Saturday, February 9, 2008

...फिर आंच तेज न करनी पड़ जाए

मोहल्ला में शुक्रवार को अपनी पोस्ट वहां क्यों नहीं जातिवादी गंध और शब्दों का सफर पर जात न पूछो कल्लू की ..में हमने मोहल्ला मे दिलीप मंडल द्वारा मीडिया में दलितों की गैरमौजूदगी पर चलाई जा रही बहस में शिरकत की थी। शनिवार को सुबह सुबह अचानक मन उचट गया और दिलीपजी की इस पोस्ट के जवाब में अपनी पोस्ट वो सुबह कभी तो आएगी में कुछ लिख कर हमने इस बहस से खुद को अलग करने की बात कह दी।

देखें इस प्रसंग को-

मीडिया में दलितों के न होने पर दिलीप मंडल द्वारा शुरू की गयी बहस से मैं अब खुद को अलग कर रहा हूं। इसलिए नहीं कि गंभीर असहमतियां अथवा मतभेद उभर कर आये हों, बल्कि इसलिए कि ये मुद्दा मुझे गैरज़रूरी और अस्वाभाविक लग रहा है। इस शृंखला में दिलीप जी की ताज़ा कड़ी कितने आदमी थे, दरअसल एक भी नहीं... पढ़ी। उसका मोटा मोटा अर्थ समझा, गूढ़ार्थ समझ में नहीं आया। चंदूभाई को भी हैरानी है कि क्यों नहीं आया। इसलिए कि हम मानते हैं कि न्यूज़ रूम में कोई जातीय या दलित विरोधी षड़्यंत्र नहीं हो रहा है। अगर कुछ अनहोनी हो रही है, तो वह है गंभीर मुद्दों के प्रति आपराधिक उदासीनता का पनपना, भाषा के साथ खिलवाड़ अथवा जिज्ञासा वृत्ति का अभाव।

दिलीप भाई के आलेखों से एक संकेत लगातार यह मिलता रहा है कि कहीं कोई षड्यंत्र है । हमारा मानना है कि ये प्रवृत्तियां हैं जो जन चेतना के साथ धीरे-धीरे खत्म होती जाएंगी। आरक्षण, सामाजिक संतुलन, जातीय चेतना जैसी बातें बौद्धिक मुहावरों के तौर पर भले ही दोहराई जाती रहें , इनमें घुस आई राजनीति को खींच कर जब तक सभी वर्गों के लोग अलग नहीं कर देंगे, वैसी सुबह आप जल्दी नहीं देख पाएंगे दिलीप जी , जैसी देखना चाहते हैं। देखेंगे ज़रूर, हम भी यही चाहते हैं।
( पूरी पोस्ट यहां पढ़ें)

उसके बाद देर रात मोहल्ला पर दिलीप जी की ये पोस्ट पढ़ी-

अजित जी, आप सही कहते हैं। वो सुबह जरूर आएगी। आपकी बातो में मैं इसकी आहट महसूस कर रहा हूं। आप न्याय के पक्षधर हैं। आपमें अन्याय के पक्ष में खड़े होने का साहस ही नहीं है। आने वाले दिनों में कई दलित बच्चे-बच्चियां आपसे शब्दों का सफरनामा लिखना सीखेंगे। पत्रकारिता के गुर सीखेंगे। सीख रहे होंगे। अजित बाबू, आप इस बहस से बचकर कहां जाएंगे। ये तो हमारी जिंदगी की बहस है। इस बहस में हम आपके साथ हैं। कहानी अभी तो शुरू ही हुई है। एक महत्वपूर्ण मेल मेरे पास आया है। आप लोगों के साथ आगे शेयर करूंगा। बने रहिए इस चर्चा में।

दिलीप मंडल
(पूरी पोस्ट यहां पढ़े)

