ज नसमूह के लिए जब भी व्यवस्था की बात चलती है तो उसका आशय ऐसे स्थान से होता है जहां सब लोग सुविधा के साथ स्थिर हो सकें। किसी भी जीव के लिए स्थिर होने की सबसे सुविधाजनक अवस्था वही है जब वह बैठता है। सामूहिक उपस्थिति किसी परिणाम तक पहुंचने के उद्धेश्य या प्रयोजन से ही होती है। ग्राम, पंचायत, संसद, सभा, परिषद जैसे शब्द समूहवाची शब्द हैं और इनके मूल में साथ साथ बैठने का भाव ही है। समूह की उपस्थिति से बहुधा रचनात्मक निष्कर्ष हासिल होता है, कई बार यह संग्राम की वजह भी बनती है।
बसाहट के अर्थ में जन समूहों की सबसे छोटी इकाई
ग्राम कहलाती है। संस्कृत का ग्राम शब्द
ग्रस् धातु से बना है जिसमें समुच्चय का भाव है। इसमें पोषण का अर्थ भी है। पोषण के लिए जो भोजन का निवाला भी पदार्थों का समुच्चय ही होता है और उसे मुंह में चबाने की क्रिया के जरिये पिंड बनाया जाता है फिर उसे उदरस्थ किया जाता है।
ग्राम शब्द में भी जन-समूह का संकेत स्पष्ट है। प्राचीनकाल में एक ही जातिसमूहों के ग्राम होते थे, ये आज भी नज़र आते हैं। प्रायः विभिन्न ग्रामों के विवादों का
... सीट यानी बैठने के आसन से जुड़ी शब्दावली से ही जनतंत्र की प्रमुख संस्थाओं-व्यवस्थाओं का नामकरण हुआ है ...
निपटारा पंचायत जैसी एक सभा में होता था जिसमें विभिन्न ग्राम एक साथ जुटते थे। यह
सम+ग्राम होता था अर्थात सभी ग्रामों का साथ साथ जुटना। इसे
संग्राम कहा जाता था। अक्सर विवाद बातचीत से सुलझते थे, वर्ना युद्ध की नौबत आती थी। कालांतर में संग्राम ही युद्ध का पर्याय हो गया। जाहिर है समूह की समरसता सप्रयास होती है जबकि कर्कशता तो अनिवार्य तत्व है।
लोकतात्रिक संस्थाओं की संयुक्त सभा में निर्वाचित जनप्रतिनिधि बैठते हैं जो एक विशिष्ट क्षेत्र के जन का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका आसन सीट seat कहलाता है। प्रकारान्तर से सीट का अर्थ निर्वाचन क्षेत्र या चुनाव क्षेत्र होता चला गया। अंग्रेजी का सीट शब्द प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का है जिसके मूल में सेड sed धातु खोजी गई है जिसका अर्थ आसन या स्थिर होने से है। यूरोप की कई भाषाओं में इसी धातु से आसन के संदर्भ में सीट या इससे मिलते जुलते शब्द प्रचलित हैं जैसे स्पैनिश में सेड sede, फ्रैंच में सीज़ siege, जर्मन में सिज़ Sitz, पोलिश में सिद्जिबा siedziba आदि। संस्कृत में भी सद् का अर्थ होता है बैठना, आसीन होना, वास करना आदि। पार्लियामेंट के लिए हिन्दी में संसद शब्द है। यह नया शब्द है और इसे बनाया गया है। आश्चर्य होता है कि हिन्दी में जो शब्द गढ़े गए हैं, सरकारी संदर्भों और वेबसाईटों पर भी उनका कहीं अर्थ नहीं मिलता। दुनियाभर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सर्वोच्च सभा के लिए कोई न कोई नाम है मसलन सीनेट (अमेरिका), पार्लियामेंट (ब्रिटेन), ड्यूमा (रूस) उसी तरह भारतीय जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च सभा के लिए संसद नाम रखा गया। संसद अर्थात जहां सभी साथ साथ बैठें। सम+सद्=संसद। यूं संस्कृत में सद् के कुछ अन्य अर्थ भी हैं जो आज की संसद के संदर्भ में सटीक बैठते हैं मसलन विघ्नयुक्त होना, खिन्न होना, हताश होना, आराम करना, पथभ्रष्ट होना, भुगतना, उपेक्षित होना आदि। इन शब्दार्थों के निहितार्थ का विवेचन करना किसी भी नागरिक के लिए कठिन नहीं है।
सदस्य शब्द संस्कृत का है जिसमें आसीन या बैठनेवाले का भाव है। मूलतः यह धार्मिक कर्मकांड से आया शब्द है। प्राचीनकाल में यज्ञ में बैठनेवाले ऋत्विज, ब्राह्मण या याजक को
सदस्य कहते थे। मेंबर या उपस्थित गण के लिए भी सदस्य शब्द का प्रयोग लोकप्रिय हुआ। सद् के साथ जब इकारान्त या उकारान्त उपसर्ग लगता है तो
स् वर्ण
ष् में बदल जाता है जैसे
परि+सद् = परिषद। काउन्सिल के अर्थ में
परिषद शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है। इसका एक पर्याय मंडल भी है जैसे मंत्रिपरिषद।
... संसद के दो सदन हैं जिन्हें राज्यसभा और लोकसभा नाम मिले हैं ...
रिषद का सदस्य पार्षद कहलाता है। हिन्दी में आमतौर पर
पार्षद शब्द म्युनिसिपल या मेट्रोपॉलिटन काऊंसिल के सदस्यों के लिए रूढ़ हो गया है।
सद् में शामिल निवास, बैठन या स्थिर होने के अर्थ में इसी मूल से बने
सदनम् शब्द का मतलब होता है आवास, निवास, घर आदि। इसका हिन्दी रूप
सदन है। कई आवासीय इमारतों के नाम के साथ सदन शब्द लगता हैं जैसे सेवासदन, यात्रीसदन आदि। भारतीय संसद के दो सदन हैं जिन्हें
राज्यसभा और
लोकसभा नाम मिले हैं।
सभा का अर्थ होता है गोष्ठी, बैठक, न्यायकक्ष या संघ। अरबी-फारसी में इसे
मजलिस कहा जाता है जो अरबी की
ज-ल-स धातु से बना है जिसमें समुच्चय का भाव है।
जुलूस, जलसा, मजलिस और
इजलास अर्थात कोर्ट जैसे शब्द इससे ही बने हैं। अरबी के जमात में भी यही भाव है। यह ज-म धातु से बना है जिसमें एकत्र होने का भाव है। शुद्ध रूप में यह
जमाअत है। वाशि आप्टे के संस्कृत कोश में सभा शब्द की व्युत्पत्ति
–सह भान्ति अभीष्ठनिष्चयार्थमेकत्र यत्र गृहे- बताई गई है यानी किसी खास प्रयोजन के लिए एक स्थान पर बैठे लोगों की जमात ही सभा है। सदस्य को
सभासद भी कहा जाता है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में सभा का अर्थ जुए का अड्डा भी होता है।
सभिक या
सभापति उसे कहते थे जो जुआ खिलाता था अर्थात द्यूतशाला का प्रधान। किसी भी संस्था का प्रमुख या अध्यक्ष भी सभापति कहलाता है। कुल मिलाकर जनतंत्र में सामूहिक संवाद-सम्भाषण ज़रूरी है। इसके लिए जितनी भी शब्दावली है उनमें बैठने का भाव और आसन ही प्रमुख है, यानी
सीट। बैठने के आसन से जुड़ी शब्दावली से ही जनतंत्र की प्रमुख संस्थाओं-व्यवस्थाओं का नामकरण हुआ है। बैठ कर चर्चा करना जैसा भाव आज तिरोहित हो गया है। लोग अब संसद में संग्राम भी करते हैं जो आदिम युग में होता था।
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16 कमेंट्स:
बडनेरकर जी
गहन समुद्रमंथन के लिए सदा की तरह पुनः साधुवाद |
यदि ग्रस धातु ग्राम की उत्पत्ति करती हुई संग्राम तक पहुँची तब तो संसद का वर्तमान स्वरुप ग्राम शब्द की भावना के ही अनुरूप प्रतीत होता है |परन्तु ग्रस / ग्रसित होने / सिर्फ विवादों के निपटान के लिए सम-ग्राम हो जाना; कुछ अटपटा सा लगा | कृपया इसका मर्म समझाइएगा |
मैंने अक्सर पुस्तकों में ग्राम समूहों के लिए जन-पद शब्द का प्रयोग पाया है जन-पद अभी भी राज्य की कार्यपालिका का एक अंग है | जन-पद और सम-ग्राम में क्या भेद रहा होगा, जानने की उत्सुकता है | समाधान आपके अतिरिक्त और कौन कर सकेगा |
धन्यवाद |
छोटी पंचायत से संसद तक का की शब्दों के सफर यात्रा ज्ञानवर्धक और सभासद से सभापति तक की पोल खोलने में सफल रही।
हमेशा की तरह बहुत बढिया जानकारी. रामराम.
बेहतर जानकारी मिली । आभार ।
बढ़िया व नयी जानकारियां!!
धन्यवाद!!
अक्सर इतनी जानकारी पाकर आपके ब्लॉग पर मेरी मुह पर ताला लग जाता है!!
ग्राम का अर्थ ठहराव भी होता है(संगीत में इसी अर्थ में अभी भी जीवित है)। सीट के लिए एक शब्द है ‘आसन्दी’और आसन तथा पीठ भी । एक अन्य शब्द है ‘परिषा’ अर्थात परिधि सीमा बद्धता के अर्थ में। सद का अर्थ सत्य भी होता है, संसद का अर्थ सम्यक सत्य का निर्धारण या निरूपण समवेत या साथ-साथ करनें का स्थान।
‘समर्धुकस्तु वरदो व्रातीनाः सड्घजीविनः।
सभ्याः सदस्याः पार्षद्याः सभास्ताराः सभासदः’॥
‘सामाजिकाः सभा संसत्समाजः परिषत्सदः।
पर्षत्समज्या गोष्ठयास्था आस्थानं समितिर्घटा’॥ अभिधानचिन्तामणि ३/१४४ -३/१४५
भारत राजनैतिक रूप से विश्व में अग्रणी रहा है। चक्रवर्ती सम्राटों से लेकर लिच्छवी आदि गणतन्त्रो की सुदीर्घ परंपरा थी। अतः तत्समबन्धी शब्दावलि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। वेद,रामयण,महाभारत,सूत्र ग्रन्थ तथा कौटिल्य का अर्थशास्त्र प्रचुर सामग्री उपलब्ध कराते हैं।
वाकई गहन मंथन और नयी जानकारियां .
" सामाजिकाः सभा संसत्समाजः परिषत्सदः। " यह भाव अब कहाँ ?
कात्यायन जी ने संसद की व्याख्या से आलेख में चार चाँद लगा दिए | उन्हें भी ज्ञानवर्धन में सहयोग हेतु धन्यवाद |
सभ्याः सदस्याः पार्षद्याः सभास्ताराः सभासदः’॥
‘सामाजिकाः सभा संसत्समाजः परिषत्सदः। "
" यह भाव अब कहाँ ?
कात्यायन जी ने संसद की व्याख्या से आलेख में चार चाँद लगा दिए | उन्हें भी ज्ञानवर्धन में सहयोग हेतु धन्यवाद |
सही समय पर सही पोस्ट... बढ़िया है...
:)
सौमित्र
निषाद और उपनिषद भी लपेट लेते.. ऐसे भी उत्तम है!
ग्राम से संसद तक की जानकारी वह भी सम्पूर्ण , धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है आपकी मेहनत को सराहने के लिए
@सुमंत मिश्र
संसद के संदर्भ-सूत्र तक पहुंचाने का आभार कात्यायनजी। संसद की अर्थवत्ता में सत्य का समावेश स्पष्ट था, पर उसे समय और आकार की सीमाओं की वजह से शामिल नहीं किया। आपके अध्यययन का लाभ सफर को काफी आगे पहुंचा देता है।
साभार, अजित
संसद से होती हुयी पार्षद तक sundar khoj..............शुक्रिया
आज बहुत दिनों बाद ब्लाग जगत से रूबरू होने का अवसर मिला और आपके ज्ञानवर्धक इस आलेख ने बड़ा सुख दिया...
रोचक ज्ञानवर्धक आलेख हेतु आभार.
बहुत गंभीर, बेहद उम्दा और
विस्मयकारी जानकारी दी आपने.
सप्रयास समरसता में कर्कशता की
अपरिहार्य उपस्थिति की बात अगर
समझकर स्वीकार कर ली जाए तो
अनेक समस्याएँ सुलझ सकती हैं.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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