ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और पैंतालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
नौकरी से व्यापार
ज्यादा वक्त नही बीता ,कुल जमा 13 साल लगे हमे व्यापारी बनने की कोशिश मे लगे हुये पर आज तक हम किसी भी माने मे बन नही पाये . लेकिन हमे एक बात तो समझ मे खूब आ गई है चाहे नौकरी हो या व्यापार आपका काम कुछ नही बोलता ,बोलते है संबंध. सन 1992 मे (पिछली शताब्दी के) शादी होते ही हमने नौकरी को लात मार दी.गाजियाबाद चले आये .कुछ बैंक से जुगाड किया. कुछ बापू से लिया कुछ पीएफ़ का पैसा . कुल मिलाकर एक अदद कमरे जैसी जगह किराये पर ली और एक प्लास्टिक मोल्डिंग यूनिट लगा ली.प्लास्टिक मोल्डिंग के लिये डाईयां बनाने वालों ने सिखाया कि सच बोलना पाप होता है. अगर किसी का काम वक्त पर करदो तो वो बद् दुआ देगा . दिन मे काम मांगने के लिये धक्के खाते थे , रात को डाई मेकरो के हाथ पैर जोडते थे,(ये पैसे एडवांस देने के अलावा अति आवश्यक काम है जी).
नरसिंहाराव ने मारा धक्का...
हमने कुछ काम पकड़ लिया था सी डाट का . तो जब डाई बनाने वालो ने हमे बता दिया कि उनके होते हम सिर्फ़ डूब ही सकते है तो हमने इस और ध्यान दिया और खुद ही डाईया बनानी शुरू करदी (आखिर घंटो डाईवालो के साथ बिताने का कुछ तो फ़ायदा हुआ). काम चल निकला लेकिन हमारे प्रधान मंत्री श्री पामुलपर्ती वेंकटेश नरसिंहा राव जी को ना जाने कहां से खबर लग गई कि हम उन्नति की और अग्रसर हैं,बस जी उन्होने आव देखा ना ताव खटाक से सी डाट के बजाय विदेशी कम्पनियो को छोटे टेलेफ़ोन एक्सचेंज लगाने के लिये आमंत्रित कर दिया. अगले दो तीन दिनो मे हमारी आने वाले दिनों की गाडी खरीदने की योजना स्कूटर बिकने से बचाओ मे बदल गई. अब हमे गिनती एक से दुबारा शुरु करनी थी.दुबारा की कोशिशे फ़िर रंग लाई हमे सेल के लिये एक काम मिला . एक मिला सैमटेल के लिये पिक्चर ट्यूब चैक करने के लिये जिग बनाने काम. सेल के लिये बीड्स स्क्रू बनाने का .
गाडी फ़िर से चल निकली स्कूटर और पेट मे ईंधन डलनेका जुगाड़ फ़िर से होता दिख रहा था,तभी एक दिन हमने स्कूटर का अगला ब्रेक लगाया और कोमा मे चले गये. वक्त लगा होश आया आपरेशन हुआ , लेकिन जिंदगी की गाड़ी फ़िर डिरेल हो गई थी.
कुछ दिन अस्पताल के
पंगेबाजी का हमे शुरू से शौक रहा है. स्कूल के दिनो मे हमेशा स्टेज कार्यक्रम कभी हमारी टोली के बिना पूरा नही माना जाता था,वहा पर हम हर दो क्रायक्रमों के बीच अपने छोटे छोटे आईटम पेश करने के लिये जाने जाते थे.
घर मे शुरु से सरिता ,मुक्ता चंपक चंदामामा ,नंदन पराग,लौटपोट, मधुमुस्कान कंट्रोल के साथ पढने की छूट थी. लिहाजा हम कह सकते है कि हमे भी डाक्टर झटका की तरह पंगे लेने का 20 साल का तजुर्बा है .लेकिन इन सारी किताबो के बीच अगर मै यादगार किताब को गिनू.तो सर्वोत्तम रीडर्स डाईजेस्ट को 100 मे से 100 नंबर दूगा जिसके एक लेख ने मेरी दुनिया मे बदलाव ला दिया.
