ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं।
शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि और शिवकुमार मिश्र को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं अफ़लातून से । अफ़लातूनजी जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, अध्येता हैं। वे महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेवभाई देसाई के पौत्र है। यह तथ्य सिर्फ उनके परिवेश और संस्कारों की जानकारी के लिए है। बनारस में रचे बसे हैं मगर विरासत में अपने पूरे कुनबे में समूचा हिन्दुस्तान समेट रखा है। ब्लाग दुनिया की वे नामचीन हस्ती हैं और एक साथ चार ब्लाग Anti MNC Forum शैशव समाजवादी जनपरिषद और यही है वो जगह भी चलाते हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ अनकही बातें जो उन्होनें हम सबके लिए लिख भेजी हैं बकलमखुद के इस सातवें पड़ाव के लिए ।
स्वर्गवास मेल
उत्सुकता और आकर्षणवश करीब ६-७ वर्ष की उम्र में पहली बार पपीते के पत्ते के डण्ठल तथा सरसों के डण्ठल में पपीते के सूखे पते को खैनी की तरह मल कर कश खींच कर खाँसते - खाँसते बेहाल हुए थे - मित्र मण्डली के साथ । खाँसी इतनी तगड़ी थी कि क्रम वहीं टूट गया था । कर्मचारियों से चिरौरी करके सुर्ती माँग कर खाई दरजा सात में । स्कूल के रास्ते में जोगीबीर बाबा का मन्दिर था। भक्तगण मन्दिर में गाँजा चढ़ाते थे । गुल्लू बाबा मन्दिर के पुजारी थे । उनके पहले जो पुजारी थे उनके गुजर जाने पर सन्यासियों को टिकटी पर अध-लेटे ले जाना और गंगा में विसर्जित करना देखा था । काशी में अन्तिम क्रिया के लिए अड़ोस-पड़ोस के जिलों से भी लाशें आती हैं । काले रंग की एक छोटी-सी बस शव लाद कर जौनपुर से आती थी , उसका नाम था स्वर्गवास मेल ।
शानदार नागिन और मर्चिइय्या
यह मन्दिर जोगीबीर बाबा का मन्दिर कहलाता है । गुल्लू बाबा अत्यन्त दुबले पतले थे । जितना गाँजा चढ़ता था उसे खुद के दम पर खपा लेना गुल्लू बाबा के मान की बात नहीं थी । अपने से दो-तीन साल बड़े कैलाश उर्फ़ राम के नेतृत्व में जोगीबीर बाबा के मन्दिर में गाँजा 'जगाने' की पूरी प्रक्रिया देखता था । कैलाश हर व्यक्ति को ससम्मान राम कह कर पुकारते थे । खाली चिलम को बीच में खड़ा रखने के बाद गाँजे की सफ़ाई होती । बीज की छँटाई । आम तौर पर गाँजे की दो किस्में होती थीं - नागिन और मर्चिइय्या । नागिन कुछ उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती है । बीज छाँटने के बाद जल की कुछ बूँदें टपका कर एक विशिष्ट शैली में मला जाता । खैनी एक हथेली पर रख कर दूसरे हाथ के अँगूठे से मली जाती है परन्तु गाँजा एक हथेली पर रख कर दूसरी हथेली से मला जाता है । जमीन पर कागज बिछा कर रगड़ा हुआ गाँजा झड़ने दिया जाता है । चिलम के निचले हिस्से में जहाँ चिलम संकरी हो जाती हैं एक छोटी सी गिट्टी अटका दी जाती है । तैय्यार गाँजा चिलम में दबा कर भरा जाता है । पटसन या नारियल की सुतली को 'कछुआ छाप' अगरबत्ती की आकृति में गोलिया कर उसे जलाया जाता है और चिलम के मुँह पर रख दिया जाता है । एक स्वच्छ , गीला , छोटा कपड़े का टुकड़ा जिसे साफ़ी कहा जाता है - चिलम और चिलमची के बीच बतौर फिल्टर रहता है ।
बम चण्डी , फूँक दे दाल मण्डी !
