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Saturday, February 4, 2017
चुभने-चुभाने की बातें
क भी काँटे ‘चुभ’ जाते हैं कभी बातें चुभती हैं। चुभ / चुभना / चुभाना हिन्दी में सर्वाधिक प्रयुक्त क्रिया है। हिन्दी शब्दसागर इसे अनुकरणात्मक शब्द बताता है जो अजीब लगता है। अनुकरणात्मक शब्द वह है जो ध्वनि साम्य के आधार पर बनता है जैसे रेलगाड़ी के लिए छुकछुक गाड़ी। हिनहिनाना, टनटनाना, मिनमिनाना जैसे अनेक शब्द हमारे आसपास है। अब सोचें कि चुभ, चुभना को किस तरह से अनुकरणात्मक शब्द माना जाए ! इसी कड़ी के दो और शब्द है खुभ / खुभना या खुप / खुपना जिसे समझे बिना चुभना की जन्मकुण्डली नहीं समझी जा सकती।
मेरे विचार में चुभना संस्कृत की ‘क्षुभ्’ क्रिया से आ रहा है जिससे क्षोभ, विक्षोभ बना है। क्षुब्ध, विक्षुब्ध, क्षोभ, विक्षोभ जैसे शब्दों का बुनियादी अर्थ है विदीर्ण, चीर, दबाव, धक्का, भयभीत, कम्पन, आन्दोलन, बखेड़ा, असन्तोष, गड़बड़ी, कोप आदि। मगर रूढ़ अर्थों में हिन्दी में अब क्षोभ या क्षुब्ध का प्रयोग ज्यादातर नाराज़गी, कोप, गुस्सा के अर्थ में ही होता है और उक्त सारे भाव विक्षोभ से व्यक्त होते हैं। गौर करें मौसमी सूचनाओं में अक्सर ‘पश्चिमी विक्षोभ’ टर्म का प्रयोग होता है जो दरअसल वेस्टर्न डिस्स्टर्बेंस का अनुवाद है। इसका अभिप्राय समन्दर पर या ऊपरी आसमान में हवाओं के ऐसे उपद्रव से है जिसकी वजह से कहीं बवण्डर या चक्रवात बनते हैं तो कहीं हवा अचानक शान्त हो जाती है जिसे कम दबाव क्षेत्र भी कहते हैं।
ख़ैर, बात चुभने-चुभाने की हो रही थी। गौर करें चुभना किसी तीक्ष्ण वस्तु का भीतर घुसना है। इसका भावार्थ भीतर की हलचल, मन्थन, हृदय की चोट, दिल की उमड़-घुमड़, किसी बात का घर कर जाना आदि है। क्षुभ् क्रिया में यही सारी बातें शामिल हैं। गौर करें विदीर्ण में दो हिस्से होने, चीर लगने का भाव है। दो हिस्सों में बाँटे बिना कोई चीज़ भीतर जा नहीं सकती। प्रत्येक आलोड़न, आन्दोलन, मन्थन, हलचल का कोई न कोई केन्द्र होता है जो इसे धारदार बनाता चलता है। यही धँसना, गड़ना,चुभना है। हिन्दी की प्रकृति है ‘क्ष’ का ‘छ’ और ‘ख’ में बदलना जैसे अक्षर से ‘अच्छर’ और ‘अक्खर’ (आखर, अक्खड़ जैसे भी) जैसे रूप भी बनते हैं। पूर्वी बोलियों में ‘क्षुब्ध’ को ‘छुब्ध’ भी कहा जाता है। इसी तरह ‘क्षुब्ध’ से ‘खुब्ध’ भी बनता है। गौर करें क्षुब्ध से चुभ बनने में क्ष > छ > च के क्रम में ध्वनि परिवर्तन हो रहा है जबकि क्षुब्ध से खुभ बनते हुए क्ष > ख के क्रम में परिवर्तन हो रहा है।
‘खुभना’ का अर्थ भी चुभना, गड़ना या धँसना ही है। कृ.पा. कुलकर्णी भी मराठी खुपणे जिसका अर्थ भीतर घुसकर कष्ट देना, चीरना, छेद करना आदि है, का मूल क्षुभ् से ही मानते हैं। इसका प्राकृत रूप खुप्प, खुप्पई है। सिन्धी में खुपणु, गुजराती में खुपवुँ, मराठी में खुपणे अथवा खोंपा, खोंपी जैसे शब्द इसी क्षुभ् मूल से व्युत्पन्न है। इसी कड़ी में ऊभचूभ पर भी विचार कर लें। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऊभ के अनुकरण पर चूभ बना है, पर ऐसा नहीं है। अलबत्ता ऊभ की तर्ज़ पर चुभ का ह्रस्व ज़रूर दीर्घ होकर चूभ हो जाता है। ऊभचूभ का अर्थ होता है आस-निरास की स्थिति, डावाँडोल होना, आन्तरिक हलचल, ऊपर-नीचे होना, डूबना-उतराना आदि।
