Saturday, May 24, 2008

पंगेबाज ने सिला पेटीकोट !!! [बकलमखुद-41]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और इकतालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।

कभी स्याही तो कभी खड़िया...

सी उत्तरप्रदेश मे उन्नाव ,लखनऊ कानपुर इटावा बिजनोर मेरठ सहारनपुर गाजियाबाद और ना जाने कहा कहा घूमते हुये बीते साल दर साल । यूं समझें कि बिस्तर कंधो पर ही होता . ना पिताजी को रिश्वत पचती ना लोगों को वो.
शुरुआत हुई तख्ती लेकर सरकारी स्कूल मे जाने से.लेकिन एक बात बहुत दुख देती थी,जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे पढते थे तो तख्ती पर मुलतानी मिट्टी लगाकर काली स्याही से लिखना पडता था. जब पिताजी पूरबी उत्तर प्रदेश मे पहुंच जाते ,हमारी तख्ती काली हो जाती,और हम खड़िया से लिखना शुरू कर देते. पेंसिल और पेन से तो मास्टर ऐसे भडकते थे जैसे सांड ने लाल कपडा देख लिया हो. मुझे याद है आठवीं मे स्कूल मे पिता जी का डॉट पेन ले गये थे और मास्टर जी मे पिताजी को स्कूल बुला लिया था. [माता-पिता और भाई-बहनों के साथ अरूणजी ]

लड़कियों के स्कूल में ज्ञान - दीक्षा...

पांचवी क्लास मे मुझे लड़कियो के स्कूल मे पढ़ना पड़ा. हम दो छात्र थे,एक मै और एक अजय.दिन भर क्लास इमली के पेड के नीचे लगती थी और हम भी दिन भर गुट्टे खेलना नमक लेकर हरी इमली उसकी पत्तिया और कैथा खाना सीख गये थे.(बडा स्वादिष्ट होता है बेल जैसा कैथा, हरा इतना खट्टा की पूछो नही, और पका हुआ अजीब सा तल्काहटपन लिये कुछ सूखापन महसूस कराता, लेकिन स्वाद मे अभी भी मूंह मे पानी आ रहा है जी). पास मे एक तालाब था जिससे अकसर हम सिंघाडो के मौसम मे सिंघाडे चुराकर खाते थे. इतने मीठे सिंघाडे अब नही आते.बस नही सीखे तो सिलाई,वो कमी मेरी बडी बहन ने पूरी की जब बोर्ड के इम्तिहान मे आई बहन जी ,मेरे द्वारा सिला गया पेटीकोट छोडने को तैयार नही हुई .तब मेरी बहन ने ही स्कूल जाकर उन्हे पेटीकोट सिल कर दिया,और हम पास हो गये .

[नन्हें पंगेबाज]
बारिशो और सर्दियो के दिनो हम स्कूल जरूर जाते थे, वर्ना घर मे पढना जो पड़ता, ठिठुरते हुये, स्कूल की टूटी कुर्सियो बैंचो को जलाकर हाथ सेकने का अपना ही मजा था जी. वैसे मेरे यार दोस्त मुझे बहुत डरपोक किस्म का इनसान मानते रहे है. इंटर मे मेरे कुछ खास दोस्त जिनमे एक पांडे जी थे, ने मेरा साहस बढाने के लिये बहुत यत्न किये ,जिनमे एक कार्य आधी छुट्टी के समय मुझे जबरदस्ती पकड कर कालेज के पीछे ले जा्ना और मेरे हाथ मे १२ बोर का कट्टा देकर पीपल के पेड़ पर निशाना लगाने की ट्रेनिंग शामिल थी.लेकिन मै शुक्रगुजार हूं पांडे जी का कि उनकी मेहनत सफ़ल नही हो पाई और मै आज भी डरपोक ही हूं,वरना आज मै उनके साथ राजनीति मे जरूर होता.

क मुन्ना भाई के जिक्र के बिना बचपन की शरारतो का इतिहास अधूरा सा रह जायेगा, लेकिन उसे आप यहा देख ले-

"बचपन कभी नही जाता
बस रूप बदल लेता है
समाज बचपना ना बताये
इसलिये बस दिल मे
उछाले भर लेता है
मै आज भी जी लेता हू वो पल
जब मेरे बेटे दोहराते है
मेरा बीता कल "


औरत, मर्द और शादी का रिश्ता !

