सफर में सर्राफ़ हो गया श्रॉफ
शब्दों के सफर में सबसे पुराने हमसफर हैं पल्लव बुधकर । आज जब दोपहर को हम जौहरी का जौहर देखने के लिए सफर पर आए तो गश खा गए। तब तक कुल चौदह लोगों ने ही उसे पढ़ा था और फ़क़त एक टिप्पणी आई थी। दिमाग़ भिन्ना गया, बौरा ही गए । रात रात भर की मेहनत और ये हाल...! ब्लागिंग से तौबा करने की ठान ली। भाड़ में जाए शब्दों का सफर... और सोग मनाते हुए फिर सो गए। शाम को पल्लव भाई की टिप्पणी नज़र आई। उन्होने जौहरी के हवाले से सर्राफ़ के बारे में जानना चाहा था , बस फिर नशा छा गया। देर रात दफ्तर से घर आकर ये पोस्ट लिखने बैठे तो दोपहर का सोग उभर आया। फिलहाल इसका जिक्र भर करते हुए सफर को आगे बढ़ा रहे हैं।
जौहरी बाज़ार की तरह ही सर्राफ़ा बाज़ार भी हर बड़े शहर में होता है जहां आमतौर पर गहने, जेवरात और सोने चांदी का कारोबार होता है। सर्राफ़ को हिन्दी में सराफ़ भी बोला जाता है। मूलतः यह अरबी ज़बान का लफ्ज़ है और इसकी धातु है स्र-फ जिसमें भुगतान और बिक्री का भाव शामिल है। इससे ही बना है सर्राफ़ शब्द जिसका मतलब होता है रूपए, गहने इत्यादि का लेन-देन करने वाला। नोटों के बदले में छोटे नोट बदलने वाला। अरबी में सर्राफ का एक रूप है सैराफ।
अरब मुल्कों से व्यापारिक ताल्लुकात के सिलसिले में इस शब्द की भारत में आमद सदियों पहले ही हो चुकी थी। अरबी से ही यह शब्द फारसी में गया। करीब एक हजार साल पहले पारसियों ने फारस (ईरान)से पलायन शुरु किया और हिन्दुस्तान के पश्चिमी तट गुजरात में बसेरा किया। उन्होने कई तरह के धन्धों में खुद को खपाना शुरु किया उनमे से एक रुपए – पैसे का लेन-देन भी था। व्यवसायगत उपनाम के तौर पर गुजरात में सराफ सरनेम खूब मिलता है। यह पारसियों में भी मिलता है और हिन्दुओं में भी। अरबी के सर्राफ़ शब्द का उच्चारण अंग्रेजी में श्रॉफ होता है। दुनियाभर में श्रॉफ उपनाम वाले लोग मिल जाएंगे। गुजरात में भी श्रॉफ लिखने वाले हिन्दू और पारसी । यहूदियों में भी श्रॉफ उपनाम मिलता है। हिब्रू में भी स्र-फ धातु से ही बना सोरेफ़ शब्द प्रचलित है जिसका मतलब होता है सोने का व्यापारी अथवा सुनार। गौर करें कि यहूदी कौम यूरोप में वणिक की पहचान ही रखती है ( मर्चेंट ऑफ वेनिस ! ) ।
अंग्रेजों के अरब से भी सदियों पुराने रिश्ते रहे हैं । यह फिलहाल तय नहीं है कि सर्राफ़ का श्रॉफ उच्चारण अंग्रेजों ने भारत में आने के बाद किया है या पहले ही हो चुका था , मगर इतना तय है कि भारत के समांनातर चीन में भी अंग्रेज इस शब्द का प्रयोग करते थे और कैंटन में तो श्राफिंग स्कूल तक चलते थे जहां लेन-देन संबंधी बाते सिखाई जाती थीं । अरबी में एक शब्द है मस्रिफ़ जिसका मतलब होता है वित्तीय लेन-देन की जगह। आज इसका अर्थ हो गया है बैंक।
ज्यादा खर्च या रक़म डूबने को सर्फ़ होना कहा जाता है। ये दोनों भी इसी कड़ी के शब्द हैं।
आपकी चिट्ठियां-
सफर के पिछले चार पड़ावों 1.तूती तो बोलेगी, नक्कारखाने में नहीं,2. आखिर ये नौबत तो आनी ही थी ,3. ब्लागर का ख़ामोश रहना है ज़रूरी और 4.जवाहर,गौहर परखे जौहरी पर सर्वश्री ज्ञानदत्त पांडेय, पल्लव बुधकर , आशा जोगलेकर ,पंकज अवधिया, संजय , आशीष, अनिताकुमार , संजीत त्रिपाठी, माला तैलंग, दिनेशराय द्विवेदी, सृजनशिल्पी, प्रियंकर , मीनाक्षी, प्रमोदसिंह, संजय पटेल, स्वप्नदर्शी , देबाशीष, तरुण, बोधिसत्व और राजेन्द्र त्यागी का साथ मिला । बहुत बहुत आभार।
@संजय पटेल- आपने तो अपनी कविता का कॉपी राइट ब्लाग जगत को देकर एक कीर्तिमान ही बना दिया। सबकी ओर से शुक्रिया।
@पल्लव बुधकर-बीच बीच में यूं ही आते रहें और कुछ सुझाव देते रहें तो शब्दो के सफर का मर्सिया पढ़ने की नौबत जल्दी नही आएगी।
@दिनेश राय द्विवेदी-साहेब, आपने बारां की याद दिला दी । उस मंदिर में मैं भी जा चुका हूं 1994 में ।
@माला तैलंग-आपको नौबतखाने वाल संगीत पसंद आया, अच्छा लगा जानकर । अभी और भी बेहतरीन चीज़ें यहां सुनवाई जाएंगी। बस, सफर को खत्म करने की जो खब्त सवार हो गई है उस पर काबू पा लूं।
@देबाशीष- देबूभाई , आखिर मिल ही गई आपकी टिप्पणी। पूरे सात महिने इंतजार कराया है आपने । आते रहिये अब...हम भी भोपाली ही हैं।
@तरुण -हुजूर, इन शब्दों के लिए रात काली करते हैं तो कुछ काम बन ही जाता है। देखते हैं पर कब तक.....
