ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और बत्तीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।
बहुत अच्छी है याददाश्त
मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है। सब याद रहता है और कोई भूलता नहीं। तीन चार साल की उम्र में पहनी फ्रॉक, दोस्त, पेड़ ,खेत,चूल्हा....सब याद है। अपने साथ काफी सारा भावनात्मक कबाड़ लेकर चलती हूँ...।
लेट इट गो ....अलग अलग तरीके से लोग कहते हैं....मैने कभी कुछ नहीं छोड़ा....कुछ नहीं छूटा....जो नहीं है...किस्मत ने छीना है या फिर समय में विलीन हो गया।
अप्रेल 26 1973 में रावतभाटा,राजस्थान में जन्म। माँ की उम्र 20 वर्ष। भाई डेढ़ साल का। पापा को बेटी चाहिये थी। माँ को लग रहा था ज़रा ठहर कर नहीं आ सकती थी।
एक कमरे का घर। कमरे के साइड में किचन। पीली नीली आग वाला गहरे हरे रंग का स्टोव। मुझे याद है....पापा की गोद और मम्मी की साड़ी का रंग।
पापा एकदम चुस्त दुरस्त....ऊँची आवाज़...बेहद प्यारी मुस्कुराहट। मम्मी जिम्मेदार , सुंदर , संयत और नौकरीपेशा। होश सँभाला तो माँ के हाथ में शॉर्टहैन्ड की पुस्तक देखी।
कँधे पर एक बैग। बैग में एक स्टील का टिफिन। और उसमें शाम को लौटते वक्त समोसा, लड्डू या सेव....कुछ भी...जो किसी भी बहाने ऑफिस में मिला हो....हमारे लिये बच निकल पहुँच जाता था।
भाई साँवला, अपने में खोया खोया....कार्डबोर्ड, टायर,माचिस की डिब्बी वगैरह से कुछ ना कुछ बनाने की कोशिश करता हुआ। [चित्रः मम्मी पापा ]
पापा कहते, खुश रहना हमेशा...
मेहनत रस्म की तरह थी जिसे सभी को निभाना था। सपने बड़े और दूर.....। पापा ट्रेड्समैन और मम्मी एल डी सी। बच्चे दो। सँभालने के लिये एक नौकर। कमरा एक। संडास के लिये पाँच घरों के बीच एक।
समय बदल जाता है। स्टोव, नूतन स्टोव में तब्दील हुआ। अपना खुद का संडास बाथरूम। बातरूम में एक बड़ा सा ड्रम। गहरे लाल रंग के ड्रम में मैने कितने तूफान देखे। लहरों का उठना,गिरना.....सू्र्योदय....किश्ती का डूब जाना...किनारे लगना...रौशनी का पानी में उछल कूद करना। मम्मी आवाज़ देती और मुझे किसी जलपरी को बता कर इस दुनिया में फिर लौटना पड़ता।
हमेशा लो मेन्टेनेन्स रही । अपने में, अपने से, सच में ,सपने में खुश।
मम्मी कहती बच्चों तुम्हे बड़ा आदमी बनना है। सब अपने बलबूते पर। इतना अच्छा बनो की कोई चुनौती नहीं दे सके। पापा कहते खुश रहना हमेशा।
दसवीं फेल पापा, बारहवीं पास माँ.... माँ को आगे पढ़ना था। शॉर्टहैन्ड,टाइपिंग, बीए । पापा को हम सबकी खुशी के लिये जीना था।
जिद्दी , राजदुलारी, सबकी प्यारी....