हिन्दी ‘ऊभ’ का अर्थ है ऊपर आना, उभरना। चूभ और चूभना पर तो ऊपर पर्याप्त बात हो चुकी है। मुख्य बात यह कि अनुकरण वाले शब्द की अपनी स्वतन्त्रप्रकृति नहीं होती। मुख्य पद के जोड़ का पद रच लिया जाता है। उसका कोई अर्थ नहीं होता। ऊभचूभ में जो चूभ हो वह अनुकरण नहीं बल्कि ऊभ का विलोम है। उसकी स्वतन्त्र अर्थवत्ता है। ऊभ का रिश्ता उद्भव से है जिसमें उगने, ऊपर आने का भाव है। उद् यानी ऊपर उठना भव यानी होना। प्राकृत का 'उब्भ' इसी कड़ी का है। उब्भ का ही विकास ऊभ है। उभरना, उभार भी इसी कड़ी में आते हैं।
Friday, February 3, 2017
सहेली, बरास्ता हेठी और अवहेलना
शा न में गुस्ताख़ी के सन्दर्भ में हन्दी में ‘हेठी’ खूब प्रचलित है जिसमें अवमानना, अपमान या मानहानी का भाव है। इसी तरह तत्सम शब्दावली का होने के बावजूद ‘अवहेलना’ भी आम बोलचाल में इस्तेमाल होता है। इसमें अवज्ञा और अनदेखी है। दोनों ही शब्द मूलतः तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा, और मानहानी को अभिव्यक्त करते हैं। देखते हैं दोनों शब्दो की जन्मकुण्डली।
हेठी’ का रिश्ता संस्कृत ‘हेठ्’ से है जिसमें खिझाने, सताने के साथ हानि पहुँचाने, सताने आदि का भाव है। हेठ् का अर्थ उत्पाती, शठ या कुकर्मी भी होता है। दरअसल संस्कृत में यह एक शृंखला है जिसमें में हेल्, हेळ्, हेट्, हेठ्, हेड् जैसी क्रियाएँ हैं और इन सबका आशय अवमानना, अनादर, असम्मान या अवज्ञा ही है। इस हेठ् का ‘एँठ’ से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एँठना से आ रहा है जिसका अभिप्राय तनना, बल खाना, अकड़ना जैसे भाव हैं।
इसी कड़ी ‘हेला’ भी है जिसका अर्थ भी अवज्ञा, बेपरवाही, तिरस्कार आदि है। इसी के साथ इसमें आनंद, आमोद, क्रिड़ा, खेल, खिलवाड़, केलि, शृंगार-विलास, काम-मुद्राएं, शृंगार-चेष्टा जैसे भाव भी हैं। ‘हेला’ का प्रयोग आमतौर पर हिन्दी में स्वतन्त्र रूप में नहीं होता पर सहेली, सहेला (अल्पप्रचलित), अवहेलना जैसे शब्दों में यह नज़र आता है। संस्कृत सहेल या सहेलम् में- व्यग्रता, बेपरवाही, विरक्तता, आवारगी, उधम, चंचल, लम्पट, कामोत्सुक जैसे आशय हैं।
मोनियर विलियम्स ‘सहेल’ या सहेलम का अर्थ full of play or sport बताते हैं। हिन्दी का सहेली या सहेला इसी कड़ी में विकसित हुआ है मगर उसमें साथिन, संगी, जोड़ीदार, मित्र, सहचर, संगिनी या सेविका का भाव है। हालाँकि शृंगारिक अर्थो में भी सहेली, सहेला का प्रयोग होता रहा है। बात आमोद-क्रीड़ा से शुरू हुई तो अर्थ बेपरवाही तक विकसित होता चला गया। खेल के साथ बेफिक्री जुड़ी हुई है और उससे ही इसमें आगे चल कर उपेक्षा, अवज्ञा की अर्थस्थापना भी होती चली गई। अवहेलना में यह अच्छी तरह उजागर हो रहा है।
