शब्दकौतुक / चुल्ल-कथा
हिन्दी की नई पीढ़ी के शब्दकोश में पिछले डेढ़-दो दशक में एक ऐसा ही शब्द बहुत तेज़ी से उभरा है- 'चुल्ल'। ख़ास तौर पर उत्तर भारत के शहरी इलाक़ों में 'चुल्ल पड़ना' या 'चुल्ल मचना' जैसे मुहावरे आम बोलचाल का हिस्सा बन गए हैं। यह शब्द एक ख़ास तरह की मानसिक स्थिति को व्यक्त करता है- एक ऐसी बेचैनी जिसमें अधीरता है, किसी काम को करने की धुन या ख़ब्त है, एक तीव्र उत्कंठा है और जिज्ञासा से उपजी कुलबुलाहट है जो जब तक पूरी न हो, चैन नहीं लेने देती। लेकिन यह दिलचस्प और दमदार शब्द आया कहाँ से? इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं? जानते हैं चुल्ल-कथा में।
प्राचीन 'चल्' धातु
हर शब्द का एक मूल होता है, एक बीज, जहाँ से उसके अर्थों का अंकुरण होता है। 'चुल्ल' की कहानी भी हज़ारों साल पीछे, संस्कृत की 'चल्' क्रिया से शुरू होती है। इस धातु का मूल अर्थ है- गतिमान होना, हिलना, काँपना, अस्थिर होना (to be moved, stir, tremble, shake)। यानी, 'चल्' धातु स्थिरता के अभाव का प्रतीक है। इसी से सम्बन्धित है 'चञ्चल' जिसका अर्थ है- जो एक जगह न टिके, अस्थिर, चपल । मन की अस्थिरता के लिए 'चञ्चल' शब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। गुरुवाणी में एक पंक्ति है, "चंचल मनु दह दिसि कउ धावत, जिसका अर्थ है कि अशांत मन दसों दिशाओं में भटकता रहता है । 'चुल्ल' में निहित बेचैनी और हलचल का आदिम स्रोत इसी 'चल्' धातु की गति और 'चञ्चल' की अस्थिरता में छिपा है।
अमूर्त गति से मूर्त बेचैनी तक
यह एक स्वाभाविक प्रश्न है कि 'चल्' क्रिया के गतिवाची भाव बेचैनी, उतावली और कुलबुलाहट से उतनी आसानी से क्यों नहीं जुड़ते, जितनी आसानी से ये भाव सीधे 'चुल्ल' शब्द से जुड़ते हैं । 'चल्' एक व्यापक और अमूर्त धातु है, जिसका अर्थ केवल चलना-फिरना नहीं, बल्कि 'विचलित होना' और 'अस्थिर होना' भी है । लेकिन 'चुल्ल' और 'चुलबुलाहट' जैसे शब्द इस 'गति' को एक विशिष्ट, आंतरिक और अनुभवजन्य बेचैनी का रूप देते हैं। 'चल्' यदि गति का सिद्धांत है, तो 'चुल्ल' उस सिद्धांत का एक व्यावहारिक, महसूस किया जाने वाला परिणाम है—एक ऐसी मानसिक या शारीरिक हलचल जो व्यक्ति को भीतर से धकेलती है। भाषा इसी तरह अमूर्त जड़ों से अनुभव के ठोस धरातल पर नए और अधिक सटीक शब्द गढ़ती है ।
'चुलबुलाहट' का चुल
संस्कृत की 'चल्' धातु से लोकभाषाओं तक का सफ़र तय करते हुए हमारे शब्द को एक पड़ाव मिला—'चुलबुलाहट'। यह शब्द 'चुल्ल' का सबसे क़रीबी और स्वाभाविक पूर्वज प्रतीत होता है । 'चुलबुलाहट' का अर्थ हल्की-फुल्की शरारत भरी बेचैनी, जो किसी को शांत न बैठने दे। यह शब्द अक्सर छोटे बच्चों के स्वभाव का वर्णन करने के लिए उन्हें चुलबुला कहा जाता है। ग़ौर करें तो 'चुलबुलाहट' का भाव और ध्वनि दोनों का केंद्र उसका 'चुल' अंश ही है। इसी 'चुल' में वह सारी अस्थिरता, वह सारी हलचल समाई हुई है, जिसे आज हम 'चुल्ल' के रूप में जानते हैं। 'चुलबुला' व्यक्ति वही है जिसके भीतर मानो कोई चुल यानी बेचैनी सक्रिय हो, जो उसे टिक कर बैठने नहीं देती।
पंजाबी स्रोत के कोशगत प्रमाण
