Wednesday, February 13, 2008
कारूं भी था और उसका खजाना भी ..[संशोधित]
बेहिसाब दौलत का जब भी जिक्र आता है तो अक्सर कारूं के खजाने का मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल होता है। भारत में यह मुहावरा फारसी से आया । उर्दू-फारसी के किस्सों में इस कारूं का उल्लेख कारून के रूप में मिलता है-एक अमीर जो अत्यधिक कृपण था और शापग्रस्त होकर अपनी दौलत समेत धरती में समा गया। वैसे मुहावरे के तौर पर उर्दू में इसका मतलब हुआ मालदार होने के साथ कंजूस भी होना। अंग्रेजी ज़बान में भी कारूं का उल्लेख क्रोशस के रूप में है और मुहावरे के तौर पर एज़ रिच एज़ क्रोशस वाक्य प्रचलित है। सवाल उठता है कारूं का खजाना महज़ किस्सागोई है या हकीकत ? दरअसल कारू, कारून या क्रोशस नाम का इन्सान सचमुच था और एशिया माइनर ( समझें की आज का तुर्की-टर्की ) में ईसा से ५६० साल पहले लीडिया नाम के मुल्क का बादशाह था जिसकी सीमाएं भूमध्य सागर, एजियन सी और कालासागर तक थीं । लीडियन साम्राज्य की राजधानी सार्डिस थी जिसकी समृद्धि के खूब चर्चे थे। सोनेकी खानों और नदियों से बहकर आते स्वर्णकणों की बदौलत वह उस जमाने का सबसे दौलतमंद राजा था । ऊपर से घमंडी भी। अमीरी की खुमारी में न सिर्फ खुद को दुनिया का सबसे सुखी इन्सान समझता बल्कि चाहता था कि लोग भी ऐसा ही मानें । गौरतलब है कि स्वर्णप्रेम की वजह से दुनियाभर में विख्यात (कुख्यात?) ग्रीक कथाओं का अमरचरित्र किंग मिडास इसी कारूं का पुरखा था । कारूं को लालच, स्वर्णप्रेम और घमंड अपने पुरखे से विरासत में मिले ।
आज के तुर्की, सीरिया, जार्डन, निकोसिया, जार्जिया और आर्मीनिया जैसे देश कारूं के साम्राज्य का हिस्सा थे । लीडिया की ज़मीन सचमुच सोना उगलती थी । न सिर्फ सोना बल्कि चांदी भी । कारूं की दुनिया को एक बड़ी देन है टकसाली सिक्कों की । इससे पहले सिक्के ढाले नहीं जाते थे बल्कि ठोक-पीटकर बना लिए जाते थे । कारूं ने जो स्वर्णमुद्रा चलाई उसे इलेक्ट्रम के नाम से जाना जाता था और उसमें सोने की शुद्धता को लेकर बेहद सावधानी बरती जाती थी ।
कारूं ग्रीस की ( प्राचीन आयोनिया-यवन-युनान ) की सभ्यता-संस्कृति का दीवाना था । ग्रीस यानी युनान पर कब्जा करने वाला पहला एशियाई विदेशी भी उसे ही माना जाता है। ईसा से ५४६ बरस पहले फारस यानी ईरान के शासक साइरस
( भारतीय इतिहास में कुरूश, जिसका फारसी उच्चारण खुसरू होता है ) ने अपनी महान विजययात्रा शुरू की और समूचे पश्चिम एशिया को जीतते हुए लीडिया पर भी कब्जा कर लिया । डरपोक कारूं ने बजाय लड़ने के उसके आगे सिर झुकाना बेहतर समझा । साइरस के वारिस डेरियस ने अपने साम्राज्य को एशिया के पश्चिम में यूरोप तक और पूर्व में भारत के सिंध प्रान्त तक फैला दिया । गौरतलब है कि भारतीय इतिहास में वह दारा के नाम से जाना जाता है। सिकंदर जब अपना आलमी फतह पर निकला तो सिंध और पंजाब पर विजय पाने से पहले दारा के साथ भारत की सीमा पर उसका युद्ध हुआ था , जो तब ईरान से लगती थी । ज़ाहिर है कुरूश,दारा और सिकंदर के सैन्य अभियानों और कारोबारियों के ज़रिये ही कारूं का ख़ज़ाना भूमध्यसागर से हिन्द महासागर तक मुहावरे के तौर पर लोगों की ज़बान पर चढ़ गया ।
चित्र परिचय
1.पेरिस के लूवर संग्रहालय में रखा कारूं का चित्र
2.कारूं के खजाने में मिली एक सुराही देखें यहां
3.सार्डिस के खंडहर जो कारूं की राजधानी थी। देखे कुछ और चित्र
4.इलेक्ट्रम नाम की स्वर्णमुद्रा जिसे चलाने का श्रेय कारूं को जाता है देखें यहां
सफर की यह कड़ी कैसी लगी, आपके अनुभव जानना चाहूंगा।
