ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा और रंजना भाटिया को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के चौदहवे पड़ाव और सतहत्तरवें सोपान पर मिलते हैं पेशे से पुलिस अधिकारी और स्वभाव से कवि पल्लवी त्रिवेदी से जो ब्लागजगत की जानी-पहचानी शख्सियत हैं। उनका चिट्ठा है कुछ एहसास जो उनके बहुत कुछ होने का एहसास कराता है। आइये जानते हैं पल्लवी जी की कुछ अनकही-
उस वक्त मैं बहुत दुबली पतली थी और एकदम बच्ची दिखती थी! सभी दोस्त " बच्चा पुलिस " कहकर चिढाते थे! एक बार आभा ने मेरे सर पर टमाटर रखकर रूमाल बाँध दिया!और तब से मैं उसके लिए " सरदार बच्चा " बन गयी और वो मेरे लिए " प्राजी" ! अब याद करके बड़ी हंसी आती है....कितने बेवकूफ थे हम लोग! आभा मेरी जितनी अच्छी दोस्त थी...उतना ही ज्यादा झगडा भी होता था हमारा! छोटी छोटी बात पर बच्चों की तरह लड़ते थे हम और कई कई दिन तक बात करना भी बंद कर देते थे!एक बार बस में खिड़की वाली सीट के लिए हम झगड़ गए और बात करना बंद कर दिया....दस दिन निकल गए....बात करना चाहते थे पर अकड़ के मारे तने रहे! उसी दौरान हमारे बैच को किसी अधिकारी से मुलाकात करने जाना था...सभी लोग पहुंचे! जाकर बैठे, चाय नाश्ता आया! एक प्लेट काजू कतली की भी थी! जो की मेरी और आभा दोनों की प्रिय मिठाई थी! उसे देखते ही दोनों के मुंह से एक साथ निकला.." अरे वाह...काजू कतली" ! हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और अब हँसी रोकना मुश्किल था!जब बाहर निकले तो हम फ़िर से एक साथ थे! इस तरह दस दिन का अबोला काजू कतली ने ख़तम कराया!
ट्रेनिंग टाइम की बहुत सारी न भूलने वाली घटनाएं हैं! ऐसी ही एक घटना याद आती है! बात उन दिनों की है जब हमारे हाफ इयरली एक्जाम चल रहे थे! एक दिन में दो पेपर होते थे..और एक भी दिन का गैप नही था! चार- पाच दिन लगातार पेपर देकर मैं मानसिक रूप से बहुत थक चुकी थी! अगला पेपर रेडियो कम्युनिकेशन का था....जो की बहुत सरल विषय था! मैं रात को पढ़कर सो गई... सुबह उठी तो एकदम ऐसा लगा जैसे की मेरा दिमाग पूरा ब्लैंक हो चुका है...पूरी कोशिश करने पर
सागर की पुलिस एकेडमी में आभा,विनीता, भावना और मैं[ऊपर]और व्यायाम करते हुए अन्य बैचमैट्स के साथ[नीचे]
भी कुछ याद नही आया! मैं एकदम से नर्वस हो गई और लगने लगा की मैं परीक्षा में कुछ भी नही लिख पाउंगी! मैं रोने लगी और भागकर अपने दोस्तों के कमरे में गई...वहाँ उन सभी लोगों ने बहुत समझाने और याद कराने की कोशिश की पर मैं सचमुच घबरा गई थी! इसी समय मेरा एक दोस्त चुपचाप वहाँ से उठकर चला गया! मुझे बहुत बुरा लगा की इसे मेरी कोई चिंता नही है....