Friday, August 29, 2014

|| बप्पा के 'मोरया' कौन ||



“मोरया मोरया, बप्पा मोरया” गणपति गजवंदन में “मोरया” का यह नाद कई सदियों से महाराष्ट्र से निकल कर पूरे उत्तर भारत को गुंजा रहा है। गणेश चतुर्थी से गणेश विसर्जन तक “मोरया” गणेश की धूम रहती है। “गणपति बप्पा मोरया, मंगळमूर्ती मोरया, पुढ़च्यावर्षी लवकरया” अर्थात हे मंगलकारी पिता, अगली बार और जल्दी आना। बचपन में अपने मालवा में इसी तर्ज़ पर सुनते थे “गणपति बप्पा मोरिया, चार लड्डू चोरिया, एक लड्डू टूट ग्या, नि गणपति बप्पा रूठ ग्या” । यह तो तय है कि बालगंगाधर तिलक ने मराठी लोगों में आत्मसम्मान और देशप्रेम की अलख जगाने के लिए जब सार्वजनिक गणेशोत्वसों की परिपाटी शुरू की तब तक उत्तरभारत में मोरया के प्रति शृद्धा छोड़िये, गणेशोत्सव की ही कोई परम्परा नहीं थी। अब ये हाल है कि हिन्दी फिल्मी गानों में मोरया शब्द आता है। पेश है सफ़र “मोरया” का।


गणपति बप्पा से जुड़े मोरया नाम के पीछे भी एक गणेश भक्त की महिमा का सन्दर्भ अक्सर मिलता है। चौदहवीं सदी में पुणे के समीप चिंचवड़ में मोरया गोसावी नाम के ख्यात गणेशभक्त हुए हैं। चिंचवड़ में इन्होंने गणेशसाधना की। कहते हैं मोरया गोसावी ने यहाँ जीवित समाधि ली। तभी से वहाँ का गणेशमन्दिर एक सिद्धक्षेत्र के तौर पर विख्यात हुआ और गणेशभक्तों ने गणपति के नाम के साथ मोरया के नाम का जयघोष भी शुरू कर दिया।

गौरतलब है कि भारत में देवता ही नहीं, भक्त भी पूजे जाते हैं। आस्था के आगे तर्क, ज्ञान, बुद्धि जैसे उपकरण काम नहीं करते। आस्था के सूत्रों की तलाश इतिहास के पन्नों पर नहीं की जा सकती। आस्था में तर्क-बुद्धि नहीं, महिमा प्रभावी होती है। जो भी हो, गणपति बप्पा मोरया के पीछे तमाम सन्दर्भ मोरया गोसावी को ही देखते हैं। मुझे लगता है यहाँ भी  आस्था ही है जो गणपति बप्पा 'मोरया' के पीछे मोरया गोसावी को देख रही है और इसी वजह से पुणे के समीप मोरगाँव के 'मोर' गणेशभक्त गोसावी के आगे प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं। अब तक जो भी खोज-बीन की है उसके अनुसार यही लगता है कि 'मोरया' शब्द के पीछे मोरगाँव के गणेश हैं। इसके बावजूद 'मोरया' गोसावी का सन्दर्भ और उल्लेख इस शब्द के बरअक्स महत्वपूर्ण बना रहता है।

मराठियों के गोसावी उपनाम का वही अर्थ होता है जो उत्तरभारत में गुसाँई का होता है। दोनो शब्दों का मूल गोस्वामिन है। गोस्वामिन > गोस्वामी >  गोसाईं और फिर मराठी में अनुनासिकता का भी लोप होकर सिर्फ गोसावी रह जाता है। आमतौर पर गाय पालने वाले ब्राह्मण को भी गोस्वामी कहा जाता है। इन्द्रियों को भी संस्कृत में 'गो' कहा जाता है इसलिए गोस्वामी की एक व्याख्या यह भी कि जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया हो। बहरहाल, गोसावी मूलतः मराठी ब्राह्मणों का एक उपनाम है।

मोरया गोसावी के पिता वामनभट और माँ पार्वतीबाई सोलहवीं सदी ( कुछ सन्दर्भों में चौदहवीं सदी ) में कर्नाटक से आकर पुणे के पास मोरगाँव नाम की बस्ती में रहने लगे। वामनभट परम्परा से गाणपत्य सम्प्रदाय के थे। प्राचीनकाल से हिन्दू समाज शैव, शाक्त, वैष्णव और गाणपत्य सम्प्रदाय में विभाजित रहा है। गणेश के उपासक गाणपत्य कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय के लोग महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ज्यादा हैं। गाणपत्य मानते हैं कि गणेश ही सर्वोच्च शक्ति हैं। इसका आधार एक पौराणिक सन्दर्भ है। उल्लेख है कि शिवपुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, कामाक्ष और विद्युन्माली ने देवताओं से प्रतिशोध का व्रत लिया। तीनों ने ब्रह्मा की गहन आराधना की। ब्रह्मा ने उनके लिए तीन पुरियों की रचना की जिससे उन्हें त्रिपुरासुर या पुरत्रय कहा जाने लगा। गाणपत्यों का विश्वास है कि शिवपुत्र होने के बावजूद त्रिपुरासुर-वध से पूर्व शिव ने गणेश की पूजा की थी इसलिए गणपति ही परमेश्वर हुए।