@बोधिसत्व - भाई, विनयपत्रिका के नाश का जो जो डंका आप चार दिन पहले बजा रहे थे , आज वो शब्दों के सफर पर सुबह से बज रहा है। अलबत्ता आपके जैसी मुनादी मैने नहीं की :)
@ज्ञानदा-आपके सवाल का जवाब मीनाक्षी जी ने सौदाहरण दे दिया है।
Saturday, February 23, 2008
आइये, सफ़र में सोग मना लें...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:44 AM
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14 कमेंट्स:
आपने टिप्पणी कब से गिनना शुरू कर दीं? ऐसे बेमानी पैमानों में न उलझें तो ज्यादा चैन की नींद सोएंगे सर. कई बार पढ़ने के बावजूद पाठक टिप्पणी नहीं करते लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है... पड़ता है क्या...? नहीं न. और वैसे भी हीरे की कदर जौहरी जानता है. आप हीरा हैं और हम आपकी कदर करते हैं ... :)..जस्ट किडिंग...
तो बस लगे रहिए सर...
आप टिप्पणीयों की चिंता न करें --
आज आप जो लिख रहे हैं वो न जाने कितनी सदीयों तक , न जाने कितनी आनेवाली पीढियां, इनका उपयोग करेंगीं --
while " surfing " :-)
&
I don't mean this , not this -->
ज्यादा खर्च या रक़म डूबने को
" सर्फ़ " होना कहा जाता है।
शानदार! आप अपने चिट्ठे को टिप्प्णियों के तराजू में न तौलें। जब ऐसी बातें मन में आयें तो दायीं तरफ़ की टिप्प्णियां देखें। सबसे ऊपर वाली टिप्पणी रवि रतलामी की है जो हम सबकी बात कहते हैं- यदि किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा - शब्दों का सफर.
आप लिखते रहें। कल आपको खुद ताज्जुब होगा कि आपने क्या शानदार काम किया है!
अरे? काम कीजिये, काम! टिप्पणी के लिए आपहूं लड़ियायेंगे त् बच्चा-बुतरु लोक का करेगा?
अति उम्दा जानकारी. बस एक ख्वाईश: जारी रहें. टीका टिप्पणी तो आती जाती बातें हैं. अनेकों शुभकामनायें.
क्या सर अब कमेंट के चक्कर में पड़ेंगे तो कैसे चलेगा, यकीन मानिए अच्छी चीजे इस बाजार में कम ही दिखती और बिकती हैं, आप तो बस इस सफर को जारी रखें
मैं भी सभी से सहमत हूँ , खासकर अनूपजी की बात पसंद आयी कि दाहिनी ओर रवि रतलामी जी कि टिप्पणी को ध्यान में रखो और बढ़े चलो क्षितिज की ओर ..... .और फिर कभी इस पर ताला लगाने की बात मत करना ,क्योंकि ये सफर करना हमारी रोज की आदत बन चुकी है... .अब चस्का भी तो तुम्हीं ने लगाया है ..न, तो फिर भुगतो ...।
हम भी सभी से सहमत हैं... शब्दों के सफर में कभी आँधी जैसी कई टिप्पणियाँ आएँगी और कभी शांत हवा से ही आगे बढ़ना होगा... हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं !
बढ़िया जानकारी के लिए धन्यवाद.
और बाकी प्रमोद जी बात पर ध्यान और कान दीजिये और ये टिपण्णी कम-बेसी का दुःख तो अपन जैसे बच्चा-बुतरू सब पर छोड़ दीजिये.
भाई साहब इस टिप्पणी की लालसा को हम जैसे अधजल गगरी छलकत जाए वाले लोगों के लिए छोड़ दीजिए बस!!
रवि जी ने सच ही कहा है, आपका ब्लॉग ब्लॉगजगत की अमूल्य निधि है!! आपके लिखे से हम जैसे कितनों का ज्ञानवर्धन होता है और न जाने कितने सालों तक आपका यह लिखा कितनों का ज्ञानवर्धन करता रहेगा!
आज का सबक -
'एक ही मूल धातु से उपजा शब्द अलग अलग संस्कृतियो में पहुँच कर वहीं का पहनावा पहन लेता है।'
अरे आप कहाँ इस टिपण्णी की बात को ले बैठे। बस आप लिखते रहिये ।
गुस्सा आपकी फितरत नहीं - चलिए थूकिये - मनीष
ये तो अच्छा हुआ कि आपने यह लिखकर बता दिया। अब हम सचेत हो गये है। लगातार टिपियाने की कोशिश करेंगे।
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