ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और सैंतीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।
प्यार , इकरार और शादी...
जयसन को हमने देखा और हमारा दिल आ गया। पर अब हम सयाने हो चुके थे। इस बार दिल के साथ दिमाग का भी इस्तेमाल करना जरूरी समझा। साहब भी कुछ हमारी ही सिचुएशन में थे। सो वो भी फूँक फूँक कर आगे बढ़े। लिहाजा हम 1993 फरवरी को मिले... मिलते रहे। बात होती रही। दोस्ती हो गई। पर मजाल है कि किसी ने प्यार का जिक्र किया हो।
1996 में इनकी हिम्मत हुई। मम्मी और पापा निश्चिंत नहीं थे। उन्हे मैं जयसन के परिवार और माता पिता को सँभालने के लिये परिपक्व नहीं लगती थी। पर मैं जिद पर अड़ी थी। ऐसा लड़का लाओ जो दहेज ना ले, मेरे आगे पढ़ने पर एतराज ना करे, अच्छी नौकरी करता हो, डोनेशन से ना पढ़ा हो, सिगरेट शराब नहीं पीता हो और हमारे परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहता हो।
अपने समाज के बारे में कोई यूफिमिस्म नहीं था। ऐसा लड़का मिलना लगभग असंभव था।
और आठ जनवरी 1997 को जयसन से विवाह हो गया।
विवाह एमडी के पहले साल में किया था। इसके आगे रास्ता बहुत कठिन था।
दोनो को आगे बढ़ना था।
मेरा खर्चा उठाओगे ?
बच्चे हमेशा से पसंद रहे। एम डी के लिये मैने खुद के सामने सिर्फ दो विकल्प छोड़े थे। साइकियाट्री और पीडियाट्रिक्स। बहुत जल्द अहसास हुआ की मैं अच्छी साइकियाटरिस्ट नहीं बन सकती। और अगर बनी तो खुद भी पागल होने की संभावना बहुत थी। किंतु पीडियाट्रिक्स की सीट टॉपर्स के हाथ थी। मैं अच्छे विद्यार्थियों में होने के बावजूद टॉप पर नहीं थी। पर ऐन वक्त पर एक सीट खाली हुई और मेरे हाथ लग गई। नान स्टाइपेन्डरी सीट( यानि सिर्फ स्टूडेन्ट एलौअन्स) । तब जयसन से शादी नहीं हुई थी। जयसन और जोबी (भाई जो तब तक यू एस पहुँच चुका था) दोनो को पूछा...मेरा खर्चा उठाओगे....दोनों ने झट हाँ कर दी।
जूनियर और सीनीयर की चक्कियों में पिसती, खटती मैं पीडियाट्रिशियन हो गई। प्रीति ने पैथोलोजी में पीजी किया। लक्ष्मी की शादी हो गई। और जास्मिन....
जास्मिन ने नेह से शादी की। और फिर पता चला एक धीरे धीरे बढ़ते हुए ब्रेन ट्यूमर का।
जास्मिन मानसिक, शारीरिक , व्यवसायिक और घरेलू ...ना जाने किस किस स्तर पर संघर्ष कर रही थी। मेरे लिये नेह और जास्मिन का प्रेम किसी अजूबे से कम नहीं था। दवाई और बीमारी की वजह से ना जाने उसमें कितने बदलाव आये....पर नेह कहता.... “heaven’s envy is togetherness!!...”
ट्यूमर और जीवन का संघर्ष दोनो बखूबी जीत गये और आज एक बच्चे के माता पिता हैं। नेह पीड़ियाट्रीशियन और जास्मिन गायनेकोलोजिस्ट।
लक्ष्मी एक बच्ची की माँ बनी...कुछ उलझनों से शादी टूटी.....बिखरते-बिखरते बनाने के लिये एक बेहद प्यारा हमसफर मिला...और वो दोनो अपने दोनो बच्चों के साथ अपनी दुनिया में संतुष्ट और खुश।
पहली नौकरी-भरूच के सेवाश्रम में...
