ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं।
शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि और शिवकुमार मिश्र को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं अफ़लातून से । अफ़लातूनजी जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, अध्येता हैं। वे महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेवभाई देसाई के पौत्र है। यह तथ्य सिर्फ उनके परिवेश और संस्कारों की जानकारी के लिए है। बनारस में रचे बसे हैं मगर विरासत में अपने पूरे कुनबे में समूचा हिन्दुस्तान समेट रखा है। ब्लाग दुनिया की वे नामचीन हस्ती हैं और एक साथ चार ब्लाग Anti MNC Forum शैशव समाजवादी जनपरिषद और यही है वो जगह भी चलाते हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ अनकही बातें जो उन्होनें हम सबके लिए लिख भेजी हैं बकलमखुद के इस सातवें पड़ाव के लिए ।
जब ब्लॉग नहीं थे तब भी दैनंदिनी थी ।
तब की कुछ पोस्ट बकलमखुद के लिए पेश हैं :
दिनांक १/१०/८२
आशा के पेडों के वन का बने रहना , बढ़ना जरूरी है निराशा की बाढ़ की रोकथाम के लिए । ऐसी बाढ़ को झेलते वक्त महसूस होना चाहिए कि वन काटे गए हैं । ये जंगल जिस माटी के कटाव को रोकते हैं वह माटी अमूल्य है , उसका बह जाना सांघातिक है ।
इन वनों का नाश होने देना अप्राकृतिक , कृत्रिम और घातक होता है ।
दिनांक २९/१०/८२
अभाव का कष्ट यदि सापेक्ष न हो तो झेला जा सकता है । गरीबी का अनुभव ऐसे में नहीं होता । किसी की रईसी का अहसास ही गरीबी है । गरीबी से लड़ने से आसान है अमीरी से लड़ना ।
दिनांक २०/१२/८०
शाम छित्तूपुर गए थे । चमरौठी में स्कूल चलाने वाले उन उत्साही नौजवानों से साथी की बात हुई थी - हमारे बच्चे उनके साथ आज पढ़ेंगे , यह । शाम छ: बजे ठंड में ठिठुरते सात - आठ बच्चे हमारे साथ 'नये' स्कूल चलने के लिए तैयार हुए । बनवारी - बंशराज जिन्हें आज-कल सुबह से ही काम पर जाना पड़ता है , " शाम को भी पढ़ाई हो सकती है और हमें हमे पढ़ने का समय भी मिल जाएगा" इस बात से अत्यधिक प्रफुल्लित थे । [छित्तूपुर की पाठशाला के अपने शिष्यों के साथ अफ़लातून]
उनकी माँ भी उन्हें भेजने के लिए आतुर दिखीं । दिन में मजबूरीवश मजदूरी में बझे उनके बेटों को भी पढ़ने क अवसर मिल सकेगा । बंशराज अपने मालिक के घर से पढ़ाई के लिए लिए बुलाने जाने पर ऐसे आया मानो चिड़िया के कटे पर फिर से जुड़ गए हों ।आते ही आज उसका अभिवादन था पैर छू कर । खैर, इस बात पर उसे एक हल्की , मीठी फटकार भी पड़ी । 'बच्चों तुम पटरी से जाना' और 'धीरे धीर लाइन से' इन दोनों पाठों के प्रैक्टिकल में पूरे अंक पाने लायक ढंग से बालक वृन्द नए स्कूल में पहुँचा , अपने घरों से लगभग एक फर्लांग दूर ।सभी बच्चे जो हमारे साथ आए थे मेरे हॉस्टल के रूम के बराबर कमरे में पहले से मौजूद ३०-३५ हमउम्र बच्चों की भीड़ में जुड़ गए , मिल गए । संख्या ज्यादा होने की दिक्कत को छड़ी-हाथ-डाँट से सलटा रहा था - मेरे बराबर एक लड़का । उनका माटसाब । संख्या कम होने पर भी शायद यही तरीका होत पढ़ाने का ? पढ़ाने के बारे में उनसे सिर्प्फ़ बातचीत करने से ही तरीका बदल जाएगा ऐसा नहीं लगता । धीरे धीरे उनके साथ पढ़ा कर यह शायद मुमकिन हो ।
