स्पष्ट है कि वहां ठुकाई-पिटाई-कटाई का काम होता है। नक्र में समाए पीटने का भाव ढोल पर डंडे की चोट से भी साफ हो रहा है। हिन्दी मे तत्काल या हाथोहाथ भुगतान के लिए आपको कितने प्रचलित शब्द याद आते हैं? जाहिर है सबसे पहले हमें नक़द शब्द याद आएगा और फिर हम कैश पेमेंट जैसा विकल्प बताने लगेंगे। यह नकद शब्द भी इसी मूल का है जिसका शुद्ध अरबी रूप नक्द है। हि्न्दी में इसका नगद रूप भी चलता है। नक़्द शब्द बना है N-q-d धातु से जिसमें छंटाई, बीनाई का भाव शामिल है। नक़दी यानी कैश रक़म जाहिर है हमारे हाथों में होगी तभी तो उसे गिना जाएगा। इस तरह गिन कर दी जाने वाली रक़म के बतौर नक्द में निहित छंटाई के भाव का अर्थविस्तार नगद राशि के रूप में हुआ। आज नक़द माल, नक़दी रकम जैसे मुहावरेदार प्रयोग हिन्दी में खूब होते हैं।
ब जहां नकद रकम यानी मालमत्ता होगा वहां तो निश्चित ही चोरी-लूट जैसी वारदात का भी अंदेसा बना रहता है। चोर एक शांतिप्रिय जीव है और उसे शोरगुल पसंद नहीं आता। जिस स्थान पर धन होता है, वह उस जगह पर सेंध लगाता है। सेंध यानी उस स्थान को धीरे धीरे, महीन अंदाज़ में खोदना। अरबी में इसे नक़ब कहते हैं जो इसी मूल से बना है। सेंधमार को नक़बज़न कहते हैं और सेंधमारी की वारदात को नक़बज़नी। नक़्द की तरह नकब का शुद्ध रूप भी नक़्ब है। अरबी में अगुआ को नक़ीब कहते हैं। पुराने ज़माने में शाही सवारी के सबसे आगे जो व्यक्ति आवाज़ लगाता चलता था उसे नक़ीब कहते थे। इसे चौबदार भी कहा जाता था। नक़ीब ही वह व्यक्ति होता था जो बादशाह के मुलाकातियों के नाम की हांक लगाता हुआ उन्हें बादशाह के सामने पेश करता था। [-जारी]

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