कम से कम उठ के तो न जाता! आधे घंटे बाद पेपर था! करीब बीस मिनिट बाद वह लौटकर आया और बोला " तू चिंता मत कर, तेरा पेपर सबसे अच्छा जायेगा!" मैं चिढ़कर बोली " तेरे कहने से ही अच्छा चला जायेगा क्या?" वो मुस्कुराकर बोला " तेरी टेबल पर जाकर देख, सब पता चल जायेगा" ! मैं भागकर परीक्षा हॉल में पहुँची...अपनी टेबल पर जाकर देखा तो माथा ठोक लिया! टेबल पर एक किनारे पर छोटे छोटे अक्षरों में सारे इम्पोर्टेंट प्रश्नों के आन्सर लिखे हुए थे! अब न हँसी रुक रही थी और न समझ में आ रहा था की क्या करुँ? अब दूसरी टेंशन शुरू हो गई थी अगर मास्टर जी ने देख लिया तो मुसीबत हो जायेगी! जैसे तैसे रूमाल रखकर उन्हें छुपाने की कोशिश की! मास्टर जी ने तो खैर नही देखा...हमने भी जब शांत मन से पेपर सॉल्व किया तो सारा भूला हुआ याद आ गया! करेक्ट करती हूँ...सारा नही बहुत कुछ याद आ गया था! और जो भूला हुआ था...उसके लिए बीच बीच में रूमाल भी हटाया! मेरे उस दोस्त ने इतनी मेहनत की थी तो थोडी बेईमानी तो बनती थी! आज भी जब ये अनोखी हेल्प याद आती है तो चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है!मौज मस्ती के साथ ही ट्रेनिंग के समय बहुत कुछ नया सीखने को मिला! खासकर फिजिकली और मेंटली टफ बनने में वही समय सबसे ज्यादा सहायक रहा! जिन चीज़ों के बारे में कभी सोचा नही था वो सब कुछ करने को मिला.....मीलों बोझ लादकर चलना , दौड़ना, रस्सा चढ़ना, सभी तरह के हथियार चलाना....ये सब ऐसी चीज़ें थीं जिन्हें करने के बाद एक अलग सा आत्मविश्वास पैदा हुआ और मैं आश्वस्त हो गई थी की मैं हर काम कर सकती हूँ! जब एक साल बाद ट्रेनिंग ख़त्म हुई ...आखिरी दिन जब हमेशा के लिए परेड का मैदान छोड़ना था ....लास्ट परेड के बाद हम सभी की आँख में आंसू थे! एक दूसरे से अलग हो रहे थे , इस बात का दुःख तो था ही साथ ही परेड मैदान के साथ उस दिन हम सभी ने एक अलग सा लगाव महसूस किया! जहाँ एक ओर अकादमी छोड़ने का दुःख था वहीं दूसरी ओर मन में जोश और संकल्प था कि यहाँ से जाकर देश सेवा करनी है और बहुत अच्छा ऑफिसर बनना है! क्योकि अब यहाँ के बाद ही असली काम शुरू होना था फील्ड में.... आंखों में आंसू और सपने दोनों लिए हम सब अकादमी से विदा हुए....!
24 कमेंट्स:
बहुत बढिया लिखा है । बच्चा पुलिस वाली बात खूब रही ।
घुघूती बासूती
ये ट्रेनिंग का एपीसोड ऐसा है जैसे हम रुई के गोले पर धागा लपेट गेंद बनाने के बाद रबर के पेड़ का दूध पिला रहे हों।
सरल, प्रवाहमान वर्णन जो इतना रोचक कि शुरु करने के बाद अन्तिम वाक्य पर ही अगली सांस आती है ।
अगली कडी की प्रतीक्षा है ।
पल्लवी जी आपकी जीवनी
बेहद रोचक लग रही है
-ईश्वर आपको यशस्वी व स्वस्थ रखें ..
बहुत स्नेह के साथ,
-लावण्या
आपकी बकलमख़ुद में
सहभागिता प्रेरक है.
हमारी शुभकामनाएँ
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अरे, तो आप लिखती भी हैं? हमें तो जब पकड़ा था हम यही सोचते रहे थे कि सिर्फ़ पीटती हैं?