मम्मी सुबह उठकर खाना बनाती, कपड़े धोती,टिफिन पैक कर नौकरी पर जाती। पापा चार बजे उठ कर दूध लाते, चाय बनाते, रोटी बनाते और फिर नौकरी जाते। ओवरटाइम जिस दिन नहीं होता पापा साढ़े चार बजे घर पर,मम्मी साढ़े छह बजे। नौकर हमारी खिदमत में। जो हमें नहीं पसंद उसके पेट में। हमारे परिवार का सबसे बड़ा धर्म काम था। हर किसी का योगदान लाजिमी। कौन से काम आदमी के और कौन से औरत के मुझे बहुत देर बाद पता चला। जो जिस काम को बेहतर कर सकता था वह उसके जिम्मे। बाकियों को लगातार जो नहीं आता था वह सीखना था।
पापा रोटी बनाते थे...मम्मी सीखती थी।
टेलिफोन नंबर्स मम्मी सँभालती थी....पापा इस्तेमाल करने के लिये डायरी रखना सीखते थे।
भाई कॉपी पर कवर चढ़ाता था मैं सीखती थी।
मैं बेमतलब, बेहिसाब हँसती थी....और घर में यह सीखना किसी के लिये मुमकिन नहीं हुआ।
शायद सबसे आलसी मैं रही,जिद्दी,राजदुलारी, सबकी प्यारी...[चित्रः चार बरस के हम !! ]
झाड़ा, पोंछा और घर पहुंचाया...
बहुत बचपन से पावर इक्वेशन्स बहुत अच्छे से समझती थी। दूसरों की और अपनी ताकत का भी काफी सही अंदाज़ा लगा लेती थी। एक बात याद है...।
एक भारीभरकम लड़का था जो एक दो घर छोड़ कर रहता था। हर रोज़ मुझपर रौब झाड़कर मुझसे अपनी साईकल को धक्का लगवाता। मैं भी बिना कोई शिकायत किये मान जाती थी। अपने घर पहुँच कर एक बगोना भरकर दूध पीता। मोटा ताजा किसी साँड़ से कम नहीं लगता। एक दिन बिना बात मुझे दो थप्पड़ धर दिये। कहने को तो पापा को कह सकती थी। पर इससे कितना फायदा होगा नहीं जानती थी। बहुत सोचने के बाद अगले दिन उससे माफी माँग ली। मैं फिर उसकी सेवा में। उस दिन साईकल थोड़ी ढ़लान पर ले गई। वहाँ से एक धक्के में साईकल फिसल कर उलट गई। वह गिरा, चोट भी बहुत आई। मैं उसे बड़े ध्यान से झाड़कर घर पहुँचा कर चल दी।
मेरी पिटाई खाने की पूरी तैयारी थी। पर उसने शिकायत ही नहीं की। बल्कि अगली बार से बराबरी से पेश आने लगा। तब मैं करीबन पाँच साल की थी और वो सात।
बजाज आंटी मेरी के जी की टीचर थी। सबसे पहले अक्षर उन्होने सिखाये। समझाया कि जीवन में कसरत और खेल कितने महत्वपूर्ण हैं। शीर्षासन करना सिखाया। गोरी सी गोल गोल...टीचर शब्द मेरे लिये उनकी छवि से जुड़ा है। [जारी]
Sunday, May 11, 2008
बेजी बताएं, हम सुनें ....[बकलमखुद-32]
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21 कमेंट्स:
इन्हें जानने की इच्छा बहुत दिनों से थी..
अच्छा किया जो आपने इन्हें भी यहाँ ला दिया.. :)
चैन से पढ़ कर फिर टिपियता हूँ..
वाह वाह जी. आपको बारे में जानने की इच्छा कई दिनों से थी.अजीत जी का धन्यवाद आपसे रूबरू कराने के लिये.
बहुत खूब, लिखती रहे. अच्छा लग रहा है आपके बारे में जानकर
बेजी की कविताएं पढ़कर अक्सर सोचता हूं कि वह कविताएं लिखती नही बल्कि बुनती हैं…
अब उन्हे जानने मिल रहा है यह खुशी की बात है।
शुक्रिया
पीली नीली आग वाला गहरे हरे रंग का स्टोव।
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गहरे लाल रंग के ड्रम में मैने कितने तूफान देखे। लहरों का उठना,गिरना.....सू्र्योदय....किश्ती का डूब जाना...किनारे लगना...रौशनी का पानी में उछल कूद करना।
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अपने में, अपने से, सच में ,सपने में खुश।
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इन पंक्तियों में काव्यात्मा बोल-सी रही है.