इस पर हमारा जवाब था-

अजित वडनेरकर said...
अरे भाई, आपसे नहीं बच रहे हैं। हर बार लिख कर लगता है कि कहीं ज्यादा तो नहीं लिख गए। ईमानदार ज़रूर हैं पर सामाजिक मुद्दों पर आपकी जैसी पकड़ नहीं है। अधपकी सोच है। ज्ञान के चूल्हे पर बरसों से अदहन ही चढ़ा हुआ है। क्या पका, क्या नहीं , कौन जाने। जल्द बाजी में बीच-बीच में आंच और तेज कर देते हैं तो हांडी उफन जाती है। मगर ऐसा उफान कुछ पकाता नहीं , अलबत्ता जला ज़रूर डालता है। अब क्या करें बताइये...समझदारी इसी में लगी कि ऐसा कुछ देखें ही ना कि आंच तेज करनी पड़ जाए। जो आंच पर रखा है उसे ही पकने दें। सबसे साझा जो करना है....



इससे पहले मोहल्ले पर आई तीन प्रतिक्रियाओं के बाद हम शुक्रिया अदा कर चुके थे-

आप सबका आभार।
एक पत्रकार के नाते न्यूज़ रूम में मेरे लिए यह वर्गीकरण ज्यादा अनुकूल रहता है कि मेरे इर्द गिर्द कितने लोग खेल वाले हैं, कितने कला संस्कृति का रूझान रखते हैं, कौन लोग हैं जो राजनीति को बेहतर समझते हैं और विज्ञान पर आसान भाषा में किसकी पकड़ है। साहित्य को कौन बेहतर समझता है वगैरह वगैरह। ये खयाल तो कभी नहीं आया कि जातियां सोचूं, जातियां जानूं या जातियां लिखूं और जातियां गिनूं.....
बहरहाल, गिनती जारी रहे, अपन चले।

और गिनती पर एक शेर याद आ गया-

मोहतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किनने पी, किनने न पी, किन किन के आगे जाम था

सवाल यह नहीं है कि मैं इस बहस में रहूं या न रहूं , सवाल यह है कि कितने लोग इस बहस को सार्थक मानते हैं और सभी सुबुद्ध साथियों के पास इस मुद्दे के सार्थक निराकरण के लिए कोई उर्वर सोच, दृढ़ संकल्प जैसी कुछ बातें हैं या नहीं। बहस में शामिल होने या न होने से कहीं ज्यादा यह ज़रूरी है।

जिन साथियों ने इस विषय पर अब तक प्रतिक्रियाएं दी हैं उन्हें एक साथ यहां देख सकते हैं
सबसे पहले जात न पूछो कल्लू की पर आई टिप्पणियां-

Sanjay said... मैं इस बात का पूरा समर्थन करता हूं कि यहां मध्‍यप्रदेश में वैसे जातिवादी ताने कभी नहीं सुनाई देते जिन्‍हें अगले दिन सुर्खियों में शामिल करने की विवशता होती है. लेकिन पत्रकारों में दलितों की तलाश के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उससे सहमत नहीं हूं. मैने ऐसे कई लोगों के साथ काम किया है जिन्‍हें दलित कहा जाता है.
आज से पहले कभी आवश्‍यकता नहीं पड़ी इसलिए आज याद करना पड़ रहा है और लिस्‍ट बहुत लंबी होती जा रही है. लेकिन मुझे यह देख कर हैरानी भी होती है कि जो लोग खुद को जात-पात से ऊपर होने का प्रदर्शन करते हैं उन्‍होंने अभी तक अपने नाम के आगे से जाति सूचक शब्‍दों को हटाने का दुस्‍साहस नहीं दिखाया है.
आपकी यह बात बिल्‍कुल सही है बड़े भाई कि यह अजायबघर टाइप मानसिकता है और केवल शिक्षा से ही यह असमानता समाप्‍त होगी. अंतिम बात यह कि मैं न ब्राह्मण हूं न दलित, जब भी लिखवाया गया तो हिंदू लिखा, भारतीय लिखा. अब तक इससे ज्‍यादा जानने की जरूरत न कभी पड़ी है न आगे पड़ेगी. फिर भी यदि कोई मुझसे जानना चाहता है तो उनके लिए मैं कल्‍लू चमार हूं... पेशे से पत्रकार हूं... :)


