Monday, October 31, 2011

…क्या साहब तेरा बहिरा है?

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क सामान्य आदरयुक्त सम्बोधन के तौर पर किसी को ‘साहब’ कहना हमारे भाषिक शिष्टाचार में शामिल है। साहब एक बड़ा महिमावान और बहुरूपिया शब्द है। इसके साब, शाब, साहेब, साहिब, साहाब, साबजी, साहबजी जैसे रूप हिन्दी की विभिन्न बोलियों में प्रचलित है। जिस तरह किसी के वजूद को आदर प्रदान करने के लिए उसके नाम के साथ हिन्दी में जी लगाने का रिवाज़ है, जैसे-रामजी, किशनजी वगैरह। इसी तरह साहब भी आदरयुक्त प्रत्यय का रूप लेकर किसी भी नाम के साथ चस्पा होकर उसे ख़ास बनाता है जैसे ‘फ़ैज़ साहब’, ‘फ़िराक़ साहब’ आदि। ‘साहब’ का स्त्रीवाची हिन्दी में ‘साहिबा’ होता है और उर्दू में ‘सहबा’। कबीर के यहाँ साहिब का खूब प्रयोग मिलता है। ना जाने तेरा साहब कैसा है/ मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे/ क्या साहब तेरा बहिरा है/ पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है/ अंतर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है। कबीर के लिए स्वामी या प्रभु ही साहब हैं, मगर उनकी बंदगी करने वालों के लिए कबीर खुद साहब हैं क्योंकि वे पथ प्रदर्शक हैं।
मूल रूप से ‘साहब’ शब्द सेमिटिक भाषा परिवार से निकला है और इसकी धातु है स-ह-ब जिसमें साथ होना, साथ लेना, सहचर, संगी, मित्र, बंधु, सखा होने के अलावा स्वामित्व, प्रभुत्व अथवा सम्पदा का आशय है। इस धातु से अरबी में ‘साहिब’ शब्द बनता है मगर विभिन्न भाषाओं में इसके अलग अलग रूप हैं जैसे हिन्दी में ‘साहब’, अज़रबैजानी, इंडोनेशियाई में यह ‘साहिब’ है तो नाइजीरिया की हौसा ज़बान में ‘साहिबी’। मराठी. फ़ारसी में यह ‘साहेब’ है तो उर्दू में इसके ‘साहिब’ और ‘साहेब’ दोनों रूप चलते हैं। तुर्की में यह ‘साहिप’ है। गौर करें कि ‘साहब’ में मूल भाव साथ देने का है जबकि अर्थ है, जो साथ चले वह ‘साहब’ है। इसमें मित्र, सखा, संगी, सहचर, सहयोगी, दोस्त, जोड़ीदार आदि का भाव ही है मगर हिन्दी में ‘साहब’ का अर्थ  श्रीमान, महोदय, महाशय, स्वामी, मालिक, प्रभु  ही प्रचलित है। बात यह है कि जो साथ चलता है वही आपका पथ प्रदर्शक भी होता है। दूसरे अर्थों में स्वामी, मालिक या प्रभु को अपने भक्तों का सहचर होना पड़ता है। यह माना जाता है कि अच्छा नेता या शासक वही है जिसका साथ लोगों को हर कदम पर महसूस हो। जो हर घड़ी उनकी मदद के लिए तैयार हो, सबको अपने साथ लेकर चले। इसलिए ‘साहब’ में मालिक का भाव कम और साथी, साझीदार, जोड़ीदार का भाव ज्यादा है।
क्सर अफ़सरों की बीवियाँ उनके मातहतों के सामने पति के लिए भी ‘साहब’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं। इसके पीछे मित्र या जोड़ीदार का भाव न होते हुए यह रौब ग़ालब कराने का भाव ज्यादा रहता है कि वे उसके पति के मातहत हैं, अर्थात पत्नी के स्वामी चाहे न हों, पर मातहतों के स्वामी ज़रूर हैं। ध्यान दें कि उदार सोच वाली बीवियाँ ही अर्धांग और अर्धांगिनी वाले भाव के तहत ‘साहब’ में मित्र, सखा, संगी, सहचर, सहयोगी, दोस्त, जोड़ीदार का रूप देखते हुए इन अर्थों में इस्तेमाल करती होगी। पति के रूप में ‘साहब’ शब्द का प्रयोग करने के पीछे आमतौर पर इसमें निहित सर्वशक्तिमान, भरतार, पालनकर्ता, प्रभु अथवा स्वामी वाला भाव ही होता है। राजस्थानी में तो साहब का सायबा रूप बहुत लोकप्रिय है। वैसे साहब की सोहबत में रहने वाले को अरबी में मुसाहब कहते हैं। समझा जा सकता है कि अरबी में भी साहब में निहित संगी साथी का भाव ज्यादा प्रचलित न रहा और इसके भीतर की साहबीयत ज़ोर मारती रही लिहाज़ा साहब का अर्थ प्रभावशाली, शक्तिमान ही बना रहा और इसलीलिए उनके साथी, मित्र, बंधु, सखा के लिए मुसाहब शब्द प्रचलित हुआ। अब तो मुसाहब का प्रयोग अर्दली या चाकर के तौर पर भी होता है।
साहिब से जुड़े कुछ और शब्द भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे साहिबा अर्थात साहब का स्त्रीवाची। गौर करें कि जिस साहब में अफ़सरी ठसका है वहीं साहिबा में महाराज की महारानी वाला ठसका होते हुए भी संगिनी वाला भाव भी मौजूद है। अरबी में साहब का बहुवचन असहम है जबकि हिन्दी में गणमान्य लोगों के लिए साहबान शब्द का प्रयोग होता है। मान्यवरों या अफ़सरों जैसे हावभाव के लिए साहबी शब्द प्रचलित है। साहबी ठाठबाट, साहबी रंगढंग जैसे मुहावरों में यह भाव नुमाँया हो रहा है। आमतौर पर साहबज़ादा या साहज़ादी शब्द सुपुत्र या सुपुत्री के लिए इस्तेमाल होते हैं। आमतौर पर साहबी रंगढंग वाले व्यक्ति को साहबबहादुर की उपमा भी दी जाती है। वैसे सचमुच अंग्रेज अफ़सरों को हिन्दुस्तनियों नें साहबबहादुर का ही रुतबा दिया था। ध्यान रहे बहादुर शब्द तुर्की का है और फ़ारसी के ज़रिये उर्दू-हिन्दी में आया है।
साहिब में निहित साथ देने या मित्रता के भाव के मद्देनज़र संस्कृत के प्रसिद्ध उपसर्ग ‘सह’ ध्यान में आता है। खासतौर पर साद-हा-बा हिज्जों से ही बने सोहबत के अर्थ पर गौर करें तो यही जान पड़ता है कि यहाँ भी सेमिटिक और भारोपीय भाषा परिवारों के अन्तर्संबन्धों का मामला हो सकता है। साहिब का मूलार्थ जिस तरह साथ देने वाला, साथी, मित्र है मगर उसका व्यावहारिक प्रयोग मालिक, स्वामी, श्रीमान, महाशय आदि अर्थों में होता है। इसी मूल से उपजे सोहबत के साथ ऐसा नहीं है। सोहबत का अर्थ सीधे सीधे संगत, साथ, हेलमल ही है। संस्कृत के सह शब्द में भी शक्तिमान, पराक्रमी, संगत, साथ का भाव है। सहित यानी जो साथ है। जो साथ दे, साथ चले, साथ साथ सहन करे वही सहितृ है। हिन्दी में साथी के लिए सोहबती, सोबती शब्द भी बनता है। सोहबत में समागम अर्थात सम्भोग का भाव भी है। वैसे सोहबत शब्द का मूल भी अरबी का सुह्ह्बा है। सोह्हबत, सुहबत भी इसके रूप है जो उर्दू-फ़ारसी में चलते हैं। मराठी में सोबत प्रचलित है। सुह्ह्बा का अर्थ मित्र या साथी भी होता है।
स सिलसिले में साहिब में निहित ‘हिब’ की वजह से अरबी का हब्ब भी याद आता है जिसमें साहचर्य, मित्रता का भाव है। अरबी में मित्र, संगी को हबीब कहते हैं। हिन्दी में भी यह प्रचलित है। प्रेम को महब्बत कहते हैं। साथ साथ चलने से प्रेमभाव बढ़ता है। कोई अपना सा इसी मुकाम पर हबी से महबूब बन जाता है। साहिब और साहिबा कभी महबूब और महबूबा भी हो सकते हैं।