सन चौरानबे का सितंबर था,हल्की हलकी सर्दी पडने लगी थी. मै उस दिन साहिबाबाद के राजेंद्रनगर इंड्रस्टियल एरिया मे अपनी कार्यशाला मे एक डाई ठीक करने मे लगा था ,अचानक मुझे एक निडिल फ़ाईल ( छोटी सी रेती) की जरूरत पडी.मै उसे लेने के लिये राजेंद्रनगर मे ही स्थित गाजियाबाद दिल्ली रोड पर स्थित एक दुकान से स्कूटर से लेने पहुच गया, यूं मै अक्सर शिरस्त्राण (हेलमेट) का प्रयोग करता था,लेकिन इतनी दूर के लिये कौन पहनता है ?
रेती लेने के बाद मैने आगे रोड पर बने कट से घूम कर वापस जाने के बजाय वही से वापस मुड कर थोडी दूर अगले कट तक रोड पर बने डिवाईडर के साथ साथ चलने का फ़ैसला किया,सामने से ट्रैफ़िक लगातार आ रहा था, मै धीरे धीरे 30/40की रफ़तार पर डिवाईडर के साथ चले जा रहा था. मुझे अभी भी याद है सामने से ट्रक आ रहा था जो मुझे देखकर दाये हो गया था,पर तभी एक सज्जन डिवाडर से अचानक मेरे ठीक सामने सडक पर उतर गये, मैने तुरंत अगला पिछला दोनो ब्रेक लगा दिये, मुझे इतना आज भी याद है कि मै हवा मे था.
फ़िर ये काफ़ी बाद मे पता चला कि उन सज्जन को जो जल्दी मे थे ,ट्रक वाले ने बडी मेहनत से बचाया था.और मुझे वहां डिवाईडर से उठा कर जिस सज्जन ने पहुंचाया,आज भी मै उन्हे नही जानता (*कृपया इस बारे मे यहां देखे. )
जब मेरा आपरेशन हो चुका और मुझे होश आया. तब मै जान चुका था कि मामला उतना आसान नही था ,ये मेरा दूसरा जनम है शायद उपर वाले के पास अभी मेरे लिये जगह नही थी.या मेरे परिवार को मेरी ज्यादा जरूरत थी.सारा सिर टाको से भरा पडा था,सिर की हड्डिया दुर्घटना मे नही टूटी तो डाकटरो ने हथोडे आरी ,जो मिला उससे तोड डाली,आज भी सिर मे पडें गड्ढे दर्द दे जाते है. जारी
अगली कड़ी में पंगेबाज की जिदगी के रंग न्यारे
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Friday, May 30, 2008
बिना पंगे का पंगा [बकलमखुद-45]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 24 कमेंट्स पर 1:12 PM लेबल: बकलमखुद
पुलिस और ग्राहक !!!
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब गुनै अपावन।।
कह गिरधर कविराय,सुनो हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय,सहस नर गाहक गुन के।।
महाकवि गिरधर की इस कुंडली में गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि सबको गुण प्यारे हैं, अवगुण नहीं। इसमें जो गाहक शब्द आया है वह निराला है। गाहक यानी ग्राहक। इस ग्राहक की महिमा सचमुच निराली है । कहीं यह खरीदार के अर्थ में आता है तो कहीं यह पारखी और क़द्रदां के अर्थ में। मगर भाव एक ही है और वह है पाने का , ले जाने का, पकड़ने का, ग्रहण करने का ।
ग्राहक बना है संस्कृत के ग्रहः शब्द से जिसके मूल में है ग्रह् धातु जिसमें पकड़ना, थामना, लपकना, प्राप्त करना आदि भाव समाए हैं। इसीलिए ग्राहक शब्द का अर्थ हुआ पाने वाला, लेने वाला, खरीदार आदि। इससे ही बना है हिन्दी का ग्राहकी या गाहकी जैसा शब्द जिसमें दुकानदारी, बिक्री जैसी बातें भी आ जाती है। दिलचस्प बात ये कि पकड़ने आदि जैसे अर्थों में संस्कृत के ग्राहक का मतलब पुलिस अधिकारी भी होता है क्योंकि वह भी तो अपराधी को धर दबोचता है। ये अलग बात है कि आज के दौर में भी यह अर्थ सही बैठ रहा है । पुलिस थाने खरीदे बेचे जाते हैं। पुलिस वाले कभी बेचते हैं तो कभी खुद बिकते हैं।
