तेज गति से चलने या भागने के लिए हिन्दी का एक शब्द है सरपट। इसी तरह एक शब्द है सरसराना जिसका मतलब है हवा का तेज चलना। लापरवाही से किए गए , या जल्दबाजी में किए गए काम के लिए फारसी का एक शब्द है सरसरी जो उर्दू-हिन्दी में भी खूब इस्तेमाल होता है। इसके सरसरी नज़र डालना या सरसरी तौर पर जैसे रूप रोज़ाना इस्तेमाल होते हैं। तेजी, जल्दबाजी और रफ्तार से जुड़े ये दोनों ही शब्द जन्मे हैं संस्कृत की सृ धातु से जिसका अर्थ है तेज चलना , आगे बढ़ना और फैलना आदि। इसी से जन्मा है सृप् शब्द जिसका इस्तेमाल रेंगनेवाले जीवो के संदर्भ में सरीसृप(रेप्टाइल्स)में देखा जाता है। अचरज की बात ये कि सृ से जन्में सृप् में गति का भाव तो सुरक्षित रहा मगर सृ में समाई तेजी का यहां लोप हो गया। मूलतः सृप् में पेट के बल रेंगने का भाव प्रमुख है । इसके अलावा इसके मंद मंद चलना, छुप छुप कर देखना, हिलना-डुलना रेंगना आदि अर्थ भी हैं। रेंगना को ही सरकना भी कहते हैं और यह भी इसी सृ धातु से बना है।
संस्कृत की इस धातु का जन्म भी संभवत: प्राचीन इंडो-यूरोपियन परिवार से ही हुआ है। इसी से भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में कई शब्द बनें जिनका अर्थ किसी रेंगने वाले प्राणी अर्थात सांप से जुड़ा। भारतीय-यूरोपीय भाषा परिवार में सांप के लिए जो मूल शब्द मिलता है वह भी serp है । अंग्रेजी में सांप के लिए एक शब्द sarpent भी है जो लैटिन के serpentem से बना है। इसी तरह ग्रीक भाषा में एक शब्द है- herpein जिसका मतलब होता है रेंगना और herpeton जिसका मतलब होता है सांप। यहां स और ह में वही बदलाव हो रहा है जैसासिन्धु और हिन्दू में हुआ। अल्बानियन भाषा के garper का >मतलब भी यही होता है और इन भाषाओं के ये शब्द serp से ही बने है।
गौर करें कि सृ से ही बना है संस्कृत का सृप जिसका मतलब हुआ रेंगना या पेट के बल चलना। बाद में सर्पः या सर्पति शब्द चलन में आए जिनका रेंगने वाले जन्तु जैसा लाक्षणिक अर्थ नहीं होकर सीधा संबंध सांप या सांप से ही था। सर्पः का प्राकृत रूप हुआ सप्प जिसने हिन्दी में सांप का रूप लिया। घुमावदार या कुंडलीदार के अर्थ में सर्पिल या सर्पिलाकार शब्द भी इसी मूल से जन्मे हैं। ये बड़ी अजीब बात है कि एक ओर जहां भारतीय संस्कृति में सर्प को पूजा जाता है , उसका धार्मिक महत्व है वहीं सांप के लाक्षणिक रूप से जुड़ी नकारात्मक कहावतें भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे सांप मरे और लाठी न टूटे, आस्तीन का सांप, सीने पे सांप लोटना , सांप सूंघना , सांप का सिर कुचलना आदि। सांप के बच्चे को संपोला कहते हैं और यह एक मुहावरे के तौर पर भी प्रयोग में लाया जाता है जिसका मतलब हुआ कि दुष्ट की संतान। अज्ञेय की एक प्रसिद्ध कविता भी सांप पर ही है-
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
तुम्हे नहीं आया।
एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना,
विष कहाँ पाया?
सृ धातु के कुछ और रूप देखें 9 जुलाई 2007 की इस पोस्ट-सड़क-सरल-सरस्वती में।
अगली कड़ी में नज़र ( सरसरी नहीं भरपूर ) डालते हैं नाग पर। इंतजार करें और ये ज़रूर बताएं कि ये पड़ाव कैसा लगा। इस बीच हम मोहल्ले में मनुवादी,ब्राह्मणवादी जैसी गालियां खाकर आते हैं।
आपकी चिट्ठियां-
सफर के पिछले पड़ावों पर आई टिप्पणियों के लिए हम साथियों का आभार नहीं जता पाए थे। फिर आंच न तेज करनी पड़ जाए, नस नस फड़कती है खानदान के नाम पर, जात न पूछो कल्लू की और अतिथि तो यायावर ठहरा पर कुल अट्ठाइस चिट्ठियां मिलीं जो हमें - संजय, दिनेशराय द्विवेदी, संजीत त्रिपाठी, माला तैलंग, कुन्नूसिंह, दिलीप मंडल, नीरज गोस्वामी , पंकज सुबीर , तरुण, आशा जोगलेकर, मीत, शम्भु चौधरी, चंद्रभूषण, लावण्या, समीरलाल, ज्ञानदत्त पाण्डेय, अनूप भार्गव, स्वप्नदर्शी, नीलीमा सुखीजा अरोरा और प्रमोदसिंह -ने लिखीं।
चंद्रभूषण जी ने अतिथि तो यायावर ठहरा की एक ग़लती की तरफ ध्यान दिलाया था। अतिथि देवो भवः में विसर्ग नहीं लगता है। धन्यवाद चंदूभाई। हम इसे सुधार लेंगे।
सभी साथियों का आभारी हूं।
Monday, February 11, 2008
आस्तीन में सरसराया सांप
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 12:58 AM
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8 कमेंट्स:
सरपट,सरसराना,सरसरी ठीक है, ये सरदार कहाँ से आया? जानना चाहता हूँ।
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं...
इस शेर में सांप की जगह यहां इंसान भी ठीक रहेगा कुछ लोगों के लिए. ऊन वाला नन्हा सांप तो बहुत ही क्यूट लग रहा है.
"सर से सरके सरके चुनरिया.." फिल्म सिलसिला का ये गीत तो आपको पता ही होगा,
"सरकती जाये है रूख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता.." ये गजल भी आपने सुनी होगी।
ऐसा लगता है सांप के सरसराने और चुन्नी या नकाब के सकरने में कुछ कुछ तो समानता है।
विष कहाँ पाया? या विषदंत कहाँ से पाया ?
अजीत भाई आप की तो हर पोस्ट सहेज कर रख रहे हैं इतनी काम की जानकारी देते है॥ एक किताब के रूप में ही क्युं नही प्र्काशित कर देते
ऊन वाले साँप ने डर खत्म किया जो सरपट सरसराने पर उत्पन्न हुआ था ।
एकदम सत्य वचन !! वर्ना अपन तो नो दो ग्यारह हो गये थे , ऊन वाले सर्पराज को देख कर ही थोड़ी हिम्मत जुटा पायें .
सर बेहद उम्दा किस्म की जानकारी दे रहे हैं आप
खासकर हम जैस नए और युवा लोगों को जिन्होंने पत्रकारिता का क, ख अभी सीखना ही शुरू किया है।
बहरहाल आपके इस एतिहासिक योगदान के लिए
आपको ढेर सारी बधाइयां
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