चिलम को जगाने का विशेष महत्व होता है । यह पुनीत काम वरिष्टतम व्यक्ति को सौंपा जाता है । दम लगाने के पूर्व कुछ 'स्तोत्र' नुमा पंक्तियाँ ललकारी जाती हैं । इनमें आम तौर पर भोले अथवा चण्डी को ललकारा जाता है । ' अलख ! खोल दा पलक ! दिखा दा दुनिया के झलक ! ' , 'बमबम ,लगे दम,मिटे गम,खुशी रहे - हरदम ' , ' बम चण्डी ,फूँक दे दालमण्डी , ना रहे कोठा , ना नाचे रण्डी ' ( दालमण्डी बरसों तक काशी की रेड लाइट गली रही । अब यह गली ही उठ गयी है । ) ( १९७७ में दिल्ली की एक अभिजात्य गोल में जब मैंने कहा , "अब यह गली ही उठ गयी है " तब अनीस जंग बहुत उत्तेजित हो कर बोलीं , " Look at the expression - ' गली ही उठ गयी है '। अपने से अलग वर्ग के लोगों की खुशी और ग़म के बहाने देख कर मैं चकराया था । ) इन पारम्परिक स्तोत्रों में नई तुकबन्दियाँ जोड़ने वाले गदगद हो जाते । यथा - " मामा ! खोल दा पजामा ! दिखा दा दुनिया के ड्रामा" । गंजेड़ी यदि फख्र से कहते " राजा पीए गाँजा ,तम्बाकू पीए चोर,सुर्ती खाए चूतिया ,थूके चारों ओर " तो उनके विषय में बड़ी बारीकी से कहा जाता - " गाँजा पीए -गुन-ज्ञान बढ़े,वीर्य घटे कुछ अन्दर का,सूख-साख के लक्कड़ भए,मुख हो जैसे बन्दर का । "
गोलगप्पों में भांग की गोलियां गप्प !
[ये कार्टून प्रख्यात कार्टूनिस्ट स्वर्गीय कांजीलाल के बनाए हैं। (साभार : एक चित्रकार की नजरों से काशी , संपादक सुधेन्दु पटेल)]
गांजे के हक़ में कुछ धारणाएँ प्रचलित हैं - यह भूख़ बढ़ाता है ,सर्दी जुख़ाम तुरन्त दूर भगाता है , इत्यादि । काशी में गाँजा और भाँग के सेवन के साथ कई नियमों का चलन है । निपटना , नहाना , रियाज और गीजा - पानी ग्रहण करना इनमें प्रमुख हैं । इनाके पालन में व्यतिक्रम हुआ तब ही शिव के इन प्रसाद से नुक़सान होता है यह मान्यता है । मलाई , रबड़ी जैसे गरिष्ट - पौष्टिक तत्व गीजा कहलाते हैं । यह धारणा प्रचलित है कि गीजा तत्वों को ग्रहण कर लेने से गाँजा- भाँग के नुकसानदेह प्रभाव खत्म हो जाते हैं और सकारात्मक प्रभाव शेष रह जाते हैं । बहरहाल , दरजा नौ की होली में इन नियमों को ताक पर रख कर मैंने एक प्रयोग किया । उन दिनों दस पैसे में चार गोलगप्पे ( पानी पूरी, बताशा या पुचका ) मिला करते थे । भाँग की सोलह गोलियाँ , सोलह गोलगप्पों में डालकर ग्रहण कर गए । कुछ दिनों तक संख्या कुछ घटा कर क्रम चलता रहा । यूँ तो काशी में विजया कई रूपों में उपलब्ध है - ठण्डई , कुल्फ़ी , नानखटाई और माजोम या मुनक्का के अलावा सरकारी ठेके पर पिसी-पिसाई गोली । इस प्रयोग का परिणाम मुझे करीब तीन महीने भुगतना पड़ा । होली के कुछ दिनों बाद ही ग्रीष्मावकाश हो गया यह अच्छा रहा ! गीता प्रेस गोरखपुर की बुलानाले स्थित दुकान से पतंजली योग-सूत्र खरीद कर घोटी