शिक्षा के नाम पर हमारे तमाम गुरुजनो ने अथक परिश्रम के बाद हमे जबरदस्ती इलेक्ट्रानिक्स मे डिप्लोमा दिला ही दिया,वरना हम तो इस मामले मे कबीर के भक्त बनना चाहते थे, अभी भी बनना तो बाबा ही चाहते है, पर शायद हमे ही हराम की कमाई-

मसि कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ

ना कबीर जी को लिखना पढना आता था,ना हम सीखना चाहते थे कलम से हमे सख्त चिढ़ है इसीलिये यहा भी हम अपने कूटू बोर्ड के जरिये ही आपसे मुखातिब है.
डिप्लोमा मे भी हम पूरे गांव के गंवार ही थे. हमारी क्लास मे बस एक ही लड़की थी.एक दिन मैथ्स की क्लास मे हम पीछे बैठे बतिया रहे थे कि उसने हमारी शिकायत कर दी-

" सर ये अरोडा पीछे बैठा बतिया रहा है,और ये इतना शोर मचाता है कि मुझे क्लास के बाद भी पढ़ने नही देता"
" देखो अगर तुमने दुबारा आवाज निकाली तो तुम्हारे सेशनल काट दूगा,समझे"

हमे तुरंत धमका दिया गया.जैसे ही क्लास खत्म हुई हम भी अध्यापक के पीछॆ भागे,और अपनी स्थिति साफ़ की. तुरंत अभयदान मिला, चिंता मत करो वो तो मैने उसकी बात रखने के लिये मैने वैसे ही कह दिया था,जाओ मस्त रहो..

हम भी जोश मे तुरंत वापस गये,और बोल दिया कि ये शिकायत क्यो की?

"देखो तुम एक बात समझ लो,मै यहां अकेली हूं फ़िर भी किसी आदमी से डरती नही हूं"

जैसे ही हमे यह जवाब मिला हमने भी प्रत्युत्तर दे दिया

"और तुम भी समझ लो "मै भी किसी औरत से नही डरता"

बात प्रिंसीपल तक पहुची हमे बुला लिया गया
लंच टाईम था सारे हेड वहा जमा थे, हम डरते डरते अंदर घुसे.

"क्या बात है कैसे तुम बदतमीजी से पेश आ रहे हो,मै तुम्हे रेस्टीकेट कर घर भेज दूंगा"
मधुकर जी ( इलेक्ट्रानिक्स के हेड) ने हमारे से सवाल कर दिया

-सर मैने तो किसी से कुछ नही कहा
-तुमने उस लडकी से औरत क्यूं कहा ?
-जी उसने मुझे आदमी कहा था
-तो तुम आदमी नही हो ?

सबके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई थी

-जी नही ,मै लडका हूं
-तो आदमी कब बनोगे ?
-जी शादी के बाद
-अच्छा तो तुमने उसको औरत क्यो कहा ?
-जी वो शादी शुदा है
-चलो बाहर जाओ और दुबारा शिकायत ना आये
प्रिंसीपल साहब अपनी हंसी रोक कर बोले.

और मेरे बाहर निकलते ही अंदर हंसी का तूफ़ान आ गया.

फौज में पंगा नहीं चलेगा !!!

मने डिप्लोमा मे एनसीसी भी ले ली थी. ले क्या ली थी मजबूरी थी जी.
हमने कहा भी कि हम मेडीकली फ़िट नही है, तब हमे बताया गया कि अगर आप मेडिकली फ़िट नही है तो घर भेज दिये जायेगे. लिहाजा लेनी पडी, लेकिन अगले साल तक एनसीसी के इंस्ट्रक्टर की समझ मे आ गया,कि फ़ौज के मामले मे देश हमारे भरोसे ना रहे. जब हम उनके पास पहुचे तो उन्होने बता दिया कि आप शाम को आ जाय करो आपको बिना एनसीसी ज्वाईन करे ही, स्नेक्स मिल जाया करेगे.