इन हालात में गांधीजी का सत्याग्रह शब्द हमेशा याद आता है। सत्याग्रह शब्द गांधी जी ने चलाया था जिसका अर्थ था अन्याय के प्रतिकार के लिए विरोधी को कष्ट पहुंचाए बिना स्वयं कष्ट उठाकर न्यायमार्ग पर चल कर विजय हासिल करना। यह बना है सत्य+आग्रह से अर्थात् न्याय के लिए सत्य और अहिंसा पर टिके रहना। गांधीजी ने इस शब्द का सबसे पहले प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में गोरों के खिलाफ अपने संघर्ष के लिए किया था।
आग्रह शब्द का आमतौर पर हिन्दी में इस्तेमाल अनुरोध , जोर देना , हठ आदि के अर्थ मे होता है। आग्रह की अधिकता ही ज़िद कहलाती है। साफ है कि आग्रह में एक किस्म का दबाव या बल तो काम कर रहा है। यह बना है संस्कृत के आग्रहः से जिसका मतलब है संकल्प , ग्रहण करना, अथवा पकड़ना आदि। आग्रहः यानी आ+ग्रह् । संस्कृत धातु ग्रह् से बने हैं ये सभी शब्द। गौरतलब है कि इन तमाम अर्थों के लिए मूलतः वेदों की भाषा अर्थात वैदिकी या छांदस् (संस्कृत नहीं) में ग्रह् नहीं बल्कि ग्रभ् शब्द है (देखें आप्टे कोश)।
भाषाविज्ञानियों ने अंग्रेजी के ग्रास्प (grasp) या ग्रैब (grab) जैसे शब्दों के लिए इसी ग्रभ् को आधार माना है। बस, उन्होंने किया यह कि प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से एक काल्पनिक धातु ghrebh खोज निकाली है जो इसी ग्रभ् पर आधारित है और जिसमें पकड़ना, छीनना , झपटना, लपकना आदि भाव छुपे हैं।
ग्रह् से ही ग्रहण यानी स्वीकार करना जैसा शब्द भी बना है। अंतरिक्ष के पिंडों के लिए ग्रह शब्द भी के मूल में भी यही है। आग्रह स्वीकार हो जाए तो उसे अनुग्रह कहा जाता है। इकट्ठा करना, नियंत्रित करना, संकलन करना अथवा जोड़ना या कोश बनाने को संग्रहण कहते हैं। इससे ही संग्रह बना है। जब पेट में मरोड़ उठे और पेचिश लगे तो उसे ग्रहणि या संग्रहणि कहते हैं।
[कुछ अन्य संदर्भ अगली कड़ी में ]
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Wednesday, May 28, 2008
मुर्गी , कुतिया और हीरोइनें [बकलमखुद-44]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और चवालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
हम दो, हमारे दो...
हमारे परिवार में हम दो हमारे दो ही है .बडा बेटा रवि तेरह साल और छोटा ॠषभ आठ साल. बडा गंभीर,छोटा मस्त ,शरारती. बडा हमेशा कोई भी काम हमसे पूछ कर करता है . छोटा कभी कभार उचित समझता है तो बता देता है. वो अपने निर्णय अभी से स्वंय लेने मे यकीन रखता है .अक्सर बड़े को भी समझाते देखा गया है कि बार-बार मां बाप की राय लेना अच्छी बात नही है उससे मां बाप बिगड जाते है. कभी कभी तो हमे ये लगता है की बड़ा छॊटे की संगत मे बिगड़ ना जाये :) अपने रख रखाव के बारे मे इतना ध्यान रखने वाला की अक्सर रात को सोते सोते उठकर शीशे के सामने जाकर बाल और कपडे ठीक करेगा तब वापस सोने जायेगा.
तोता-तोती की आशिकी...