दिनेशराय द्विवेदी said... अजित जी। सच न छुपता है और न समाप्त होता है। आप ने जो बात कही उस की आवश्यता नहीं थी। हम जानते हैं कि जाति को लेकर भेद अभी कायम हैं। लेकिन न्ए भेद भी उत्पन्न हुए हैं। हम उन असमानताओं के विरुद्द मोर्चा भी लगाते हैं। लेकिन हम क्यों छुपाएं अपनी पहचान। अनेक ऐसी जातियों के मैं सम्पर्क में हूँ जो ब्राह्मण न होते हुए भी शर्मा उपनाम का प्रयोग कर रही हैं। अनेक ऐसों से ब्राह्मणों से भी जो खुद के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त करना चाहते हैं। यह कौनसी मानसिकता है जो खुद के लिये अजायबघर में स्थान ढूंढती है। मुझे जो संस्कार प्राप्त हुए हैं वे तो ये हैं कि एक बुजुर्ग ने बहस करते हुए किसी बात का जवाब न बन पड़ने पर जब मुझ से यह कहा कि तुम तो कम्युनिस्ट हो गए हो (तब यह शब्द गाली के रुप में इस्तेमाल किया गया था) और जवाब में मैं ने यह कहा कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ तो क्या मेरी बात का उत्तर आप नहीं देंगे? तो मेरे पिता जी ने मुझे अकेले में इस बात के लिये डांट लगाई थी कि जो तुम हो नहीं कहते क्यों हो।
तब मैं ने जानने का प्रयत्न किया था कि कम्युनिस्ट क्या होता है।
हम अपनी पहचान क्यों छुपाएँ? उस से कितना ही नुकसान क्यों न होता हो।


दिलीप मंडल said...
अजित जी, शायद ये मेरे लिखे का ही दोष है कि ब्राह्मणवाद के विरोध से किसी खास जाति के विरोध का स्वर आता है। ब्राह्मणवादी होने के लिए ब्राह्मण होने की जरूरत कहां है? जातिवाद का सबसे विकृत रूप जो हमें दिखता है, वो ज्यादातर मझौली जातियों से जुड़ी कहानियां है।

लेकिन मीडिया का ब्राह्मणवाद अभी तक सवर्ण परिघटना है। आज रात आपके लिए एक और पहलू लाने की तैयारी में हूं। आज के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर मेरा मुख्य लेख पढ़िए।

नीरज गोस्वामी said... मैने कभी खुद को ब्राह्मण जाहिर नहीं किया और न ही गर्व करने लायक कुछ नज़र आता है। मैं जहां हूं उसमें एकमात्र आधार योग्यता है।"
अजीत जी
आप ने बहुत सार गर्भित पोस्ट लिखी है....इंसान का विभाजन होना ही नहीं चाहिए चाहे आधार कोई भी हो जाती धर्म या वर्ण...क्यों हमने आपने आप को इतने खानों में बाँट रखा है समझ नहीं आता...और फ़िर ये खाने में पड़े लोग जब एक दूजे से लड़ते हैं हैं तो इंसान और जानवर का भेद लुप्त हो जाता है दोनों एक समान ही लगने लगते हैं...मैं आप की सोच से 100% सहमत हूँ...
नीरज


Sanjeet Tripathi said... सहमत-सहमत!!
ब्राह्मण होने पर आज गर्व करने लायक मुझे भी कुछ नही दिखता।


पंकज सुबीर said...
मैं शत प्रतिशत ही सहमत हूं वास्‍तव में तो हम सभी मानव हैं और किसी का कोई समाज या धर्म का होना उसको महान नहीं बनाता है ।