यह धारणा कि 'चुल्ल' हिन्दी में पंजाबी के रास्ते आया है, कोशगत प्रमाणों से पुष्ट होती है। पंजाबी के
सबसे प्रतिष्ठित कोशों में से एक, भाई काहन सिंह नाभा के "गुरुशबद रत्नाकर महान
कोश" में 'चुल्ल' (ਚੁੱਲ੍ਹ) का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसका सम्बन्ध तीव्र इच्छा या तलब से जोड़ा गया है । पंजाबी में
इसका प्रयोग आम है, जैसे तैनूं तमाकू दी चुल्ल उट्ठदी है, जिसका अर्थ है, "तुम्हें तम्बाकू की तलब लग रही है" । इसी तरह, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के कोश में भी यह शब्द इसी अर्थ में
दर्ज है ।
उर्दू की गवाही
उर्दू में इसकी स्थिति दिलचस्प है। एक
सदी से भी अधिक पुराने जॉन प्लैट्स के क्लासिकल हिन्दी और उर्दू के कोश में 'चुल' (چُل) और 'चुलबुल' (چلبُل) तो मिलते हैं, जिनका अर्थ बेचैनी और चंचलता है, लेकिन 'चुल्ल' (چُلّ) का अर्थ 'गंदी आँख वाला' (blear-eyed) दिया गया है । इससे संकेत मिलता है कि 'खुजली' या 'तलब' वाला 'चुल्ल' क्लासिकल उर्दू-हिन्दी का हिस्सा नहीं था। हालाँकि, आधुनिक उर्दू में, ख़ासकर पाकिस्तान में, यह शब्द पंजाबी के प्रभाव से आम बोलचाल का
हिस्सा बन गया है और वहाँ के शब्दकोशों में भी इसे 'खुजली, बेचैनी' के अर्थ में शामिल किया गया है । यह प्रमाण इस बात को मज़बूत करते हैं कि 'चुल्ल' अपने आधुनिक अर्थ में पंजाबी मूल का है और वहीं से इसने
हिन्दी और उर्दू में प्रवेश किया है।
व्युत्पत्ति के
बहुआयामी सूत्र
'चुल्ल' की व्युत्पत्ति केवल 'चल्' धातु तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कई स्रोतों से अर्थ ग्रहण करता हुआ एक जटिल शब्द बन गया है। संस्कृत में ही एक और धातु है 'चुल्ल्', जिसका क्रिया रूप 'चुल्लति' है। आप्टे के कोश के अनुसार इसके अर्थ हैं- क्रीड़ा करना, खेलना, प्रेम-संबंधी चुलबुले हाव-भाव या इशारे करना। यह सूत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हिन्दी के 'चुल' शब्द में निहित 'कामोद्वेग' और 'मस्ती' जैसे अर्थों को सीधे तौर पर स्थापित करता है । इस धातु में निहित 'क्रीड़ा' और 'चञ्चलता' का भाव आधुनिक 'चुल्ल' की उस बेचैनी से जुड़ता है जो किसी ख़ुराफ़ात या खेल के लिए प्रेरित करती है।
मराठी 'चुळ-चुळ'
इस
व्युत्पत्ति-शृंखला में एक और महत्वपूर्ण कड़ी मराठी भाषा से जुड़ती है। एक सदी से भी पहले, कोशकार मोल्सवर्थ ने मराठी शब्द 'चुळ' (cuḷa) और इसके द्वित्व रूप 'चुळचुळ' (cuḷacuḷa) के अर्थों का दस्तावेजीकरण किया था। इनके अर्थ
हैं- अधीरता, उतावलापन, बेचैनी, मानसिक आवेग और खुजली (शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों)। यह
साक्ष्य अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि मराठी 'चुळ' में ठीक वही चंचलता, अधीरता और मानसिक अस्थिरता का भाव है, जिसकी पुष्टि हम संस्कृत धातु 'चुल्ल्' के लिए खोज रहे थे। यह दिखाता है कि 'चुल्ल' में निहित बेचैनी का भाव कोई आधुनिक विकास नहीं, बल्कि एक प्राचीन भाषिक विरासत का हिस्सा है, जो संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश के माध्यम
से मराठी जैसी आधुनिक भारतीय भाषाओं में संरक्षित रहा।
खुजली
से ख़ब्त तक
