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Friday, June 24, 2011
स्मरण, सुमिरन से मेमोरंडम तक
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे होय।। कबीरवाणी का यह दोहा जगप्रसिद्ध है। इसमें जो सुमिरन शब्द है वह महत्वपूर्ण है। सुमिरन शब्द में आई ध्वनियां बड़ी मधुर हैं और इसके मायने भी लुभावने हैं। सुमिरन में ईश्वर को याद करने का भाव है। अनंतशक्ति के प्रति अगाध शृद्धा रखते हुए ध्यान केन्द्रित करना ही सुमिरन है। सुमिरन शब्द बना है संस्कृत के स्मरण से। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। हिन्दी की विभिन्न बोलियों में यह सुमरन, सुमिरण के रूप में मौजूद है और पंजाबी में इसका रूप है सिमरन जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के सिमरन की संस्कृत के स्मरण से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं।
स्मरण शब्द बना है संस्कृत की स्मर् धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। संस्कृत हिन्दी का स्मृति शब्द भी इसी मूल से आ रहा है। भाषा की खासियत है लगातार विकसित होते जाना। मनुष्य ने भाषायी विकास के दौर में लगातार उपसर्ग और प्रत्यय जैसे उपकरण विकसित किए हैं जिनके ज़रिए नए नए शब्दों का सृजन होता गया है। स्मर् में निहित याद रखने का भाव ही इसके उलट भूलनेवाली क्रिया के लिए भी इसी स्मर् धातु से नया शब्द बना लिया गया। संस्कृत का प्रसिद्ध उपसर्ग है वि जिससे रहित, कमी या हीनता का बोध होता है। स्मरण में वि उपसर्ग लगने से बनता है विस्मरण जिसका अर्थ है भूल जाना, याद न रहना। आए दिन इस्तेमाल होने वाला हिन्दी का विस्मृत शब्द इसी मूल से आ रहा है। विस्मरण क्रिया का ही देशी रूप है बिसरना अर्थात भूलना। इसी तरह बना है बिसराना यानी भूलाना या भूल जाना। मराठी में इसी विस्मरण का रूप होता है विसरणें जिससे यहां और भी कई शब्द बने हैं।
स्मरण से ही बना है सुमिरनी शब्द। सुमिरनी यानी वह माला जिसमें मनका, मोती या रुद्राक्ष के दाने होते हैं। हिन्दू संस्कृति में 108 की संख्या का खास महत्व है। वैसे यह संख्या कुछ भी हो सकती है। सुमिरनी का उपयोग नाम स्मरण के लिए होता है। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। सुमिरनी को अरबी में तस्बीह कहा जाता है। किसी शायर ने फ़रमाया है- मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा/ किनने पी, किनने न पी, किन किन के आगे जाम था। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।
अंग्रेजी के मेमोरी शब्द का रिश्ता भी इस शब्द शृंखला से जुड़ता है। हालाँकि डगलस हार्पर की एटिमॉनलाईन के मुताबिक मेमोरी शब्द का रिश्ता प्रोटो भारोपीय धातु *men-/*mon से है जिसमें चिंतन या विचार का भाव निहित है। यह वही धातु है जिसकी रिश्तेदारी हिन्दी के मन और अंग्रेजी के mind से है। स्पष्ट है कि मन या माइंड में ही सोच, विचार या चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। रामविलासजी के अनुसार स्मर् और मेमोरी एक ही मूल के हैं। मेमोरी यानी याददाश्त। पश्चिम की ओर गतिशील गण समाजों में स्मर् की स ध्वनि