Tarun said...
आशा है कुछ सालों बाद आपकी ऐसी किसी पोस्ट का शीर्षक हो - जात ना पूछो इंडियन की


Mrs. Asha Joglekar said...
पढने लिखने को जिन्होने पेशा बनाया है उन सबकी
जात एक ही है उपनाम चाहे कुछ ही क्यूं न हो । असल में हमारी सरकार ही नही चाहती की जातिभेद मिटे तभी तो हर फॉर्म में हमसे जाति और धर्म पूछती रहती है । ऐसा करे भी कैसे जाति के नाम पर राजनीति कर लोगों को बरगलाने का मौका जो नही मिलेगा। जाति में गर्व करने जैसा कुठ है भी नही जिसमें हमारा योगदान शून्य है । मेरे कई दलित मित्र हैं जो सवर्णों से किसी तरह कम नहीं है,और मेहनत से अपना मुकाम हासिल करने में विशवास रखते हैं ।

मोहल्ले में कितने आदमी थे? दरअसल एक भी नहीं! पर आई टिप्पणियां-

Anonymous said...
Dileep ji, main sirf itna nahi samajh paay aki aap kehna kya chahte hain...


डा.मान्धाता सिंह said...
दिलीपजी सिर्फ गिनने के लिए अगर दलित पत्रकार की बात की जा रही है तो सन्मार्ग के प्रसादजी को भी शामिल कर लीजिए। कुछ और अखबारों में भी मिल जाएंगे मगर मुखिया कब बनेंगे। यानी सचमुच प्रभावशाली हो उनका अधिकार और पद। खैर छोड़िए, मायावती जी ने निजी संस्थानों में आरक्षण को कारगर तरीके से लागू करने वादा किया है मगर कितना कर पाएंगी जबकि पासवान जैसे नेता ही उनके विरोध में खड़े हो रहे हैं। शायद दलितों का भी सवर्ण वर्ग तैयार हो गया है।

अजित वडनेरकर said... पहली बात - आपकी ये पोस्ट समझ में नहीं आई।
दूसरी बात - साहस भी है ,धैर्य भी है। बस , चौबीस घंटों के पच्चीस घंटे नहीं हो सकते हैं अर्थात वक्त की कमी है। फिर भी कहानी पूरी सुनेंगे।
तीसरी बात- किसी दलित पत्रकार की मौजूदगी में आपका अफसर आपसे उसके जातीय विशेषणों चमट्टे, बसोर या भंगी के उल्लेख से बात करे तो आप क्या करेंगे ?
1.अफसर को जूते लगाएंगे
2.पत्रकार से कहेंगे,इस ब्याह मे यही गीत हैं
3.चुप रहने की समझदारी दिखांएंगे
4.पत्रकार को कहेंगे कि साहब का मतलब वह नहीं था
5.पत्रकार के साथ खुद भी नौकरी छोड़ देंगे