एक सहज प्रवाह है इस प्रस्तुतीकरण में ! आप एक कुशल रचनाकार हैं ! इसी का सबूत आपके संस्मरणों में मिल रहा है ! बहुत शुभकामनाएं !
=यूनीफार्म में तो एकदमै पुलिस वाली लग रही हैं. :)
बहुत बढ़िया याद किया एकेडमी को. सही है जारी रहो.
bahut achchha lag raha hai aap ke saath saath vicharanaa
वाह!
मिल्ली करनी हो तो "अरे, वाह, काजू कतली" बोला जाता है! :-)
बच्चा पुलिस ,बेवजह की बातो पर झगड़ना फ़िर तने रहना ..सब कुछ सच सच ... वैसे ऊपर वाले फोटो में "क्यूट " लग रही हो
वाह पल्लवी, बहुत अच्छा लग रहा है, तुमको पढ़ना ..
काश, मेरी कोई और बेटी भी होती, जिसको मैं इस सेवा में लगा पाता !
कवि-पुलिस,ये तो दुर्लभ प्रजाति है। आपसे मिलवाने का बहुत-बहुत धन्यवाद अजीत जी।पल्लवी जी को भी मैने पढा है बहुत अच्छा लिखती है और ट्रेनिंग के दिनो का शब्दो से जो उन्होने चित्र खिंचा है वो बहुत सुंदर है।
बहुत बहुत अच्छा लगा यह पढ़ना ..पुलिस ड्रेस में बहुत अच्छी लग रही हैं आप
आज आपने अपने इतने सारे फोटो एक साथ लगाकर किसी की याद दिला दी... :)
'ये है हम वाली फोटो को दस नंबर '
"बात उन दिनों की है जब हमारे हाफ इयरली एक्जाम चल रहे थे! एक दिन में दो पेपर होते थे..और एक भी दिन का गैप नही था!"
ये पढ़ के तो अखबारों या गृहशोभा और गृहलक्ष्मी टाइप पत्रिकाओ के वो कोलम याद आ गए.. वो दिवाली, शादी की रात, टाइप... उसमे भी बात ऐसे ही शुरू होती थी... "बात उन दिनों की है.."
बहुत बढ़िया संस्मरण। बच्चा पुलिस शब्द से हमें भी बहुत कुछ याद आया। और हां....काजू कतली हमारी भी पसंदीदा है। हमेशा एक की जगह दो लेते हैं....
उम्दा संस्मरण. भाषा का प्रवाह काबिल-ए-तारीफ़! पुलिस महकमे से प्यार करने का मन करने लगा है. काश! सारे पुलिस वाले ऐसे कवि-हृदय हुआ करते! लगा जैसे यह भी मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज का कोई होस्टल था.
अगर अपने कैरियर बनाने के दिनों में संस्मरण का यह हिस्सा पढ़ लिया हुआ होता तो यकीनन मैं भी कोई पुलिस वाला (अभी तक तो पुलिस वालों से डर लगता रहा है...) होता...
बहुत बढ़िया ! नहीं... बहुत ही बढ़िया !
काजू कतली हमारी भी पसंदीदा है।पर हमेशा 1 के बजाय 10 लेने की कोशिश करते हैं!!!!
बहुत रोचक संस्मरण!!!!
अच्छा लग रहा है!!!!आपके संस्मरणों को पढ़कर!!!
बहुत अच्छे, चलती रहें आपकी इसी किस्सागोई के कायल हैं..
बढ़िया, सुंदर संस्मरण। आगे की कहानी का इंतजार है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। सभी दोस्त " बच्चा पुलिस " कहकर चिढाते थे! एक बार आभा ने मेरे सर पर टमाटर रखकर रूमाल बाँध दिया!और तब से मैं उसके लिए " सरदार बच्चा " बन गयी और वो मेरे लिए " प्राजी" ! अब याद करके बड़ी हंसी आती है
सच में हँसी आती हैं।
bahut hi achchha sansmaran. bahut hi manoranjak.
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