Wednesday, May 21, 2008

जा रही हूं कहां, मक़सद क्या है ! [बकलमखुद 39]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और उनचालीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।

आस्मां रहे, रंग रहें, मैं रहूं...


पने उम्र के उस पड़ाव पर यहाँ से गुजरी हूँ जहाँ रुक कर सोचना जरूरी था। कहाँ जा रही हूँ ? मेरा मकसद क्या है ? क्या करना चाहती हूँ ? कितना कर सकी हूँ?



अस्तित्व


तरंगों का एक
चुंभकीय आकर्षण…
बस
इतना ही है
मेरा अस्तित्व

दिशा कोई भी तरंग
बदल सकती है
उद्विग्न कर सकती है
उल्लासित कर सकती है

मैं अपने अस्तित्व में
इसके बढ़ते घटते
रूप को
बाँध कर
रखना चाहती हूँ

पर ठोस नहीं हूँ
तरल नहीं हूँ
वायु नहीं हूँ
बस अवस्था हूँ
जो तापमान के बदलने से
बदल जाती है

कुंजी मेरे हाथ नहीं है
कुंजी पटल पर ना जाने कौन
थपथपाता है
और मैं अपने
अस्तित्व में
इन तरंगों को
घटा जोड़ कर
दिशा तय करती हूँ

दिशा.....जो उद्यत है
आश्रित है
फिर से
कुंजी आघात पर....
......वो कुंजी
जो मेरे पास में नहीं है
हाथ में नहीं है

बदल रही हूँ
यही नियति है
अपनी ऊर्जा में
कभी क्षीण
कभी प्रबल

चाहती हूँ....
इस कदर
तरंग से तरंग जोड़ दूँ...
कि हो जाऊँ
स्थिर....

नहीं तो...
ब्रह्मांड में...

फैल जाऊँ

बिखर....



सारे जवाब नहीं मिले। 35 बरस। कम तो नहीं है। ऐसा लगता है कि जितना हासिल कर सकती थी उससे बहुत कम किया। दिशा, मंजिल और रास्ता....अभी भी धुँधला सा है। अब तक का सफर बेहद रूमानी था.....। आगे ना जाने किस्मत को मैं क्या मोड़ दे सकूँ... चाहती हूँ-

रात को ओढ़ लूँ...
रात में खो चलूँ
रौशनी उतार कर
आज खुद से मिलूँ

प्रज्वलित हो चलूँ
आज खुद ही जलूँ
सूर्य बन कर उगूँ
आभा बन कर जगूँ

भस्म गर हो गई
बीज बन कर जियुँ
अंकुरित हो सकूँ
जिन्दगी बन सकूँ

स्वर के लय पर…
शब्द के आशय में...
स्नेह के अहसास में….
सोच के पँख पर….

एक तरंग बन सकूँ…
एक सदिश की तरह
चल सकूँ... छू सकूँ…
आज मैं...काश मैं...
मैं बन सकूँ


क्सर यह सवाल पूछा जाता है कविता की शुरुआत कैसे हुई, क्यों की गई, कहाँ से प्रेरित हुई, कौन प्रेरणा के स्रोत रहे....

बहुत कम पढ़ा है.....साहित्य की खास जानकार नहीं हूँ...जैसा की प्रशंसक और आलोचक दोनो कहते रहे हैं...बेहद संवेदनशील हूँ....और इसके अलावा कविताओं की कोई खास वजह नहीं रही है....

दृष्टिकोण पर काफी पहले लिखी एक पोस्ट याद आ रही है


सजीव

सोच रही हूँ....
सारे समय सोचते रहना क्यों जरूरी है....हर बात की खाल निकालना...रोशनी को भी इतने शेड्स में देखना....कहाँ से आई..कहाँ छनी...कहाँ गिरी...कहाँ रुकी....

उस उजाले से क्या उजागर हुआ....वह कितना साफ दिखा...उसके साये कितने लंबे कितने छोटे....