का लोप हुआ और वर्ण विपर्यय के जरिए मेमोरी शब्द बना। संस्कृत में सोचने के लिए मन् धातु है और अन्तर्मन के रूम में मन के लिए मनस् है। दरअसल ध्यान, चिन्तन और मनन में प्रकाशवाची भाव है क्योंकि मनन चिन्तन दरअसल मन्थन की प्रक्रिया है और मन्थन के बाद प्रकटन, उद्घाटन होता है विचार का। इस प्रकटन में प्रकाशित होने का भाव प्रमुख है। इसीलिए चन्द्रमा के लिए संस्कृत में जो चन्द्रमस् शब्द है, इसका मस् में भी आधारभूत रूप में मन् ही है। प्रकाश, चमक या कान्ति का गुण ही चन्द्रमा में सौन्दर्य की स्थापना करता है।
डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार यह मन्स है। इससे जब न का लोप हुआ तब जाकर मस् प्रचारित हुआ। ग्रीक मेनस् और मेने में न विद्यमान है। इन सभी धातुओं के मूल में म ध्वनि प्रमुख है जिसमें प्रकाशित होने के भाव का विस्तार चिन्तन से भी जुड़ता है और चमक से भी। मति, मत आदि भी इसी कड़ी में आते हैं। मन, मिन्, मेने, मेन्सिस जैसे अनेक रूप इन्हीं अर्थों में ग्रीक व लैटिन में हैं। यह तय है कि मन् का प्राचीन रूप मर् था। लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में मर् के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है। अंग्रेजी के मेमोरंडम शब्द का रिश्ता भी इसी मेमॉर से है जिसके लिए हिन्दी में स्मरणपत्र बनाया गया है। बुध के लिए मरकरी नाम में मर् की यही आभासिता प्रकाशमान है। गौरतलब है मरकरी के संस्कृत नाम बुध की मूल धातु बुध् है जिससे प्रकाश, ज्ञान, बुद्धि संबंधी शब्दावली के अनेक शब्द बने हैं। इस पर शब्दों का सफर की पिछली कड़ियों में लिखा जा चुका है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 11:31 PM
Wednesday, June 22, 2011
हाल कैसा है जनाब का….?
क हिए, क्या हाल हैं? अमूमन हर हिन्दीभाषी का एक दूसरे से संवाद इसी वाक्य से शुरू होता है। इसके जवाब में ज्यादातर लोग यही कहना चाहते हैं कि-हाल तो बेहाल हैं मगर शर्माशर्मी में "ठीक है" कहकर काम चला लेते हैं। चंद संतोषीजनों का जवाब कुछ यूँ होता है-जिस हाल में भी ऱखे है, ये बंदापरवरी है/ और यूँ भी वाह वाह है, और यूँ भी वाह वाह है। हिन्दी में हाल से अभिप्राय है परिस्थिति, अवस्था या दशा से। क्या हाल हैं में इन्ही सब बिन्दुओं के बारे में जानकारी लेने का भाव है। अवस्था के संदर्भ में हाल का भाव स्वास्थ्य से भी जुड़ता है। ग़ालिब साहब फ़र्माते हैं कि- उनके देखे से जो आजाती है मुँह पे रौनक / वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है। हिन्दी की खासियत है कि इसे बोलनेवाले जब दूसरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आते हैं तो सबसे पहले वे नई भाषा से जुड़ते हैं। अरबी फारसी का हिन्दी पर बहुत प्रभाव है और हाल शब्द भी अरबी ज़बान से हिन्दी में आया है जो खूब इस्तेमाल होता है। प्रत्ययों और उपसर्गों के जरिए इससे बने शब्द भी खासी तादाद में प्रचलित हैं। फारसी के बद् या बे उपसर्गों के जरिए हाल से बेहाल, बदहाल जैसे शब्द भी बनते हैं जिनका अभिप्राय बुरी परिस्थिति या दुरवस्था से होता है। तंगहाली यानी ग़रीबी। यह हाल मुहावरों भी खूब इस्तेमाल होता है मसलन-वो हाल करेंगे कि याद रखोगे। क्या हाल कर दिया है। हाल-बेहाल हैं वगैरह वगैरह।