गयी । जो भी मिलता उसे मैं पतंजलि का योग दर्शन और जिद्दू कृष्णमूर्ति का मिक्सचर पिलाता । बुलानाला काशी के पक्के मोहाल का एक मोहल्ला है । लोकगीतों के रसिकों ने इस मोहल्ले का नाम अत्यन्त लोकप्रिय गीत में सुना होगा - " साढ़े तीन बजे मुन्नी ,जरूर मिलना बुलानाले पर। पान खा ला मुन्नी ,खैर नहीं बाय,तनी बोल बतिया ला बयार नाहि बाय, साढ़े तीन बजे । " उन तीन महीनों में करीबी मित्र सुधान्शु - सितांशु लगातार साथ रहते थे । ग्रीष्मावकाश समाप्त होते-होते इस दुष्चक्र से बाहर निकल सका । इस चरम अनुभव का परिणाम यह हुआ कि गाँजा से आजीवन पूर्ण मुक्ति और भाँग सिर्फ़ होली और शिवरात्रि तक सीमित हो गयी । [जारी]
खास बात-अफ़लूभाई की यादों से गुज़रने की भूख और है तो इस गली का भी दौरा कर लें (खेल खेल में थोड़ी सी रामकहानी)
पिछली कड़ी [ भाग दो ]
Monday, May 5, 2008
मामा ! खोल दा पजामा !! दिखा दा ड्रामा !!! [बकलमखुद-28]
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20 कमेंट्स:
भाई अफ़लातून जी से गांजा महिमा, गांजासूक्त और गांजा सेवन की विधि जान कर ज्ञानचक्षु खुल गए हैं. अब इसका प्रयोग करके देखा जायेगा. फिर गांजा पीने के बाद अपनी तुरीयावस्था वाली फ़ोटू किसी से खिंचवा कर अजित भाई को भेजी जायेगी. फ़ोटू के लिए दर्शक इसी ब्लॉग पर इसी जगह इंतज़ार करते रहें.
अफ़लातून जी जिसे गीजा कह रहे हैं, वह गिजा है. रोजा रखने के बाद इफ़्तार में जो खजूर, मेवे, फल आदि खाए जाते रहे हैं उन्हें अरब में गिज़ा कहा जाता है. मुसलमानों के सम्पर्क में आने के बाद बनारस में इसे गीजा कहने लगे होंगे. दरअसल इसका देसी अर्थ है 'तर माल'.
किशोर कुमार के गाये एक गाने की ये लाइनें तो याद ही होंगी:-
'खून-ए-दिल पीने को और लख्त-ए-जिगर खाने को
ये 'गिजा' मिलती है लैला तेरे दीवाने को.'
हमारी गुजारिश है कि अफ़लातूनजी अनुभवों की यह गिज़ा देना जारी रखें.
बम बम भोले!!! अफलातून महाराज की जय बोले!!
बोलो बम! लगाओ दम!
गजब समय गुजारा है भाई!! धन्य हुए जानकर.
अजीत भाई
आपका यह कार्य अति साधुवादी है. यह जो दस्तावेज आप इतिहास में दर्ज कर रहे हैं, सदियाँ पढ़ेंगी और याद रखेंगी. तब भी जयकारा होगा-जय हो अजीत भाई की. अनेकों शुभकामनाऐं एवं बधाई.
aअब भोले बाबा की ठंडाई भी वनवा दीजीये,उसे ट्राई केरेगे,आज बताई विषय वस्तू हमारे लिये पुरानी हो चुकी है. :)
ब.आज लग रहा है कि आप पक्के गाधी जी के चेले है, सारा मामला ट्राई करके देख ही डाला, :)
ग्रीष्मावकाश समाप्त होते-होते इस दुष्चक्र से बाहर निकल सका । इस चरम अनुभव का परिणाम यह हुआ कि गाँजा से आजीवन पूर्ण मुक्ति और भाँग सिर्फ़ होली और शिवरात्रि तक सीमित हो गयी ।
=================मैं इसे ही आज की पोस्ट का संदेश मानता हूँ .