उनका अस्तित्व कितना निर्भर इस रोशनी पर.....
हाथ में जैसे एक टॉर्च...मन में एक धुँधला सा ख्वाब.....कोशिश हर बिम्ब में उसे तलाशने की....
जिन्दगी जैसे इसी तलाश का नाम हो....
धुँधली सी इस तस्वीर की आड़ी तिरछी रेखायें...कभी गुम हो जाती है..कभी और साफ दिखती हैं....
जहाँ साफ दिखती हैं...वहीं थम जाने का मन करता है....जैसे खुद को निहारने का एक मौका मिला हो....
मन...हाँ मैं मन के आधीन हूँ....मन का पूरे मन से करना चाहती हूँ.....
इस आधीनता से कभी परेशान नहीं हुई....पर इसके स्वाधीनता पर संदेह, प्रश्न देखती हूँ तो बौखला जाती हूँ....
योग की छोटी सी बात कि साँस को महसूस कर के अंदर बाहर करो....मेरी समझ से बाहर है....
साँस जैसी सहज बात को इतना असहज करने की क्या जरूरत है.....पता नहीं.....

दौड़ते समय हाँफना, हँसते समय रक्त का संचार अधिक होना...दुखी खबर सुनने पर गहरी साँस लेना....इससे अधिक और क्या सहज होगा....
संयम, नियंत्रण .....जीवन का सबसे अमूल्य पाठ....हाँ ऐसा ही कुछ कहकर इसे सिखाया जाता है.....
एक एक करके अपनी इन्द्रियों को बंद करते चलो....कबतक.....जबतक जड़ ना हो जायें....
जबतक मेरे और मेरे आसपास पड़े निर्जीव चीज़ों में कोई अंतर ना रह जाये......
इन्द्रधनुष....सात रंग....तीन प्राथमिक रंगों का संगम....सफेद रंग.....जिसे पहचानना आँखों पर निर्भर....
आँख बंद कर लो....रंग अपने जिन्दगी से अलग कर लो....
जीवन क्या है...क्यों है....मैं नहीं जानती....पर अगर मुझे मिला है तो मैं जीवित रहना चाहती हूँ.......

हो सकता है कि संन्यास और त्याग से अंतिम सच तक जल्दी पहुँचा जा सके.....
मुझे कोई जल्दी नहीं है....
जीवन सुंदर है...मेरे लिये....
नवजात शिशु की भींची हुई आँखे जब खुलती हैं.....कली जब नींद से उठती है....बच्चा जब स्तन पकड़कर सो जाता है....बादल जब हाथी घोड़ा और ऊँट बनता है.....
सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज़ को भी कुदरत ने कितनी बारीकी से बनाया है....

बर्फ का हर कण का रूप अलग....जैसे एक ही रंग के हज़ारों फूल ....आसमान से झड़ रहें हो....
आँख बंद कर लूँ....
पेड़ पर बैठी कोयल की कूक...हवा के पदचाप ... लहरों का स्वर....बच्चे की खिलखिलाहट
सुनना बंद कर दूँ....
रात को हरसिंगार से आती खुशबू....बरसात मिट्टी पर गिरे तब उठती सौंधी खुशबू....माँ की रसोई की महक.....
सूँघना बंद कर दूँ.....
साँसो की गरमी, स्पर्श की नरमी....पीठ पर थपथपाहट....गोद की ममता....महसूस करना छोड़ दूँ.....
संवेदनाओं को दफना दूँ....आँसू और दर्द का संबंध देखना छोड़ दूँ.....अपने स्नेह की ताकत का अंदाजा लगाना छोड़ दूँ....
सोचना छोड़ दूँ.....
मैं जीवित हूँ....हो सकता है कि यह कोई माया हो.....जैसे कुछ बूँदो से गुजर कर प्रकाश सात रंग में बँट जाता है....पर मैं यह सात रंगों को बड़ी लगन से पहनना चाहती हूँ....जबतक आसमाँ पर हूँ....पूरे रंगों में खिलना चाहती हूँ....

सोचना चाहती हूँ....महसूस करना चाहती हूँ.....
स्व के अहम में जीवित रहना चाहती हूँ....

-समाप्त




[साथियों आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया जो इस पहल को पसंद किया । अब तक जिन साथियों ने यहां अपनी कही उन सबके प्रति आभार जताने की औपचारिकता नहीं निभा रहा हूं , बस इतना ही कि आपकी कही ने हम सबको उन लम्हों की सौगात लौटा दी, जो न जाने कितने पहरों ने छीन ली थी । बिसरे हुए लम्हें अगर फिर याद आएं तो ज़रूर यहां आएं और सबको सुनाएं वो भूली दास्ता...जो फिर याद आ गई ... शुक्रिया...
अजित ]

19 कमेंट्स:

दिनेशराय द्विवेदी said...