पशुओ से लगाव हमे हमेशा रहा है.बचपन मे बहुत से पशु पाले हैं. सबसे पहले तोता पाला.हमारे घर के अंदर आगंन मे एक पेड़ था. तोता वही लटका रहता. पढना तो उसने क्या था,हमारे पिताजी का भी यही कहना था . ये भी बच्चो के पूरे प्रभाव मे है. ना ये पढना चाहते ना वो. लेकिन साहब हमारे तोते ने पेड़ पर उड़ कर आई एक तोतन को इतना पटा लिया की जब हमने उसके पिंजरे का दरवाजा खोला तो वो भी अंदर आ गई. दोनो का प्रेम देखकर पिताजी ने पिजरे का दरवाजा ही खुला रख दिया. करीब महीने भर तक जोडा वहीं रहा फ़िर उड़ गया. लेकिन वो हर दो चार हफ़्ते बाद आ जाते दो चार दिन रुकते और उड़ जाते. आज पता नही कहा होगे पर शायद आज भी उस मकान मे आते जरूर होगें.एक दिन नवाबगंज उन्नाव मे पिताजी किसी ग्रामीण से मजाक मे कह आये कि तुम्हारा काम हो जायेगा तो मुर्गा खिलाओगे ? (जबकि वो पूर्ण शाकाहारी थे) बस अगला तो मुर्गा ही छोड़ गया हमारे घर. पिताजी बाहर गये थे . तो बडॆ प्यार से स्वीकार लिया हमने. घर के पीछे वाले बरामदे मे एक टोकरी मे उसे पाल लिया. माताजी से छुपा कर ..अब हमारा मुर्गा रोज अडोस पडोस की मुर्गियो के साथ टहलता(पास मे कुछ मुस्लिम परिवार रहते थे). और उनके मुर्गे के साथ लड़ता . एक दिन जब शिकायत ज्यादा हो गई तो हमने (भाइ बहनो ने ) आपस मे चंदा कर दो मुर्गिया खरीद ली. इस तरह लगभग चार महीने (जब तक हमारी माताजी को पता चलता), हमने मुर्गियां भी पाली. बाद मे हमारॆ यहा सफ़ाई करने आने वाली को दे दी गई . आखिर माताजी को इस मलेच्छ वाले काम के बारे मे बताया भी उसी ने था.
पंगेबाज कुतिया के बीवी से पंगे
कुछ दिन हमने के गाय भी पाली,हिरन भी पाला और कुत्ते तो साहब बहुत पाले देशी से विदेशी तक. लेकिन इनमे सबसे ज्यादा प्यारी थी सेवी. उसका नाम ही सेवी इसी लिये था कि अगली सेव खाकर ही जिंदा रहती थी.पूर्ण शाकाहारी थी . अंडा भी कभी उसने नही छूआ . खीरा ,ककड़ी हरी सब्जियां उसका भॊजन था. कभी कभार ब्रेड और दूध भी खा लेती थी.पर फ़लो की शौकीन इतनी की आम के मौसम मे तो उसने कई बार भूख हड़ताल भी रखी. मजाल है कोई उसके खाने के बरतन को छू ले. मेरा छॊटा भाई जब वह हड़ताल पर होती थी,हमेशा उसकी कटोरी मे पडे खाने को सेवी को दिखाकर बस इतना कहता " चलो मै खा लेता हूं"....और सेवी दौड़ कर आती उसके उसपर भौंकती सारा खाना खा जाती. मेरी तभी तभी शादी हुई थी. श्रीमतीजी अगर मेरे से बात करती तो सबसे ज्यादा तकलीफ़ उसे ही होती थी. कभी कभी मेरी वे जब मेरे पास जरा सट कर बैठती तो सेवी का गुस्सा देखने लायक होता. जब तक वो हट नही जाती सेवी उस पर भौंकती रहती.सुबह अखबार लेकर आना. पत्नी को धमका कर चाय बनवाकर लाना (मेरी "एक कप चाय पिलादो" आवाज सुनते ही वो दौड़ कर रसोई मे जाती और जब तक पत्नी चाय लेकर नही आती वो उस पर भौंकती रहती). उसका प्रिय काम था घर मे कोई आये और बैठक मे बैठने के बाद अगर हम मे से कोई नही है, तो मजाल है अगला पहलू भी बदल ले . ठीक सामने सोफ़े पर बैठी सेवी पूरी जिम्मेदारी निभाती थी. (मेरे घर मे ना होने पर मेरी पत्नी के साथ हर समय चिपके रहना भी,मेरे हिसाब से वो सुरक्षा के लिये रहती थी और पत्नी के हिसाब से नजर रखने के लिये) ) स्पीड्स नस्ल की ये कुतिया मेरे बेटे रवि (1995 मे) के होने के बाद डाक्टर की सलाह पर मेरे गांव भेज दी गई. पूरे घर मे उसके छोटे छोटे बाल उड़ते थे ना. लेकिन जब मेरे साथ दुर्घटना घटी . उस दिन से सेवी ने जब तक उसे हस्पताल लाकर मुझे नही दिखाया गया कई दिन तक कुछ नही खाया. कैरेक्टर की इतनी पक्की थी,कि डाक्टर ढोर (जानवरो के चिकित्सक का मेरे गाव मे प्रचलित नाम)की तमाम मेहनतों के बाद भी उसने परिवार बढाने मे कोई दिलचस्पी नही दिखाई.भगवान उसकी आत्मा को शांति दे
वहीदा,सिम्मी,हेमा, डिम्पल....