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Friday, October 28, 2011

भगदड़ के बाद चढ़ दौड़ना

Stampede

कि सी स्थान पर अव्यवस्था फैलने के सम्बन्ध में भगदड़ शब्द का भी प्रयोग होता है। भगदड़ (मचना) शब्द भाग + दौड़ से मिल कर बना है। यूँ देखा जाए तो भाग-दौड़ (करना) या दौड़-भाग (करना) हिन्दी का एक प्रचलित मुहावरा है जिसका मतलब होता है किसी खास मक़सद से की जाने वाली मेहनत, मशक्कत। ऐसा श्रम जो किसी काम को सम्पन्न करने के लिए बीते कुछ समय से जारी है। भाग-दौड़ सफल भी हो सकती है और निष्फल भी। मगर भाग-दौड़ में जहाँ भागना-दौड़ना क्रिया का भाव सक्रियता के अर्थ में है वहीं भगदड़ में अस्तव्यस्तता, अव्यवस्था, गड़बड़ी, तितर-बितर होने और खलबली जैसी स्थितियाँ नज़र आती हैं।
पूर्वी शैली की हिन्दी में भगदड़ का एक रूप भगदर भी होता है। भगदड़ का शाब्दिक अर्थ है कि किसी वजह से बहुत से लोगों का तितर-बितर होना, अलग अलग दिशाओं में भाग छूटना या दौड़ लगा देना। ऐसा एक समूह के बीच किसी अफ़वाह फैलने चलते हो सकता है या किसी आशंका के वशीभूत होकर। किसी धमाके की प्रारम्भिक प्रतिक्रिया भी भगदड़ हो सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि भगदड़ के मूल में आशंका और भय का होना आवश्यक है। बात सही है। मगर अब किसी गड़बड़ी की वजह से भागने-दौड़ने की क्रिया के लिए ही भगदड़ शब्द का प्रयोग नहीं होता बल्कि अफ़रातफ़री जैसी स्थिति के लिए भी भगदड़ का इस्तेमाल होता है। रेलवे स्टेशन पर गाड़ी आने की सूचना से भी भगदड़ मच सकती है या सभा में जनप्रिय हस्ती के आने की खबर से भी भगदड़ मच सकती है।
दौड़ना हिन्दी की आम क्रिया है। संस्कृत के धोरण शब्द से इसका रिश्ता है। हिन्दी शब्दसागर में इसका धौरना रूप भी है। संस्कृत की धोर् धातु में तेज गति से चलने, भागने का भाव है। इसका एक अर्थ घोड़े की दुलकी चाल भी है और सरपट भागना भी। धौर् यानी लम्बे लम्बे डग भरते हुए आगे बढ़ना या तेज चाल से तेजी से निकल जाना। यही दौड़ना है। दौड़ना क्रिया से कई मुहावरेदार अभिव्यक्तियाँ निकलती हैं। दौड़ लगा देना यानी किसी काम या उद्धेश्य को पूरा करने के लिए भागना। दौड़ में शामिल होना यानी किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रयासरत कई लोगों में खुद का भी शामिल होना। दौड़ में शामिल होना का विलोम है दौड़ से बाहर होना अर्थात किसी स्पर्धा से निकल जाना। घोड़े दौड़ाना यानी किसी काम के लिए खूब सारे लोगों को लगा देना। दौड़ कर आना यानी किसी उद्धेश्य या लोभ से कुछ पाने की की प्रत्याशा में शीघ्रता से चले आना। सिर्फ़ पैर ही नहीं दौड़ते, दिल भी दौड़ता है, मन भी दौड़ता है और आँखें भी दौड़ती हैं। निगाह या नज़र का दौड़ना या दौड़ाना में बहुत तेज़ी से किसी स्थान, वस्तु या बात को समझ लेने का भाव है। दौड़-भाग या भाग-दौड़ की चर्चा ऊपर हो चुकी है। इसी क्रम में दौड़-धूप भी शामिल है। अनवरत मेहनत करने या श्रम करने के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। आक्रमण, धावा या चढ़ाई के अर्थ में चढ़ दौड़ना का प्रयोग होता है। वैसे किसी पर हावी होने की कोशिश भी चढ़ दौड़ना ही है। अक्सर चढ़ाई से पहले भगदड़ मचाना भी एक रणनीति है।
भागना क्रिया के मूल में संस्कृत की भज् धातु है जिसका अर्थ है हिस्से करना, अंश करना, वितरित करना, बांटना, लाभ प्राप्ति, पूजा-आराधना आदि। भज् से ही बना है भक्त जिसका अर्थ भी बंटा हुआ है। भक्त वह है जो अपने ईश्वर से विभक्त है। ईश्वर से जुड़ कर तो वह ब्रह्मलीन हो जाता है। भज् के बाँटने, खण्ड खण्ड होने के भाव के साथ साथ मोनियर विलियम्स के कोश में भयभीत होकर जाने का भाव भी है। भाज् धातु में आश्रय खोजने, जाने और खोजने का भाव है। भगना, भागना क्रिया में तेजी से चलते हुए भूमि के अंश नापने की क्रिया भी सम्पन्न हो रही है।
भागना मूलतः दौड़ना का ही एक रूप है मगर इसका एक सूक्ष्म फर्क है पलायन का भाव। दौड़ना जैसी क्रिया में जहाँ निरपेक्ष तेज गति का भाव है वहीं भागना में आशंका, भय से त्राण पाने के लिए तेज गति से दूर हटने की उभरती है। भाग खड़ा होना जैसे मुहावरे में भय या आशंका ही प्रमुख है। हालाँकि पुलिस को देखते ही बदमाश भाग निकले में जहाँ पलायन का भाव है वहीं इसी स्थिति में अगर बदमाशों ने दौड़ लगा दी या पुलिस को दौड़ा लिया जैसा प्रयोग होता है तो इसमें बदमाशों के पलायन का भाव न होकर पुलिस से बचने की युक्ति का उनका सहज कर्म नज़र आता है। यहाँ दौड़ लगाना या दौड़ा लेना जैसे मुहावरे सामने आ रहे हैं। मार भगाना में पलायन का भाव न होकर शौर्य है क्योंकि इससे पूर्व मारने की क्रिया सम्पन्न हो रही है। सिर्फ भगाना भी पलायन या कायरतापूर्ण है। हाँ, दुश्मन से बचाने के लिए किसी को भगाना में चतुराई का भाव है। भागना के साथ पलायन किस क़दर जुड़ा है यह मेहनत से भागना, काम से भागना जैसे मुहावरों से स्पष्ट है।

