मृ धातु से ही हिन्दी में मृत्यु, मृत, मरण, मरना, मारामारी, मुआ जैसे अनेक शब्द बने हैं। मृत में ही अ उपसर्ग लगने से बना है अमृत यानी एक ऐसा तरल जिसे पीने से अमरत्व प्राप्त होता है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार राजा पृथु के भय से पृथ्वी गौ बन गई। देवताओं ने इन्द्र को बछड़ा बनाया और सोने के कलश में अमृतरूपी दूध दुहा। दुर्वासा के शाप से वह समुद्र में समा गया जिसे प्राप्त करने के जतन देवों-दानवों में चलते रहते थे। चौथे देवासुर संग्राम में कूटनीति के तहत देवों ने दानवों के साथ समुद्रमंथन के जरिये अमृत प्राप्ति की योजना बनाई। इसी के तहत धन्वंतरि अमृतकलश लेकर प्रकट हुए थे। समुद्रमंथन से चौदह रत्न निकले थे।
कहने की ज़रूरत नही कि अमर शब्द भी यहीं से निकला है। संस्कृत से ही यह शब्द अवेस्ता यानी प्राचीन फारसी में भी मिर्येति के रूप में है। इसी तरह फ़ारसी में भी मौत या मृत्यु के लिए मर्ग शब्द है जो उर्दू में भी शामिल हो गया। अदालती और पुलिस कार्रवाई में अक्सर इस लफ्ज का इस्तेमाल होता है। ये आया है फ़ारसी के मर्ग से जिसके मायने हैं मृत्यु, मरण, मौत। दुर्घटना में मौत पर पुलिस वाले जो विवरण दर्ज़ करते हैं उसे मर्ग-कायमी ही कहते हैं।
मृ से ही हिन्दी मे मृतक शब्द बना और फारसी में जाकर यह मुर्द: हो गया। बाद में चलताऊ उर्दू और हिन्दी में मुर्दा के तौर पर इसका प्रयोग होने लगा। बलूची जबान में मृत्यु के लिए जहां मिघ शब्द है वहीं पश्तो में म्रेल शब्द है। मृतक के लिए फ़ारसी उर्दू का मुर्दा या सिन्धी -हिन्दी-पंजाबी में मुआ शब्द भी मृत के अर्थ में ही मिलता है। इन भाषाओं में आमतौर पर किसी को कोसने, उलाहना देने या गाली देने के लिये खासतौर पर महिलायें मुआ लफ़्ज़ इस्तेमाल करती हैं मसलन - मुआ काम नही करता ! मोहन्जोदडो दरअसल मुअन-जो-दड़ो है जिसका अर्थ हुआ मृतकों का टीला। यहां मुआ में अन प्रत्यय लगने से बना मुअन यानी मृतकों का। 'मुआ' एकवचन में 'अन' प्रत्यय लगाने से बहुवचन बना 'मुअन' , 'जो' का अर्थ है 'का' और 'दड़ा' या 'दड़ो' का अर्थ है 'टीला'। राजस्थानी, सिंधी ,मालवी व्याकरण में संज्ञा शब्द का बोलते-लिखते समय ओकार होना सामान्य बात है। अतः 'मुअन-जो-दड़ो' हुआ 'मुर्दों का टीला' । 1922 में राखालदास बनर्जी द्वारा खोजे जाने से पहले से इस स्थान को इसी नाम से जाना जाता था। प्राचीन सभ्यता का अवशेष होने की वजह से यहां सिंधु सभ्यता के समय की मानव अस्थियां मिलना सामान्य बात रही होगी । संभवतः इसी वजह से स्थानीय लोग इसे मुअन-जो-दड़ो कहने लगे होंगे।
स्लोवानिक भाषा (दक्षिण यूरोपीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली ) में तो हूबहू मृत्यु शब्द ही मिलता है। लिथुआनी भाषा की भी संस्कृत से निकटता है। यहां मिर्तिस शब्द है जो मृतक के लिए प्रयोग होता है। इसी तरह जर्मन का Mord शब्द भी मर्डर के अर्थ में कहीं न कहीं मृत्यु से ही जुड़ता है। प्राचीन जर्मन में इसके लिए murthran शब्द है। पुरानी फ़्रेंच मे morth शब्द इसी मूल का है। अंग्रेज़ी का मर्डर बना मध्य लैटिन के murdrum से। नश्वर-नाशवान के अर्थ में अंग्रेजी का मॉर्टल शब्द भी इसी मूल का है।
जाहिर है संस्कृत की मृ धातु का पूर्व वैदिक काल में ही काफी प्रसार हुआ और इसने यूरोप और एशिया की भाषाओं को प्रभावित किया। गौरतलब है कि दक्षिणी यूरोप के स्लाव समाज में मृत्यु की देवी की कल्पना की गई है जिसका नाम मारा है । जाहिर है इसका उद्गम भी मृ से ही हुआ होगा। संशोधित पुनर्प्रस्तुति
9 कमेंट्स:
अच्छी और उपयोगी जानकारी ।
मोहन्जोदडो दरअसल मुअन-जो-दड़ो है जिसका अर्थ हुआ मृतकों का टीला।
-बड़ा ही दिलचस्प रहा यह जानना. बहुत बहुत आभार.
तो मंथन से निकला अमृत शब्द !
यह भी खूब है !!
देखिए
आपके सफ़र में जो
शब्द-मंथन चल रहा है
वह कितना अमृत बात रहा है निरंतर !!!
इसीलिए तो हम हर बार कहना चाहते हैं...
अजित जी ,जिंदाबाद !
शब्दों का सफ़र, अमर रहे !!
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
संभवतः पोस्ट मार्टम का उद्भव भी यही है.
बहुत जानकारी पूर्ण आलेख, धन्यवाद
आप का लेख पढ़कर रांगेय राघव के उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ की याद ताज़ा हो आई। अच्छे लेख के लिए बधाई।
आपको नये नये शब्द याद आये और मुझे रांगेय राघव का उपन्यास!
सदैव की तरह उपयोगी!
अच्छी जानकारी... पर मुंबई की ख़बर देखकर दिमाग नहीं चल रहा है...
मनुष्य मरनहार है इस लिए इसको अंग्रजी में 'मौर्टल'(mortal) और फारसी में 'मरद' कहा जाता है.
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