मै राजकपूर की फ़िल्मो और उन की हिरोईनो का इतना दीवाना हूं जितना शायद राजकपूर भी खुद ना होंगे. कईयो से मेरे चक्कर चले लेकिन किसी परिणति पर नही पहुंचे. कारण उन्हे अनुभवी बंदा चाहिये था और हम यहा मार खा गये. वैजयंती माला,पद्मिनी, हेमामालिनी, डिम्पल कपाडिया,सिम्मी ग्रेवाल,साधना, नर्गिस अब किस किस का नाम ले जी सभी हमे चाहती थीं और हम उन्हे. दोनो ही इतने समर्पित प्रेमी कि आज तक ना उन्होने कभी ये प्यार सार्वजनिक किया ना ही हम करने वाले है. ( हम उन घटिया लेखको मे नही है जी जो अपनी किताब को बेस्ट सेलर बनाने के चक्कर मे अपना बीता कल उधेड देते है ,और उनके कारण कईयो की जिंदगी मे भूचाल आ जाता है) आज कल की हीरोईनो से भी हमे दिली लगाव है,पर अब हम जाहिर नही करते. जानते है कि अब इस मार्केट मे हमारी (अब तक अर्जित अनुभवो के कारण) काफ़ी डिमांड हो सकती थी पर अब फ़िल्मी तारिकाओ का टेस्ट बदल गया है. वो ज्यादा से ज्यादा दो चार महीने मे बंदे से बोर होकर बंदा बदल लेती है. इसी लिये हमने ऐशवर्या,विपाशा,माधुरी,रानी. करीना के हमारे काफ़ी चक्कर काटने के बावजूद हमने उन्हे लिफ़्ट नही दी, चवन्नी छाप वालों ने हमारा बडा भारी इंटर्व्यू भी लिया था इस बाबत लेकिन फ़िर बालीवुड इतने बडे स्कैंडल से कही जमीन पर ना आ गिरे नही छापा. इसीलिये हम भी आपको वो किस्से यहां बिलकुन नही बतायेगे.आखिर हमने सिर्फ़ सत्य बताने की कसम खाई है ना :)
हम भी थे रंगी मिजाज,
गिला इतना सा रह गया
जिससे भी नजरे मिली,
उसने भैया कह दिया
जारी
[ अगली कड़ी में पंगेबाज की जिंदगी का ड्रामा ]
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 25 कमेंट्स पर 2:28 AM लेबल: बकलमखुद
और यह मसि कागद !
डॉ चंद्रकुमार जैन ब्लागजगत में मई 2007 से आए हैं । मूलतः कवि हैं और कविताओं पर ही एक ब्लाग बनाया है। डॉक्टसाब की कविताएं बड़ी सहजता और सरलता से जीवन को सभी आयामों मे देखती हैं और जो हासिल होता है वह है एक निर्लिप्त, गहन मगर संतोषी आशावाद । डॉक्टसाब की यही खूबी नहीं है, एक और खूबी है उनकी टिप्पणियां जो कविता की ही भांति हम सब लिखने वालों में आशा का संचार करती हैं। ऐसी टिप्पणियां ब्लागजगत में विरल हैं। चंद्रकुमारजी ने हाल ही में एक और ब्लाग बनाया है मसि कागद । इस स्थान पर हमें हिन्दी रचनाकारों के सुभाषित, जीवन-दर्शन को जानने का मौका सुलभ कराने के लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। अभी यह ब्लाग किसी एग्रीगेटर पर नहीं है मगर जल्दी ही आ जाएगा। इस बीच आप सब एक बार यहां का चक्कर ज़रूर लगाएं। यहां पेश है वह भूमिका जो डॉक्टसाब ने अपने ब्लाग पर लिखी है।
और यह मसि कागद !