क्या करेंगे आप?
दलित पत्रकार तो हैं और बाकायदा काम कर रहे हैं। वैसे अपशब्दों में बात करने वाला माहौल भी इधर नहीं देखा। मेहनत ही आगे ले जाती है। हर क्षेत्र की अलग पहचान है। जिसने जहां जाना है , पहुंचेगा। आंबेडकर साहेब को ऊंचाई पर आपने , मैने या उनके माँ - बाप ने पहुंचाया था ? वे अपनी मेहनत , लगन से दशकों पहले वहां पहुंच गए थे। क्या आज का पिछड़ावर्ग, दलित वर्ग इतना हीन है कि इतने बरस बाद भी कुछ न कर पाए? हमारे इधर कोई नौकरीपेशा दलित को अपशब्द बोल कर देखे या न देखे, अगर दलित को खुन्नस आ गई कि फलाने को फसाना है तो वह तमाम कानूनों का सहारा लेकर अच्छे-खासे रसूखदार को नचा देगा। ये कानून किसने बनाए हैं ?
देश का मुस्लिम सेनाध्यक्ष, देश का दलित प्रधानमंत्री, देश का पिछड़ा नेवी चीफ़, ये सब तो आसान बाते हैं। बना दीजिए और संतुष्ट हो जाइये। एनजीओ चलाइये। मगर इस पर कभी आंदोलन
( गौर करें आंदोलन कह रहा हूं ) मत करिये कि शिक्षा का बजट क्यों नहीं बढ़ता । महिला बालविकास प्राथमिकता के साथ क्यों नहीं हैं राजनीतिक दलों के एजेंडे में। सदियों पुराने तमाम तरह के कानून बदलने की मुहिम क्यों नहीं छेड़ी जाती तथाकथित प्रगतिशील तबके द्वारा। जघन्य अपराधों की आसान सजाएं कब तक ?
ये सब हो जाए तो फिर बहुत कुछ आसान होगा।
पत्रकारिता संस्थान का दलित मुखिया किसे होना चाहिए ? आप नाम तय करिये हम मुहिम छेड़ने को तैयार हैं। पहले कभी मुहिम छेड़ी गई है ?
निजी संस्थानों के कर्ता-धर्ता ही अगर निशाने पर अगर हैं तो बात अलग है।


Sanjay said... कहना क्‍या चाह रहे हैं यह भी तो समझ आना चाहिए.. बातों की जलेबियां बनाने का क्‍या फायदा...

दिलीप मंडल said... समझ में नहीं आ रहा है तो अफसोस है दोस्तो। चंद स्थापनाएं हैं। सरल और सीधी। अब भी न समझ में आए तो धिक्कार है मेरी भाषा को। आपकी समझ और नीयत पर कोई शक नहीं है, न कोई शिकायत। ये चैलेंज तो मेरे लिए हैं कि समझ में आने लायक लिखूं।

- पत्रकारिता में वंचित सामाजिक समूहों की हिस्सेदारी कम है। दिल्ली में मीडिया संस्थानों की सोशल ऑडिटिंग हुई है, आप कहेंगे तो उपलब्ध करा दूंगा।
- हिस्सेदारी कम होने के ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। बड़े फलक पर देखें तो ये किसी की साजिश का नतीजा नहीं है।
- ये कारण बदलते वक्त के साथ बदल रहे हैं, हालात सुधर रहे हैं।
-मीडियाकर्मियों के लिए जरूरी है कि वो इस पहलू को ध्यान में रखें क्योंकि न्यूजरूम में सामाजिक असंतुलन का असर कंटेट पर, मीडिया की विश्वसनीयता पर पड़ रहा है। बाबरी मस्जिद कांड और आरक्षण विरोधी आंदोलन के समय की पत्रकारिता आपने देखी है। उस समय के कवरेज की कंटेट एनालिसिस भी आपने देखी होगी।
- यथास्थिति को बदलने की जिनकी थोड़ी-बहुत हैसियत है, वो इसके लिए अपनी ओर से कुछ कर सकते हैं। करना चाहिए। न करें तो भी हालात तो बदलेंगे ही। देखिए ना, न्यूजरूम में लड़कियां आ गई हैं और छा गई हैं। इंग्लिश न्यूज चैनलों में काम करने वालों में उनकी संख्या क्या 50 परसेंट तक पहुंच गई है? शायद हां।


चंद्रभूषण said...
दिलीप जी की पोस्ट किसी की समझ में क्यों नहीं आ रही है, यह बात उनके अलावा मेरी भी समझ में नहीं आ रही है। बात तो सीधी-सी है कि न्यूजरूम में पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक नहीं के बराबर हैं लिहाजा निहित स्वार्थी तत्व वहां खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं। हाल के आरक्षण विरोधी मेडिकल आंदोलन में कहीं कोई आत्मदाह हुआ ही नहीं और देश के ज्यादातर लोगों की तरह मैं भी अबतक यही माने बैठा हूं कि ऐसी छिटपुट दो घटनाएं सचमुच हुई थीं। पता नहीं किस-किस मामले में ऐसे क्या-क्या घपले हो रहे होंगे, लिहाजा और बातों के अलावा खबरों के वस्तुगत होने के लिए भी यह जरूरी है कि मीडिया में व्यापक सामाजिक प्रतिनिधित्व हो। ऐसा हो जाने के बाद भी लाला के लोग उसके और अपने फायदे के लिए खबरों को खास ऐंगल देने का कोई मौका नहीं चूकेंगे, लेकिन यह एक अलग मामला है।