बकलमखुद के सिलसिले का गुनगुनाता हुआ पड़ाव.
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सन्जीत, है सटीक कही बात बुनने की ,
कहानी बुन गई अब ज़रूरत है सुनने की .
आभार अजित जी.
डा.चंद्रकुमार जैन
बेजी से बात करके और मिलकर जितना आनन्द आता है, यहाँ पढ़कर तो आनन्द कई गुना बढ़ रहा है. आगे की कडियों का बेसब्री से इंतज़ार है.
ये वाली बेजी तो बहुत चुलबुली है.
बेहतरीन प्रस्तुति है. बेजी जी की कविताओं की सी मधुर सरस बहती हुई. आनंद आ गया. संघर्षों से बने जीवन में प्रेरणा के बीज होते हैं जो पढने वाले को नवीन उत्साह से भर देते हैं.
आपका बुना हुआ पढ़ना और पढ़ कर गुनना सदा ही भाता है-- यहाँ तो और भी भा रहा है-शुभकामनाएं
सभी की तरह मैं भी जानना चाहता हूँ, आपको। रावतभाटा मेरे घर से चालीस किलोमीटर है। अनेक बार हो आया हूँ। जब आप का बकलम पढ़ रहा था तो मुझे आरएपीपी के क्वार्टर याद आ रहे थे। इतने नजदीक है आप का जन्मस्थान। जान कर अपने आप नजदीकी रिश्ते की नदी बहने लगती है।
एक से बढ़कर एक बढ़िया कवितायें लिखने वाली बेजी जी को हमेशा जानने की इच्छा सब की होगी ही. खासकर इसलिए भी कि इतने शानदार विचार और इतनी बढ़िया सोच पैदा कैसे होती है? ये बकलमख़ुद पढ़ कर कुछ-कुछ समझ आ रहा है.
शानदार शख्सियत के बारे में पढ़कर बहुत खुशी हुई. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार है.
अजित भाई, धन्यवाद.
ज़िंदगी के सफ़र की सुकूनदेह शुरुआत। आगे के ठौर पर नज़रें टिकी हैं।
'बक़लम ख़ुद' पर आज तक जो भी कुछ पढ़ा है उस सारे के सारे में यह एक अलग से नज़र आने वाला बयान है. बेहतरीन शुरुआत की है आपने अपने जीवन की दास्तान की.
इस आत्मकथ्य के शुरुआती दो पैराग्राफ़ विश्व साहित्य की किसी भी कालजयी रचना के पहले दो पैराग्राफ़ हो सकते हैं. कृपया आराम आराम से बताएं.
बहुत सारे लोग जानना चाहते हैं बहुत सारा कुछ आपसे.
फ़िलहाल इस पहली किस्त के लिये ... पता नहीं क्या क्या ... यानी बेहतरीनतम ...
अपने मुरीदों में मुझे भी शामिल करें .
शुक्रिया आपका भी अजित भाई!
वाह, बेजी यहाँ भी. क्या बात है!!!
रावतभाटा में तो हमारा भी बचपन गुजरा है डैम पर. बड़ी सुनहरी यादें साथ हैं.
लिखो-पढ़ रहे हैं.
बेहतरीन शुरुआत! आगे की कड़ियों का इंतजार है।
बेहद भावभरी,
मुखरित, अभिव्यक्ति भरा पहला परिचय बेजी जी के बचपन का पढ रहे हैँ ,:-) मुस्कुरा रहे हैँ और पुन: अजित भाई को सराह रहे हैँ !
- लावण्या
बेमतलब , बेहिसाब हँसने वाली लड़की को अपनी याददाश्त पर इतना फक्र !
अजित जी ने अपने ब्लॉग में बुलाया और पूरा बचपन बिछा कर हम भी जम गये....आप सबके अपनेपन और स्नेह का आभार....अजित जी का खासतौर पर...।
वाह! बहुत सुन्दर स्मृति लेखन....अच्छा लगा.
kitna kavyatmak hai aap ka aapne bare me lekh ....sab kuchh ridam me.n...!
पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.
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