अरबी का हाल-haal बना है सेमिटिक धातु hwl जिसमें बदलाव, परिवर्तन, अदलाबदली जैसे भावों के साथ साथ मंडल, घेरा, परिधि, दायरा का आशय भी है। इसके अलावा इसमें वार्षिक चक्र की अर्थवत्ता भी समायी हुई है। इसके अलावा इसमें हस्तक्षेप, अवरोध, प्रयास आदि आशय भी हैं। hwl से बने हाल शब्द में परिस्थिति, अवस्था या दशा का भाव है। यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि इसमें अतीत से वर्तमान के बदलाव का भाव है अर्थात हाल क्या है में किसी वस्तु, मनुष्य या स्थान की अवस्था में आए परिवर्तन या बदलाव की बाबत जानने का भाव निहित है। आज हाल यह है कि हाल शब्द के विकल्प के तौर पर अधिकांश हिन्दीदाँ परिस्थिति, दशा या अवस्था का प्रयोग नहीं करते हैं। बोलचाल की हिन्दी में इन सभी शब्दों के विकल्प के तौर पर हाल शब्द को ही हरहाल में अपनाया गया है। हाल की कड़ी का दूसरा शब्द है हालत जिसका सीधा सा अर्थ भी दशा या परिस्थिति ही है। हालत का बहुवचन होता है हालात और यह शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है। अक्सर हिन्दी वाले हालत और हालात को एक ही मानते हूए हालात का भी बहुवचन हालातों के तौर पर करते हैं जो ग़लत है। हिन्दी-उर्दू के हवाला शब्द की रिश्तेदारी भी हाल से है जिसमें अदला-बदली, परिवर्तन जैसे भाव हैं।
दरअसल हाल का ही एक रूप हवाल है जिसका फ़ारसी उर्दू रूप हवाला होता है। बिहारी की प्रसिद्ध पंक्ति-अलि कलि ही सो बिन्ध्यो, आगे कवन हवाल में इस हवाल की शिनाख्त हो रही है। गौरतलब है कि बिहारी ने यह पंक्ति क़रीब चार सदी पहले लिखी थी। हवाल का ही बहुवचन अहवाल है जिसका अर्थ होता है सूचना, समाचार, वृतांत रिपोर्ट आदि। गौरतलब है कि हवाल में जहाँ दशा, परिस्थिति का भाव है वहीं इसके बहुवचन अहवाल में सूचना, समाचार या वृतांत के भाव से स्पष्ट है कि कोई समाचार या सूचना दरअसल स्थान, वस्तु या व्यक्ति के बारे में किन्हीं परिवर्तनों या बदलाव के बारे में ही सूचित करती है। हवाल में निहित परिवर्तन का भाव बहुत व्यापक है और इसके अनेक मुहावरेदार प्रयोग हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे हवाले करना किसी के सिपुर्द करना। यहाँ परिवर्तन की बात स्पष्ट है। मराठी में रिपोर्ट के संदर्भ में अहवाल शब्द आमतौर पर चलता है। यूँ कहें कि सामान्य मराठीभाषी अहवाल शब्द से अरबी के जरिए नहीं बल्कि मराठी के जरिए ही परिचित है।
मौद्रिक लेनदेन के संदर्भ में हवाला कारोबार जैसी टर्म आज बहुत प्रचलित है। गैरकानूनी आर्थिक लेन-देन के संदर्भ में यह शब्द खूब सुनने को मिलता है। कालेधन को देश से बाहर भेजने में इसी हवाला व्यवस्था का सहारा कालाबाजारिए और जमाखोर लेते हैं। हवाला शब्द आज दुनियाभर में इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है। वैसे लेन-देन की इस प्रणाली का जन्म भारत में ही उस वक्त हुआ था जब आज की तरह बैंकिंग की नियमबद्ध कानूनी व्यवस्था अस्तित्व में नहीं थी। मुस्लिम दौर की