शेष said... सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात समझ में नहीं आ रही है।
- यह त्रासदी इस बहस की जरूरत को रेखांकित करती है।

और अंत में...मोहल्ला में वो सुबह कभी तो आएगी पर मिली प्रतिक्रियाएं -


ambrish said...
delhi,chattisgarh phir uttar pradesh sabhi jagah jati ka asar
patrkarita per padte dekha hai.mandal aandolan ke samai express ke mahan sampadak ke kamre me mandal viodhiyo ki baithak bhi dekhi aur kaise mandal ke samarthan ki khabre jansatta me kat ker kinare kar di jati thi yeh bhi dekha aur dat ker virodh bhi kiya.up ke pichle chunav me media
ka motiabind bhi dekha jise mayavati ki jeet nahi dikhai per
rahi thi.aur bhi bahut kuch hai.isliye yeh kahana ki jati koi mudda nahi hai theek nahi hai.

ambrish

दिनेशराय द्विवेदी said... इस विषय पर मित्रों के बीच बहस का होना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन इस से मित्रों के बीच दीवार खड़ी नहीं होना चाहिए। यह सही है कि आज भी दलितों के साथ अन्याय होता है यह सत्य है। लेकिन आरक्षण इस भेद को दूर नहीं कर पाया है। इसे दलित जातियों के सम्पन्न लोगों ने अधिकार समझ लिया है। दलितों में दलितों को तो इस का लाभ मिल ही नहीं रहा है। यह भी सही है कि दलितों की खबरों को मीडिया में मौजूद एक तबका दबाने का प्रयास करता है। लेकिन मीडिया में आज बहुमत ऐसे लोगों का नहीं है। अल्पसंख्यक सवर्णों (ब्राह्मण, कायस्थ आदि जातियों का बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो पूरी तरह नौकरयों पर निर्भर है। आरक्षण ने इनमें से कइयों को नौकरियों से वंचित किया है। उन की सोच क्या बन रही होगी यह भी सोचें। एक समतावादी समाज की ओर बढ़ने के लिए आरक्षण का मौजूदा मॉडल बिलकुल उचित नहीं है। पूर्ण रोजगार की स्थिति ही इसे बदल सकती है। लेकिन यह आरक्षण और आरक्षण नहीं की लड़ाई इस मूल लड़ाई को पीछे धकेले जा रही है। आवश्यकता इस बात की है कि दलित और सवर्ण सभी वंचित एक साथ मिल कर इस संघर्ष को लड़ें। यह संघर्ष के बीच का साथ ही दोनों के बीच के भेद को दूर करेगा।

Ek ziddi dhun said... चिंताएं वाजिब हो सकती हैं, मगर हमने भी यही लिखा कि स्थिति दिल्ली में बैठ कर जितनी चिंताजनक लग रही है, वैसी है नहीं।....
isi ek line me.n sab saaf ho jaata hai. yahi kahte hain ki kahan hai jatiwad, kahan chhuwachhoot, kahan anyay....Apne kya khoob kaha hai--
चिंताएं वाजिब हो सकती हैं, मगर हमने भी यही लिखा कि स्थिति दिल्ली में बैठ कर जितनी चिंताजनक लग रही है, वैसी है नहीं।
Theek hai, apko yahi dekhna suitable lagta hai to koi kya kar sakta hai.....Kahne ko to aap ye bhi kah sakte the--Jo hai, vo jaruri hai, Desh ke liye, samaj ke liye, dharm ke liye.....Apki itni bhari sadashyata ke liye apko sadhuwad

February 8, 2008 11:25 PM

6 कमेंट्स:

स्वप्नदर्शी said...