नौकरी के लिये पहला कदम रखा भरूच के सेवाश्रम अस्पताल में। वहाँ डॉ मूबीना से दोस्ती हुई। किसी मुसलमान से पहली बार दोस्ती हुई। डॉ मूबीना ने हमें अपने परिवार जनों से मिलाया, घर बुलाया, ईद में मेहमान नवाज़ी की। किसी मुसलमान परिवार को पहली बार करीब से देख रहे थे। अपने ढेर सारे पूर्वाग्रहों को गलत पाया।
पर काम के हिसाब से सेवाश्रम में मन नहीं लगा। मुझे काम करना था। बहुत सारा और बहुत मन लगाकर। जगह मुझे पता थी। जगड़िया में बसा सेवा रूरल।
पगुथन से दो घँटे का रास्ता। बीच में नर्मदा जिसपर देर देर तक ट्रैफिक अटका खड़ा रहता था। जयसन शिफ्ट ड्यूटी में थे। ऐसा सपना भी पागलपन ही था। नाइट ड्यूटी के बाद बाइक में ऐसा सफर चुनना महज पागलपन था। पर मेरे आँखों में उगते सपने जयसन को दिख रहे थे। वो बहुत सहजता से और पूरे स्नेह से मान गये। [सेवा में]
मेरे सपनों की सेवा
सेवा रूरल (www.sewarural.org) बिलकुल मेरे सपने जैसा था। गाँव , गाँव में जरूरतमंद बच्चे और हमारी पहुँच उन तक। गाँव जाते, वहाँ बच्चे देखते, ओ पी ड़ी चलाते, राउन्ड लेते, हैल्थवर्कर्स को सिखाते। बहुत सारे बच्चे झिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए मिलते। मुझे दिनरात का होश नहीं था। अनिल भाई और लता बेन से बेहद प्रभावित हुए। जयसन भी वहाँ सबके प्यारे बन गये। कर्म और धर्म का मर्म यहाँ समझा और यह भी की चाहो तो कुछ नामुमकिन नहीं है चिकित्सक की तरह मेरे दिल की सबसे अजीज जगह आज भी यही है....जहाँ मुझे लगा कि सचमुच मैं एक अच्छे बदलाव का हिस्सा थी।
पूर्ण गर्भवती होने पर भी खुशी खुशी काम करती रही। सास ससुर मुझे ऐसे समय अकेला पा कर केरल से साथ रहने आये। उनके साथ रहकर कभी सास बहू जैसा नहीं लगा। उनके लिये मैं महज एक बच्ची थी जिसे वो धीरज से सही और गलत समझा सकती थी।
सरकारी ढर्रे से साबका
मम्मी पापा ज्यादा दूर नहीं थे। हमेशा शादी के बाद भी आसपास ही रहे और मुझे सहेजने की कोशिश करते रहे।
1999 डिसेंबर में जोयल आया..। हमारी जिन्दगी में एक नया अध्याय। और फिर लगने लगा कि जयसन के ऊपर इतना शारीरिक और मानसिक दबाव ड़ालना उचित नहीं और दो साल जगड़िया में काम के बाद मैने नौकरी छोड़ दी।
अगला पड़ाव था भरूच सिविल अस्पताल । यहाँ सरकारी ढर्रे से पहली बार मिली।
पूरी तत्परता से काम करती रही। सिस्टम के अंदर रह कर भी अच्छी सेवा दी जा सकती है ऐसा मेरा विश्वास था।
कई बाते याद आती हैं-मैं कुपोषित बच्चों के लिये अंडा लिखती और एक दो दिन बाद फिर नहीं मिलता। अंडा जिसका खर्च सरकार उठाती है जाता कहां था ? मैने भी सोचा की इस बात को छोड़ा नहीं जा सकता। अंडे के पीछे पीछे मैं पहुँची सरकारी कर्मचारियों के किचन तक। मेरे बात के पीछे लगे रहने की वजह से अंडा बच्चों को मिलने लगा। और नाम भी हुआ....अंडे वाली मैम।