बनवारी जब बाहर पेशाब कर लौट रहा था मुझसे कहने लगा , " लैकन के मारत हऊँन तब चिहूँक के ओहरे ध्यान बँट जात हव ।
इंहा न पढ़ल जाई । " हमारे जितने भी बच्चे बाहर निकले उनकी इसी टाइप शिकायत रही ।मैंने उनसे कहा कि अभी चुपचाप पढ़ो , घर की तरफ जा कर बात होगी ।अपनी बात को किसी तरह दबाए , बनवारी के घर के बगल वाले नीम के पेड़ तक पहुँचने पर बाबूलाल बोला , 'इस्कूल के विषय में पंचाईत हो जाए ।" पंचाइत ने न्याव दिया ,सर्वसम्मति से - " हम उस स्कूल में मार खाने नहीं जाएंगे , यहीं पढ़ेंगे । "
[ इस पाठशाला की शुरुआत,जगह का चयन और अभिवावकों से सम्पर्क में पहलकदमी डॉ. स्वाति की थी । डॉ. स्वाति मेरी पत्नी हैं,दल की साथी हैं और काशी विश्वविद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता हैं ।]
दिनांक १९/१/८१
जामिल ने एक बार मुझसे कहा था , " नीजे के छोटो भाबिश ना । ' और खुद को बड़ा मानना भी तो ठीक नहीं ।
दिनांक २०/७/८१
चारों तरफ से बन्द सिगरेट - बीड़ी के धूँए से suffocation पैदा करने वाला सिनेमा हॉल । चाहे सिनेमा जितनी भी पसन्द आई हो बाहर निकलने पर कुछ राहत ही मिलती है । बन्द हॉल में बैठ सिनेमा से मनोरंजन का असर कुछ समय जरूर मन पर बना रहता है । हॉल से निकल कर स्वच्छ हवा फेंफड़ों में भरना तो हर बार ही राहतदायक होता है ।फिर अचानक एक दिब बन्द हॉल से निकल कर पता चले कि अब कभी बन्द हॉल में नहीं जाना , प्रदूषण और घुटन को नहीं झेलना । शायद ऐसा ही खुलापन राजघाट स्कूल और ISI के वातावरण में पाता था । उस खुलेपन ने मुझमें भी खुलापन पैदा किया था । फिर यहाँ ( काशी विश्वविद्यालय) इतनी खुली सड़कें ,खुले मैदान और इतने ज्यादा पेडों के होने के बावजूद उनका खुलापन मुझ पर कम ही असर करते हैं ।
किसी जगह रहने वाले लोग भी तो उस वातावरण का अभिन्न हिस्सा होते हैं । पूरे वातावरण का खुलापन मैं सिनेमा हॉल या उस कविता में चित्रित " Shut in" व्यक्ति की तरह रहने पर कैसे महसूस कर सकता हूँ । खुलने का यही मजा है । सुधुआ-सितुआ को कहूँगा Red and White के लिए राज बब्बर जिस अन्दाज में कहता है , उसी तरह :
'खुले रहने की बात ही कुच और है। जरा खुल के तो देखो ।'
'चारमिनार' के विज्ञापन में यह बात पुट की जाए तो " पल भर दम लेना है तो खुलेपन की बात ही कुछ और है । "
'चारमिनार गोल्ड' कहता , 'It has both smoothness and satisfaction' यह caption भी कितना फिट बैठता है ।
अब कोशिश करूँगा कि सिगरेट का हर विज्ञापन अलग माने में ही अपील करे , मेरे दिल को - गुरु मजा आ जाए !