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Friday, October 21, 2011

‘अहदी’ यानी आलसी की ओहदेदारी

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रिश्रम किए बिना मनुष्य रह नहीं सकता। हमारी तरक्क़ी की बुनियाद ही मेहनत पर टिकी है। मगर यह भी सच है कि इन्सान का मूल स्वभाव आलस्य ही है। आलसियों को कई तरह के नामों से नवाज़ा जाता है जैसे अजगर। अहदी भी आलसियों का ही नाम है। उत्तर भारत की ज्यादातर बोलियों में अहदी शब्द आलसी का पर्याय माना जाता है। राजस्थान में यह ऐदी सुनाई पड़ता है तो पूर्वी उत्तरप्रदेश में हैदी, ऐहदी। यूँ देखा जाए तो आलसी हर वर्ग, हर पेशे में मिल जाते हैं। आलस्य व्यक्ति से लेकर समूह तक की पहचान हो सकती है। आलस्य संक्रामक भी होता है। एक व्यक्ति अगर उबासी लेता है तो बाकी लोगों पर भी उसका असर तत्काल नज़र आता है। ताज्जुब की बात है किसी को आलसी इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह काम नहीं करता, मगर कोई पद ही आलसीपन का पर्याय बन जाए, यह विलक्षण बात है। समाज में उच्च दर्ज़े की समझी जाने वाली बातें वक्त के साथ इतनी बदल जाती हैं कि मूल शब्द अपनी अर्थवत्ता बदलने लगते हैं और या तो मूल भाव की अर्थोन्नति हो जाती है या अर्थावनति। अहदी के साथ यही हो रहा है। पाखण्ड, गुरु, चेला, उस्ताद जैसे शब्द इसी श्रेणी के हैं। पाखण्ड कभी सम्प्रदाय था, अब यह ढोंगी का पर्याय है। गुरु का प्रयोग अब धूर्त, चालाक के अर्थ में होता है। चेला शिष्य था, पर अब चापलूस है। उस्ताद की गति भी गुरु जैसी ही हुई। अहदी और ओहदा दोनों शब्दों का रिश्ता पद (पोस्ट) यानी अफ़सरी से है। अब वो अफ़सर ही क्या जो आलसी न हुआ। काम तो दस्तूरी लेकर होती है।
मुग़लों के ज़माने में अहदी एक प्रभावशाली दरबारी पद होता था और अहदियों की बड़ी अहमियत थी। सबसे पहले देखते हैं कि अहद आया कहाँ से। सेमिटिक भाषा परिवार की एक धातु है अह्द अर्थात अ-ह-द (ahd) जिसमें अनुबन्ध, क़रार, इक़रार, वादा जैसे भाव हैं। इससे बने अहद में भी ये भाव सुरक्षित रहे साथ ही वक्त, काल, शासनकाल जैसे भाव भी इसमें शामिल हुए। उर्दू फ़ारसी में अहदनामा एक पद है जिसका अर्थ भी वही है जो क़रारनामा / इक़रारनामा का होता है। क़रारनामा दरअसल एक सहमतिपत्र होता है जिसमें दो पक्ष या दो व्यक्ति किसी बिन्दु पर सहमति के हस्ताक्षर करते हैं। इसे हिन्दी में अनुबन्धपत्र कहते हैं। गौर करें कि अरबी शब्दों में फ़ारसी के प्रत्यय लग कर हज़ारों नए शब्द बनते रहे हैं जो उर्दू हिन्दी में भी सीधे सीधे चले आए हैं। अहद के साथ दार शब्द लगने से अहददार शब्द बनता है। मुस्लिम शासनकाल में अहददार दरअसल अनुबन्ध पर नियुक्त एक कारिन्दा होता था। कुछ कुछ उन कमीशन एजेंटों की तरह जिन्हें बैंकों द्वारा अपने कर्जों की वसूली के लिए नियुक्त किया जाता है। अहदी / अहद से मिलता-जुलता शब्द है ओहदा जिसका इस्तेमाल भी हिन्दी में होता है। ओहदा यानी पद, रुतबा, पोस्ट आदि। ओहदा भी हिन्दी में प्रयोग किया जाता है। फ़ारसी में इसका रूप ओहदे होता है। उच्च पद पर तैनात व्यक्ति को ओहदेदार कहते हैं। अरबी में इसका रूप उह्दा होता है। उह्दा शब्द का मूलार्थ भी वचन, वादा, अनुबन्ध या शपथ ही है। निश्चित ही उच्चपदासीन व्यक्ति का राज्य के साथ नैतिक अनुबन्ध होता है। वह कर्तव्यपालन की शपथ लेता है और आम लोगों के के प्रति वह वचनबद्ध होता है।
ये कारिन्दे कर्जदार से नियमित वसूली न हो पाने की स्थिति में डरा धमका कर या मार पीट कर वसूली का काम करते थे। अहद यानी क़रार और दार यानी जिससे किया गया हो, अर्थात अनुबन्धित व्यक्ति। इसे ही कमीशन एजेन्ट कहते हैं। अहददार को ही अहदी भी कहा जाता था। अहदियों को बड़े बड़े मालगुज़ारों, ज़मींदारों से भी करों की वसूली के लिए भेजा जाता था। आम तौर पर रसूखदार लोगों से वसूली मुश्किल होती थी, ऐसे में सरकार को अहदियों की विशेष सेवाएँ लेनी पड़ती थीं। हिन्दी शब्द सागर के मुताबिक- “ये लोग कभी कभी उन जमींदारों से मालगुजारी वसूल करने के लिए भी भेजे जाते थे, जो देने में आनाकानी करते थे। ये लोग अड़कर बैठ जाते थे और बिना लिए नहीं उठते थे।” मगर ये लोग साधारण मालगुज़ार न थे जो वेतनभोगी कर्मचारी था। ये विशेष रुतबे वाले लोग थे, अहददार थे, इसीलिए अहदी थे। शब्द सागर में दिए संदर्भ से ऐसा लगता है कि अहदियों की भूमिका सिर्फ़ वसूली कारिन्दे की थी। मगर ऐसा नहीं है। अहदियों के बारे में कई सन्दर्भ मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि अहदी सीधे बादशाह के अधीन काम करने वाले खास अहलकार होते थे जिनका रुतबा फ़ौजी अफ़सर का भी होता था मगर फ़ौज के सामान्य पदानुक्रम में वे न होकर सीधे बादशाह के लिए काम करते थे। सामान्य गुप्तचरी से जुड़े लोग भी इनमें होते थे। मनसबदार, जागीरदार भी अहदी हो सकते थे। और तो और गुणी कलावन्तों का शुमार भी अहदियों में होता था।
जॉन प्लैट्स के कोश में स्वामीभक्त, सेवानिवृत्त अफ़सरों को भी अहदी का रुतबा मिलने की बात कही है। ये लोग कोई काम नहीं करते थे। घुड़सवार दस्ते के लोग भी अहदी कहलाते थे। मगर अक्सर उन्हें उच्च प्रशासनिक ज़िम्मेदारियाँ भी दी जाती थीं। घुड़सवार दस्ते का ज़्यादातर वक्त घोड़ों की देखरेख और खाली बैठने में ही जाता था। इसके अलावा इनका प्रमुख काम संदेश पहुँचाना था।  शासन की ओर से इन्हें भारी तनखाहें दी जाती थीं। सवाल उठता है कि इतने महत्वपूर्ण रसूख वाले शब्द के साथ आलसी, कामचोर जैसी अर्थवत्ता क्यों जुड़ी? एक वजह तो यह हो सकती है कि वसूली कारिन्दा जैसी ज़िम्मेदारी के चलते ही अहदी शब्द के साथ आलसी, निकम्मा, कामचोर जैसी अर्थवत्ता जुड़ी हो। वसूली का काम साल में एक या दो बार होता था, ऐसे में बाकी समय ये कारिन्दे खाली होते थे और अपनी ख़ास आरामगाह, जिसे अहदीख़ान कहा जाता था, में पड़े रहते थे। कुछ शब्दकोशों में अहदी का अर्थ अफीमची, मदकची, भंगेड़ी, गंजेड़ी भी बताया गया है। मेरा विचार है कि अहदी पद के आलसी ओहदेदारों की कारगुज़ारियाँ देखने के बाद ही अहदी शब्द की अर्थवत्ता में यह परवर्ती विकास हुआ होगा।
हदियों के बारे में यह स्पष्ट है कि इन्हें विशेष काम अंजाम देने के लिए ही राज्याश्रय मिलता था। ये विशिष्ट फ़ौजी काम भी हो सकते थे। कुछ लोगों को सिर्फ़ खास संदेश देने के लिए रखा जाता था। इन तमाम लोगों को जब तक फ़रमान नहीं मिलता था ये लोग या तो अहदीख़ाना जैसी एक आरामगाह में काम के इंतज़ार में वक़्त गुज़ारते थे। इस दौरान सरकारी तौर पर उनके ऐशोआराम का पूरा ख्याल रखा जाता था। कई अहदी ऐसे भी होते थे जो इस किस्म की आरामतलबी के आदी हो जाते थे और मौका आने पर अपना फ़र्ज़ पूरा करने में नाकाम साबित होते थे। इन हालात में आम लोगों में इन अहदियों के बारे में दिल्लगी होती थी। धीरे धीरे अहदी शब्द का रुतबा घटता गया। बाद में आलस्य के लिए अहदीपन जैसे क्रियाविशेषण भी बन गए। एनेमेरी शिमर और बर्जिन के वैग्मर ने द एम्पायर आफ द ग्रेट मुगल्स में में लिखा है कि अहदीपन उन अहदियों की वजह से प्रचलित हुआ जो आरामतलबी की वजह से अपने फ़र्ज़ को अंजाम देने में नाकामयाब होने लगे थे।