"स्कूल के दिन
जीवन के सबसे
अच्छे पलछिन
ना आज की चिंता
ना कल तमन्ना
किसे था पता
कल बज उठेगी
वक्त की खडताल
ता धिन तिन्ना
ता धिन तिन्ना"


जारी

[अरुणजी ने वर्तनी के साथ भी खूब पंगे लिए हैं। भरसक कोशिश की है कि इतना ठीक कर दें कि भाषा के प्रति भावुक पाठक हमसे पंगा न ले सके। वैसे भी अरुण जी ने हमें हड़का रखा है कि एडिटर इतना भी नहीं करेगा तो और क्या करेगा ? कुछ नज़र आए तो ज़रूर बताएं, सुबह ठीक कर देंगे :)]

26 कमेंट्स:

Pramendra Pratap Singh said...

अरूण जी का शब्‍दों के साथ पंगा बहुत पुराने, पहले तो बहुत शब्‍दों के साथ बहुत पंगे होते थे, हमें भी ठीक करते करते बहुत परेशानी होती थी, जिस दिन मात्रा ठीक करने की इच्‍छा नही होती थी कह देते थे कि आज बिना गलती के लेख लिखा है :) अब तो पंगेबाजी की धार कुछ कुंद पड़ गई है, इस लिये मांत्राओं से पंगे भी अब कुछ कम है :)

आज की पोस्‍ट वाकई बहुत अच्‍छी लगी, आपको बधाई। परिवार से मिलकर बहुत अच्‍छा लगा।

आज की गलतियाँ -
मसी कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ में मसी के स्‍थान पर मसि

Anonymous said...

सच में पंगेबाज अरे बार्न, नाट मेड. बहुत मजेदार संस्मरण हैं.

Yunus Khan said...

पंगेबाज़ की जय हो । इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स, पेटीकोट सिलना, बचपन से कला चश्‍मा लगाना, केथा खाना, लड़कियों को छेड़ना, क्‍या बीहड़ जीवन है भई । ऐसे में आदमी पंगेबाज़ नहीं बनेगा तो क्‍या बनेगा ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आदत के मुताबिक सही जा रहे हैं पंगेबाज।

Udan Tashtari said...

सिरिल कॉपी राईटेड मटेरियल उड़ा ले गये:

सच में पंगेबाज आर बार्न, नाट मेड.

बहुत मजेदार संस्मरण हैं.

-अब हम क्या कहें. जब सिरिल मिलेंगे तो उनको डाटेंगे. अभी जाने देते हैं. बड़ा प्यारा बच्चा है, कुछ कह थोड़ी सकेंगे. :)

Udan Tashtari said...

"स्कूल के दिन
जीवन के सबसे
अच्छे पलछिन
ना आज की चिंता
ना कल तमन्ना
किसे था पता
कल बज उठेगी
वक्त की खडताल
ता धिन तिन्ना
ता धिन तिन्ना"

--बहुत साहित्यिक रचना है, क्या उस पाली में जा रहे हो पंगेबाज हम सबको अनाथ करके. :)

मैथिली गुप्त said...

हम भी बचपन में घोंटा, पट्टी, बुद्दक और खड़िया का प्रयोग करते थे. बचपन की यादें एकदम साकार हो गयीं

Rajesh Roshan said...

हा तो आप कैसे हैं, अब तो आदमी बन गए. पंगेबाजी में आपका कोई जोर नही है

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बडा स्वादिष्ट होता है बेल जैसा कैथा, हरा इतना खट्टा की पूछो नही, और पका हुआ अजीब सा तल्काहटपन लिये कुछ सूखापन महसूस कराता, लेकिन स्वाद मे अभी भी मूंह मे पानी आ रहा है जी).
आज इसी स्थिति में पढ़ी ये पोस्ट !
===========================
खट्टा-मीठा जो कुछ है ज़िंदगी का
उसे खूबसूरत और हार्दिक
अभिव्यक्ति दे रहे हैं आप,
सफ़र में सबके साथ
सरस ,सुलझे हुए ,स्वाभाविक अंदाज़ में !
================================
एक बड़े किरदार का ये भोलापन किसे न लुभाएगा ?
अब अगली किस्त से पहले मुँह में पानी आ जाएगा.

