संजय पटेल की यह कविता मैने उनके ब्लाग पर पिछले साल सितंबर माह में देखी थी। मुझे बेहद पसंद आई थी उनकी लिखी ये पंक्तियां। उनकी इजाज़त से इसे यहां छाप रहा हूं ताकि इस बीच जो नए लोग इस ब्लाग माध्यम से जुड़े हैं वे भी इन ज़रूरी बातों को जान सकें।
ब्लॉगर का ख़ामोश रहना है ज़रूरी
जितना बोलना,लिखना और गुनना
ब्लॉगर को चाहिये की वह अंतराल का मान करे
वाचालता को विराम दे
चुप रहे कुछ निहारे अपने आसपास को
ब्लॉगर का दत्तचित्त होना है लाज़मी
वाजिब बात है ये कि जब लिख चुके बहुत
तो चलो कुछ सुस्ता लो
सफे पर उभरे हाशिये की भी अहमियत है
चुप रहना सुस्त रहना नहीं है
चुप्पी में चैतन्य रहो
अपने आप से बतियाओ
नज़र रखो उस पर जो लिखा जा रहा है
सराहने का जज़्बा जगाओ
पढ़ो उसे जो तुमने लिखा
दमकता दिखाई दे अपना लिखा
तो सोचो और कैसे दमकें तुम्हारे शब्द
पढ़ो उसे जो तुमने लिखा
दिखना चाहिये वह नये पत्तों सा दमकता
कुछ सुनहरी दिखें तुम्हारे शब्द
तो अपने में ढूँढो कुछ और कमियाँ
कमज़ोर नज़र आए अपने हरूफ़
सोचो मन में क्या ऐसा था जो गुना नहीं
आत्मा ने क्या कहा जो ठीक से सुना नहीं
विचारो कि कहाँ हुई चूक,कहाँ कुछ गए भूल
क्या अपने लिखे शब्दों से ठीक से नहीं मिले थे तुम
ब्लॉगर बनना आसान नहीं
लिखे का सच होना है ज़रूरी
वरना कोशिश है अधूरी
कविता नहीं है ये ; है अपने मन से हुई बात
बहुत दिनों बाद अपने से मुलाक़ात
- संजय पटेल
Thursday, February 21, 2008
ब्लॉगर का ख़ामोश रहना है ज़रूरी ...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:16 AM
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13 कमेंट्स:
वाह क्या कहने। यदि सम्भव हो तो इसे ब्लाग मे कही स्थायी जगह दे दे ताकि हम आकर अपने आपको सही रास्ते पर लाते रहे। इस प्रस्तुति के लिये आप दोनो को धन्यवाद।
बात तो अच्छी कही है पर पूरी तरह सहमत नहीं हूं.
आत्मनिरीक्षण और आत्मालोचना ब्लॉगर के लिए ही नही, सभी के लिए जरुरी है।
सुंदर भाव
बहुत सही!!
बहुत सुंदर कविता है ...
हम तक पहुँचाने के लिये शुक्रिया....
अजीत जी कविता इतनी प्रेरणादायक है कि बिना आप से इजाजत लिए कॉपी कर ले जा रहे हैं…।:) आशा है आप बुरा नहीं मानेगें
इन दिनों संजय पटेल जी के कहे पर ही अमल करने में लगा हूं। चैतन्य खामोशी का अभ्यास!
दुबारा पढी . बेहद ज़रूरी पाठ . गुनने का प्रयास करूंगा .
बहुत सुन्दर , प्रभावशाली , अर्थपूर्ण भाव.... समय समय पर ऐसा करना व्यक्तित्त्व को निखारता है. इस कविता को पढ़वाने के लिए आभार !
ओहो, बड़ी मीठी व मरोड़ जगानेवाली पंक्तियां हैं..
बाप रे ! अब तो आत्म निरीक्षण और परीक्षण करना ही पडेगा ।
इसी बात पर एकनाथ जी का एक अभंग याद आया।
हरी हरी बोला ना तरी अबोला
व्यर्थ गलबला करू नये
हमारी गलबला करने की आदत छूटती ही नही ।
अजित भाई ...आपने फ़िज़ूल ही इजाज़त माँगी.हम लोग शब्द का कापीराइट कर सकते हैं भावनाओं का नहीं...दर-असल कविता न जाने कितने जाने-अनजाने चेहरों की इबारत होती है...ये अलग बात है कि उस पर किसी मुझ जैसे का नाम चस्पा होता है...आज से ये कविता आपके ज़रिये ब्लाँग-बिरादरी को वसीयत कर दी...वह आजकल पाँलिटिक्स में एक शब्द है न...फ़्री फ़ार आल....!
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