बहरहाल, गाणपत्य सम्प्रदाय के वामनभट और पार्वतीबाई मध्यकालीन आप्रवासन के दौर में पुणे के समीप मोरगाँव में यूँ ही आकर नहीं बस गए होंगे। मोरगाँव प्राचीनकाल से ही गाणपत्य सम्प्रदाय के प्रमुख स्थानों में रहा है और शायद इसीलिए दैवयोग से प्रवासी होने को विवश हुए मोरया गोसावी के माता-पिता की धार्मिक आस्था ने ही गाणपत्य-बहुल मोरगाँव का निवासी होना कबूल किया। इस आबादी को मोरगाँव नाम इसलिए मिला क्योंकि समूचा क्षेत्र मोरों से समृद्ध था। यहाँ गणेश की सिद्धप्रतिमा थी जिसे मयूरेश्वर कहा जाता है। इसके अलावा सात अन्य स्थान भी थे जहाँ की गणेश-प्रतिमाओं की पूजा होती थी। थेऊर, सिद्धटेक, रांजणगाँव, ओझर, लेण्याद्रि, महड़ और पाली अष्टविनायक यात्रा के आठ पड़ाव हैं।

गणेश-पुराण के अनुसार दानव सिन्धु के अत्याचार से बचने के लिए देवताओं ने श्रीगणेश का आह्वान किया। सिन्धु-संहार के लिए गणेश ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया। मोरगाँव में गणेश का मयूरेश्वर अवतार ही है। इसी वजह से इन्हें मराठी में मोरेश्वर भी कहा जाता है। जो भी हो, कहते हैं वामनभट और पार्वती को मयूरेश्वर की आराधना से पुत्र प्राप्ति हुई। परम्परानुसार उन्होंने आराध्य के नाम पर ही सन्तान का नाम मोरया रख दिया। मोरया भी बचपन से गणेशभक्त हुए। उन्होंने थेऊर में जाकर तपश्चर्या भी की थी जिसके बाद उन्हें सिद्धावस्था में गणेश की अनुभूति हुई। तभी से उन्हें मोरया अथवा मोरोबा गोसावी की ख्याति मिल गई। उन्होंने वेद-वेदांग, पुराणोपनिषद की गहन शिक्षा प्राप्त की। युवावस्था में वे गृहस्थ-सन्त हो गए। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वे पुणे के समीप पवना नदी किनारे चिंचवड़ में आश्रम बना कर रहने लगे। इस आश्रम के ज़रिये मोरया गोसावी अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियाँ चलाने लगे। उनकी ख्याति पहले से भी अधिक बढ़ने लगी।  समर्थ रामदास और संत तुकाराम के नियमित तौर पर चिंचवड आते रहने का उल्लेख मिलता है जिनके मन में मोरया गोसावी के लिए स्नेहयुक्त आदर था। बताते चलें कि मराठियों की प्रसिद्ध गणपति वंदना "सुखकर्ता-दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची.." की रचना सन्त कवि समर्थ रामदास ने चिंचवड़ के इसी सिद्धक्षेत्र में मोरया गोसावी के सानिध्य में की थी।

चिंचवड़ आने के बावजूद मोरया गोसावी प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर मोरगाँव स्थित मन्दिर में मयूरेश्वर के दर्शनार्थ जाते थे। कथाओं के मुताबिक मोरया गोसावी श्री गणेश की प्रेरणा से समीपस्थ नदी से जाकर एक प्रतिमा लाई और उसे चिंचवड़ के आश्रम में स्थापित किया। बाद में वे यहीं पर जीवित समाधि लेते हैं। उनके पुत्र चिन्तामणि ने कालान्तर में समाधि पर मन्दिर की स्थापना की। यही नहीं, आस-पास के अन्य गणेश स्थानों की सारसंभाल के लिए भी मोरया गोसावी ने काम किया। कहा जाता है अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत भी उन्होंने ही कराई और इस कड़ी के प्रथम गणेश मयूरेश्वर ही हैं अर्थात अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत मयूरेश्वर गणेश से ही होती है।          