बहुत अच्छा लेख है. आंकणो को भी सामाजिक विकास् के साथ ही देखना चाहिये. सिर्फ कुछ दलितो के शीर्श पदो पर बैठने से समाज नही सुधर जायेगा. बरबरी का समाज हासिल करना एक लम्बी प्रक्रिया है. प्रतिभा पाटिल के जिस तरह रास्ट्र्पति बनने से हिन्दुस्तान की आम औरत बेहतर नही होती. उसी तरह जाति को तूल देकर, बराबरी का समाज नही बन सकता.

दिनेशराय द्विवेदी said...

अजित जी, आप ने टिप्पणियों के माध्यम से सब को एक स्थान पर एकत्र कर सुन्दर काम किया है। मेरा मानना है कि ये सारे भेद शोषण की इस व्यवस्था को चलाए और बनाए रखने के लिए हैं। ये भैद शोषण की समाप्ति की लड़ाई में साथ साथ चलते हुए समाप्त होते जाऐंगे। मुख्य बात तो यह लड़ाई और इस में बने रहना है। हमें यह देखना चाहिए कि इस लड़ाई में कौन हमारे साथ है और कौन सामने खड़ा है। हमें बीच में खड़े लोगों को तो साथ लाना ही है। खिलाफ खड़े लोगों में से भी अपनी ओर लाने के प्रयास करने चाहिए। अपने बीच आपसी खींचतान कम से कम हो यही हमारे लिए बेहतर है। दो संघर्षरत सेनाओं में से एक ही सेना के सिपाही आपस में भी लड़ रहे होते हैं। मगर वही सेना विजयी होती है जिस के सिपाही आपस में सबसे कम मारपीट करते हैं। तो इस आपसी मारपीट को कम से कम करें तो अच्छा है। मूल लक्ष्य से नहीं भटकें।

Sanjay Karere said...

आपने ठीक किया अजीत भाई जो इस निरर्थक बहस से बाहर हो गए. यह बेबुनियाद बहस है जिसका कोई सार्थक नतीजा निकलना कठिन है. मुझे भी अब यह शक हो रहा है कि वहां किसी षड्यंत्र के तहत यह सब लिखा जा रहा है. गोया अब बहस के लिए कोई और मुद्दा ही नहीं रह गया तो आओ मीडिया में दलितों को खोजें. मुझे कोई हैरत नहीं कि दिलीप मंडल ने आपके सवाल का जवाब नहीं दिया. और यदि वे 3रा या 4था विकल्‍प चुन लेते तो बिल्‍कुल भी हैरानी नहीं होती. उन्‍हें पढ़ते हैं तो इसका यह अर्थ भी नहीं कि सहते रहेंगे...
आप सफर आगे बढ़ाएं अजित भाई.. ऐसे भटकन भरे पड़ाव न ही आएं तो अच्‍छा.

अनिल रघुराज said...

सारा कुछ दलितों और पिछड़ों से निकले मलाई चाभनेवालों का अवसरवादी शगल है। इसी बहाने वो और मलाई चाहते हैं। मीडिया में दलितों की स्थिति पर बहस पूरे समाज के ही संदर्भ में हो सकती है।

azdak said...

बड़े उलझे पेंच हैं, भाई.. वैसे आपने ऊपर जो अपनी प्रतिक्रियाएं दर्ज़ की हैं, मुझे उनमें ज़्यादा संगति दिखती है. फिर अनिल जो कह रहे हैं, वह भी यथार्थ का एक दूसरा पहलू है ही..

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

ये बहस कई दिन से मैं बी पढ़ रही थी लेकिन टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। इस मामले में मुझे अनिल जी की बात ठीक लगी और आपका बहस बंद करने का फैसला मुझे सही लगा।।

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