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Saturday, October 15, 2011

अग्निपरीक्षा थी सौगन्ध [गन्ध-3]

पिछली कड़ियाँ-1.गंदगी और गन्धर्व-विवाह2.Deathक्यों खाते हैं सौगन्ध ?

तार (पवित्राग्नि) की अवधारणा के तहत ऐसे ही विधानों में एक शपथ विधान भी था जिसका उल्लेख अवेस्ता में है। इसी अनुष्ठान का मध्यकालीन पर्शियन सन्दर्भों में ‘सोगन्द’ खोरदन (sogand xwardan, xordan) के रूप में ज़िक्र हुआ है। अवेस्ता में गन्धक को ‘सौकन्त’ कहा गया है। ‘सौकन्त’ और ‘सौगन्ध’ की समानता गौरतलब है। विशेषज्ञों का मानना है कि अवेस्ता का ‘सौकन्त’ saokant ही मध्यकालीन पर्शियन में ‘सोगन्द’ sogand हुआ और फिर आज की फ़ारसी में सौगन्द sowgand बना। अवेस्ता में ‘सौकन्त’ का तात्पर्य गन्धक से था। ‘सौकन्त’ के बारे मं बहुत कम सन्दर्भ उपलब्ध हैं और जो हैं उनमें भी इस शब्द की व्युत्पत्ति का कोई सूत्र नहीं मिलता। न्साइक्लोपीडिया इरानिका में जो जानकारी मिलती है उससे लगता है कि ‘सौकन्त’ पीने (खाने) की परिपाटी ईसापूर्व एक हज़ार साल पहले ईरान में रही होगी। इस शपथ का उद्धेश्य था सत्य का परीक्षण करना। अर्थात ‘सोगन्द’ खोरदन के तहत गन्धक से बनी एक ओषधि को पीना होता था। यह माना जाता था कि गवाही देने से पहले ‘सौकन्त’ युक्त ओषधि पीने वाला व्यक्ति अगर झूठा है तो ‘सौकन्त’ में निहित गन्धक की तीव्रता से उसका गला जल जाएगा। यहाँ जलने की क्रिया ही खास है। अग्नि सत्यशोधक है, यह बात अग्निपूजक ईरानियों में सर्वमान्य थी। यूँ भी आग में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। भारतीय सन्दर्भों में भी विष पीने, आग पर चलने, अंगारा उठाने जैसी मिसालें सचाई की चमक की पुष्टि करती हैं। सत्य ही अग्नि का प्रतीक है।
कुछ व्याख्याकारों का मानना है कि खोरदन में पीने का भाव भी है और खाने का भी। रस्म के तौर पर तो गन्धक से बनी ओषधि को पीने का उल्लेख ही सन्दर्भों में है, मगर समझा जा सकता है कि ‘सोगन्द’ के साथ बाद में खाने का भाव रूढ़ हुआ और इसे ‘‘सौगन्द’ ’ खोरदन कहा जाने लगा। यह महत्वपूर्ण है कि शपथ जैसी विधियों या अनुष्ठानों के साथ लेने, उठाने, खाने का ही भाव ज्यादा है। ‘सौगन्ध’ ली भी जाती है और खाई भी जाती है। ‘क़सम’ उठाई भी जाती है, ली भी जाती है और खाई भी जाती है। ‘क़सम’ चढ़ाई भी जाती है और उतारी भी जाती है। हिन्दी मराठी में खायी भी जाती है, ली भी जाती है और उठाई भी जाती है। प्रतिज्ञा की जाती है या ली जाती है। वचन दिया जाता है या लिया जाता है।
‘सौकन्त’ के बारे में गन्धक के अलावा एक अन्य सन्दर्भ पर्वत का मिलता है जिसके बारे में अवेस्ता और फारसी साहित्य में ज्यादा कुछ मिलता नहीं है, लेकिन जहाँ भी इसका उल्लेख हुआ है वहाँ एक वलयाकार स्वर्ण-पथ की मौजूदगी बताई गई है इसका सम्बन्ध धरती के किसी रहस्यमयी जादुई अध्यात्मिक जगह से है। नसरवानजी फ्रामजी बिलिमोरिया द्वारा सम्पादित ‘जोरास्ट्रियनिज्म’ में ‘सौकन्त’ पर्वत की आध्यात्मिक व्याख्या है। किताब के मुताबिक ‘सौकन्त’ पर्वत को हम भारतीय संस्कृति में प्रचलित मेरु पर्वत से जोड़ सकते है जो की पृथ्वी के मध्य स्थित है और वहाँ देवताओ का निवास है। पुस्तक में वलयाकार स्वर्ण-पथ की तुलना मेरुदण्ड से की गई है। मेरु दंड की सरंचना मनुष्य की रीढ़ की हड्डी की तरह होती है और ‘सौकन्त’ पर्वत की तरह ही मेरु पर्वत भी उत्तरी ध्रुव पर ही स्थित है। हम इससे ये अनुमान लगा सकते है की शारीरिक सरंचना में भी हम इस पर्वत को मनुष्य के उपरी भाग में स्थित मान सकते है। दूसरे शब्दों में कहे तो ‘सौकन्त’ पर्वत एक भौगोलिक जगह नहीं है बल्कि मनुष्य के मस्तिष्क के उपरी हिस्से में स्थित है जहाँ ब्रह्मरन्ध्र होता है जहाँ परमज्ञान की अनुभूति होती है। परमज्ञान यानी परमसत्य। अहुरमज्द इसी सत्य के प्रतीक है, परमशक्ति है, अग्नि के सूर्य के प्रतीक हैं। इस मुकाम पर आकर सत्य परीक्षण की बात से ‘सौकन्त’ का रिश्ता जुड़ता है।
‘सौकन्त’ के ‘सौ’ को अगर भूल जाएँ तो शेष रहता है ‘कन्त’ जिसका साम्य संस्कृत ‘गन्ध’ से होता है। इंडो-ईरानी, ईरानी- सेमिटिक भाषाओं में ‘क’ और ‘ग’ में परिवर्तन होता है। मध्यकालीन फ़ारसी में इस ‘कन्त’ का रूपान्तर ‘गन्द’ हो गया। ‘त-द-ध’ वर्णों में भी रूपान्तर आम बात है। यह सिर्फ़ अनुमान है, मगर इसका पुख्ता आधार है ‘सौकन्त’ में निहित गन्धक का अर्थ। गौर करें गन्धक का जन्म भी गन्ध ( बू ) से ही हुआ है। फ़ारसी सौगन्द में चाहे गन्ध ( बू ) नहीं है, मगर इसमें जो ‘गन्द’ है, वह अवेस्ताई ‘सौकन्त’ के ‘कन्त’ से आ रही है जिसका अर्थ गन्धक ( सल्फ़र ) होता है और गन्धक में ‘बू’ वाली ‘गन्ध्’ धातु ही है। फ़िलहाल यह तो तय है कि कसम या शपथ के अर्थ में हिन्दी के ‘सौगन्ध’ का मूल फ़ारसी का ‘सौगन्द’ है जिसकी रिश्तेदारी सीधे सीधे ‘सुगन्ध’ से नहीं हैं। फ़ारसी ‘सौगन्द’ हिन्दी की सुगन्ध के प्रभाव में आकर ‘सौगन्ध’ हो जाता है। फिर बोली भाषा में इसका रूप ‘सौन्ध’ होता है। अवधी में इस ‘सौन्ध’ के ‘ध’ (द+ह) ‘द’ का लोप होकर ‘ह’ शेष रहता है अलबत्ता अनुनासिकता बरकरार रहती है। इस तरह सौगन्ध का ‘सौंह’ रूप बनता है। एक दिलचस्प बात और ध्यान आ रही है। अवेस्ता में अगर ‘सौकन्त’ (गन्ध) का एक सन्दर्भ पर्वत मिलता है तो संस्कृत में भी इस ‘गन्ध’ का रिश्ता एक पर्वत से है जिसका नाम ‘गन्धमादन’ पर्वत है और इसका उल्लेख पुराणों में है। -समाप्त