मेलजोल, जान-पहचान, पारस्परिकता के सन्दर्भ में हेल-मेल बड़ा प्यारा पद है। हेल-मेल, हिल-मिल का प्रयोग रोजमर्रा की भाषा में किया जाता है। “वह उससे काफी ‘हिला’ हुआ है” जैसे प्रयोग भी आम है। बुनियादी तौर पर यहाँ जो हेल है वह इसी शृंखला का है जिसकी चर्चा की जा रही है। हालाँकि श्यामसुंदर दास हिन्दी शब्दसागर में हेल-मेल के ‘हेल’ का सम्बन्ध हिलना क्रिया से बताते हैं जिसका संस्कृत के हल्लन से सम्बन्ध है और जिसमें हरकता, गति जैसे भाव हैं।
हालांकि मेरे लिए इससे सहमत होना कठिन है। हेल-मेल में हरकत, गति प्रमुख नहीं, घनिष्ठता, सोहबत, संग-साथ, परस्परता प्रमुख है। इनमें वही वही क्रिड़ा-भाव है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।
हेठी’ का रिश्ता संस्कृत ‘हेठ्’ से है जिसमें खिझाने, सताने के साथ हानि पहुँचाने, सताने आदि का भाव है। हेठ् का अर्थ उत्पाती, शठ या कुकर्मी भी होता है। दरअसल संस्कृत में यह एक शृंखला है जिसमें में हेल्, हेळ्, हेट्, हेठ्, हेड् जैसी क्रियाएँ हैं और इन सबका आशय अवमानना, अनादर, असम्मान या अवज्ञा ही है। इस हेठ् का ‘एँठ’ से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एँठना से आ रहा है जिसका अभिप्राय तनना, बल खाना, अकड़ना जैसे भाव हैं।
इसी कड़ी ‘हेला’ भी है जिसका अर्थ भी अवज्ञा, बेपरवाही, तिरस्कार आदि है। इसी के साथ इसमें आनंद, आमोद, क्रिड़ा, खेल, खिलवाड़, केलि, शृंगार-विलास, काम-मुद्राएं, शृंगार-चेष्टा जैसे भाव भी हैं। ‘हेला’ का प्रयोग आमतौर पर हिन्दी में स्वतन्त्र रूप में नहीं होता पर सहेली, सहेला (अल्पप्रचलित), अवहेलना जैसे शब्दों में यह नज़र आता है। संस्कृत सहेल या सहेलम् में- व्यग्रता, बेपरवाही, विरक्तता, आवारगी, उधम, चंचल, लम्पट, कामोत्सुक जैसे आशय हैं।
मोनियर विलियम्स ‘सहेल’ या सहेलम का अर्थ full of play or sport बताते हैं। हिन्दी का सहेली या सहेला इसी कड़ी में विकसित हुआ है मगर उसमें साथिन, संगी, जोड़ीदार, मित्र, सहचर, संगिनी या सेविका का भाव है। हालाँकि शृंगारिक अर्थो में भी सहेली, सहेला का प्रयोग होता रहा है। बात आमोद-क्रीड़ा से शुरू हुई तो अर्थ बेपरवाही तक विकसित होता चला गया। खेल के साथ बेफिक्री जुड़ी हुई है और उससे ही इसमें आगे चल कर उपेक्षा, अवज्ञा की अर्थस्थापना भी होती चली गई। अवहेलना में यह अच्छी तरह उजागर हो रहा है।
मेलजोल, जान-पहचान, पारस्परिकता के सन्दर्भ में हेल-मेल बड़ा प्यारा पद है। हेल-मेल, हिल-मिल का प्रयोग रोजमर्रा की भाषा में किया जाता है। “वह उससे काफी ‘हिला’ हुआ है” जैसे प्रयोग भी आम है। बुनियादी तौर पर यहाँ जो हेल है वह इसी शृंखला का है जिसकी चर्चा की जा रही है। हालाँकि श्यामसुंदर दास हिन्दी शब्दसागर में हेल-मेल के ‘हेल’ का सम्बन्ध हिलना क्रिया से बताते हैं जिसका संस्कृत के हल्लन से सम्बन्ध है और जिसमें हरकता, गति जैसे भाव हैं।
हालांकि मेरे लिए इससे सहमत होना कठिन है। हेल-मेल में हरकत, गति प्रमुख नहीं, घनिष्ठता, सोहबत, संग-साथ, परस्परता प्रमुख है। इनमें वही वही क्रिड़ा-भाव है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।
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