कुछ कविताएं भी दर्ज हैं ।
दिनांक २/२/८३
एक वरिष्ट प्राध्यापक की २६ जनवरी को पिटाई के बाद से विश्वविद्यालय में जो घटनाक्रम चल रहा है उसने जातिवादी मठाधीशों के बीच होने वाली सत्ता सन्तुलन की कशमकश को स्पष्ट कर दिया है । पर्दे की आड़ में बैठे मठी किस प्रकार अपने पालित गुंडों , छात्र नेताओं और अध्यापक नेताओं से नातक कराते हैं - यह इस दौरान समझा जा सकता है । जाति-पैसे-गुण्डागर्दी पर आधारित सभी छात्र युवा संगठनों और अध्यापक समूहों के नेतागण अपने-अपने स्वार्थ समूह को मजबूत बनाने के उद्देश्य से बँत गए हैं । उनके राजनैतिक लिबास अलग अलग हैम परन्तु सिद्धान्तहीनता में कोई असमानता नहीं है ।
मीयाँ की जूती मीयाँ के सर पर पड़ जाए तो उसका विरोध मियाँ किस हद तक करते है यह जल्द ही पता चलेगा । मठी अध्यापक गुण्डा पालते हैं लेकिन इस बार उसका प्रसाद जब उन्हें स्वयं प्राप्त हुआ है तब आवाज निकल रही है । राजपूत गुण्डों ने ब्राह्मण अध्यापक को मारा है और बाकी सभी जाति वाले एक हो गये हैं । राजपूत अध्यापक दिखाने के लिए तो सभी अध्यापकों के साथ हैं मगर उनके पालित छात्र नेता खुल कर विरोध कर रहे हैं । अब तक गैर ठाकुरों का पलड़ा भारी है मगर अपने घोषित असंभव उद्देश्यों की पूर्ति के बिना और अघोषित स्वार्थों की प्राप्ति के बाद जब वे भे मौन हो जाएम्गे तब ठाकुर उन्हें expose करने में कोई कसर न छोड़ेंगे। कुछ ऐसा करना है जो हर तरह के स्वार्थी मठाधीशों और उनके कठपुतले अध्यापक तथा छात्र नेताओं की हरकतों को साधारण छात्रों के सामने बेपर्दा कर दे ।
दिनांक २२/४/८३
जताना होगा । इतनी साफ तौर पर कि कोई गुंजाइश ही न रह जाए न महसूस करने की । कोई आम बेचने वाला जैसे हर आम को चखा कर नहीं देता है, एक एक नमूना काट कर रखता है चखाने के लिए , वैसे नहीं । पसन्दगी या नापसन्दगी तय करनी पड़ती है सिर्फ उसी आम के टुकड़े को देख कर , चख कर ।
अपने दिल की टोकरी में पड़े तमाम आमों को काट कर पेश कर देने की तैयारी है । [जारी]
Thursday, May 8, 2008
अफ़लातून की डायरी के चंद पन्ने [बकलमखुद -30]
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13 कमेंट्स:
पूर्ववर्तियों की तरह न तो ये आदमी कुछ छिपाने की मंशा रखता है; न लील जाने पर. फ़िर भी बयान से लगता है कि बहुत कुछ छिपा लिया इसने.
इनसे कहिये कि ये खुल के कहें. अजित आपने पूरी छूट दे रखी है.
बहुत अच्छे रहे अफलातून जी की डायरी के पन्ने ..
भाई, पता नहीं क्यों अफलातून जी की भाषा में कुछ ऐसा है कि वह जल्दी घुसती नहीं खोपड़ी में। साधारण बात भी अत्यन्त जटिल लगती है। कोई टीका करेगा उन के आलेखों की। जरा जल्दी से समझ तो आए।
@ विजयशंकर जी,
मेरी मंशा पर सन्देह नहीं है,धन्यवाद। अजित जी के चिट्ठे पर मैं आत्मकथा नहीं लिख रहा हूँ। आत्मकथ्यात्मक स्फुट झलकियाँ जरूर हैं।
@ दिनेशराय जी ,
किसी भी टीका ,आलोचना का स्वागत है। २२-२४ वर्ष के तरुण की डायरी के पन्ने इतने जटिल नहीं जितना वकील साहब सोच रहे हैं ।
ऐसा जटिल तो क्या है। डायरी अगर अटपट न हुई तो फिर डायरी क्या है।
पहली कडी से यहाँ तक का सफ़र मजेदार रहा।
शुरू मे कॄष्ण- कन्हाईयाँ वाली बात सुनकर हँसी आ गयी, उसके बाद आपके हनुमान जी बनने की बात सुनकर समझ मे आया कि आप अभी भले ही बहूत समझदार हो पर उस वक्त तो... :P
बचपन से अबतक मैने भी हनुमान जी की पूजा-अर्चना की है लेकिन कभी हनुमान जी बनने के लिये इस तरह कोई काम नही किया...:)
आगे पता चला आप कितने संवेदनशील थे/हैं।
हाँ नेतागिरी शुरू से करते आये हैं, काश! आपकी तरह हर नेता संवेदनशील भी होता, तो नेतागिरी की बात आज कुछ और होती।
"हिरोईन को लेकर आपने जो व्यक्त किया है, उसे ज्यादा से ज्यादा लोगो को पढना चाहिये, ताकि कई लोगो का कल्याण हो"
२२-२३ साल का युवक जिस हिसाब से अपने आस-पास के मौसम को समझता है, वह काबीले-तारीफ़ है, मेरे ख्याल हमारा वक्त तो ज्यादातार अपने मे ही चला जाता है।
कहना होगा, आपको जानकर अच्छा लगा, और आगे भी उत्सुकता बनी रहेगी।
राजनीति में इतने संवेदनशील लोग भी होते हैं देख कर बहुत से पूर्वग्रह मिट रहे हैं। अफ़लातून जी को जितना जान रहे हैं उतना अच्छा लग रहा है।
मानना पड़ेगा कि अफ़लातून जी के डायरी के पन्ने सीधे कुछ नहीं कह रहें...डायरी के खुले पन्ने वैसे ऐसे ही अपेक्षित थे...पता नहीं कितने लोगों ने अफ़लातून जी की कवितायें पढ़ी हैं...मुझे अक्सर लगा है कि तबियत से वे कवि ही ज्यादा हैं।
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/07/02/kavitahindichhoti-javani/
उनका कहना
आशाओं को बनाये रखना मन को बचाने जैसा...समृद्धि से तुलना कर खुद के कंगलेपन पर ध्यान जाना...सिगरेट के विज्ञापन और उनका खुलेपन के साथ जोड़े जाने की चाल में फँसना.... कहना कि राजनैतिक लिबास अलग अलग हैं परन्तु सिद्धान्तहीनता में कोई असमानता नहीं है ....कठपुतले अध्यापक तथा छात्र नेताओं की हरकतों को साधारण छात्रों के सामने बेपर्दा करने की चाहत....
