तीर्थ स्थानों और विशिष्ट धार्मिक समागमों जैसे कुंभ आदि अवसरों पर नागा साधुओं का जमघट होता है। नागा दरअसल साधुओं का वह सम्प्रदाय है जो वैराग्य के उस चरम बिंदु पर पहुंच चुका है कि वस्त्र तक उसे बोझ लगते हैं, प्रपंच लगते हैं। छोड़ना, जाना आदि भावों को समेटे व्रज् धातु से ही सन्यासी के लिए परिव्राजक शब्द बना जिसमें भी सांसारिक बंधनों को त्यागने का भाव शामिल है। मगर यह संकेत सिर्फ गृह, संबंध और माया के त्याग तक हैं। परिव्राजक के त्याग की पराकाष्ठा नागा सम्प्रदाय में नज़र आती है जहां वस्त्रों तक का त्याग कर दिया जाता है। जैन पंथ का भी एक सम्प्रदाय है दिगंबर जैन। इस पंथ के साधु भी वस्त्र धारण नहीं करते । वे दिगंबर इसलिए कहलाते हैं क्योंकि वस्त्र के नाम पर उनके चारों ओर सिर्फ दिशाएं होती है अर्थात दिशाएं ही जिसका अंबर (वस्त्र) हो वही दिगंबर। गौर करें कि निर्वसन अवस्था के लिए भी दिगंबर शब्द में अंबर यानी वस्त्र शब्द का मोह झलक रहा है मगर नागा सम्प्रदाय इस मोह से भी मुक्त है। नागा साधु आज गुंसाईं, बैरागी, दादूपंथी आदि विशेषणों के साथ कुंभ व अन्य धार्मिक समागमों में अपने लवाजमें के साथ राजसी वैभव का प्रदर्शन करते हुए इकट्ठा होते हैं और शाही सवारियां निकालने की इनमें होड़ लगती है।
नागा शब्द बना है संस्कृत के नग्न से। नग्न यानी विवस्त्र, नंगा, वस्त्रहीन। नंगा भिक्षु। इसका एक अर्थ पाखंडी भी होता है। जाहिर है कि साधुओं की पूजा अभ्यर्थना करने वाले समाज में कुछ लोग यही सम्मान पाने के लिए ढोंग करने लगे होगे और झूठ-मूठ के वैराग्य का प्रदर्शन करने के लिए वस्त्र त्याग कर भिक्षावृत्ति करने लगे होंगे इसीलिए नग्न का एक अर्थ पाखंडी भी हुआ। नग्न से बना नग्नक यानी दिगंबर संम्प्रदाय अथवा विवस्त्र साधु। इसका प्राकृत रूप हुआ नग्गओ और फिर हिन्दी रूप बना नागा। नागा सम्प्रदाय के साधु स्वयं को आदि अवधूत कपिलमुनि, ऋषभदेव और दत्तात्रेय की परंपरा और आदर्शों पर चलने वाला मानते हैं।
इस्लाम के आगमन के बाद नागा साधुओं की जमात में बदलाव आया। इन्होने खुद को हथियारबंद जत्थों में संगठित किया। इनके मठ अखाड़ों मे तब्दील हो गए। समय समय पर राज्यसत्ता के साथ मिलकर और खिलाफ भी युद्ध लड़े। मराठों, निज़ाम , अवध के नवाब आदि की ओर से इन्होने लडाइयां लड़ीं।
आपकी चिट्ठियां-
सफर के पिछले तीन पड़ावों ये नागनाथ, वो सांपनाथ, कारूं भी था और उसका खजाना भी... और कपडे छिपाओ, किताबें छिपाओ.. पर सर्वश्री अरविंद मिश्रा, दिनेशराय द्विवेदी, नीलिमा सुखीजा अरोरा, अफ़लातून, संजीत त्रिपाठी, गौरवप्रताप, ज्ञानदत्त पाण्डेय, तरुण, प्रत्यक्षा, प्रियंकर, चंद्रभूषण, माला तैलंग, संजय , नीरज रोहिल्ला, जाकिर अली रजनीश, आशीष और रोहित त्रिपाठी की टिप्पणियां मिलीं,आप सबका आभार।
नीरज रोहिल्ला जी, द्रविड़ भाषाएं संस्कृत से नहीं उपजी है। यह स्वतंत्र भाषा परिवार है अलबत्ता सदियों के साझा सांस्कृतिक विकासक्रम में इनके बीच सहज रिश्तेदारी पनप चुकी है। इस पर सफर में आगे किसी पड़ाव पर ज़रूर कुछ जानने का प्रयास करेंगे।
अफ़लातून जी, नागनाथ वाली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी - क्या आप 'ष ' में यक़ीन नहीं रखते ? का अभिप्राय नहीं समझ पाया था। कृपया थोड़ा स्पष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
Saturday, February 16, 2008
नागा यानी जुझारू और दिगंबर भी...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:44 AM
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8 कमेंट्स:
यह सफर तो बहुत कुछ समझा रहा है । धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
इतनी ठंड है और आप हैं कि नागाओं के बारे में बता कर डरा रहे हैं... फोटो भी दिखा दिया.. :)
मजेदार और ज्ञानवर्द्धक पोस्ट :)
अच्छी जानकारी , अच्छा विश्लेषण ..
कल ही छत्तीसगढ़ के राजिम कुंभ के दौरान आए नागा साधुओं की तस्वीरें देख रहा था और आज आपने यह जानकारी दे दी , शुक्रिया!!
अपके ब्लॉग पर बहुत दिनों में आई पर वाकई कारूँ का खजाना हाथ लग गया । पोशाक औऔर पुस्तक के बारे में बता कर बाद में कैसे नागा भी कर दिया बहुत अच्छे ।
बनारस में कई बार नागा साधुओं को देखा है, उन्हें देखकर बचपन में डर का भाव आता था लेकिन घर के बड़े बुजुर्ग उनकी बहुत इज्जत करते थे
नागा साधुऒं को लेकर अलग ही अक्खड छवि ऊभर कर सामने आती है। ज्ञानवर्धक जानकारी।
अजीत भाई - नगपति (साकार दिव्य गौरव विराट वाले ) का भी कोई रिश्ता ? - मनीष [ टिप्पणी में नागा है - पढने में नहीं ]
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