प्रशासनिक व्यवस्था का एक आम हिस्सा था यह हवाला शब्द। हवलदार शब्द हिन्दी, मराठी, गुजराती जैसी भाषाओं में खूब प्रचलित है। आज की पुलिस व्यवस्था में भी कांस्टेबल को हवलदार कहा जाता है। पुराने ज़माने में हवलदार / हवालदार दरअसल शासन की ओर से नियुक्त कर वसूली करनेवाला कारिंदा या छोटा अफ़सर होता था। हवालदार उस फौजी अफ़सर को भी कहते थे जिसके सिपुर्द सिपाहियों की छोटी टुकड़ी होती थी। हवाला व्यवस्था में हवाला लेनदेन करानेवाला व्यक्ति हवालादार कहलाता है।
हाल या हवाल का रिश्ता अरबी की प्रसिद्ध उक्ति लाहौल विला कुव्वत से भी है। दरअसल यह इश्वर की प्रशंसा में कही गई उक्ति है जिसका उल्लेख कुर्आन के हदीस hadith में है। अरबी में इसका पूरा रूप है- ला हौल वा ला कुव्वता इल्ला बी अल्लाह। हिन्दी का ठेठ देसीपन इसमें भी घालमेल करता चलता है और इसका रूपांतर लाहोल बिला कूवत इल्ला बिल्ला हो जाता है। भाव यही है कि ईश्वर की मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं हो सकता। न तो किसी चीज़ अपने आप सामर्थ्यवान हो सकती है और न ही उसका रूप बदल सकता है। इस सृष्टि में कोई भी हेर-फेर, परिवर्तन सिर्फ़ और सिर्फ़ खुदा की मर्ज़ी से ही हो सकता है। यहाँ जो ला हौल है दरअसल उसका रिश्ता ही हाल, हवाला आदि से है अर्थात कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, ईश्वर की मर्जी के बिना। हाल दरअसल साधना की वह उच्चतम अवस्था भी है जिसे समाधि या ध्यान भी कहते हैं। सामान्य जागृत अवस्था की तुलना समाधि अवस्था अपने आप में एक परिवर्तन है। सूफ़ी दार्शनिक शब्दावली में यही हाल है अर्थात ध्यानावस्था या तंद्रा है जिसमें योगी सीधे ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करता है। इसे ही कहते हैं हाल आना अर्थात समाधिस्थ होना।
ज़रूर देखें-लाहौल विला कुव्वत इल्ला बिल्ला
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 13 कमेंट्स पर 8:55 PM
Thursday, June 16, 2011
शब्दजन्मांच्या सुरस कथा
आंतरभारतीय
सुजय शास्त्री मुख्य उपसंपादक/ दिव्य मराठी
[ भास्कर समूह का मराठी मराठी अखबार दैनिक दिव्य मराठी महाराष्ट्र में लांच हो चुका है। प्रसिद्ध पत्रकार कुमार केतकर इसके प्रधान संपादक हैं। मेरा सौभाग्य कि राजेन्द्र माथुर, एसपी सिंह जैसे ख्यात संपादकों के साथ काम करने के बाद अब मुझे मराठी के सबसे बड़े नाम कुमारजी के साथ काम करने का मौका मिला है। शब्दों का सफर को कुमार जी ने भी सराहा है। दिव्य मराठी के रविवारीय परिशिष्ट रसिक में उन्होंने इस प्रयास के बारे में खासतौर पर एक आलेख प्रकासित किया। मूल मराठी आलेख सफ़र के पाठकों के लिए यहां पेश है। ] सुजय शास्त्री मुख्य उपसंपादक/ दिव्य मराठी
का गज’ हा शब्द अनेकांना फारसी, उर्दू कुलातील वाटतो. पण त्याचे मूळ आहे ते चिनी भाषेतले. पोर्तुगीज पाणी भरण्याच्या भांड्याला ‘बाल्डे’ म्हणत. बंगाली भाषेने ‘बाल्डे’ला ‘बालटी’ म्हणून आपल्यात सामावून घेतले .नंतर हिंदीने ‘बालटी’ शब्द आहे तसा उचलला. हिंदी भाषक पत्रकार अजित वडनेरकर अशाच शब्द व्युत्पत्तींच्या शोधात गेली २५ वर्षे प्रवास करत आहेत...