अफ़लातूनजी के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। बहुत सारी बातें डायरी के इन पन्नों में सिमट गई है।
जैसा कि वह कहते हैं सिर्फ आम का एक टुकड़ा खाकर पसन्दगी दर्ज करने की कोई जरूरत नहीं है....मुझे लगता है कि उनका ब्लॉग, विचार और लेखन बहुत ईमानदार है ।
पढ़ रहा हूं, बहुत गहरी बातें!!
अफ़लातून जी ,
बहुत गौर से पढ़ा आपकी डायरी के ये पृष्ठ.
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बेशक, ज़ोश और ज़श्न की उम्र में सापेक्ष सोच और
सरोकारों के जीवन की बस्ती तलाशते रहे आप !
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मुझे लगता है आशा पर आस्था
अभाव के दुख के तटस्थ वहन.....!
किसी कमतर स्थिति की टीस से
बेख़बर रहने के साहस.......!
आसपास के बचपन के प्रति
प्रौढ़ दृष्टिकोण के साथ
मासूमों की ज्ञान-पिपासा को
मिली स्वाति की सौगात.....!
बड़प्पन को जीने के ज़ज़्बे....!
दुराव-छुपाव के बदले निर्दोष खुलापन....!
शिक्षा-मंदिरों के दुर्दम्य जोड़-तोड़ के
चक्रव्यूह को तोड़ने की तड़प .....!
और स्वयं को हर मोर्चे पर आज़मा लेने की ज़िद...!
की गवाह है आपकी डायरी.
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तरुणाई ऐसा कभी-कभी कर पाती है
और आपने कर दिखाया !
नमन
डा.चंद्रकुमार जैन
"आशा के वन का बने रहना -- बढ़ना -- जरूरी है, निराशा की बाढ़ की रोकथाम के लिए ।"
"जामिल ने एक बार मुझसे कहा था , " नीजे के छोटो भाबिश ना । ' और खुद को बड़ा मानना भी तो ठीक नहीं ।"
यह तो एकदम खलील जिब्रान जैसी क्लासिक सूक्तियां हैं . गद्य-काव्य जैसी असरदार .
जीवन-समर में आकंठ डूबी यह अफ़लातूनी भाषा दिनेशराय जी की कानून के बारीक नुक्ते भी भली-भांति समझने वाले दिमाग में कैसे नहीं घुस पा रही है,यह नहीं समझ सका . शायद वे कुछ और कहना चाहते हों .
अफ़लातून भाई की इस अटपटी 'अष्टाध्यायी' के किस अध्याय को टीका की दरकार है,बताया जाए . शायद कोई नया पतंजलि महाभाष्य लिख मारे .
अरे वाह आप की बातो की तरह (अपने दिल की टोकरी में पड़े तमाम आमों को काट कर पेश कर देने की तैयारी है ) यह भी मिठ्ठे हो गे, बहुत अच्छा लगा यह सब पढ कए धन्यवाद
प्रिय अफलातून जी
आप के द्वारा लिखी गई शब्दावली पढ़ कर आत्मा प्रफुलित हो गई , ऐसा लगा की हम नही मिल कर भी मिल लिए .
राहुल अग्रवाल
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