न मसि न कागद,फिर भी मसि कागद !
तो ये है मेरी एक नई कोशिश......!!
मसि-कागद वाले लिख-लिख कर थक गए पर
निर्गुनिया बाबा कबीर की
साखी की सीख का बयान पूरा न कर सके.
फिर भी........ हर कोशिश .........हर पहल का
अपना महत्त्व है.
इस चिट्ठे के ज़रिए कुछ अपने और
ज्यादा उन कलमकारों के सुभाषित
और मर्मस्पर्शी विचार आप सब से
साझा करना चाहता हूँ जिनके लिए मसि कागद
वास्तव में सृजन और जीवन का पर्याय बन गया.
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बहरहाल इतना ही। बात स्वयं बोलेगी !
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 10 कमेंट्स पर 1:47 AM
Tuesday, May 27, 2008
पंगेबाज का कार-नामा [बकलमखुद-43]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और तिरतालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
हर मर्ज़ की दवा थे अपन...
रवि जब भी कोई पत्रिका देखता हमेशा हमे सफ़ेद मारुति 800 की फ़ोटो अवश्य दिखाता और शायद उसी का मारुति के प्रति लगाव था,कि अचानक हमारी पहली कार बिना सूचना के बिना पैसे के आकर खडी हो गई
नांगिया जी वैसे तो प्रबंधक थे मानव संसाधन मे. लेकिन अपन को भी उन दिनो हर मर्ज की दवा माना जाता था.चारसौ मीटर उंची चिमनी पर काम करना हो या फ़िर रातो रात फ़ैक्टरी के अंदर सड़क बनवानी हो,मेरे से सस्ता सुंदर जुगाडू आस पास नही मिलता था.फ़िर किसी भी समस्या का समाधान मेरे नाम को बताकर कर दिया जाता था,( अरोड़ा को पकड़ो वो कर देगा ये काम)और उनकी एक समस्या मे मैने उनका साथ दिया था. फ़ैक्टरी मे विजिट थी उनको हफ़्ते भर के लिये 100 से ज्यादा सफ़ाई कर्मचारी चाहिये थे,फ़सल कट रही थी,और ठेकेदार काम छोड़ कर भाग गया था, मैने उन्हे 100 के बजाय 140सफ़ाई कर्मचारी रातो रात लाकर दिये थे :)
चार पैग में गाड़ी हाजिर...
उस दिन शाम को मुझे गुड़गांव आना था, मैने उनसे लिफ़्ट मांगी और मै उनके साथ उनके निवास तक पहुच गया.वहां उन्होने मुझे जाने से पहले खाना खाने का आदेश थमा दिया . चार पैग चढ़ाने के बाद नागिंया जी को सूझी की मेरे पास गाड़ी होनी चाहिये. कुछ दिन पहले उनके किसी दोस्त ने गाडी बेचने की बात की थी. बस उसे फ़ोन किया, अगले दस मिनिट मे एक सफ़ेद रंग की मारूती 800 हाजिर हो गई.अब मुझे जबरदस्ती गाडी मे बैठाया गया और दो चक्कर लगवा कर गाडी का इंजन से लेकर डिक्की तक मुझे दिखा दी गई . जबकी मैने जिंदगी मे कभी कोई गाडी ना चलाई थी , न ही उसके इंजन डिक्की से कोई वास्ता रखा था.
और हम हो गए कारदार !!!
