Sunday, August 31, 2008
अरे यार क्या मस्त टांगें हैं ![बकलमखुद-67]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और चौसठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।
वो एक दिन का रोना:
यूँ तो रोने में माहिर था पर उस दिन का रोना अब भी याद है, उस दिन कोई कला नहीं सच में रोया था. सातवी या आठवीं में पढता था और छुट्टियों में घर गया था. किसी बात पर माँ ने मार दिया, कुछ छोटी सी बात पर मुझे इस बात का बहुत दुःख हुआ कि क्यों दुःख पहुचाया. ये सोच कर रोता रहा बीच में माँ ने कह दिया की क्या इतना बड़ा हो गया की मैं मार भी नहीं सकती चुप क्यों नहीं हो रहा. इस बात पर और बुरा लगा... अपने आप को बुरा समझ के खूब रोया... किसी को नहीं बताया क्यों रोया, रोने में तो वैसे ही माहिर था तो शायद किसी को ध्यान भी नहीं. पर मैं वो दिन कभी नहीं भूलता. और शायद उस दिन के बाद मार भी नहीं खाया.
पढ़ लिख लिया होता तो आज ये हाल ना होता:
हम दो दोस्त ट्रेन में साथ-साथ जा रहे थे एक अंकल ने पूछा की बेटा क्या करते हो? और हम हमेशा की तरह खुशी-खुशी बता दिए कि आईआईटी में पढ़ते हैं. पर अंकलजी ठहरे अनुभवी आदमी और मेरा दोस्त ये बात ताड़ गया उसने कहा 'जी मैं तो हच के कस्टमर सर्विस में काम करता हूँ' अंकलजी मेरी तरफ़ देखते हुए बोले कुछ सीखो इससे... मन लगा के पढा होता तो ये हाल न होता. अब पढ़ते रहो अनाप-सनाप. मन से पढ़ा होता तो कहीं इंजीनियरिंग डाक्टरी पढ़ रहे होते नहीं तो इसकी तरह नौकरी कर रहे होते. हमने अंकलजी की बात गाँठ बाँध ली और तब से हम भी ट्रेन में यही कहते की हम हच के कस्टमर केयर में काम करते हैं.
कैसे-कैसे दोस्त हैं तुम्हारे:
रूम पार्टनर कि चर्चा तो हो ही चुकी है और अब तक आप ये भी जान चुके हैं कि प्रोफेसरों से भी दोस्ती है और उम्र में बड़े लोगों से भी खूब. फ़ोन पर बात होती है तो मोह-माया की चर्चा से चालु होकर समाज सेवा से होती हुई... विश्व राजनीतितक चली जाती है. इस बीच किसी ने कुछ बात सुन ली तो वो अक्सर कहता है 'कैसे-कैसे दोस्त हैं तुम्हारे ! इस उमर में यही सब बात करते हैं?' और बस सैंडल खाते-खाते बचा: जब इन्टर्न कर रहा था तो खूब मस्ती करते... ख़ास कर ट्रेन में
अगर कोई अच्छी लड़की आ गई तो हमारी हिन्दी का इस्तेमाल बढ़ जाता. कुछ भी बोलो. एक रात ज्यूरिक से वापस जाते समय ट्रेन में सामने की सीट पर एक लड़की आकर बैठी तो मैंने कह दिया 'अरे यार क्या मस्त टांगें हैं !' और भी बहुत कुछ कहा... और इस बीच मैं जो भी कहता वो हंसती. मेरे दोस्तों ने कहा 'अबे चुप कर लगता है इसे हिन्दी आती है', मैंने और कह दिया 'ऐसा कुछ नहीं है पी के आ रही है किसी पार्टी से और कुछ नहीं है' थोडी देर में पिछली सीट पर अंग्रेजी में एक अखबार मिल गया, उसमें भारत की स्टोरी छपी थी और मैं उसे पढने में लग गया. अचानक से उसने पूछा 'आर यू गायस फ्रॉम इंडिया? ' मेरे मित्र ने कहा 'यस'. 'एक्चुअली आई लिव्ड इन डेल्ही फॉर सिक्स यीअर्स.' अब मेरी हिम्मत ही नही हो रही थी की उधर आऊं. सब गंभीर हो गए थे... उस लड़की के पिताजी दिल्ली दूतावास में थे और वो दिल्ली में रह चुकी थी, हिन्दी समझ लेना स्वाभाविक ही था. भला हो उसका की उसने हिंदुत्व की बात छेड़ दी. और मैं भी आ गया चर्चा में... टांगों की बात वहीँ रुक गई पर हाँ जाते-जाते बोल गई 'थैंक्स फॉर व्हाट यू सेड अबाउट माय लेग्स' :-)
बच्चो के साथ:
बच्चो के साथ रहना और कहानी सुनाना बहुत पसंद है. बच्चे कितना पसंद करते हैं ये तो वही बता सकते हैं क्योंकि इन सब के साथ पढाना भी बहुत पसंद है. कभी-कभी पढाते समय गुस्सा भी आ जाता है, पर ना मारने की कोशिश पूरी रहती है और इस कोशिश को सफल बनाने का कार्य जारी है... किसी को भी पढाने का शौक तो बहुत है ! जारी
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21 कमेंट्स:
अजीत जी, यहां युरोप मे काफ़ी लोग हिन्दी ओर विदेशी भाषा जानते , ओर समझते हे ,लेकिन जब आप अपने लहजे से बोलेगे तो यह कम समझते हे फ़िर आप ने तो उस की तारीफ़ की हे, वह जरुर खुश हुयी होगी,यहा पर लोग खुले दिल से मिलते हे,
धन्यवाद
आपकी ऊम्र मेँ ये शैतानियाँ
अक्सर हो जातीँ हैँ :)
वो कन्या बडी चतुर निकली क्यूँ ?