बहुत अच्छी दवाईयाँ सरकारी दवाखानों में हासिल थी। मेरा प्रिस्क्रिप्शन बाहर की दवा के लिये हरगिज नहीं होता। दस पंद्रह की ओपीड़ी सौ में बदलने लगी। मैडिकल रिप्रेजेंटेटिव से बहुत कम मिलती। मिलती तो भी उसे ही हताशा होती। दो महीने बाद हॉस्पीटल सुपरिंटेडेंट के दफ्तर मे बुलाया गया और पूछा गया.....क्यों इतनी दवाइयाँ खर्च करती हो... सब क्या यूँ ही बाँट दोगी...बाहर से लिखा करो...।
सीज़ेरियन और मुस्किल प्रसव में बतौर पीड़ियाट्रीशियन हाज़िर रहती। एक दिन गायनेक वॉर्ड में एक दर्दी मिला और पूछने लगा आपको क्या फिर पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान....मैने पूछा फिर मतलब....। उसने कहा वो साब ने आपके नाम से लिये हैं ना। तब से सभी दर्दियों को समझाना शुरु किया की मेरे लिये किसी को पैसा ना दे।
जिस सरकारी सिस्टम से मैं रूबरू हुई थी उससे आज भी घिन आती है। क्लर्क, पुराने कर्मचारियों की अजीब सी मानसिकता......। अच्छे और सही लोगों का इतना अभाव।
सिविल अस्पताल में मुझे जो सबसे अधिक दिखा वह थी सरकार और सरकारी कर्मचारियों की आम जनता की तरफ उदासीनता और बेपरवाही।
और पहुंच गए यूएई...
सिविल अस्पताल की हर बात निराली थी। एमरजन्सी में रात को ऐम्बूलैंस आता और मैं निकलती...जोयल पीछे पीछे आता ...ड्राइवर बोनेट पर एक लात मारता...फिर खर्र खर्र करती चालू होती ऐम्बूलैन्स। इसका असर यह हुआ कि जोयल को जब खिलौने वाली ऐम्बूलैंस दी गई वह जोंर से उसे पटकता और देखता की चालू होती है कि नहीं।
2002 अक्तूबर में गुड़िया हमारी जिंदगी मे आ गई। उसी समय जयसन के एक अच्छे नौकरी के ऑफर के चलते सिविल छोड़ हम पहुँच गये यू ए ई।
जयसन ने शादी के बाद छह अलग जगह-सूरत, हैदराबाद, जामनगर, भरूच, अबूधाबी और दुबई में नौकरी की।
मैने शादी के बाद पाँच अलग –सूरत, जगड़िया, भरूच,दुबई(2) जगह नौकरी की।
कुल सात घर बदले।
दो बच्चे।
आठ हाउस मेड।
शादी के बाद एम डी पूरा किया। जयसन ने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी एम बीए के लिये ज्वाइन किया।
कई बार अलग रहे।
एक दूसरे पर कभी कुछ थोपा नहीं।जारी
[जोयल और गुड़िया नाना-नानी के साथ]
Sunday, May 18, 2008
अंडे वाली मेम यानी बेजी... [बकलमखुद-37]
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18 कमेंट्स:
पिछली पोस्ट जहाँ खत्म हुई थी तो उत्सुकता चरम सीमा पर थी । जयसन से मिलकर अच्छा लगा . और आपके संघर्ष की कहानी और आपकी फूलती फलती बगिया के भी दर्शन हो गये । पर आपके रोमांस की कहानी को आपने बायपास कर दिया। पर अगली कडी का इंतजार है ।
एकदम क्लईमेक्स पर रोका है-इन्तजार क्र रहे हैं अगली कड़ी का. जबरदस्त!!