आज के तुर्की, सीरिया, जार्डन, निकोसिया, जार्जिया और आर्मीनिया जैसे देश कारूं के साम्राज्य का हिस्सा थे । लीडिया की ज़मीन सचमुच सोना उगलती थी । न सिर्फ सोना बल्कि चांदी भी । कारूं की दुनिया को एक बड़ी देन है टकसाली सिक्कों की । इससे पहले सिक्के ढाले नहीं जाते थे बल्कि ठोक-पीटकर बना लिए जाते थे । कारूं ने जो स्वर्णमुद्रा चलाई उसे इलेक्ट्रम के नाम से जाना जाता था और उसमें सोने की शुद्धता को लेकर बेहद सावधानी बरती जाती थी ।
कारूं ग्रीस की ( प्राचीन आयोनिया-यवन-युनान ) की सभ्यता-संस्कृति का दीवाना था । ग्रीस यानी युनान पर कब्जा करने वाला पहला एशियाई विदेशी भी उसे ही माना जाता है। ईसा से ५४६ बरस पहले फारस यानी ईरान के शासक साइरस
( भारतीय इतिहास में कुरूश, जिसका फारसी उच्चारण खुसरू होता है ) ने अपनी महान विजययात्रा शुरू की और समूचे पश्चिम एशिया को जीतते हुए लीडिया पर भी कब्जा कर लिया । डरपोक कारूं ने बजाय लड़ने के उसके आगे सिर झुकाना बेहतर समझा । साइरस के वारिस डेरियस ने अपने साम्राज्य को एशिया के पश्चिम में यूरोप तक और पूर्व में भारत के सिंध प्रान्त तक फैला दिया । गौरतलब है कि भारतीय इतिहास में वह दारा के नाम से जाना जाता है। सिकंदर जब अपना आलमी फतह पर निकला तो सिंध और पंजाब पर विजय पाने से पहले दारा के साथ भारत की सीमा पर उसका युद्ध हुआ था , जो तब ईरान से लगती थी । ज़ाहिर है कुरूश,दारा और सिकंदर के सैन्य अभियानों और कारोबारियों के ज़रिये ही कारूं का ख़ज़ाना भूमध्यसागर से हिन्द महासागर तक मुहावरे के तौर पर लोगों की ज़बान पर चढ़ गया ।
चित्र परिचय
1.पेरिस के लूवर संग्रहालय में रखा कारूं का चित्र
2.कारूं के खजाने में मिली एक सुराही देखें यहां
3.सार्डिस के खंडहर जो कारूं की राजधानी थी। देखे कुछ और चित्र
4.इलेक्ट्रम नाम की स्वर्णमुद्रा जिसे चलाने का श्रेय कारूं को जाता है देखें यहां
सफर की यह कड़ी कैसी लगी, आपके अनुभव जानना चाहूंगा।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:15 AM
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13 कमेंट्स:
Gaurav Pratap said...
आपका श्रम सराहनीय है । धन्यवाद एक मुहावरे से परिचित कराने के लिए
( मूल पोस्ट पर यह प्रतिक्रिया आई थी जो अब गलती से डिलीट हो गई इसलिए गौरव प्रताप का लिंक इसमें नहीं है। )
चलो कारुँ भी था और उस का खजाना भी। यह तो ऐसे हुआ कि सपना सच हो गया हो। सच हम तो इसे किस्सा ही समझते थे। अमूल्य जानकारियाँ दे रहे हैं आप। धन्यवाद।
यह ब्लॉग भी कारूं का खजाना है।
ज्ञानजी की बात से सहमति है सिर्फ एक संशोधन है कि ब्लोग लिखने वाला खुद कांरू नही है वरना इतनी जानकारियां नही मिलती। धन्यवाद जानकारी देने के लिये।
कारूं के वंशज सब तरफ दुनिया में फैल गये ? खज़ाना किधर गया ?
अन्तर्कथा देकर मुहावरे में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी आपने. उसे ज़िंदा कर दिया .
बहुत अच्छी पोस्ट, लेकिन कारूं को लेकर भारत में जो लोककथाएं प्रचलित हैं उनमें वह राजा के बजाय कोई सिड़ी साहूकार ज्यादा लगता है। शायद कारूं के मिथक के इर्द-गिर्द एशिया की कई अन्य कहानियां भी लिपट गई हैं, जिनका इस नाम के व्यक्ति के वास्तविक इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है।
अपने ज्ञान का खजाना हमें बांटकर हमें भी ज्ञान समृद्ध करने के लिए शुक्रिया!!
ज्ञान जी से सहमति है!!
ज्ञानजी से पूर्णतः सहमत हूँ ,सच में यह ब्लाग वास्तव मे कारुं का खजाना है। इसी के साथ यह भी कहूँगी कि पूरी जानकारी इतनी सुंदर ,सरल ,व रोचक शब्दों में दी है कि लगा कोई कहानी पढ़ रहे हैं।
वाकई नया मुहावरा है।
आपकी बातों से मै भी सहमत हूँ।
gud
right
balu ban gaya..kyuki karoon ne allah ki baat ki nafarmani kari usne jakaat nhi di.
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