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Friday, October 14, 2011

क्यों खाते हैं सौगन्ध ? [गन्ध-2]

बीते साल गन्ध पर लिखते हुए मुझे कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली थीं और उसे मैने दो कड़ियों में देना तय किया था। पर जैसा कि अब तक होता आया है, कई शब्दों पर एक साथ काम करते हुए अक्सर सीरीज वाले शब्दों की अगली कड़ी लिखना मैं भूलता रहा और फिर नया शब्द शुरू। शब्दचर्चा समूह पर विचरण के दौरान भाई अभय तिवारी को सौगन्ध पर चर्चा करते पाया तो अपनी सौगन्ध याद आई। फौरन पुराने सन्दर्भ टटोले। दूसरी कड़ी कुछ लम्बी हो गई है इसलिए इसे भी दो किस्तों में पढ़ें-
oath
सु गन्ध और ‘सौगन्ध’ में क्या अन्तर है? बड़ी आसान सी बात है कि ‘सुगन्ध’ यानी खुशबू और ‘सौगन्ध’ यानी शपथ, क़सम आदि। पूर्वी बोलियों में ‘सौगन्ध’ यानी शपथ ‘सौंह’ रूप में बसा है जबकि फ़ारसी में इसका रूप ‘सौगन्द’ या ‘सोगन्द’ होता है। मतलब समान है- शपथ। आमतौर पर माना जाता है कि ‘सुगन्ध’ का रिश्ता ‘सौगन्ध’ से हैं। बात भी सही है कि ‘सौगन्ध’ और ‘सुगन्ध’ में बड़ी दिलचस्प रिश्तेदारी है क्योंकि दोनों में ही ‘गन्ध’ का बसी है। ध्वनि, वर्ण समानता के आधार पर ‘सुगन्ध’ और ‘सौगन्ध’ लगभग समान लगते हैं, मगर शब्दकोशों में ‘सौगन्ध’ का सिर्फ़ शपथ वाला अभिप्राय प्रकट होता है, ‘सुगन्ध’ वाला नहीं। हालाँकि जॉन प्लैट्स के कोश में ‘सौगन्ध’ का एक अर्थ ‘सुगन्ध’ ही बताया गया है। ‘सौगन्ध’ यानी एक खुशबूदार घास। वे इससे जुड़ा एक मुहावरा “सुगन्ध-सना” भी बताते हैं। इस प्रविष्टि में ‘सौगन्ध’ का रिश्ता क़सम या शपथ से नहीं जोड़ा गया है। यही नहीं, ‘सौगन्ध खाना’ जैसे मुहावरे के साथ खाने की, भक्षण करने की जो क्रिया है उससे इसका सम्बन्ध ‘सुगन्ध’ से नहीं हो सकता क्योंकि उसका रिश्ता सूँघने की क्रिया से है। आखिर ‘सौगन्ध’ क्यों खायी जाती है?