शुक्रिया साहब......तहे दिल से !
डा.चंद्रकुमार जैन

हरिमोहन सिंह said...

इन्‍तजार है बाकी का

azdak said...

बहुत सही. चांपे रहो, फूसगढियागंज!

Unknown said...

अरुण जी मुझे खुशी है कि आपने 12 बोर की पिस्तौल से गोली चलाना नहीं सीखा, वरना तिहाड़ से आप ब्लॉग कैसे लिखते? एक महान पंगेबाज आरके शर्मा को ब्लॉग लिखना सिखा रहा होता… यह घटना इतिहास में दर्ज की जायेगी कि "तिहाड़" का असली नुकसान हुआ है :) :)

Ghost Buster said...

सही है. बारिश के दिनों में स्कूल जाना हम भी कभी नहीं चूके. ऐसे में अक्सर कोई न कोई टीचर ही तडी मार जाती थीं. तो बस बच्चों की तो बल्ले-बल्ले. जमके धमाल मचता था. दो बार लड़कियों की शिकायत पर (बिना कोई ठोस वजह) टीचर से पिटाई भी खाई, दूसरी और तीसरी क्लास में. आपकी तरह बात बनाना नहीं जानते थे, और क्रेडिबिलिटी कुछ kamjor थी, तो जो कहा उसे माना नहीं गया. bhale लोगों के साथ अक्सर esa होता है.
बढ़िया चल रहा है. जारी rakhiye.

Sanjeet Tripathi said...

वाकई पैदाईशी पंगेबाज हैं जी आप तो।
स्कूल के दिनों वाली बात एकदम सही कही!
पढ़ रहा हूं

Anonymous said...

@Udantashtari ji
आप ही को Quote किया था सर. मशहूरी के एक पायदान के बाद व्यक्ति के Quote को Attribute करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. लोग अपने आप जान जाते हैं कि स्त्रोत क्या है. आप यकीनन ब्लाग दुनिया में वहीं तो हैं.

संजय बेंगाणी said...

मजेदार.

हमने निजी तौर पर बहुत बार पंगेबाज से अनुरोध किया है की कोई ऐसा किस्सा सुनाएं जिसमें आपकी पिटाई हुई हो, तब मजा आये. लगता है अब हमारी माँग पूरी होने वाली है :)

Arvind Mishra said...

अच्छी दास्तान है यह भी ,मेरी भी एक स्मृति कौंध गयी -पांचवीं तक मैं भी लड़कियों के स्कूल मे ही पढा हूँ .और काफी समय तक हंसी का पात्र रहा -शायद एक तरह के हीन भावना से ग्रस्त भी .कैंत ही संस्कृत का कपित्थ है -कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणम ..जह हो गणेश भक्त की !
वर्तनी की कोई गलती नोटिस मे तो नही आयी -सब कुछ भला चंगा तो है .

Shiv said...

बहुत शानदार बचपन...बहुत शानदार बचपन के पंगे...
आप भी १२ बोर के पिस्तौल से निशाना लगाना सीखते थे...हम भी सीखते थे...बाकी तो सारी समानताएं हैं ही...पट्टी पर कालिख पोतकर हम भी खडिया से लिखते थे...इमली, कच्ची और पक्की, दोनों हम भी खाते थे...कैंत कच्ची और पक्की, दोनों हम भी खाते थे...

एक ही दुःख रह गया जी...लड़कियों के स्कूल में नहीं पढ़ सके...आप कवि भी हैं, ये जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई...वैसे समीर भाई की बात का जवाब दें...आप उस तरफ़ तो नहीं जा रहे...हमें छोड़कर..:-)

बाकी लेखन तो शानदार है ही...अगली पंगेबाज पोस्ट का इन्तजार है..

Anita kumar said...