'चुल्ल' के अर्थ विकास की यात्रा शारीरिक अनुभव से मानसिक भाव तक
जाती है। इसकी पहली सीढ़ी है 'खुजली'। खुजली की संवेदना त्वचा पर किसी कष्टकर या कभी-कभी
प्रियकर-सी लगने वाली अनुभूति है। यह त्वचा पर कुछ चलने, रेंगने, या भेदने जैसी हलचल महसूस होती है। इसे ही खुजली चलना कहा
जाता है । हिन्दी के पुराने शब्दकोशों में 'चुल' का एक प्राथमिक अर्थ यही 'खुजलाहट' और दूसरा 'कामोद्वेग' या मस्ती है । जिस तरह शरीर में खुजली होती है, उसी तरह मन में भी किसी काम को करने, कुछ जानने या कहीं जाने की 'खुजली' उठ सकती है। इस तरह 'चुल्ल' का अर्थ एक शारीरिक बेचैनी से विकसित होकर किसी भी
प्रकार की तीव्र मानसिक इच्छा, धुन या 'मानसिक ख़ब्त' बन गया ।
चंचल और वाचाल की संगत
'चुल्ल' में निहित व्यग्रता, कुछ जानने की उतावली, या ख़ुराफ़ात करने की इच्छा—ये सभी मानसिक गतिशीलता के ही
अलग-अलग रूप हैं। इन सभी का रिश्ता मन की उस अवस्था से है जो स्थिर नहीं रह पाती।
यह एक ऐसी वृत्ति है जो सोच की दिशा को टिकने नहीं देती; यही 'चंचलता' है । 'चल्' धातु की यह 'गति' केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और चारित्रिक भी है। इसका एक और उत्कृष्ट
उदाहरण 'वाचाल' शब्द में मिलता है। 'वाचाल' शब्द 'वाक्' (वाणी) और 'चल्' (गति) के योग से बना माना जा सकता है, जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी जिह्वा या
वाणी निरंतर 'चलती' रहती है, स्थिर नहीं रहती। जिस तरह 'चुल्ल' से ग्रस्त व्यक्ति कोई काम किए बिना शांत नहीं बैठ सकता, उसी तरह 'वाचाल' व्यक्ति बोले बिना नहीं रह सकता। दोनों ही स्थितियों के
मूल में 'चल्' धातु से जन्मी एक अनियंत्रित गतिशीलता है।
पंजाबी से मुम्बइया हिन्दी तक
'चुल्ल' की
कहानी में एक और मज़ेदार पेंच है। पंजाबी में एक और मुहावरा है—'चुल
मारनी', जिसका
अर्थ है किसी के काम में बेवजह दखल देना या टाँग अड़ाना ।
इसका 'इच्छा' वाले
अर्थ से सीधा संबंध नहीं दिखता। हो सकता है कि यह एक अलग शब्द हो, या
यह भी संभव है कि यह उसी 'खुजली' वाले भाव का एक और विस्तार हो- यानी दूसरों के
मामलों में दखल देने की 'खुजली'। बहरहाल, इस शब्द का आधुनिक अवतार सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुआ
फ़िल्म 'कपूर
एंड संस' के गीत "लड़की ब्यूटीफुल, कर
गयी चुल्ल" से । इस गाने ने 'चुल्ल' को पूरे देश में मशहूर कर दिया।
इसी के साथ इंटरनेट पर इसकी कई मनोरंजक लोक-व्युत्पत्तियाँ भी सामने आईं, जैसे एक मान्यता यह है कि यह भोजपुरी के शब्द 'चूल' (बाल) से आया है, जिससे गुदगुदी करके किसी को परेशान किया जाता है। यह भले ही सच न हो, पर यह दिखाता है कि एक जीवंत शब्द अपने आस-पास नई कहानियाँ भी बुनता है। इस तरह, 'चुल्ल' ने संस्कृत की 'चल्' और 'चुल्ल्' जैसी अलग-अलग जड़ों से ऊर्जा लेकर, मराठी के 'चुळ' में अपने भाव को पुष्ट कर, 'चुलबुलाहट' की मासूमियत, पंजाबी की ठेठ शक्ति और बॉलीवुड के ग्लैमर तक का एक लंबा और शानदार सफ़र तय किया है। यह एक शब्द की नहीं, बल्कि भाषा के जीवंत और बहुआयामी विकास की कहानी है।
🙏 अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...