Thursday, April 15, 2010

पंचों का प्रपंच यानी दुनिया है फानी…

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म बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्दों की बजाय तद्भव शब्दों के बढ़ते जाने की प्रवृत्ति होती है। भाषा में जो तत्सम शब्द बचे रह जाते हैं उसकी वजह उनमें निहित अर्थशक्ति अथवा तद्भव शब्द में अलग अर्थवत्ता का विकसित होते जाना भी है। प्रपंच भी एक ऐसा ही आम शब्द है जो मूल तत्सम रूप में ही हिन्दी में खूब प्रचलित है। झगड़ा-फसाद करनेवाले के लिए हिन्दी में प्रपंची सम्बोधन खूब लोकप्रिय है। प्रपंच में निहित शब्दशक्ति मूलतः नकारात्मक है। इसका प्रचलित अर्थ है बखेड़ा या झगड़ा। किसी किस्म का विवाद अथवा झमेला। दिखावा करना, आडम्बर रचना, ताम-झाम फैलाना जैसे भाव भी इसमें निहित हैं। यही नहीं षड्यंत्र, छल-कपट करना भी इसकी अर्थवत्ता में शामिल हैं। हालांकि अपने मूल रूप में प्रपंच में ये तमाम अर्थ नहीं हैं। शब्द में नए नए अर्थों की स्थापना समाज में अपने आप होती जाती है। प्रपंच का मूल अर्थ है संसार, विश्व, लगातार फैलती दुनिया आदि।
संस्कृत की पंच् धातु की अर्थवत्ता बड़ी व्यापक है। मूलतः यह समूहवाची शब्द है जिसमें एक से अधिक का भाव है। पंच् का सामान्य अर्थ पांच की संख्या है मगर इसका मूलार्थ किसी विशिष्ट अंक या संख्या का द्योतक नहीं है। पंच यानी अनेक। वैदिक युग में पंच में अंक संबंधी भाव समाहित हुए। संसार या काया आदि के संदर्भ में पंचतत्वों की कल्पना की गई। उनकी तार्किक विवेचना के बाद पंचमहाभूत की परिकल्पना स्थापित हुई जो आज भी प्रचलित है। मान्यता है कि यह संसार पंचतत्वों यानी अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश ( क्षिति, जल पावक, गगन, समीरा ) से निर्मित है। दार्शनिक मीमांसा, सूफियों की बानी और निर्गुण कवियों नें शरीर को संसार का प्रतीक माना है, सो काया के मूल में भी यही पंचतत्व हैं। संस्कृत का प्र उपसर्ग जब विशेषण से पहले लगता है तो उसका अर्थ बहुत, अत्यधिक, अत्यंत होता है और संज्ञा से पहले लगने पर अर्थ होता है आगे, सम्मुख।
a.पंचमहाभूत में संसार की अर्थ स्थापना से स्पष्ट है कि प्रपंच में पंच से पहले प्र उपसर्ग लगने का अभिप्राय इन्हीं पंचमहाभूतों से निर्मित सृष्टि के विस्तार से है। धातु या विशेषण दोनों रूपों में पंच से बने प्रपंच का अर्थ होता है उजागर होना, प्रकट होना, विस्तार होना। पंचमहाभूत अर्थात संसार के संदर्भ में इसका अर्थ होगा दुनिया की विविधता, बहुलता, संसार की माया, भौतिकता का विस्तार, जगत का ऊपरी रूप या वैभव जो मूलतः नश्वर है या दार्शनिक अर्थो में छलना है। हिन्दी शब्दसागर के अनुसार प्रपंच में उत्तरोत्तर फैलाव का भाव है। एक से अनेक और फिर भवजाल तक विस्तार। संसार या सृष्टि यूं भी लगातार विस्तृत हो रही है। सासांरिक व्यवहारों, नियमों, लोकाचारों का बढ़ना चाहे सामाजिक विकास का पर्याय हो, पर अंततः यह आधिक्य मनुष्यता की सहज जीवनचर्या के लिए जंजाल ही है और इससे जुड़ कर संसार के साथ कदम से कदम मिला कर चलने का भ्रम अंततः कई तरह की वंचनाओं में सामने आता है। इसीलिए प्रपंच असली संसार नहीं बल्कि मायालोक है जहां सब कुछ छलावा है।
प्रपंच मूलतः बौद्ध विचारधारा से प्रभावित तंत्रशास्त्र का शब्द है जिसमें संसार को माया मानते हुए जंजाल समझा गया है। सूफी अंदाज़ में कहें तो- कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी। मध्यकाल में शंकर ने प्रपंचसार नामक ग्रंथ भी लिखा था। सो साफ है कि दुनिया एक झमेला जैसी कहावतों के मूल में संसार को प्रपंच अर्थात पंचमहाभूतों का विस्तार माननेवाली अर्थवत्ता समायी है। अब इस दुनिया को फानी मानते हुए ही तो गालिब कह गए कि बाज़ीचाए अत्फाल है दुनिया मेरे आगे। होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे। इसी तर्ज पर संसार के मायावी स्वभाव पर निदा फाजली कहते है-दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है। सो मुहावरे के अर्थ में देखें तो छल-प्रपंच में प्रपंच शब्द की व्यावहारिक और दार्शनिक अर्थवत्ता साफ नजर आती है।

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11 कमेंट्स:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

पंच महाभूतों में 'गगन' या 'आकाश' निर्वात या शून्य का द्योतक है। वज्रयानियों, नाथपंथियों और सहजिया जोगीड़ों की शून्य साधना कहीं इस तत्व से जुड़ती सी है। कबीर की वाणी याद आ गई "सून्य शिखर पर अनहद बाजे जी, राग छतीस सुनाउँगा"।

सचिन दा के प्रसिद्ध गीत में 'फानी' शब्द पर अटकता रहा हूँ।इस आशा में और आया कि यहाँ इसकी जन्मकुंडली और अर्थ मिलेंगे। नहीं मिले। भाऊ बताइए न।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर विवेचना है प्रपंच की!