मराठीत ‘बादली’ हा शब्द आला तो हिंदीतील ‘बालटी’ या शब्दांतून. पण हिंदीत तो कसा आला? १६व्या शतकात पोर्तुगीज वसाहती बंगालमध्ये वसल्यानंतर ते पाणी भरण्याच्या भांड्याला ‘बाल्डे’ असे म्हणत. त्या काळात बंगाली भाषेने ‘बाल्डे’ला ‘बालटी’ म्हणून आपल्यात सामावून घेतले आणि नंतर हिंदीने ‘बालटी’ शब्द आहे तसा उचलला. अशीच कथा आहे महाभारतातील व्यक्तिरेखा अर्जुनाची आणि दक्षिण अमेरिकेतील देश अर्जेटिना यांच्यातील नामसाधर्म्याची. संस्कृतमध्ये चांदीला ‘रजत’ म्हणतात. तर प्राचीन इराणी अवेस्ता भाषेत त्याला ‘अर्जत’ म्हणतात. ग्रीक भाषेत चांदीला ‘अर्जाेस’, ‘अर्जुरोस’ व ‘अर्जुरोन’ म्हणतात. संस्कृतमध्ये ‘अर्जुन’ म्हणजे चमचमणारा. लॅटिनमध्ये ‘अर्जेंटम’ या शब्दाचा अर्थ चांदी आहे. १५व्या शतकात द. अमेरिकेत चांदीच्या खाणींचा शोध लागला, तेव्हा त्यावरून ‘अर्जेंटिना’ हे एका देशाचे नाव पडले. शब्द व्युत्पत्ती ही संस्कृत भाषेची परंपरा आहे. मराठीमध्ये कृ. पां. कुलकर्णी यांनी मराठी व्युत्पत्ती कोश संपादित केला आहे. शब्दांच्या जन्माच्या शोधात अनेक मनोरंजक सफरी घडतात. या प्रवासात भाषांवर झालेले संस्करण, त्यावर निसर्गासह राजकीय आक्रमणे, धार्मिक चालीरिती, रिवाज यांचा पडलेला प्रभाव आढळून येतो. अनेकदा आपण आपल्याच भाषेतला शब्द वेगळ्याच भाषेतून आल्याचे लक्षात येताच चकित होतो. मग शब्दाच्या व्युत्पत्तीविषयी वाचायला गेले, की हजारो वर्षांचा इतिहास डोळ्यांसमोर उलगडत जातो. हिंदी पत्रकार अजित वडनेरकर अशाच शब्द व्युत्पतींच्या शोधात गेली २५ वर्षे प्रवास करत आहेत. ‘ऋषीचे कूळ आणि शब्दांचे मूळ शोधू नये’ असे म्हणतात. पण वडनेरकरांनी याकडे साफ दुर्लक्ष करत १० ग्रंथांपैकी पहिला ग्रंथ ‘शब्दों का सफर’ या नावाने प्रसिद्ध केला आहे.
या ग्रंथात वडनेरकर पूर्व भारतातील भाषांपासून पश्चिम युरोपीय देशामधील भाषांचा वेध घेतात. हा वेध घेता-घेता त्यांनी काही वेळा सेमेटिक (प. आशिया आणि उ. आफ्रिकेतील) भाषांच्या खिडक्या किलकिल्या केल्या आहेत. तर गरज पडल्यावर चिनी भाषेतही डोकावून पाहिले आहे. पण वाचकांसमोर शब्दांची उत्पत्ती मांडताना त्यांनी कोणतीही कसूर ठेवलेली नाही. एकीकडे वाचकांची जिज्ञासा शमवण्याचा त्यांचा प्रयत्न आहे, पण त्याचबरोबर चाणाक्ष वाचकाला इतिहासाची शिदोरीही ते देतात. प्राचीन काळापासून व्यापाराच्या निमित्ताने विभिन्न देशांदरम्यान वस्तूंचे जेवढे आदान-प्रदान झालेले आहे, त्याच्या कित्येक पट शब्दांचा व्यापार झालेला आहे. व्यापाराच्या निमित्ताने हजारो ज्ञात-अज्ञात व्यापारी, फिरस्ते, दर्यावर्दींनी जगातील अनेक प्रदेश, भाषिक समूहांशी संपर्क साधला. या संपर्कातून त्यांनी आपली भाषा, संस्कृती, चालीरिती देऊ केल्या. अशा अनेक मुसाफिरांना लोक विसरले पण त्यांनी देऊ केलेली भाषा, शब्द मात्र तसेच राहिले. काही शब्द जेते-जिते संबंधांतून लादले गेले तर काही शब्द सहजपणे परक्या भाषेत सामावले गेले. शब्दांचा हा व्यापार आजच्या आधुनिक युगातही तसाच सुरू आहे. अजित वडनेरकर शब्दांच्या प्रवासाचा मोठा ऐतिहासिक दस्तावेज डोळ्यांसमोर उभा करतात. अगदी नेहमीचा हिंदी शब्द ‘कागज’ची व्युत्पत्ती ते अत्यंत मनोरंजकपणे आणि प्रसंगी धक्का देत सांगतात. ‘कागज’ हा शब्द अनेकांना फारसी, उर्दू कुलातील वाटतो. पण त्याचे मूळ आहे ते चिनी भाषेतले. इसवी सन पूर्व पहिल्या शतकात कागदाचा शोध चीनमध्ये लागला. कागदाला चिनी भाषेत ‘गू-झी’ व ‘कोग-द्ज’ असे दोन शब्द सापडतात. कागद निर्मितीचे तंत्रज्ञान गुप्त ठेवल्याने त्याची माहिती कित्येक शतके उर्वरित जगाला नव्हती. पण सातव्या-आठव्या शतकात उजबेकिस्तानमध्ये ‘कोग-द्ज’ हा शब्द तुर्कीत ‘काघिद’ म्हणून पोहोचला. नंतर अरबी, फारसी व उर्दूत तो ‘कागज’ झाला. भारतात मराठी, राजस्थानीत तो ‘कागद’, तर तामिळमध्ये ‘कागिदम्’, मल्याळममध्ये ‘कायितम्’ व कन्नडमध्ये ‘कायिता’ असा झाला.