"जीवन क्या है...क्यों है....मैं नहीं जानती....पर अगर मुझे मिला है तो मैं जीवित रहना चाहती हूँ......."
यही वह सूत्र है जिस के कारण बेजी सब से अलग चीन्ह ली जाती हैं। चाहे वह बचपन का मुहल्ला हो, स्कूल हो, कॉलेज हो, होस्टल हो, संस्था का या सरकारी अस्पताल हो, कविता हो या प्रोफेशनल आलेख, या बकलम खुद। सब जगह जीवन नजर आता है। यहाँ कबीर याद आता है...
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोई।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढे़ सो पंडित होई।।
यह प्रेम जीवन से हो तो समझ लीजिए आप ने छोर छू लिया।

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब जब भी रावतभाटा जाना हुआ और वहाँ से किसी का आना हुआ तो बेजी जरुर याद आएँगी।

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर! बेजी की बारे में जानना बहुत अच्छा अनुभव रहा। यह बेजी बकलमखुद खतम होने का अफ़सोस हो रहा है। लेकिन अब दूसरों का इंतजार है। शानदार आयोजन है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेजी जी,
"स्व" का विस्तार हो,
इन्द्रधनुष के रँग होँ,
आपकी जीवनी हो,
जिसेयूँ, गुनना हो,
या, समझना हो !
हम सफर का साथ हो,
अजित जी का,आभार हो,
"बकलमखुद" पे बात हो,
नित नयी मुलाकात हो !
-लावण्या

Udan Tashtari said...

चलो, यह सिरिज खत्म हुई. यह यथार्थ है आज नहीं तो कल होना ही था. मगर हमेशा याद रहेगी. बहुत जबरदस्त. ताली बजा रहा हूँ...

सोचना चाहती हूँ....महसूस करना चाहती हूँ.....
स्व के अहम में जीवित रहना चाहती हूँ....


-आमीन!! ऐसा ही होगा, बेजी. हमारी सबकी शुभकामनायें आपके साथ हैं.

आपने इस स्तंभ को एक नया आयाम दिया है. हमारी तरह शायद कई अन्यों ने, जो इस स्तंभ के लिए लिख रहे थे, अब तक का लिखा मिटा दिया होगा. :)

स्वप्नदर्शी said...

Beji,

All the best to you and your loved ones for everything ahead.

You have guts to dream and chase those as well, may all your dreams come true!!!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

यह प्रयोग प्रशंसनीय है। बकलमखुद के बहाने आपके बारे में बहुत कुछ जानने को मिला है। आशा है आगे भी यह सीरीज चलती रहेगी।

PD said...

आपका ये पोस्ट हमेशा याद रहेगा बेजी..
आपका पोस्ट पढते हुये कई बार खुद अपने बचपन में लौट गया जिनकी याद धुंधली सी हो गई थी.. वैसे एक बात मैं आपसे कहूं, आपमें और मुझमें एक समानता तो है कि मैं भी कुछ भी नहीं भूलता हूं.. जब से होस संभाला है तब से लेकर एक भी बात भूला नहीं हूं.. ऐसा लगता है जैसे सभी कुछ फ्लैश बैक में किसी सिनेमा की तरह चल रहा है.. अब आपके ये सारे पोस्ट भी वैसे ही फ्लैश बैक में चलेंगे.. :)

Anonymous said...

एक जरूरी पड़ाव पर जरूरी बकलमखु़द । शुभ कामना ।

मीनाक्षी said...

आस्मां रहे, रंग रहें, मैं रहूं...

आमीन.... !!!!