मगर आजकल तो पंच भी प्रपंचों में लिप्त हैं!

RADHIKA said...

वाह दादा शब्दों का अर्थ जानना कितना दिलचस्प हो सकता हैं यह आपका चिठ्ठा पढने के बाद ही मालूम पढता हैं .सब लोग कहते हैं हिंदी का प्रचार करना चाहिए,सीखनी चाहिए आदि आदि .लेकिन सब कुछ बहुत कठिन लगता हैं ,लेकिन आपका चिठ्ठा पढने के बाद एक बात मन में आती हैं ,भारत के हर विद्यालय में अगर "शब्दों" का सफ़र को एक आवश्यक विषय के रूप में रखा जाये और इतने ही दिलचस्प तरीके से हिंदी शब्दों का अर्थ समझाया जाये तो मुझे नहीं लगता की हिंदी को लोकप्रिय बनाना जरा भी कठिन हैं .मुझे यह प्रपंच वाली पोस्ट बहुत पसंद आई .धन्यवाद एक और शब्द का अर्थ इतनी अच्छे से समझाने के लिए .

संजय बेंगाणी said...

पंच भी बड़ा प्रपंचकारी है.

mukti said...

’प्रपंच’ शब्द का मूल अर्थ तो संस्कृत की विद्यार्थी होने के कारण जानती थी, पर आपने विस्तार से उसके दार्शनिक अर्थों की विवेचना की...ज्ञानवर्धन हुआ. गिरिजेश जी वाली बात मैं भी दोहराऊँगी. मुझे गाइड फ़िल्म का ये गाना बहुत पसन्द है, जिसमें "फानी" शब्द प्रयुक्त हुआ है. इसका अर्थ बता दें तो कृपा हो.

Rangnath Singh said...

ज्ञानवर्धक।

अजित वडनेरकर said...

@गिरिजेश राव/मुक्ति
शुक्रिया दोनों साथियों का।
इस पोस्ट में फानी का जिक्र तो चलते चलते ही आया है। उस पर अलग से पोस्ट लिखूंगा। निश्चित ही।
शुभकामनाएं।

रचना दीक्षित said...

सर आपकी पोस्ट "पंचों का प्रपंच यानि दुनिया है फानी " का नाम पढ़ कर बरबस ही खिंची चली आई, अच्छा लगा आपको पढ़ना और शब्द का विश्लेषण दोनों.
क्या मैं इसे मेरी ११ अप्रेल की पोस्ट "प्रपंच " का परपंच समझूँ !!!! हा... हा .....
सादर
रचना दीक्षित

प्रवीण पाण्डेय said...

यदि स्रोत ज्ञात हो शब्दों का तो कदाचित हिचकिचाहट होगी उनका उपयोग करने में ।

उम्मतें said...

अजित भाई
तय ये हुआ कि प्रपंच उर्फ़ मायालोक उर्फ़ छलावे के लिये पंच का अस्तित्व आवश्यक है तो फिर पंच महाभूत ही क्यों ? अगर ईश्वर न्यायकर्ता के रूप में प्रपंच / मायालोक / छलावे के उदभव से जोड़ा जा सकता है और समादृत भी है तो धरती के न्यायकर्ता पंच भी किसी प्रपंच / न्याय के अंश सत्य ... अल्पकालिक सत्य / छलावे / दुनिया -ए - फानी के छद्म से क्यों नहीं जोड़े जा सकते भला ? जैसे ईश्वर अवतार लेकर माया में लिप्त होने का अभिनय करता है वैसे ही धरती के पंच भी किसी नाटक के किरदार ही तो हैं जो नश्वरता के छलावों को बढ़ावा देते हैं , तर्कसंगति देते हैं ! कमोबेश अवतार ( पंच महाभूत ) बने रहने तक यही काम ईश्वर भी करता है यानि दोनों की भूमिकायें प्रपंच के बाहर बदलती हैं उसके अन्दर नहीं ! इस मामले में मैंने एक नया आयाम ढूंढने की कोशिश की है भले ही ये कोशिश भी एक प्रपंच मानी जाये !

आपने ग़ालिब का बेहद फिलोसोफिकल शेर प्रविष्टि में उद्धृत कर प्रविष्टि को चार चांद लगा दिये हैं ! काश मंसूर अली हाशमी साहब मेरी बात की ताईद कर सकें !


@आदरणीय गिरिजेश जी / आदरणीय मुक्ति जी
अजित जी नें जो बात आप ज्ञानियों के हवाले से कही , आप उसी का अर्थ पूछने लग गये भला ये क्या छलावा है और देखिये तो सही अजित जी इस प्रपंच में फंस भी गये और नश्वरता के विस्तार का वादा कर बैठे :)

rashmi ravija said...

बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख...

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