ये भी अच्छा रहा अभिषेक भाई -
- लावण्या
हैंडिंग बहुत छांट कर लगाई अजित भाई... पर अपना काम कर गई...
अजित भाई। अभिषेक जी की साफगोई अच्छी लग रही है। ये बच्चों को मारने का प्रचलन हमारे जमाने तक खूब था। अब भी दादाजी, पिताजी और माँ की मार याद आती है। पर किसी का गिला शिकवा नहीं। अब तो याद भी आती है कि कोई मारने या डाँटने वाला नहीं रहा। पर अब लगता है कि इस के बिना भी बच्चों को बड़ा किया जा सकता है। मुझे स्मरण नहीं कि कभी मैं ने अपने बच्चों को मारा हो। डाँटा जरूर होगा, लेकिन वह भी अब तो याद नहीं।
अभिषेक जी काफ़ी मस्त लग रहा है आपको पढ़ना । :)
इतने रोचक अंदाज मे लिखा है कि मजा आ गया।
achcha laga aapke in mazedaar sansmarnon ko padhkar
अरे . . . . .. . . .. . मै तो समझा था लेग पीस की बात हो रही है :) ये तो वाकई लेग पीस की ही बात हो रही थी :)
achha laga padhn kar
बच्चो के साथ रहना और कहानी सुनाना बहुत पसंद है. बच्चे कितना पसंद करते हैं ये तो वही बता सकते हैं क्योंकि इन सब के साथ पढाना भी बहुत पसंद है.========================
बच्चों को कहानी सुनाने
और बच्चों की सुनने वालों का जीवन
स्वयं एक कहानी बन सकता है अभिषेक !
इसे निरंतर रखिए....और अपने भीतर भी
एक मासूम को हमेशा ज़िंदा रखिए.फिर देखिएगा
ज़िंदगी और भी कितनी नेमत बख्श देने पेश आती है.
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शुभकामनाएँ
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अच्छा अंदाज
अभिषेक भाई, ऐसा ही एक हादसा मेरा मेरी जर्मन की लेक्चरर के साथ होते होते बचा था। खैर मैं टांगों की प्रशंसा में मुक्तक नहीं पढ़ रहा था। मैं शरीफ़ आदमी हूँ। ;)
मुस्कारने के सिवा कोई चारा नही इसको पढ़ कर ..:)रोचक .
bada hi rochak hai aapka zindginama... aage ka haal jaldi laaiye.
वाह, क्या टांगा है टांगों को!
pitane se bache videshi thi isliye kahin bhartiye hoti to .."kute kamine kya kaha tumne" yahi sunana padhta.
title sahi taanga hai aapne.. abhishek bhai to bhari jawani mein lama ban baithe..
बहुत ही बढ़िया लिखा है और पढ़ने में मजा आया। अगली पोस्ट का इंतजार
.
किंतु दोस्त, यहाँ एक बात की तारीफ़ तो कर दी होती.. कि,
यदि हिंदुस्तानी लड़की होती तो वह तिया पाँचा मचा देती ।
विदेशी होने का जो लाभ तुम्हें मिला,
वह अपने देश में इनको क्यों नहीं दे पाते हो..
Bahut achcha laga aapko padh kar. Aapki shaili bhi pasand aaee.
लेग पीस (ने) की नहीं
खुद पिसने की थी तैयारी
सबकी मजबूरी
यहीं पर आकर हारी
अब तो यही कह सकते हैं
अंगुश्त ब दन्दां
हा हा बोले तो रंग दे बसंती का सीन याद आ गया ...अब साले ये तो हिन्दी जानती है.....लड़किया उन दिनों कितनी बड़ी अहमियत रखती थी ना....आपके संस्मरण ईमानदार है बिना किसी भाषा की बड़े बड़े मुहावरे हाथ में लिए हुए......
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