प्रश्न उठता है गणेश चतुर्थी पर मोरया शब्द के पीछे मोरया गोसावी के नाम की स्थापना सिर्फ आस्था है या स्पष्ट साक्ष्य है? उपरोक्त छानबीन से तो ऐसा साबित नहीं होता। मेरा निष्कर्ष है कि मोरगाँव के मयूरेश्वर गणेश खुद ही मोरया हैं। भक्त का स्वभाव है कि वह अपने आराध्य को जहाँ अतिमानवीय बनाता है वहीं उसके साथ मानवीय रिश्ता भी रखना चाहता है। गणेशभक्तों नें अपने आराध्य को प्रायः हर रूप में चित्रित किया है। कृष्ण के बाल रूप को ही बालकृष्ण कहते हैं और फिर इससे बालू जैसा घरेलु नाम बना लिया गया। इसी तरह मयूरेश्वर से मोरया बना। यही नाम गोसावीपुत्र को भी मिला। गौर करें कि मोरया गोसावी मोरगाँव की नदी से जिस प्रतिमा को लाकर चिंचवड़ में स्थापित करते हैं उस गणेश को भी मोरगाँव की वजह से मोरया ही कहा गया। गाणपत्य समाज के बड़े गणेशोत्सवों में मोरगाँव और चिंचवड़ के पर्व प्रमुख थे। दोनों स्थानों पर गणेशचतुर्थी पर गणपतिबप्पा मोरया का उद्घोष होता रहा। यह मोरया सम्बोधन मयूरेश्वर के लिए था न कि मोरया गोसावी के लिए। मेरी तर्कबुद्धि तो यही कहती है।

चूँकि समूची अष्ट विनायक यात्रा की शुरुआत ही मोरगाँव के मयूरेश्वर गणेश से होती है इसलिए भी मोरया नाम का जयकारा प्रथमेश गणेश के प्रति होना ज्यादा तार्किक लगता है न कि मोरया गणेश के आशीर्वाद से पैदा हुए और मोरया गोसावी के नाम से प्रसिद्ध एक गाणपत्य सन्त के लिए| मयूरासन पर विराजी गणेश की अनेक प्रतिमाएँ  उन्हें ही मोरेश्वर और प्रकारांतर से मोरया सिद्ध करती हैं| मोरया गोसावी भक्त शिरोमणि थे इसमें शक नहीं, पर बप्पा मोरया नहीं। सबसे अन्त में याद दिलाना चाहूँगा कि शिव परिवार के सदस्य द्रविड़ संस्कृति में भी प्रतिष्ठित हैं। शिव के दो पुत्रों का हमेशा उल्लेख आता है। गणेश और कार्तिकेय। ये कार्तिकेय ही द्रविड़ संस्कृति, खासतौर पर तमिल में मुरुगन हो जाते हैं।

आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति के समता और पृथकता बिन्दुओं पर वैज्ञानिक नज़रिये से काम अभी शुरू ही नहीं हुआ है। फिर भी इतना ज़रूर कहूँगा कि संस्कृतियों का आपसी हेल-मेल पृथकतावादी नहीं बल्कि एकतावादी है। यह साबित होता है कि अतीत के किसी एक बिन्दु से दोनों का सफर शुरू हुआ था। बहरहाल मुरुगन चाहे कार्तिकेय हों, हैं तो शिवपुत्र ही। वे षष्ठबाहु हैं। मोर पर सवारी करते हैं। यूँ कहें कि तमिल संस्कृति में उन्हें मयूरेश्वर कहा गया है। मयूरेश्वर यानी मोरया। संस्कृत में मौर्य यानी जिसका सम्बन्ध मोर से हो। आर्य द्रविड़ संस्कृतियों में पौराणिक कथाएँ एक सी हैं। पात्रों के नामों, चरित्रों और क्रियाकलापों में भिन्नता होना सहज बात है| जैसे कार्तिकेय का तमिल नाम मुरुगन है वहीँ संस्कृत ग्रंथों में इसे स्कन्द भी कहा गया है| यह महासेन या महासेनानी भी है|  शिव तमिल में चिव हैं| ये संहारक हैं| संस्कृत में रूद्र ही रौद्र हैं| तमिल में यही रूद्र,  तान्टूवम करते हैं| संस्कृत में आकर यह ताण्डव हो जाता है|  कुल मिलाकर मोरया गोसावी के नाम से बप्पा मोरया की महिमा नहीं बढ़ी बल्कि इसके मूल में द्रविड़ संस्कृति वाले मयूरेश्वर हैं। शिवपुत्र गणेश हैं जिनका एक रूप  महाराष्ट्र में मयूरेश्वर है। यही मयूरेश्वर तमिल संस्कृति में मुरुगन है। तमिळ > दमिळ> द्रविड़। इस विश्लेषण से कुछ सार्थक सिद्ध हुआ या नहीं, ज़रूर बताएं|

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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