बसे पहले ‘गन्ध’ की बात। संस्कृत में गंध का रूप गन्धः है जिसका अर्थ ‘वास’ या ‘बू’ है। इसमें अच्छा या बुरा विशेषण नहीं लगा है। मगर यही ‘गन्ध’ फारसी में ‘गंद’ के रूप में दुर्गन्ध की अर्थवत्ता धारण करती है। फारसी में सामान्य गन्ध के लिए ‘बू’ शब्द है जिसके खुशबू और बदबू जैसे रूप प्रचलित हैं, किंतु हिन्दी में सिर्फ ‘बू’ के मायने भी खराब गंध होता है। ठीक इसी तरह जैसे संस्कृत के ‘वास्’ का अर्थ सुगंधित करना होता है मगर उसका हिन्दी रूप बना ‘बास’ जिसे ‘बदबू’ समझा जाता है। ‘गन्ध’ का फारसी रूप ‘गंद’ व्यापक अर्थवत्ता रखता है और इसमें मलिनता, गलीजपन, घिनौनापन, निर्लज्जता या व्यवहारगत अनैतिककर्म, प्रदूषित अथवा लज्जास्पद शब्द भी शामिल हैं।

प्राचीन ईरान की अग्निपूजा से जुड़ी एक आनुष्ठानिक परम्परा का ‘सौगन्ध’ से गहरा रिश्ता है। यह वैदिकयुगीन ईरान की बात है यानी अग्निपूजक पारसिकों के दौर की। यहाँ की प्राचीनतम भाषा अवेस्ता थी। जरथुस्त्र (ईपू दसवीं सदी) के पूर्व के ईरानी-आर्य, भारतीय-आर्यों की भाँति ही अग्निपूजक, यज्ञपरायण तथा देवोपासक थे परन्तु मतभेद के कारण ईरानियों के लिए ‘देव’ का अपकर्ष हो गया और भारतीय आर्यों के लिए ‘असुर’ का। ईरानियों ने ‘असुर’ को देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। ऋग्वेद के प्राचीनमंत्रों में ‘असुर’ शब्द वरुण आदि देवताओं के विशेषण के रूप में व्यवहृत हुआ है। अवेस्ता में ईश्वर को अहुरमज़्दा-असुरमेधा कहा गया है। प्रायः हर संस्कृति में मनुष्य ने अपने निवास के पास अग्निस्थापना की है। प्राचीन ईरान में भी हर घर में अग्निस्थान होता था। वैदिक काल से आज तक हिन्दू परिवारों में घर के भीतर अग्निस्थान निश्चित होता है। इन स्थानों के कुछ विशिष्ट नाम भी हैं जैसे अग्निकुण्ड, अग्निवेदी, अग्निगृह, अग्निधान, अग्निष्ठस्। रसोईघर तो पारम्परिक अग्निस्थान है ही।
भाषाशास्त्रियों और इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन ईरान के अग्निविधान मगध के अग्निपुरोहितों द्वारा कराए जाते थे, जो बाद में वहीं बस गए। ‘मागध‘ ब्राह्मण होने की वजह से वहाँ वे ‘मागी’ कहलाए। पश्चिमी यात्रियों ने इन मागियों के अग्निविधानों को चमत्कार माना। प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में इन्हें ‘मागीज़‘ कहा गया है। बाद में मागीज़ का रूपान्तर ‘मैजिक’ हुआ। अपने विचित्र अनुष्ठानों की वजह से मागी से ही मैजिशियन शब्द भी बना जिसका अर्थ हुआ जादूगर। वैदिक काल में अग्निकर्म कराने वाले पुरोहित को अथर्वन् कहते थे। पश्चिमी विचारकों ने इस अथर्वन् को भी तंत्र-मंत्र कर्ता के रूप में ही देखा। पारसिकों में पवित्र-अग्नि की अवधारणा है जिससे समूची सृष्टि ऊर्जा प्राप्त करती है, इसे ‘अतर’ या ‘अतार’ कहते हैं। ‘अथर्व’ या ‘अथर्वन् ‘से इसका शब्द साम्य देखा जा सकता है। अवेस्ता में रचित पारसिकों के प्राचीन धर्मग्रन्थ गाथा में भी ‘अतार’ का उल्लेख हुआ है।
क बार फिर ‘गन्ध’ पर आते हैं। एक प्रसिद्ध रसायन ‘गन्धक’ का नामकरण भी इसी ‘गन्ध्’ धातुमूल से हुआ है। दरअसल ‘सौगन्ध’ में जो गन्ध है उसमें अभिप्राय ‘गन्धक’ का है। अत्यंत तीक्ष्ण गंध वाले इस पदार्थ को अंग्रेजी में सल्फर कहते हैं। दिलचस्प यह भी कि प्रकृति में गन्धक परिशुद्ध रूप में नहीं मिलता। वह किसी न किसी यौगिक के रूप में होता है और इसीलिए उसमें से गन्ध आती है। परिशुद्ध सल्फर गन्धहीन होता है। इसके औद्योगिक और ओषधीय उपयोग हैं। एक पाचक दवा को ‘गंधवटी’ भी कहते हैं। वैसे गन्धक अत्यधिक ज्वलनशील और अग्निमित्र पदार्थ है। तेज गन्ध की वजह से ही इस पदार्थ को गन्धक कहा गया। प्याज में सल्फ़र बड़ी मात्रा में होता है और इसकी तेज़ गन्ध के पीछे, जिसे कई लोगो बदबू कहते हैं, गन्धक ही है। बहरहाल, यज्ञप्रिय वैदिक आर्यों की भांति ही पारसिकों के आचारव्यवहार पर भी अग्निपूजक संस्कृति की छाप थी। तमाम अनुष्ठानों में अग्निपूजा का महत्व था। अहुरमज्द ही परमज्ञान अथवा शक्तिपुंज का भी प्रतीक है।
प्राचीन ईरान में पारसिक ‘यज्ञ’ (यज्, यजन) करते थे जिसे अवेस्ता में ‘यश्न’ कहा जाता था। यही ‘यश्न’ कालान्तर में ‘जश्न’ बन कर फिर भारत लौट आया। यह ‘यश्न’ अहुरमज्द की उपासना के लिए था। जिस तरह से भारत के ग्रामीण समाज में आज भी प्रेतबाधा ग्रस्त व्यक्ति को दागा जाता है, अथवा ईमान की परीक्षा के लिए अग्निपरीक्षा का विधान है, ऐसे ही कर्मकाण्ड प्राचीन ईरानी समाज में भी प्रचलित थे। मूलतः ये कर्मकाण्ड अग्निपूजा का विधान ही थे और इसके मूल में अग्नि को साक्षी कर सत्य या बुराई का परीक्षण करना था। जैसे झूठ बोलने पर आग को जीभ पर रखना, धोखाधड़ी करने पर शरीर को गर्म लोहे की छड़ों से दागना या शरीर पर खौलता हुआ पानी डालना जैसे परीक्षण होते थे जो मूलतः अग्निपरीक्षा ही थी। अर्थात अगर आरोपी निर्दोष है तो पवित्र-अग्नि उसे नुकसान नहीं पहुँचाएगी। बाद में ये सब ढकोसला बन गए।
-अगली कड़ी में समाप्त
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Wednesday, October 12, 2011

गलाटा नक्को करने का !

loud-mouth

क्कनी के शब्दों की हिन्दी में आमद मुम्बइया फिल्मों के ज़रिये अर्से से होती रही है। तुर्क-पठानों नें आठ-नौ सदी पहले से दक्षिण में बसना शुरू कर दिया था। फ़ारसी, हिन्दवी और हिन्दी की कई बोलियों से छनते छनते इन तुर्कों का वास्ता जब दक्खिन की कोंकणी, कानड़ी और मराठी बोलियों के शब्दों से हुआ तो एक निरालापन पैदा हो गया। संस्कृतियों के हेलमेल, लगत-जुड़त और उससे बढ़ कर संकरण की प्रकिया में ही सृजन की इतनी ऊर्जा निहित है कि इससे गुज़र कर बने शब्द को एक नई पहचान, नई अर्थवत्ता मिल जाती है। ऐसा ही एक शब्द है ‘गलाटा’। महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसे बोला समझा जाता है। आमतौर पर यह टपोरियों का शब्द है। ‘गलाटा’ यूँ तो मुम्बइया हिन्दी के ज़रियों फ़िल्मों और जासूसी उपन्यासों में सुनने-पढ़ने को मिलता है मगर बिन्दास की तरह कुछ सालों में यह भी हिन्दी वालों का पसंदीदा बन जाएगा, इसमें संदेह नहीं।
‘गलाटा’ बोले तो गड़बड़ी या पेचीदगी। बखेड़ा, फ़साद, टंटा वग़ैरह वग़ैरह। झगड़ा, फ़साद, टंटा, में बहुत कुछ देखने-सुनने लायक होता है। यानी गड़बड़ियों की इन तमाम क़िस्में में हाथापाई से लेकर ज़बानदराज़ी तक सब शामिल है। मगर कुछ गड़बड़ियाँ बड़ी खामोंश होती हैं जैसे काम बिगड़ जाने से जुड़ी कई स्थितियाँ। सगाई टूटना भी ‘गलाटा’ है और ट्रेन चूकना भी गलाटा है। मगर गलाटा की असल रिश्तेदारी खामोशी से नहीं वरन हल्ला-गुल्ला से है। गलाटा शब्द दरअसल मराठी के ‘गळ्हाटा’ या ‘गळ्हाठा’ से बना है। हिन्दी भाषी ‘ळ’ का उच्चार ‘ल’ या ‘ड़’ की तरह करते हैं। इसका चालू उच्चारण होगा ‘गळाटा’ जिसे हिन्दी वालों ने ‘गलाटा’ कहना शुरू किया। आमतौर पर मराठी-कोंकणी का जो शब्द मुंबइया हिन्दी में प्रचलित होता है उसके पीछे वहाँ के हिन्दीभाषियों  से ज्यादा मुंबई के तमिल, कन्नड़ और गुजराती समाज में उस शब्द का प्रचलित रूप महत्वपूर्ण होता है। वैसे ‘गळ्हाटणें’ मराठी की बहुप्रचलित क्रिया है और इससे बने ‘गळ्हाटा’ का दक्कनी में ‘गलाटा’ रूप प्रचलित हुआ। ‘गळ्हाटणें’ का शाब्दिक अर्थ है गला फाड़कर रोना। मगर बतौर मुहावरा इससे बने गळ्हाटा का अर्थविस्तार होता है और इसमें कुछ गुम होना, कमी पड़ना, क्षीण होना, ह्रास होना, गड़बड़ी, अस्तव्यस्ता, उन्माद, बखेड़ा, शांति भंग जैसे भाव शामिल हो जाते हैं।
‘गळ्हाटणें’ का ही एक रूप गळ्हाटा / गल्हाठा होता है जिससे ‘गलाटा’ बना। गौर करें मराठी के ‘ळ’ का उच्चारण भी हिन्दी में ‘ल’ की तरह होता है हालाँकि मराठी में यह स्वतंत्र व्यंजन है। गुजरात के सीमित क्षेत्रों और समूचे राजस्थानी बोलियों भी की उपस्थिति है। ‘गला’ को मराठी में ‘गळा’ कहा जाता है। गला या गळा बना है संस्कृत की ‘गल्’ धातु से जिसका अर्थ है टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना आदि। गौर करें इन क्रियाओं में नष्ट होने, खत्म होने का भाव भी है। इसका एक अन्य अर्थ है अन्तर्धान होना, गुजर जाना या ओझल हो जाना आदि। हिन्दी के गली और गला शब्द का रिश्ता इसी गल् धातु से है। मराठी में ‘गली’ का ‘गल्ली’ रूप है और गला को गळा कहा जाता है। सम्बन्ध संस्कृत ‘गल्’ से ही है। गौर करें गले की संरचना पर। मुँह के ज़रिये हलक़ में जो कुछ भी जाता है, वह अंतर्धान हो जाता है, ग़ायब हो जाता है। ‘गल्’ से बनी ‘गलन’ क्रिया का अर्थ है टपकना, रिसना आदि। ये क्रियाएँ ज़ाहिर करती हैं कि टपकना और रिसना अनंतकाल तक नहीं हो सकता, अर्थात रिसने वाला पदार्थ खत्म भी होगा। यहाँ जो खत्म होने का भाव है, अंतर्धान होने का भाव है उसे गले में उतरते भोजन के ज़रिए समझा जाए। मुँह में रखा पदार्थ गले में जाकर गायब हो जाता है। यही है गल् का क्रियारूप। इससे ही बना है एक मुहावरा निगल लेना या निगलना। किसी वस्तु या सामग्री को हड़पने या कब्ज़ा जमाने के संदर्भ में निगलना मुहावरा इस्तेमाल होता है।
हिन्दी के ‘गला फाड़ना’ मुहावरे का शाब्दिक अर्थ मराठी के ‘गळ्हाटणे’ जैसा ही है मगर जो बात ‘गळ्हाटा’ और ‘गलाटा’ में है वह ‘गला फाड़ना’ में नहीं। गौर करें कि गल् धातु में निहित भावों पर। गायब होने, नष्ट होने, रिसने, चूने, पिघलने जैसी क्रियाओं में हानि का, रहित होने का, रीतने का भाव है। तयशुदा नतीजों के न आने, योजना चौपट होने, अनहोनी जैसी स्थितियों को ही गड़बड़ी कहा जाता है। बना बनाया काम बिगड़ जाना ही बखेड़ा है और प्रकारान्तर से यही गळ्हाटा या गलाटा है। यूँ कुछ लोगों का मानना है कि काम बिगड़ने पर यूँ भी इन्सान गला फाड़कर रोता है, आर्तनाद करता है, क्रंदन करता है इसलिए गलाटा का लाक्षणिक अर्थ बखेड़ा या काम बिगड़ना हुआ,इसका मूलार्थ बुक्का फाड़ कर रोना ही है। मेरा मानना है कि गळ्हाटणे क्रिया में गला फाड़ कर रोना या बुक्का फाड़ना जैसे अर्थ निहित हैं मगर गलाटा करना, गलाटा होना में आर्तनाद, क्रन्दन या गला फाड़ना जैसे भाव न होकर कुछ रीतने, हानि होने से उत्पन्न बखेड़े या अशांति का भाव प्रमुख है।

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Tuesday, October 11, 2011

होनहार भूत और अनहोनी

panini

हि न्दी में ‘होना’ एक बहुत आम क्रिया है। कुछ घटित होने के अर्थ में होना क्रिया बोली और लिखत-पढ़त की भाषा में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली क्रिया है। ‘होना’ क्रिया का जन्म अधिकांश विद्वान संस्कृत के ‘भवन्’ से मानते हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक भवन का प्राकृत रूप होण था जिसका हिन्दी रूप होना है। समझा जा सकता है कि भवन > हअण > होण > होन > होना, कुछ इस क्रम में ‘होना’ का विकास समझ आता है। इस वाक्य को अगर यूँ लिखा जाए- “कुछ इस क्रम में होना का विकास हुआ होगा” गौर करें कि ये ‘हुआ’ और ‘होगा’ भी ‘होना’ के ही कालसूचक क्रियारूप हैं अर्थात ये भी ‘भवन’ से सम्बद्ध हैं। होना की मूल धातु ‘हो’ है। कुछ का कुछ होना यानी काम बिगड़ना,  किसी का होना यानी अपनी आस्था किसी को सौंपना, होता-सोता यानी सगा-सम्बन्धी। होकर रहना यानी अनिष्ट घटना आदि। 
हिन्दी वर्तमानकालिक वाक्य रचनाओं के अन्त में ‘हूँ’, ‘है’, ‘हो’ जैसी सहायक क्रियाएँ अवश्य लगती हैं। ये सभी ‘हो’ या ‘होना’ से सम्बद्ध हैं। विभिन्न व्याकरणाचार्यों ने ‘होना’ के विभिन्न रूपों का विकास संस्कृत की ‘अस्’ धातु या ‘भू’ धातु से माना है। इसमें ‘भू’ से ही होना का विकास अब सर्वमान्य है। उदयनारायण तिवारी और धीरेन्द्र वर्मा हूँ रूप को ‘अस्मि’ से यूँ सिद्ध करते हैं- संस्कृत, अस्मि > प्राकृत, अम्हिं > हिन्दी, हूँ। डॉ भोलानाथ तिवारी ‘हूँ’ का विकास संस्कृत की ‘भू’ धातु के वर्तमानकालिक रूप से ही मानते हैं मसलन संस्कृत, पाली में भवामी > प्राकृत में होमी > अपभ्रंश में होवि > हौं > हिन्दी, हूँ। डॉ तिवारी कहते हैं कि ये सभी रूप ‘हो’ धातु के हैं जो कि ‘भू’ से ही विकसित हो सकते हैं न कि ‘अस्’ से। इन सहायक क्रियाओँ की विशेषता ये है कि इनमें पुरुष और वचन के अनुरूप बदलाव होता है। लिंग से वाक्य रचना में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जैसे उत्तम पुरुष में- मैं जा रहा हूँ / हम जा रहे हैं। मध्यम पुरुष में तुम जा रहे हो / वे जा रहे हैं। अन्य पुरुष में वह जा रहा है/ वे जा रहे हैं। ‘भव’ से ही पूरवी बोलियों का ‘भया / भवा’ शब्द बना है। हिन्दी में इसका रूप ‘हुआ’ बनता है। ‘भयो’ का मालवी रूपान्तर काँईं ‘हुओ’ / काँईं’ होयो’ है। अन्यमनस्कता को सिद्ध करने के लिए हिन्दी में ‘हूँ-हाँ करना’ मुहावरा बहुत कुछ कह देता है।
संस्कृत के ‘भवनम्’ का एक अर्थ होता है आवास, निवास, घर, प्रकोष्ठ, स्थान, आधार, इमारत या प्रकृति। यहाँ प्रकृति शब्द पर गौर करें। इसके अलावा जितने भी पर्याय हैं वे सब आश्रय शब्द के दायरे में आते हैं। ये निर्मित हैं। भवन को बनाया जाता है अर्थात उसमें होने की क्रिया निहित है। कुछ आश्रय प्राकृतिक भी होते हैं जैसे वृक्ष-कोटर, पर्वत-कंदरा, गुफा आदि। ये सब मनुष्य के प्राकृतिक आवास होते हैं। प्रकृति अपने आप में जीव-जगत का नैसर्गिक आश्रय है, इसलिए प्रकृति का एक अर्थ ‘भवन’ महत्वपूर्ण है। भवनम् बना है संस्कृत धातु ‘भू’ से जिसमें मूलतः घटित होने का भाव है। घटित होने में उगने, पैदा होने, जन्म लेने, उदित होने, आकार लेने, उगने, निकलने, जीवित रहने, विद्यमान रहने का भाव है। व्यापक और दार्शनिक अर्थों में ये सब क्रियाएँ और भावार्थ सृष्टि की ओर इंगित करते हैं।
भू से संस्कृत में भूः बनता है जिसमें विश्व, सृष्टि, पृथ्वी जैसे भाव हैं। पृथ्वी के सभी भाव बड़े प्रतीकात्मक में हैं। इसी कड़ी में ‘भू’ से बना भूमि जो विश्व के सभी जीवधारियों का आश्रय है। ‘भूमि’ जैसी रचना में होने का भाव स्वतः निहित है। ‘भूमि’ यानी जो हो चुकी है अर्थात जो विद्यमान है। ‘भूमिका’ शब्द का अर्थ भी ज़मीन, आधार, पृथ्वी, स्थान, प्रदेश आदि है। अभिनय के संदर्भ में भूमिका का अर्थ है नाटक का कोई चरित्र। यहाँ आधार शब्द प्रमुख है। नाटकीय चरित्र ही नाटक का आधार होते हैं। ‘भौमिक’ का अर्थ है पार्थिव अर्थात भूमि सम्बन्धी। ‘भू’ के साथ जब ‘क्त’ प्रत्यय लगता है तो बनता है ‘भूत’ अर्थात जो हो चुका है, बीत चुका है, व्यतीत हो चुका है। अतीत का विषय। जो घट चुका है। भूतकाल का हिस्सा है इसलिए जो सामने है, वर्तमान है, जो सामने है, वह भी भूत है और जो घट चुका है, जो अतीत है वह भी भूत है। भूत यानी तत्व यानी पंचमहाभूत-अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश। ज़ाहिर है समूची सृष्टि के भाव वाला ‘भू’ यहाँ स्पष्ट है। व्यतीत के अर्थ में ‘भूत’ का एक अर्थ और है, मगर यही अर्थ सर्वाधिक लोकप्रिय और व्यापक है। भूत यानी प्रेत, पिशाच, मृतात्मा, बुरी आत्मा आदि। मनुष्य का जीवन जब सम्पन्न हो जाता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है। यह माना जाता है कि प्रत्येक शरीर में आत्मा का वास होता है। सद्ग्रहस्थ या सन्यासी को मोक्ष मिलता है मगर विषय वासना से युक्त जीवधारी की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता और मतात्मा तभी भूत कहलाती है। भूत का होना यहाँ सिद्ध है। जो हो चुका है, बीत चुका है वही भूत है। न भूतो, न भविष्यति उक्ति से सब अवगत हैं।
वनम् से बने ‘होना’ में अस्तित्व या विद्यमानता का भाव प्रमुख है। ‘भव्य’ शब्द भी इसी मूल का है जिसमें उत्तम, शानदार, योग्य जैसे भाव है। मुख्यतः भव्य में भी विद्यमानता या होने वाला जैसे ही भाव है। अर्थविस्तार होते हुए इसमें मनोहर, प्रिय, अत्युत्तम, आलीशान जैसे भाव भी समा गए। होना मे मुहावरेदार अर्थवत्ता भी है। होनी, अनहोनी, होनहार जैसे शब्द जो इसी कड़ी से जुड़े हैं, मुहावरे की अर्थवत्ता रखते हैं। ‘होनी’ का अर्थ हो जो होने वाला है अर्थात भविष्य के गर्भ में छुपी बात। अनहोनी यानी अनिष्ट, दुर्भाग्य आदि। ‘होनहार’ का अर्थ सकारात्मक है। भविष्य में होने वाली अच्छी बात। होनहार संज्ञा के रूप में अच्छे गुणों वाला सुपुत्र भी होता है। अच्छे लक्षणों वाली संतति या बच्चा होनहार कहलाता है। होनहार बिरवान के, होत चीकने पात कहावत किसने नहीं सुनी होगी। ‘भू’ धातु से हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में कई शब्द बने हैं।

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