(यादगार बकलमखुद)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

डाक्टर साहिबा!
आपने अपनी कहानी मन से कही.
कहानी बन के जीना और कहानी कहना
दोनों में आपने बेजोड़ होना सिद्ध कर दिया है.
=================================
अन्तिम किस्त कविता, कथ्य
और जीवन दर्शन का संगम है .
मुझे लगता है अवस्था और अस्तित्व में जीना
असमंजस और अजनबीपन से उबरना है.
अपनी हस्ती से मुलाक़ात की तड़प बड़ी बात है.
आपमें अपने सपने तक पहुँच की
चुनौतियों की समझ,अपनी सीमाओं के तटस्थ-बोध
के साथ-साथ ज़िंदगी जीने और
उसे आज़मा लेने का जो ज़ज्बा है
वही तो है सारे सवालों का ज़वाब !
.....बधाई आपको !!
==================================
और हाँ....अजित जी के
इस सफ़र के पेज पर अंकित
भवानी दादा की कविता
एक बार और पढिएगा ....ज़रूर !
==================================
एक बात और.....अजित जी !
फलसफा तो आपने भी खूब साझा किया है.
पहरों ने जो छीनी उन लम्हों की
सौगात लौटने की खुशी तो यकीनन
आप हर दिन बाँट रहे हैं हर दिन....!

आपका आभार
डा.चंद्रकुमार जैन

Anonymous said...

वाह! आह!!

कंचन सिंह चौहान said...

bhavanatmak safar ka darshanik padav...! bahut kuchh jana bahut kuchh sikha...! bahut kuchh samjha..! aane wali raho.n ke liye shubhkamnae.n...!

ajit ji badhai evam dhanyavad ke patra hai inki pahal na hoti to kaise jhank pate ham in darioya.n ke bhitar...!

mamta said...

बहुत सुन्दर !
आज की ये पोस्ट पढ़कर शब्द कम पड़ गए है।
बेजी भविष्य के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएं ।

Sanjeet Tripathi said...

शब्दों के दामन में बंधा बकलमखुद का यह सफर बहुत ही बढ़िया रहा।
शुभकामनाएं व शुक्रिया बेजी।

prabha said...

बेजी जी,
अजीत जी के सौजन्य से आपकी कलम के सहारे आप ही के साथ कई दिनों से रह रही हूं,आदत सी हो गई थी। आज ऐसा लग रहा है जैसे मेरे ही घर से जा रही हो।
मेरी शुभकामना है-
सातों रंग पहनो,उजाले सी जिओ,
खिलखिला कर हॅंसो भी,
महसूस भी करो और कहो भी,
स्नेह बिखेरो और बटोरो भी।
मैं राह तकूंगी फिर आना,
मैं नहीं मानूंगी
कह कर रूठ न जाना।
सस्नेह,
प्रभा

Unknown said...

बकलम पर लिखने के लिये जब अजित जी ने कहा तो सोचा इसी बहाने फिर पुरानी गलियाँ घूम लूँगी...तब बिलकुल अंदाज़ा नहीं था आप सब इतने अपनापे के साथ सुनेंगे...घूमते घूमते मैं सच में ही जी आई... आभार शब्द बहुत छोटा पड़ रहा है...जितने अपनेपन से आई थी उससे ज्यादा साथ लेकर जा रही हूँ...

अजित जी का शुक्रिया...हमने जितनी जगह माँगी हमें घेर लेने दी...

प्रभाजी ... मुझे भी यहाँ रहते रहते आदत हो गई थी...रूठने का नाटक करूँ तो मनाइयेगा ज़रूर....

अनिताजी से दोस्ती की पहल जरूर करूँगी...

यह स्तंभ अपने आप में निराला है....यहाँ महान लोगों की कहानी तो नहीं ही लिखी जा रही....पर आम लोगों के जीवन, जीवनी ,संघर्ष और हर्ष के पलों को लफ्ज़ों में समेटा जा रहा है। सफर रोचक है और जारी रहना चाहिये...ना जाने कितनी पहचान -दोस्ती और स्नेह के रिश्तों में बदल जायेगी...यह वो पुल हो सकता है जिसके छोर पर मनचाहा दोस्त मिले...।

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर ! आपकी चुनरी में वो रंग, जुल्फों में हवा, आंखों में चमक, मन में संवेदना बरकरार रहे।

prabha said...

बेजी जी,
यह सादगी और सरलता,मन जीत लिया आपने।
मैं तो आपकी मुरीद हो गई।
यूँ ही सही,ये सिलसिला चलता रहे
आप खिलती रहें,मुस्कुराती रहें।
साथ टूटे नहीं,राह छूटे नहीं,
शब्द बोलते हैं आपके,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।

प्रभा

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin