Sunday, May 31, 2009

बकवास है शब्दों का सफर…टिप्पणीकार भी मूर्ख!

logo रविवारी पुस्तक चर्चा में इस बार फारसी हिन्दी शब्दकोश से चिढ़े बेनामी समूह की प्रतिक्रिया को हमने शामिल किया है। यह जरुरी था।
आचार्य (मूढ़) बेनामी के निशाने पर सफर
खिर वो टिप्पणी आ ही गई जिसका इंतजार था। farsi kosh 016_thumb[6]आज शेरसिंह शायरी और बाल वाली पोस्ट पर अचानक एक लंबी सी टिप्पणी मिली। रोमन में लिखी इस इबारत को जस का तस देवनागरी में हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। पूरी टिप्पणी 3 मई 2009 के सफर में हुई रविवारी पुस्तक चर्चा के अंतर्गत फारसी हिन्दी शब्दकोश पुस्तक की आलोचना को आधार बना कर लिखी गई है। यह खत एक मूढ़ बेनामी ने लिखा  है, मगर इसके पीछे मठाधीशों का एक खास समूह है जो शब्दों का सफर में फारसी हिन्दी शब्दकोश की आलोचना से इतना ख़फा हुआ कि उसने इस नाचीज़ की समझ पर तो प्रश्नचिह्न लगाया ही साथ ही सफर के सुधि टिप्पणीकारों के प्रति भी अपने गुस्से का इज़हार करते हुए उन्हें बेनामी के जरिये मूर्ख तक कह डाला! यह नज़रअंदाज़ करनेवाली बात नहीं थी। हम अपनी सीमाओं में ही सही, इसका जवाब दे रहे हैं। बाकी बातें बाद में, पहले आप देखें चार्य (मूढ़) बेनामी की चिट्ठी-
...लगता है आपको भाषा नहीं आती । शायद हिन्दी भी नहीं। आपका ब्लाग कई दिनों से देख रहा था। लगता है आप जैसे व्यक्ति को तो हिन्दी साहित्य की भी जानकारी नहीं। आप लिखते हैं कि मुशायरा अरबी भाषा में कवि गोष्ठी के अर्थों में प्रयोह होता, किस ने आप को बताया-पढ़ाया है भगवान जाने। इसी तरह आपके एक अन्य लेख को पढ़कर लगा कि अगर सामने दिखाई दे जाएं तो आप से पूछू कि अगर इंग्लिश हिन्दी का शब्दकोश देखना हो तो क्या उसे हम हिन्दी की वर्णमाला के अनुसार देखेंगे? चूंके आप ने लिखा कि फारशी हिन्दी शब्दकोश जिसमें स्वर्गीय श्री त्रिलोचन जी भी शामिल थे ने आप के 1400 रुपए बेकार कर दिये। भाई लिखने से पहले सोचो के क्या शब्दकोश टारगेट भाषा के वर्णमाल से शुरु होता है। मधा के (शायद मद्दाह लिखना चाहते थे) शब्दकोश का जो हवाला दे रहे हो ये दिमाग में रखो के हिन्दी उर्दू के वर्णमाला सिर्फ लिख्त रूप में अल्ग है और और कुछ ध्वनिया जो हिन्दी में नहीं है और फारसी या अरबी से ली गई हैं उन का सिर्फ फर्क़ है और हम हिन्दी भाषी सेवाइ कुछ के उनमें से कुछ को लेखनी में बिंदी लगा कर दरशाते है अदरवाइस उच्चारण में कोई फर्क नहीं कर पाते और जहां ज़रा से कांशस होते है तो अक्सर लोग ज़लील को जलील और जाहिल को ज़ाहिल बना बन कर ही उच्चारित करते हैं। लेकिन फारसी लिपि में केवल 32 अक्षर हैं और कई संस्कृत स्त्रोत की ध्वनिया नहीं है तो फारसी हिन्दी शब्द कोश को हिन्दी वर्णमाला के लाइन पे कैसे बनाते। त्रिलोचन जी जो इस से पूर्व अन्ये कई शब्दकोशो में रह चुके है शायद अगर ज़िन्दा होते और आप का ब्लाग पढते तो आप अहसास कीज्ये के आप की क्या दुर्गत बनाते अपने सॉनेट लेखन के माध्यम से। आप ने जो उदहरण भी दिया सुप खोरी का वोह भी गलत था। आपक को अगर कड़छी के अर्थ बताने हो तो क्या कहेंगे? और मिसाल देंगे सब्जी. घी आदि निकालने के लिए प्रयुक्त एक लोहे, पितल, या स्टील आदि का एक स्रोत। आप ने ना ही तो लिंग्विस्टिक्स पढ़ी है, ना ही हिन्दी उर्दू, फारसी, अरबी, अंग्रेजी का तो सही ढंग से ज्ञान नहीं। सिर्फ ब्लाग खोल कर बकवास लिख कर लोगों का समय और पैसा वेस्ट करते हैं। अफसोस के लोग भी जो आप जैसे ही मूढ बुद्धि के है आप के बातो पे इन्सटैंट रीएक्शन करते हैं बिना सोचे समझे। भैया सोचो फिर लिखो। ...
चार्य (मूढ़) बेनामी से हम यही कहना चाहेंगे कि न तो हम भाषाशास्त्री है, न भाषा विज्ञानी। लिंग्विस्टिक्स भी हमने नहीं पढ़ा। अरबी, फारसी तो ज़रा भी नहीं जानते। उर्दू, हिन्दी, मराठी की कामचलाऊ समझ है और अंग्रेजी में जबर्दस्त हाथ तंग है।  इसके बावजूद शब्दों के जन्मसूत्र जानने की ललक है। क्या इसके लिए लिंग्विस्टिक्स पढ़ना ज़रूरी है? हमें कभी ऐसा नहीं लगा। यह तो स्वांतः सुखाय शब्दों का सफर है। यह चिट्ठा भाषाविज्ञानियों के लिए नहीं है। भाषा के पंडितों के लिए भी नहीं।  शब्दों का सफर सिर्फ उन हिन्दी प्रेमियों के लिए है जिन्हें शब्द व्युत्पत्ति में दिलचस्पी है। इसके बावजूद शब्दों का सफर को लगातार हिन्दी के लेखकों, पत्रकारों, प्राध्यापकों अन्य बुद्धिजीवियों का प्रेरक साथ लगातार मिल रहा है जिनमें डॉ.सुरेश वर्मा जैसे भाषाविज्ञान के विद्वान, उदयप्रकाश जैसे साहित्यकार और अरविंदकुमार जैसे प्रसिद्ध कोशकार भी हैं। इन सबके अलावा तमाम ऐसे नाम हैं जो अपने क्षेत्र में विशिष्ट काम कर रहे हैं और उनमें ‘इतनी समझ’ है कि शब्द व्युत्पत्ति को लेकर चल रहे इस काम को उपयोगी समझें या कूड़ा मानें। तमाम व्यस्तताओं के बीच जल्दबाजी में सफर पर इन्स्टैंट टिप्पणी देने के लिए उन्हें कौन मजबूर कर रहा है? यहां तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं जैसा मामला भी नहीं है। हमारे कई नियमित (सहृदय भी)
Dear Ajit / My Mobile No. is (......) and LandlineTel.No.is (......) With some extra labour, you may manage a manual Telephone Directory, in which you may write down the relevant adresses and useful information of the concerned SKVARMA_thumb[8]person.  Off and on, I go through your Shabdon Ka Safar and always find it intelligently and dillligently worked out. It is a good piece of work to popularize Hindi, Hindi Words and Phrases. Through your effert, many Historical and cultural pieces of information are also made known to Hindi World. I expect, some non-Hindi people might like to learn Hindi to read your useful blogs. Your contribution to Hindi World will be recognized by the scholars and you are bound to get due placement in the History of Hindi Linguistics and Lexicon one day. I very much want to write in your blog, because, among other things, I will remain in touch with you. But due to my little knowledge of the usage of Hindi fonts, I find myself helpless. Hope, one day, I might surpass this shortcoming. Convey my regards to Shri Wadnerkar Sahib and blessings to Sou.Bahu and lovely child. Yours Shubhakanshi -Suresh Kumar Varma
पाठक ऐसे हैं जो लगातार सफर के साथ हैं, चाहे हमने उनके चिट्ठे पर भूले से भी कभी टिप्पणी न की होगी!!!
मैं सक्रिय ब्लागर नहीं हूं, सो चिट्ठा-विश्व में ज्यादा आवाजाही भी नहीं है, अलबत्ता ज्यादातर स्तरीय और निष्ठावान ब्लागरों के काम की खबर रहती है और उनसे व्यक्तिगत संवाद भी है। इनमें से कई लोग अनुभव और आयु में मुझसे वरिष्ठ हैं। उनका मेरे प्रति ऐसा कोई अनुराग नहीं कि मेरी तथाकथित बकवास पढ़ने के लिए वे अपना कीमती वक्त खर्च करें। मेरे इन स्नेही सहयात्रियों  के लिए मूढ़ जैसा सम्बोधन निश्चित ही आप और आपकी मित्र-मंडली की अक्ल पर ही सवाल खड़ा करता है। आपकी शैली में कहूं तो कभी अगर आप सामने पड़ जाएं तो शिष्टाचारण के दो-चार उपदेश ज़रूर दूंगा और पूछूंगा कि भैया घर में किसी ने सिखाया नहीं? (क्षमा करें, आप तो बेनामी हैं)  भैयाजी, पहले सोचो, फिर लिखो!!! प्रो.वर्मा की शब्दों का सफर के बारे में राय जाहिर करती एक चिट्ठी यहां दायीं ओर मैं जस की तस लगा रहा हूं। यूं मैं इस तरह कभी इसे यहां नहीं छापता, मगर आपकी ग़लतफ़हमियों का निवारण शायद हो सके। भाषाविज्ञान के एक मान्य विद्वान का शब्दों के सफर के बारे में जो दृष्टिकोण है वह भी अगर आप न समझ सकें तो आपकी मूढ़ता के साथ ‘वज्र’ विशेषण  भी लगाना होगा। साथियों के समय की फिक्र में आप दुबले न हों। .
पकी तमाम आपत्तियों को मैं दरकिनार करता हूं क्योंकि उनका उत्तर फारसी कोश की समीक्षा पर आई टिप्पणियों, खासतौर पर श्री अभय तिवारी की टिप्पणियों के जवाब में दिया जा चुका था। आपने उक्त पोस्ट ठीक से नहीं पढ़ी और जो लिखा है, उकसावे में (मूढ़ता में) लिखा है। मैने वर्णक्रम की बात कहीं भी नहीं कही है, बल्कि फारसी वर्णक्रम को ही देवनागरी में भी लिखे जाने की बात कही है। कोश को अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए यह ज़रूरी था और इससे उसकी उपयोगिता बढ़ती। ज़माना वेल्यूएडेड मार्केटिंग का है हुजूर चार्य (मूढ़) बेनामी। सूप का उदाहरण भी आपने सही नहीं दिया है। जो कुछ मैने इंगित नहीं किया वो सब आप मेरी पुस्तक-चर्चा की आलोचना के दायरे में ला रहे हैं। आपको लगता है कि मुझे हिन्दी का ज्ञान नहीं, तब तो आपके स्तर की हिन्दी जाननेवाले देश में इक्के-दुक्के लोग ही होंगे!!! मैं तो वहीं हिन्दी लिखता-बोलता-समझता हूं जिसे देश के 90 फीसद हिन्दी भाषी बोलते हैं। दस फीसद में वो शामिल हैं जो अभी इससे रिश्ता बना रहे हैं। मुशायरा का अर्थ आप स्वयं ही शब्दकोशों में तलाशें और उसे याद कर लें। 
अंत में यही कि शब्दों का सफर चलता रहेगा और इसे आप किताब की शक्ल में भी देखेंगे।….और हां, आपने श्रद्धेय त्रिलोचनजी को भी याद किया है। आपकी जानकारी के लिए त्रिलोचन जी के जीवित रहते ही शब्दों का सफर आज से करीब छह वर्ष पूर्व दैनिक भास्कर में शुरू हो चुका था। यह ब्लाग भी उनके निधन से काफी पहले शुरु हो चुका था। उनके दिवंगत होने का बहाना न बनाओ हे श्रवणकुमार!!! मेरी यह बकवास उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी आप पर थी… मगर बीते छह वर्षों से कहां थे आप ?
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53 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

मन तो हमारा भी हो रहा है कि आपको भला बुरा कहा जाये. बेनामियों को इतनी तव्वजो.

हमारे तो ब्लॉगर ने एक बटन दिया है-रिजेक्ट!! बस, टीप खत्म और बात खत्म.

नाम के साथ आओ, आलोचना तो क्या, अगर गलत हैं तो फटकार भी बर्दाश्त करेंगे.

पर्दे के पीछे रह कर तो कुछ भी कहा गया अमान्य है भले ही कितनी भी वाजिब बात हो.

इतना झुकना भी ठीक नहीं मेरे भाई!! वैसे कभी तो मैं भी विचलित हुआ था बेनामी के कमाल पर. :)

शुभकामनाऐं-सफर को इसी तरह चलाते रहें.

रंजन (Ranjan) said...

आप तो अपने काम में लगे रहीये जी..

Anonymous said...

हुन त अर्कै देश अनि अर्कै भाषा को बिषय मेरो टाउको दुखाई को बिषय होइन ... तैपनि संसार को सबभन्दा ठुलो प्रजातन्त्र भएको मुलुक मा बस्ने विद्वान अजित जी ले पाठक को एउटा साधारण प्रतिकृया मा यत्रो बबाल खादा गरेको देख्दा आस्चर्य लग्यो |

शब्दों का सफर को म एक नियमित पाठक र शुभचिन्तक पनि हुँ | अनि अजित जी लाई मन नपरेको कमेन्ट लेख्ने ति अज्ञात महोदय संग मेरो कुनै सम्बन्ध पनि छैन | मलाई फारशी भाषा को ज्ञान छैन त्यसैले म ति अज्ञात जी ले के लेखे म त्यता तिर जान चाहन्न |

मेरो विचार मा अज्ञात ले आफ्नो धारणा लेखेका छन | कसैलाई अपशब्दनलेखी कन हरेक पाठक लाई आफ्नो विचार राख्ने हक हुन्छ | ब्लगर ले जे लेख्यो त्यसमा सहमत हुनै पर्ने हो भने त प्रतिकृया लेख्नु र भजन गाउनु मा के फरक रह्यो र ? मेरो तर्क मन नपराउने जो सुकै ले पनि मलाइ बकवास भन्न सक्छ र मेरो तर्क संग सहमत हुने लाई उसले मन पराउदैन भने मुर्ख पनि भन्न सक्छ | तर म र मेरो कुनै पाठक म संग असहमत भएकै आधारमा कसैलाई म गलत कसरि भन्न सक्छु र ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुझे तो यह समझ नहीं आया कि इस तरह की आलोचना के लिए बेनामी होने की आवश्यकता क्या थी। आपने उत्तर लिखा है। मुझे लिखना होता तो मौज में इस का उत्तर लिखता। इस का सर्वोत्तम उत्तर तो फुरसतिया अनूप शुक्ल जी देते।

डा० अमर कुमार said...

यह मेरा दुर्भाग्य है अजित भाई, कि सँभवतः पहली टिप्पणी मुझे ही देनी पड़ रही है ।
अन्यथा, अन्य दिनों की तरह पढ़ कर और बुकमार्क कर चुप्पै से निकल लेता ।

अथ बेनामी प्रकरण..
आप जान ही चुके हैं, कि यह मठाधीशों के प्रवक्ता मात्र हैं ।
बेचारे हिज मास्टर्स वायस !
सो, यह दया के पात्र हैं, क्रोध के नहीं ..

" रिस तन जरई, होहिं बल हानि "
क्रोधाद्भवति सँमोहः सँमोहात्स्मृतिविभ्रमः

ज़नाब के चक्कर में आज पुस्तक चर्चा रह ही गयी !

अनूप शुक्ल said...

बेनामीजी की प्रतिक्रिया की इत्ती बड़ी सफ़ाई की जरूरत नहीं थी। जिसकी जैसी समझ होती है वैसी बात करता है। आप अपना काम करें बस और मस्त रहें।

इस चक्कर में आज पुस्तक चर्चा रह गयी न!

रवि रतलामी said...

ये हुआ ना ईंट का जवाब पत्थर. और, जो व्यक्ति ये कहता है कि "ब्लॉग खोल कर लोगों का समय और पैसा वेस्ट करते हैं" उसे तो ब्लॉग की प्रकृति का भी अंदेशा नहीं है!

Shiv said...

हर तथाकथित बड़का पंडित अक्सर बेनामी निकलता है. बेनामी जी पारिवारिक कारणों से बेनामी बन गए! इतने बड़े भाषाविद हैं लेकिन आम लोगों से संवाद की इनकी भाषा बड़ी वाहयात है. किसी को मूढ़ और ऐसे ही शब्दों से संबोधित करना किसी भाषाविद का काम हो सकता है?

अब इनके अनुसार न तो अजित भाई को हिंदी की जानकारी है और न ही उनके पाठकों को. भाई इन्होने कौन सी हिंदी पढी है, ये तो वही जानें लेकिन देश के आम जन की हिंदी से ही हिंदी जीवित है. नहीं तो इनके जैसे प्रकांड विद्वान् तो आज से सौ साल बाद हिंदी की स्थित पर दुबले हुए सेमिनार आयोजित करते जा रहे हैं. पाँव तुडवाने से अगर इनकी गिनती हिंदी भाषा के प्रति चिंतित लोगों की लिस्ट में होती तो अभी तक पाँव भी तुड़वा लेते.

अब शब्दों का सफ़र कब से शुरू हुआ, ये इन्हें पता चल ही चुका है. यह ब्लॉग कब से शुरू हुआ, इस बात की जानकारी भी लग चुकी है. तो इस बात पर माथा न ही ठोंकें कि त्रिलोचन जी इस ब्लॉग को देखते तो क्या दुर्गति बना रहे होते.

और हाँ...भाई बेनामी बनकर कमेन्ट क्यों कर रहे हैं. नाम के साथ कमेन्ट करें. हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी के तमाम प्रकांड विद्वानों की लिस्ट में एक नाम और जुड़ जाने दें. नहीं?

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

१-शब्दकोश जिस भाषा का है उसी के वर्णक्रम (रदी़फ़वार) में बनेगा न कि लक्षित भाषा के। यह बात ठीक है और व्यवहार में भी यही देखनें में आता है।
२-अभय भाई की यह बात ठीक है कि यह कोष फ़ारसी भाषा-भाषियों की सुविधा के लिए है न कि हिन्दी भाषियों के लिए। लेकिन ऎसा क्यॊं है, यह प्रश्न उठता है?
३-अतः आप के वह समस्त प्रश्न जो हम सबके प्रश्न है चाहे वह वर्णक्रम को लेकर हो या बाँए से दाँए लिखनें का हो या अन्य, सब व्यर्थ हो जाते हैं।

इस कोश को थोडा़ अधिक व्यय करके अधिक व्यावहारिक और उपयोगी बनाया जा सकता था, जैसा कि आपनें सुझाया है। कोश खरीदनें के बाद मुझे भी कष्ट हुआ था।

रहा त्रिलोचन जी का कई शब्दकोशों मे रहना और जिन्दा होंने पर दुर्गति बनानें की बात तो पहली बात तो यह कि ऊपरवाले नें उनकी जो गति बन सकती थी बना दी और अब वह विचार-धारा विशेष के इतिहास कोश में ही शायद मिलेंगे/शायद न भी मिलें। त्रिलोचन भाषाशास्त्री थे ये मुगालता तो शायद उनको भी नहीं था। दरअस्ल पहले रूस-चीन और अब ईरान जैसे गल्फ के देशों के पैसे पर पलनें वाले दल और उनके स्वनामधन्य विद्वानों की कुंठा का यह मूढ़ और रूढ़ प्रकटी करण है।

अजित जी,३मई की पोस्ट में `x'-‘क्स’और ‘ख’ अक्षर के उच्चारण का उल्लेख आया है। मै चाहूँगा इस को कुछ और विस्तार दें। सन्दर्भ यह कि मेरे पास बाइबिल का एक हिन्दी अनुवाद है जिसमें अलेग्जेन्डर को अलक्षेन्द्र लिखा गया है, जो अब स्किन्दर से सिकन्दर बन या बना दिया गया है।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर जवाब दिया. पर हमको ऐतराज है. आपने इनको अति सुंदर नाम दिया है आचार्य मूढ बेनामी. यह नाम अपनी सुंदरता की वजह से इनको देना जायज नही है. इस नाम ने हमसे कहा है कि ये उसकी तोहीन है. इन्हे आचार्य मुर्खचंद वल्द कुंठाग्र्स्त बेनामी नाम दिया जाना चाहिये.

रामराम.

Gyan Dutt Pandey said...

शब्दकोश के बारे मे लिखने के लिये हिन्दी साहित्य के पांव दबाना काहे जरूरी है? और मूढ़ता प्रदर्शित करने के लिये बेनामी रहने की क्या जरूरत है?
बाकी, अपनी समझ में तो इतना आता है कि फारसी हिन्दी शब्दकोश अगर फारसी जानने वाले को हिन्दी जानने की सुविधा देने को है तो उसे मुख पृष्ठ पर फारसी में छापना चाहिये - हिन्दी में मुखपृष्ट दे रहे हैं तो हिन्दी से फारसी जाने वाले की सहूलियत का ख्याल तो होना चाहिये।
हिन्दी वाले व्यवसायी हों तो एण्टर्क्टिका में रेफ्रीजरेटर बेंचें!

Smart Indian said...

क्या बात है! बेनामी जी आपको भी पहचान गए और हमें (पाठकों/टिप्पणीकारों को) भी. कोई बात नहीं सबको अपनी बात कहने का हक है. आप अपना काम कीजिये और उन्हें अपना काम करने दीजिये. संत कबीर के शब्दों में -
"निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करत सुभाय"

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

जो व्यक्ति खुद बेनाम हो उसकी सोच कैसी होगी इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है . हमारे यहाँ एक कहावत है जब कोई आपकी बुराई करे तो समझो आप तरक्की पर हो . ख़ैर ऐसी चिकोटियां तो काटी जाती रहेंगी हम शब्दों के सफ़र में हमसफर हमेशा रहेंगे . क्योकि नियमित मुर्ख जो ठहरे

प्रवीण त्रिवेदी said...

किन्हीं पारिवारिक विवशताओं के चलते आप बेनामी रह गए, आपका यह दुख मैं समझ सकता हूं और आपके प्रति संवेदना व्यक्ति करता हूं। क्या आपके समूह के सदस्यों और आपके नामकरण में हम सब कुछ मदद कर सकते हैं? मूढ़ नाम कैसा रहेगा? अंत में यही कि शब्दों का सफर चलता रहेगा और इसे आप किताब की शक्ल में भी देखेंगे।


इसे हमारी भी टिपण्णी समझी जाए !!

प्रवीण त्रिवेदी said...

किन्हीं पारिवारिक विवशताओं के चलते आप बेनामी रह गए, आपका यह दुख मैं समझ सकता हूं और आपके प्रति संवेदना व्यक्ति करता हूं। क्या आपके समूह के सदस्यों और आपके नामकरण में हम सब कुछ मदद कर सकते हैं? मूढ़ नाम कैसा रहेगा? अंत में यही कि शब्दों का सफर चलता रहेगा और इसे आप किताब की शक्ल में भी देखेंगे।


इसे हमारी भी टिपण्णी समझी जाए !!

Anonymous said...

खुला न कुफ्ले* तिलस्मे जहाँ तो क्या होगा?
समझ में आ न सके एन-ओ-आँ ** तो क्या होगा?

ज़मीं की उकदा-कुशाई # से क़ब्ल ही ऐ ''जोश''
जो सर पे टूट पड़ा आसमाँ तो क्या होगा?

*ताला
** यह और वह
# गुत्थी खुलना
जोश के यह अशआर तो मुझे ताले की बात पर याद आ गये दर असल टिपण्णी तो मुझे आपकी मूढ़ बेनामी वाली पोस्ट पर देना थी ; जो पोस्ट नहीं हो पा रही.......खैर कहना ये था की खुदा करे की मूढ़ श्री के ज़हन का ताला खुले और उनको आपकी बात समझ में आ जाये......नहीं तो जैसे कि एक शायर को अंदेशा था कि :
"तू इक थका हुआ राही मै इक बंद सराय,
पहुँच भी जाये जो मुझ तक तो मुझ से क्या लेगा?"

तो ...मुसाफिरों से गुजारिश है कि शब्दों के भंडार के निकट बुद्धि रूपी चाबी ले कर पधारे.
एम्.एच.
नोट: आपकी पोस्ट पर हिंदी में कमेन्ट कॉपी +पेस्ट नहीं हो रहे ! यह कमेन्ट वहाँ कैसे पहुंचे?

Sajal Ehsaas said...

umeed hai ki aisi acchi koshish me is tarah ki bekaar ki rukaavate na aaye...aalochna karne ka ek tareeka hota hai aur koi bhi baat kehne ki ek garima...jawaab achha diya gayaa

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

'भाषिक आतंकवाद' और 'भाषा के शुद्ध प्रयोग के आग्रह' की विभाजन रेखा बहुत सूक्ष्म है। अनुवाद और शब्दों की उत्पत्ति आदि विषयों पर लिखते समय यह हमेशा

ध्यान रखना होता है कि ' भाषा बहता नीर'। भाषा के प्रवाह और सरलता के मुद्दे सीधे आम जन से जुड़्ते हैं। अपने चिट्ठों में आप ने इन मुद्दों का ध्यान रखा है

इसलिए ही आप का यह ब्लॉग इतना पॉपुलर है - विशेषज्ञों में भी और हम जैसे नादानों में भी।

रही बात इधर उधर से आती कुछ बेसुरी आवाजों की तो उन्हें मक्खी की भनभनाहट से ज्यादा महत्त्व न दें और अपने काम में लगे रहें। मक्खी का काम ही

गन्दगी पर बैठना और भनभनाना होता है। अब विधाता की इस व्यवस्था से हम आप कैसे जूझ सकते हैं? एकमात्र उपाय है - उपेक्षा ।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

'भाषिक आतंकवाद' और 'भाषा के शुद्ध प्रयोग के आग्रह' की विभाजन रेखा बहुत सूक्ष्म है। अनुवाद और शब्दों की उत्पत्ति आदि विषयों पर लिखते समय यह हमेशा

ध्यान रखना होता है कि ' भाषा बहता नीर'। भाषा के प्रवाह और सरलता के मुद्दे सीधे आम जन से जुड़्ते हैं। अपने चिट्ठों में आप ने इन मुद्दों का ध्यान रखा है

इसलिए ही आप का यह ब्लॉग इतना पॉपुलर है - विशेषज्ञों में भी और हम जैसे नादानों में भी।

रही बात इधर उधर से आती कुछ बेसुरी आवाजों की तो उन्हें मक्खी की भनभनाहट से ज्यादा महत्त्व न दें और अपने काम में लगे रहें। मक्खी का काम ही

गन्दगी पर बैठना और भनभनाना होता है। अब विधाता की इस व्यवस्था से हम आप कैसे जूझ सकते हैं? एकमात्र उपाय है - उपेक्षा ।

मीनाक्षी said...

ब्लॉगजगत में शब्दों का सफ़र सबसे सुहाना सफ़र है...इस सफ़र में साथ चलने की मूर्खता बार बार करेंगे...सफ़र के दौरान मौसम बदलेंगे ही.. सबकी अपनी अपनी खासियत है...!

sanjay vyas said...

aaj man thoda khinn ho gaya,blog jagat men bhi kenkadavritti dekhkar! ajit ji hamaare priy safar men aap vichlit na hon yahi kaamna hai.

Himanshu Pandey said...

यहाँ भी बेनामी का नामी कारनामा दिख गया । भई बेनामी, हम तो आते ही इस चिट्ठे पर इसलिये हैं कि हमें भाषाविज्ञानी की पुस्तक पढ़ते-पढ़ते भाषा से अरुचि होने लगी थी, और यहाँ हमने आत्मीय अर्थ व्यंजित होते देखे थे बिना किसी लगाव-बझाव के । अब क्या करें आपकी बुद्धि का ?

हे मेरे बेनामी सहृदय ! अगर हिन्दी साहित्य और भाषा के किसी धुरंधर जानकार का ठौर आपको नन्दनवन सरीखा लगता हो और यह शब्दों का खालिस सफर मृत्युलोकी वसुधा तो एक बात बताना जरूरी है कि -
"वसुधा से भिन्न कहीं होता है नन्दन वन
ऐसी प्रतीति जिय में मैं ठानता नहीं,
उसे जानता नहीं, उसे मानता नहीं ।"

अजित वडनेरकर said...

शुक्रिया साहेबान...
दरअसल यह बेनामी को तवज्जों देना नहीं था। बेनामी की टिप्पणी पुस्तक चर्चा की विचलित प्रतिक्रिया थी, मुझे लगा कि इसे छापना चाहिए । जब इन्होंने अपने दिल की भड़ास मुझ पर और साथियों पर निकाली है तो इन्हें भी कुछ सुनाने का हक बनता है। संयोग से शनिवार था....सो पुस्तक चर्चा के स्थान पर इसे रख दिया।
साथियों, मैने कोई सौजन्यता नहीं दिखाई है, हां अपने तरीके से बेनामी को खरी खोटी सुना दी है:)
आभार आप सबका

Anonymous said...

आपकी इस पोस्ट से मुझे उस नदी वाले साधु और बिच्छू वाली कहानी याद आ गयी।

शब्दों का सफर के पुस्तकाकार में आने की प्रतीक्षा रहेगी।

वैसे आप भी मठाधीशों वाली बात पर मनन करते हैं क्या? :-)

hem pandey said...

बेनामी जी ने जो भी कहा है उस पर बहस की जा सकती थी, यदि वे अपनी पहचान न छिपाते हुए इसे कहते.
छद्म नाम से लिखना इस तरह की आलोचना की इजाजत नहीं देता.

News4Nation said...

हम सबको अनाम जी की बातों का सम्मान करना ही होगा.. आखिर बह सफ़र के नए मेहमान है
क्यों अजितेश जी गलत तो नहीं कहा ना....
और अनाम जी आप का नजरिया भी लाजबाब है आपने पहचान लिया की हम लोग बेबकूफ है!
सच ही तो है आवारा,पागल,बेबकूफ लोगों के लिए ही तो ब्लॉग इजाद किया गया है,याकि नहीं तो गूगल से पुछा लो ?

डॉ. मनोज मिश्र said...

परवाह न कीजे .

News4Nation said...

हम सबको अनाम जी की बातों का सम्मान करना ही होगा.. आखिर बह सफ़र के नए मेहमान है
क्यों अजितेश जी गलत तो नहीं कहा ना....
और अनाम जी आप का नजरिया भी लाजबाब है आपने पहचान लिया की हम लोग बेबकूफ है!
सच ही तो है आवारा,पागल,बेबकूफ लोगों के लिए ही तो ब्लॉग इजाद किया गया है,याकि नहीं तो गूगल से पुछा लो ?

अनिल कान्त said...

आप अपना काम कीजिये ...लोगों का क्या है

सतीश पंचम said...

भई ये बेनाम होकर टिप्पणी देने वाले जनाब अब तो अपना परिचय दो....पता तो चले कितने बडे भाषाविज्ञानी हैं :)

Ashvin Bhatt said...

भाई सबके पास कितना कुछ है कहने के लिए इस पर तो एक पुस्तक लिखी जा सकती है........

बेनामी की टिप्पणी..... :) :)

स्वप्नदर्शी said...

आप अपना प्रयास ज़ारी रखे. हमारे जैसे कम ज्ञानियों के लिए अपने बच्चो को हिन्दी सीखने, और खुद को हिन्दी न भूलने देने की ज़द्दोजहद के बीच शब्दों का सफ़र अमूल्य है. मेरी एक मित्र न्यू-यार्क , न्यू जर्सी के इलाके के प्रवासी भारतीय बच्चो को हिन्दी पढाने का उपकर्म कर रही है, और दूतावास की सहायता से कुछ हिन्दी की किताबे भी उन्होंने ली है, पर जब कभी किसी शब्द के अर्थ को लेकर इस भूतपूर्व "बायोकेमेस्ट्री" की छात्रा को शंशय होता है तो में उसे आपके ब्लॉग का लिंक भेज देती हूँ.

हमारे जैसे लोगों के लिए आपका ब्लॉग अमूल्य है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

:-(
आपकी, आजकी, ये प्रविष्टी,
सही लगी अजित भाई -
बेनाम रहकर,
दूसरोँ को नीचा दीखाना
विषाक्त मन की उपज है
- लावण्या

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

:-( आपकी आजकी ये प्रविष्टी सही लगी अजित भाई - बेनाम रहकर, दूसरोँ को नीचा दीखाना विषाक्त मन की उपज है
- लावण्या

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

(मेरे ब्लौग http://hindizen.com में कुछ दिनों पहले छपा एक प्रसंग)

एक बार किसी साधारण विद्वान् ने उर्दू-फारसी का एक कोश प्रकाशित करवाया और इस कोश का इतना अधिक प्रचार-प्रसार किया कि लोग बिना देखे ही उस कोश की प्रशंसा करने लगे। उर्दू के प्रसिद्द शायर मिर्जा ग़ालिब ने जब वह कोश देखा तो उन्हें निराशा हुई क्योंकि कोश इतनी प्रशंसा के लायक नहीं था।
मिर्जा ग़ालिब ने उस कोश की आलोचना खरे शब्दों में लिख दी। कोश का लेखक और उसके कुछ प्रशंसक ग़ालिब की स्पष्टवादिता से नाराज़ हो गए और ग़ालिब के खिलाफ कीचड उछालने लगे और भद्दी-भद्दी बातें लिखने लगे। ग़ालिब ने किसी से कुछ नहीं कहा।
ग़ालिब के एक शुभचिंतक से यह देखा न गया और उसने ग़ालिब से कहा कि उन लोगों के खिलाफ ऐसा कुछ लिखना चाहिए कि उनके मुंह बंद हो जायें।
ग़ालिब ने उससे कहा – “यदि कोई गधा तुम्हें लात मारे तो क्या तुम भी उसे लात मारोगे?”
ग़ालिब व्यर्थ ही प्रलाप करनेवालों का चरित्र समझते थे। उनका उत्तर देना कीचड़ में पत्थर मारने के समान था। ऐसे छोटे लोगों द्वारा निंदा या स्तुति करने की उन्हें कोई परवाह नहीं थी। ख़ुद पर उन्हें बड़ा यकीन था। उनका यह जवाब सुनकर उनका शुभचिंतक निरुत्तर हो गया।
कुछ ही दिनों में लोगों को उस कोश के स्तरहीन होने का पता चल गया। उन्होंने ग़ालिब की आलोचना की सराहना की और स्तरहीन कोश के लेखक को नीचा देखना पड़ा।

Arun Arora said...

अरे वाह , चलिये जनाब किसी को तो दिक्कत हुई .अब मै तो उम्मीद करूंगा कि बेनामी महोदय हम बेवेकूफ़ो को अकल सिखाने के लिये एक ब्लोग बनायेगे और आपके लिखे और हमे पढाये हुये गलत शब्दो को सुधारेंगे :) हम सुधरने को तैयार है बशर्ते तार्किक लिखे और समझाये . किसी के बनाये चित्र को सुधारने का काम करे उसमे निशान लगा लगा कर उसे बिगाडने का नही जनाब बेनामी :)

प्रवीण पाण्डेय said...

यदि लिखना ही था तो नाम देना था | आलोचना के पात्र तो स्वयं बेनामी जी हैं क्योंकि नाम नहीं देना तो सबसे बड़ी कायरता है | आपका हिंदी बॉक्स बहुत ही अच्छा लगा | अब मुझे अलग से टिपण्णी टाइप करने की आवश्यकता नहीं है और गति भी अच्छी बनती है | औरों को भी ऐसा करने की सलाह दें

kanchan said...

अजित जी अगर ये साहब बेनामी ना होते तो इतने लोग यहाँ बेबाक टिप्पणी भी न कर रहे होते, बहुत से उनके दल के निकले होते और या तो बिना कुछ बोले निकल गये होते या कुछ और बेनामी टिप्पणियाँ यहाँ जमा हो गई होती...! तो पहले तो उनके बेनामी होने का शुक्रिया अदा कीजिये जिन्होने बहुत से लोगो को खुला समर्थन देने के काबिल बनाया और फिर भूल जाईये इन अनाम लोगो को। सच है ये टिप्पणियाँ कुछ समय के लिये मन में झंझावत तो पैदा ही करती हैं, मगर इन्हे तूल देने का अर्थ है उनके मन का करना।

मैं अपनी कह सकती हूँ कि थोड़ा (बहुत थोड़ा)भाषा विज्ञान जो मैने पढ़ा है उसमें आपका ब्लॉग बहुत सारा कोष जमा करने में मदद करता है और ९९% मैं आपकी पोस्ट आने के बहुत दिन बाद पढ़ती हूँ क्योंकि उसे सिर्फ पढ़ना ही नही गुनना भी होता है।

आपके प्रयासों की प्रशंसा के साथ शुभकामनाएं।

Abhishek Ojha said...

हमारे लिए आपके ब्लॉग की पोस्ट बस पढने और टिपण्णी करने के लिए नहीं होती. इसके लिए अगर हम मुर्ख हैं तो हमें मुर्ख होने में कोई आपत्ति नहीं है ! और क्यों विचलित होते हैं. ऐसी टिपण्णी पर तो ध्यान ना देना ही बेहतर है.

रंजना said...

मैं तो इन अनाम भाई साहब का स्वागत करुँगी और पूर्ण समर्थन देते हुए प्रार्थना करुँगी की औरों की ऐब निकालने दिखाने की बजाय अपना एक ब्लाग खोलकर साहित्य की सेवा करें तथा हम मूढों का मार्गदर्शन करें..यह एक सकारात्मक प्रयास होगा इस दिशा में...

आशा करती हूँ जब उन्होंने टिपण्णी देने का कष्ट किया है तो टिपण्णी पढने का भी कष्ट अवश्य करेंगे और हमारे अनुरोध का मान रखेंगे...
तबतक अजीत भाई जो कुछ भी कर रहे हैं उसमे कोई अवरोध न डालेंगे....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बेनामी मतलब कायर,
हाथी अपनी मस्त चाल चलता रहता है।
कुत्ते भौंकते रहते हैं।
सफर जारी रक्खें।

शिरीष कुमार मौर्य said...

मुश्किल तो ये है की बेनामी कभी कभी छद्म ब्लॉगर खाता खोल कर सनाम टिप्पणी करते हैं हालाँकि वो उनका असली नाम नहीं होता. पर इसका कोई इलाज नहीं.

अजीत भाई !

हाथी चढिये ज्ञान का सहज दुशाला डार !
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार !

Anita kumar said...

लाजवाब जवाब दिया है आप का लास्ट पैराग्राफ़ बहुत ही मजेदार लगा। आप की किताब का इंतजार है

अजित वडनेरकर said...

@milan
मिलन भाई, कुछ कुछ नेपाली मैं समझ लेता हूं। आपका आशय भी समझ गया। सिर्फ यही कहना है कि यह एक टिप्पणी पर बवाल खड़ा करना नहीं था। यह ब्लाग मेरा है। यहां शालीनता की सीमा में हर आलोचना बर्दाश्त होगी। पब्लिक डोमेन का अर्थ भी अनुशासनहीनता या बदतमीजी नहीं होती। यही बात आप लोकतंत्र और प्रजातंत्र के संदर्भ में भी समझ सकते हैं।

दूसरी बड़ी बात यह कि उक्त बेनामी की टिप्पणी की विषयवस्तु एक पूर्व पोस्ट से जुड़ी थी, जिसे आप सबने पढ़ा था, सो उनकी आपत्तियों को सबके सामने लाना ज़रूरी था। उन्होने हमें मूर्ख कहा, हमने उनसे भी उन्हें आईना दिखाया। सौजन्यता हमारा स्वभाव है, कमजोरी नहीं। यह बेनामी दृष्टता पर ऊतारू था।

सफर में बने रहें। हिन्दी लिखें तो सबको सुविधा होगी। यूं नेपाली मुझे पसंद है और इसमें आपकी टिप्पणियों का स्वागत है।
आभार

Anonymous said...

I wish no one break your heart.

I am interested to learn something like languages, history, and culture of different society and this blog has helped me to get that.

I have been observing this blog since long, and definitely do same in future.

Anonymous said...

अजीत भाई ,
दो बार प्रयास किया , लेकिन न जाने क्या क्लीक हो जाता रहा कि हिन्दी बक्से से कमेन्ट बक्से में ले जाते वक्त ,मेरी लम्बी टिप्पणी 'टिपियाना ' ही अदृश्य हो जाता रहा . इन मूढ़ अनामी , बेनामी , बेवल्द का सौभाग्य .
अब शोर्ट में ही सही मेरी बात उस पोस्ट पर ट्रान्सफर कर दें आभारी रहूँगा .
हमारे अवध में जिसे ' चौलत्ती ' कहा जाता है वह तो हो चुकी , हम लेट हो गए .चौलत्ती यानी जहां सर्वसम्मति से चौतरफा लतियाया जाता है . वो भी तब होता है जब सुसंस्कृत संवाद की सारी सीमायें समाप्त हो जाती हैं और लात ही एकमात्र इलाज !
सिर्फ इसमें एक जोड़ दो हमारी भी .
शब्द ' ब्रम्ह भोज ' में भी भूल से घुस आये कुकुर कों भी लात मार भगा , भूल माफ़ कर , भूल जाने की परंपरा रही है . पर यी तो सुस्वादु खीर कों ' कुकुरी का सिरका ' बनाने पे तुला लगता है .

हम नहीं जानते कि हिन्दी ब्लॉग्गिंग में कौन से मठ हैं और कौन से मठाधीश . पर आगे पीछे जो भी हों , इसी लायक हैं . लात मार भगा देने का . सारा रस भंग कर दिया . खैर आईंदा से समीर लाल वाला फार्मूला अपना , दुआरे से ही दुर दुरा भगा देना ही ठीक . तवज्जो न दें .वैसे थोडा ' स्वान चिंतन ' ( अंगरेजी वाला नहीं हिन्दी - संस्कृत वाला ) भी समझ में आया , ठीक ही हुआ , आईंदा के लिए .
हम जैसे ' मूढ़ मूर्खन ' से आप संतुष्ट हों तो फिर व्यवधान न होने दें ऐसा बेजा .बहुत उद्दिघ्न हों तो बाबा तुलसीदास और उनकी ' असंत महिमा ' का पुनर्पाठ कर लें बस .
आपको शुभकामनाएं .
राज सिंह

अल्पना वर्मा said...

पिछली पोस्ट पर भी अपनी प्रतिक्रिया देने का ३-4 बार प्रयास किया मगर हर बार विफल रही थी.पेज ही नहीं खुला.
आज एक कमेन्ट पोस्ट कर पाई हूँ तो लिख रही हूँ कि आप के 'शब्दों के सफ़र 'के इतने प्रशंसक यूँ ही नहीं हैं..एक अनामी की बात को इतनी तवज्जो नहीं देनी चाहिये.हाँ ,कोई सामने से आ कर बहस करे तो ही उस का कोई जवाब देना चाहिये.
khair,आप ने जवाब भी achcha ही दिया था.
yah shbdon ka सफ़र जारी रखीये..
हमारी भी जानकारी में इज़ाफा हो रहा है.
आभार

रामेश्वर मिश्र काम्बोज said...

हाथी अपनी चाल चलता जाता है । बाकी को जो करना हो करे, उसे पूरी छूट है । आप अपना काम करते रहिए । यह एक दुर्लभ ( दूल्हे की तरह) काम है।भाषा में रुचि रखने वालों के लिए यह अद्भुत कार्य है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

अमिताभ श्रीवास्तव said...

dear,

hota he esa/
vivekanand ne kahaa tha, agar ham koi achha kaam shuru karte he to log hame dutkaarte he, ham apne kaam ko jaari rakhte he, to log dekhte he aakhir ye kar kya rahaa he, ham apna kaam fir bhi jaari rakhte he to log galiya dete hue us kaam ke andar jhaankte he, ham kaam jaari rakhte he to logo me bahas shuru ho jaati he ki aakhir iske kaam ko dekhna chahiye/ ham apne kaam ko gati dete rahte he to ek din esa aataa he jab log hamare ho jaate he, hamaare kaam me ruchi lene lagte he//
bas, mahanubhaav ki tippani, ese hi logo ki soch se prerit he//// aap jaari rakhe///safar bahut achha kat rahaa he/

Amitabh

हर्षदेव said...

ajit bhai,
अपनी प्रतिक्रिया देने में थोडी देर हुई. सोचता रहा कि घटिया बात पर कुछ कहना कितना ठीक है. मुझे त्रिलोचन शास्त्रीजी का कथन याद आ रहा है कि अज्ञान में बहुत ताकत होती है. अज्ञान के वशीभूत ही कई बार लोग ज्ञान और विवेक को चुनोती दे बैठते हैं और मुन्हकि भी खाते हैं. इसी कारण ऐसे व्यक्तियों को अपनी पहचान तक गुप्त रखनी पड़ती है. प्रो. अरविन्द कुमार या उदय प्रकाश का हवाला क्या देना, पहली बात यह है कि हमारे काम को नापने-तौलने वाला हमसे ज्यादा नहीं तो कम से कम हमारे जितना ज्ञानी (नहीं-नहीं) जानकार तो होना चाहिए. यदि नहीं होगा तो अपनी पहचान छिपाएगा. जैसे कि परम ज्ञानी श्री बेनामी जी को छिपानी पड़ी है, और जब वे स्वयं अपने प्रति विश्वासहीनता के कारण कोई तार्किक बात कहने का साहस नहीं कर पा रहे तो हमारी प्रतिक्रिया क्यों? कृपया तभी किसी आलोचनात्मक टिप्पडी को विहो. मेरा एसा मानना है. पिता-पुत्र और गर्दभ की कहानी को मत दोहराइए. हर्ष देव

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अजित जी,

छुट्टी पर गाँव चले जाने से मैं इस प्रकरण पर देर से पहुँचा। यहाँ तो काफी कुछ कहा जा चुका है। मुझे बस इतना कहना है कि आप बेहद महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। इसे बदस्तूर जारी रखें।

अमरनाथ 'मधुर'امرناتھ'مدھر' said...

इस ब्लॉग जैसी कोई चीज मुझे प्यारी नहीं हैं | यह मेरे लिए दिमागी टानिक का काम करता है | मुझे शब्दों की व्युत्पत्ति ,अर्थविस्तार, अर्थ परिवर्तन अर्थसंकोच, अन्य भाषा से रिश्तेदारी की जानकारी करने का जनून है जो आपके ब्लॉग पर पुअर होता है| कई बार तो शब्दों को लेकर दिमाग में खुजली होती रहती है | लेकिन आपने अपनी जो सीमाएं सज्जनता वश व्यक्त की हैं | वही मेरे अन्दर हैं | फिर अपना कार्यक्षेत्र भी दूसरा है | आप निरंतर यह कार्य करते रहें ऐसी मेरी शुभकामना है प्रार्थना है |

Anonymous said...

plz read

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