‘शब्दों का सफर’ हा एका अर्थी विश्वकोश लेखनाच्या जवळ जाणारा ग्रंथ वाटतो. कारण या ग्रंथात प्रत्येक शब्द ‘प्रिझम’मधून पाहिल्यासारखा भासतो. शब्दाचा इतिहास, त्याचा देश, त्याची जातसंस्कृती, सामाजिकता, राजकीय इतिहास यांना स्पर्श करणारा हा व्यापक संग्रह आहे. अजित वडनेरकर मध्य प्रदेशचे असले तरी त्यांचे मूळ मराठी आहे. त्यांचा जन्म मध्य प्रदेशातील सिहोर येथे झाला. आजोबा पं. लक्ष्मणराव बुधकर व आई विजया वडनेरकर यांच्या प्रभावामुळे ते साहित्याकडे वळले. हिंदी साहित्यात एम.ए. करताना त्यांचा हिंदीतील श्रेष्ठ साहित्यिक व भाषातज्ज्ञ डॉ. सुरेश वर्मा यांच्याशी संपर्क आला. त्यांच्या मौल्यवान शिकवणुकीतून हा ग्रंथ साकार झाला आहे. आजूबाजूचे वातावरण हिंदी असले तरी त्यांच्या लिखाणात मराठीत सापडणारा विनोद आहे. या विनोदाच्या माध्यमातून त्यांनी अत्यंत रुक्ष वाटणाºया शब्दांचे कुळ अगदी सहजतेपणाने, सोप्या भाषेत, नर्म विनोदी शैलीत मांडले आहे. शब्दांची व्युत्पत्ती सांगण्याच्या ओघात ते ‘शाब्बाश’ या शब्दाचे कूळ इराणचा बादशहा ‘शाह अब्बास’ असे सांगतात तेव्हा हसू येते. तसेच ‘पायजमा’ हा शब्द शक राज्यकर्त्यांची देणगी आहे हे वाचल्यावर धक्का बसतो. तर ‘कमीज’ या शब्दाच्या मागे धावताना ते आपल्याला अरबस्तानातून ग्रीस, अल्बानिया, इजिप्त, नेपाळ, इंडोनेशिया, फ्रान्स, इंग्लंड अशा देशांची सफर घडवून आणतात. देश-विदेशाची सफर, त्यांचा इतिहास, रितीरिवाज, लोकसंस्कृती हे या ग्रंथाचे विशेष आहेत, पण शब्दाला सीमेची, संस्कृतीची, भाषेची बंधने नसतात हे ते ठासून सांगतात. शब्दांची सत्ता ही राजकीय सत्तेपेक्षा मोठी आहे. भाषेच्या शुद्धीकरणाच्या नावाखाली किंवा परकीय भाषेच्या आक्रमणाच्या नावाने गळा काढणाºया अनेकांना ते शब्दाचे सामर्थ्य सांगतात. भाषेमुळेच विविध मानवी समूहांमध्ये न तुटणारे संबंध निर्माण झाले आहेत, हे या ग्रंथामुळे लक्षात येते.
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अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
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