पहले तो समीर जी का कहा और सिरिल जी का चुराया हम भी चुरा रहे हैं । मानना पढ़ेगा इस पंगेबाज को सर्वश्रेठ ब्लोगर का खिताब अजीत जी ने यूं ही नहीं दिया।
ये नहीं समझ में आया कि भई लड़कियों के स्कूल में क्युं जाना पड़ा।
कविताएं दोनो ही एकदम मस्त हैं हम चुरा कर ले जा रहे हैं, अजी हम चोर नहीं , तारिफ़ करने का अपुन का यही अंदाज है।
अजीत जी मेरी नजर में आप का ये स्तंभ किसी भी साहित्यिक लिखे से ज्यादा अच्छा है। साहित्य की भारी भरकम शब्दावली और घुमा घुमा कर कही बातों से ( जिन्हे समझने के लिए दिमाग की पहले कसरत करनी पड़ती है) ये कहीं अच्छा है, सीधा दिल को छूता, हर किसी को अपना सा लगता। एक बार फ़िर आप को सलाम, पंगेबाज , नहीं नहीं अरुण जी को बार बार सलाम इत्ता बड़िया लिखने के लिए। हम तो सोचे थे बेजी के बाद अब और क्या ऊचांइयां होगीं दूसरे के नापने के लिए,कितने गलत थे हम ये जान कर खुश है हम्।

Anita kumar said...

"बचपन कभी नही जाता
बस रूप बदल लेता है
समाज बचपना ना बताये
इसलिये बस दिल मे
उछाले भर लेता है
मै आज भी जी लेता हू वो पल
जब मेरे बेटे दोहराते है
मेरा बीता कल "

वाह
अनीता

अजित वडनेरकर said...

यहां कुछ देर पहले किन्हीं कठपिंगल महाशय ने किन्हीं भड़ास के मॉडरेटर यशवंत के बारे में कोई कहानी टिप्पणी के रूप में भेज दी थी। हम उन्हें बताना चाहेंगे कि शब्दों के सफर में सिर्फ इस ब्लाग पर लिखी सामग्री पर ही टिप्पणी करें।
वाद-विवाद, छद्म बौद्धिक विमर्श, गाली-गलौच और खुजलीवाद जैसे तत्व यहां नहीं हैं।
दोस्तों का , मित्रों का मंच है ये शब्दों का सफर , वही इसे बना रहनें दें ।
साथियों , अगर आप ऐसी कोई भी असम्बद्ध सी टिप्पणी यहां देखें तो तत्काल मुझे इस नंबर
(09425012329)पर सूचित करें, उसे हटा दिया जाएगा।
कठपिंगलजी, आपका यहां स्वागत है पर ऐसी सामग्री के लिए नहीं । और दूसरे ब्लाग हैं जो इसे हाथों-हाथ लेंगे। पर हमें क्षमा करें।

PD said...

मस्त है भैया.. मस्त.. अभी और भी लिखे की कभी कोई तोप चलाने बोला की नहीं?? :D

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया। क्या जबर्दस्त बचपन था!
घुघूती बासूती

डॉ .अनुराग said...

यानि बचपन se ही पंगे बाज रहे है .....ओर उस काले चश्मे मे जो आप पोज़ बनाकर खड़े है .....उसके बारे मे कोई टिपण्णी कर देते तो......

सागर नाहर said...

नेता की वेशभूषा में खींचे फोटो को ध्यान से देखने पर पूत (पंगेबाज) के पाँव पालने में साफ दिख रहे हैं बड़े हो कर आप जरूर पंगे ही लिया करेंगे।
:)
यूनुस भाई की टिप्पणी सबसे मजेदार है।
@प्रेमेन्द्रजी
आपकी टिप्पणी में गलती- मांत्राओं की बजाय मात्राओं होना चाहिये। :)

मीनाक्षी said...

आज मौका मिलते ही शब्दों के सफ़र में फिर से शामिल हो गए. अनितादी की तरह हम भी पंगेबाज़ नाम से ही डर कर उधर रुख नहीं किया था लेकिन अरुण जी का बकलमखुद तो कुछ और ही कहानी कह रहा है.
तबला बजाती जीवन संगिनी... सफेद मारुति कार वो भी मैनुयल--काश कि हम भी सीखें...
हरी मिर्च का गुड़....! बचपन की मस्ती तो मस्त कर ही देती है......कॉलेज की घटना ने तो हमें खूब हँसा दिया....
अब हम 100 किमी की यात्रा पर निकल रहे हैं.

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