आपकी बगिया के दो सुंदर फूल
बड़े प्यारे लगे.
जयसन साहब ने भी बहुत एडजस्ट कर
आपके कॅरियर की राह आसान की है.
आपने भी लगन पूर्वक
अपने प्रोफेसन के साथ न्याय किया
लेकिन आपके भीतर जो
एक सर्जक है...रचनात्मक बेकली है
भाव-संसार की अपरिचित-अनजान
डगर पर चलकर खुद से
अपने पाठकों से जान-पहचान बना लेने की
जो क़ाबिलियत है
उसके स्रोत-सन्दर्भ और प्रेरणा के पथ प्रदीप
क्या हैं.....कौन-कौन हैं ?
यह जिज्ञासा बनी हुई है...!
बकलमखुद.... क़लम पर भी
कुछ कहिएगा...ज़रूर.
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शुभकामनाओं सहित
डा.चंद्रकुमार जैन
अच्छा लगा इसे पढ़ना। आगे का इंतजार है।
अंड़े वाली मेम जिन्दाबाद!
aage kaa intezaar hai.
aapakee yaayaavaree bhee khoob rahee
बहुत अच्छा लगा...आगे की कड़ी का इंतजार..
अद्भुत लेखन है.
"...जिस सरकारी सिस्टम से मैं रूबरू हुई थी उससे आज भी घिन आती है। क्लर्क, पुराने कर्मचारियों की अजीब सी मानसिकता......। अच्छे और सही लोगों का इतना अभाव।
सिविल अस्पताल में मुझे जो सबसे अधिक दिखा वह थी सरकार और सरकारी कर्मचारियों की आम जनता की तरफ उदासीनता और बेपरवाही। "
ये स्थिति तो कमोबेश तमाम भारतीय सरकारी महकमों की है. (मैं स्वयं भी कभी एक सरकारी महकमे का हिस्सा था और इसका अच्छा खासा अनुभव है)
बहुत दिनों से समय नहीं अटका था आज हाथ आया तो एक साथ कई पोस्ट पढ़ ली, बेजी। बहुत अच्छा लगा...आपके पोस्ट पढ़ते पढ़ते मुझे अपना बीता समय याद आ गया। आपने बहुत सहज और लयबद्ध लिखा है इन सबसे ऊपर बहुत पाक़ लिखा है। सही में ऐसा 'बकलमखुद' नही पढ़ा। बधाई।
सुषुप्तावस्था में जी रहे इस देश में व्यवस्था के खिलाफ बेजी जैसे हिम्मत से स्वर ऊँचा करने वाले लोगों की बेहद आवश्यकता है. बहुत बढ़िया संस्मरण.
बहुत बढ़िया, उड़न तश्तरी और घोस्ट बस्टर जी से सहमत हूं!
आप की सारी पोस्ट आज ही पढी है, लगता है की टिपियाने की जगह पोस्ट ही लिखि जाये तभी मामला जमेगा :)
बेजी जी व जयसन भाई,
जोयेल और गुडीया से मिलकर
बहुत खुशी हो रही है --
आपके जीवन की
सँघर्ष यात्रा के बारे मेँ
पढते हुए,
आप के लिये,
आदर भाव
और स्नेह
बढने लगा है -
ईश्वर आप सभी को
सदा खुश व स्वस्थ रखेँ,
- लावण्या
अगली कड़ी का इन्तजार!
वाह जी अंडे वाली मैम.. बढिया लगा पढकर.. :)
ham bhi chal rahe hai aap ke saath..5 shahar, 6 ghar, 8 maid badl liye ab bataye.n kidhar chale.n
बढ़िया। रोचक। आपके आत्मकथ्य के पात्रों, जैसे जास्मीन, नेह आदि से एक संबंध बनता जा रहा है। लग रहा है कोई उपन्यास पढ़ रहा हूँ। - आनंद
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