वो दौर बेशक आपकी क़लम से हमसे
बतियाता-सा लग रहा है.
लेकिन आपके जीवन के
गुरुतर दायित्व के पहलू बहुत प्रभावित करते है.
==============================
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
हुम्म तो इसीलिए नाम अफलातून है।
जबरदस्त!!
99 में एक हफ़्ते काशी मे रहा,गंगा के घाट छान मारे, विजया का आनंद लिया।
मौका लगते ही फ़िर काशी मे कुछ दिन रहने का मन है देखिए कब पूरा होता है।
उड़नतश्तरी से सहमत हूं!!
बम बsssम भोले। साढ़े तीन बजे वाला गाना तो सांस लेने की तरह याद है लेकिन मुन्नी को बुलानाले पर आना होता है, यह ज्ञान आज आपको पढ़कर प्राप्त हुआ। सुनकर कुछ मतलब नहीं समझ में आता था लिहाजा दिमाग सुपरिचित रंडीगीत के इस शब्द की अबतक कुछ लुंडी-सी बनाए हुए था।
वाह मान गए क्या जीवन गुजारा है आपने, आपके आजीवन पूर्ण मुक्ति वाली बात जानकर प्रसन्नता हुई.
गांजे की लपट के साथ बोली जाने वाली एक सूक्ति अपने बचपन से हमें भी कंठस्थ है-
लला है दिले जान नसीबे सिकंदर
बना दे किसी बाग में सोने का मंदर
नहाने चली धोने चली तीरथे मैंया
महादेव को लड्डू मदक का पेडा
बनारस की गलियाँ ,चौबारे जीवंत हो उठे हैं इन पंक्तियों में ,यह विद्रूप भी कि वे गलियाँ आज भी जवान है जहाँ इन महान हस्तियों ने जिंदगी [जवानी ]लुटा दी [मजाक]
बहुत जीवंत वर्णन है .हाँ उन लोगों को अनकुस लग सकता है जो सोफिस्तिकैतेड जीवन जीते हैं -उन्हें बोहेमियन जिंदगी से डर लगता है .
वाह वा! बालापने से ही अफ़लातूनी छांटना शुरू कर दिया था . 'राजा पिये गांजा......' वाले सूत्र में दम है . इन वाममार्गी सूक्तियों पर भी काम होना चाहिए . अफ़लातून भाई! सम्भव हो तो बुलानाले वाले लोकगीत को सुनवाइये .
क्या कहने हैं बनारसी ठाठ के.....भाई मज़ा आ रहा है आपके बारे में जानकर,सुनाते रहे यूं ही..गज़ब है भाई उत्सुकत बनी हुई है कि अब कौन सा रंग देखने को मिलेगा?
गंजेड़ियों के जयघोष और भी है
जिसने न पी गांजे की कली
उस लोंडे से लोंडिया भली
या फिर
दम लगा रिन्दों में
दम का ही तो फर्क है मुरदों और जिन्दों में
ये जयघोष दूर दराज होने पर भी एक जैसे ही क्यों होते हैं
गांजे के हक़ में कुछ धारणाएँ प्रचलित हैं - यह भूख़ बढ़ाता है ,सर्दी जुख़ाम तुरन्त दूर भगाता है , इत्यादि । काशी में गाँजा और भाँग के सेवन के साथ कई नियमों का चलन है ।
हमारे यहां कहा जाता है कि गाजा बनाने और मुर्दा फ़ूंकने में एक ही तरह का और उतनी संख्या में सामान जुटाना पडता है.
बाबा रे ...बनारस का जीवन तो किसी कम्यून को भी मात दे ऐसा लगा -
तभी अमरीकी , विदेशी वहाँ मधुमक्खी की तरह खीँचे चले आते हैँ -
अफलातून जी , आपकी सत्यवादिता साफ दीख रही है -
-- लावण्या
वाह ! आप के इन सारे रंगों के बारे में जानकर अच्छा लग रहा है।
बनारस और भांग पर पूरा शोधपत्र है ये तो ।
वाह जी वाह ।
))
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