मै कहता रहा साहब ना पैसे हैं, न ही मै चलाना जानता हूं. लेकिन मेरी नही सुनी गई. वे अट्ठावन हजार मांग रहे थे और साहब उन्हे पचास हजार पर राजी करने मे लगे थे.मै खुश था कि मामला नही पटेगा. नांगिया जी मेरी सुन कर राजी नही थे. आखिर नांगिया जी ने भाभी जी से पच्चीस हजार मंगवाये और मुझसे बोले- जरा अपने पर्स से चेक निकाल कर दे. (उन्हे पता था कि मै अपने पर्स मे हमेशा एक चैक रखता हूं) मैने कहा, जी बैंक मे पैसे नही है.उनका जवाब था ,तुमने जो मेरे लिये काम किया था समझो उसमे पच्चीस हजार कट गये. साठ हजार का बिल था मै कल ही पास कर देता हूं. बचे पच्चीस हजार ,वो तुम मुझे दो चार महीने बाद जब मर्जी दे देना. अब तुमने गाड़ी खरीद ली है..बात खत्म. और उसके बाद उन्होने तीन पैग बनाये जो मेरी गाडी के नाम पिये गये. अब बारी उनके दोस्त की थी. बोले, देख तूने इसकी गाडी के नाम का जाम पिया है, अब बात खत्म कर पच्चीस ये ले, पच्चीस का चेक ले परसो डाल देना चाबी इधर दे मैं तुझे घर छोड़ कर आता हूं ये सन् सत्तानवे की गर्मियां थीं.
बीवी की लताड़-गाड़ी से पंगा नई...
और जी , साहब ने सुबह ड्राईवर बुलाकर गाडी मेरे घर खडी करा दी. आप यकीन मानिये मेरे घर मे शाम तक कोई मानने को तैयार नही था कि ये हमारी गाडी है,हा बेटा जरूर खुश था, कि किसी की भी सही आज आई तो.ड्राईवर के जाते ही मैने गाडी को स्टार्ट करके आगे करनी की कोशिश की और वोह गली के किनारे बनी एक फ़ुट गहरी नाली मे चली गई, मै फ़िर घर मे अंदर चला गया. बीबी से डाट खाने " चलानी आती नही और तुम दूसरे की गाडी से क्यो पंगा ले रहे हो ? बडी खुंदक आ रही थी ,इधर बीबी मानने को राजी नही,उधर गाडी .थो्डी देर बाद फ़िर निकला ,जैक लगाया पहिये के नीचे ईट लगाई. मै बार बार कार के अंदर जाता बाहर आता, और आगे पीछे घूम कर हिसाब लगाता कि कब क्लच छॊडना है, कैसे बैंक गियर लगाना है,और कितना स्टेयरिंग घुमाना है ताकी गाडी नाली से बाहर आ जाये.आखिर पहले स्टार्ट करते ही गाडी नाली मे जो जा पहुची थी, मेरा घर गली मे सबसे आखिर मे था और लोग अपने काम पर, तो किसी रायचंद के ना होने का पूरा फ़ायदा मै भी तुरंत उठा लेना चाहता था.
चौड़े हो गए जब गाडी बैक हो गई...
न्यूट्रल गियर मे राम का नाम लेकर स्विच लगाया (पहली बार गाडी फर्स्ट गियर मे ही स्टार्ट कर डाली थी ना.) फ़िर धीरे से जीवन मे पहली बार बैक गियर लगाया (साईकल और स्कूटर मे बैक गेयर नही होता ना).अब हमे भी पता चल गया था की कौन सा गियर कहा है,बहुत संभल कर धीरे धीरे क्लच छोडा ,रेस दी और स्टियरिंग घुमा दिया. हो गया जी हो गया ,गाडी नाली के बाहर थी,लगा की हमने तो ओलिंपिक की फ़र्राटा रेस जीत ली है. हम इतने खुश तो बाप बनने पर भी नही हुये थे यकीन करे बहुत हिम्मत की अपने को रोकने मे ,वरना दिल तो यूरेका-यूरेका कहते हुये सड़को पर भागने का हो रहा था.
फ़िर जाकर धीरे से घर मे बैठ गये, पर मन नही लगा . दिल ने कहा जरा सा गाड़ी को गली मे आगे पीछे एक बार फ़िर करके देखते है, दुबारा वही हिसाब किताब लगाया गया और फ़िर से गाड़ी स्टार्ट करके अपनी एल टाईप गली मे बैक की और फ़िर से उसे उसकी पहले वाली जगह पहुंचा दिया. दुबारा अंदर पहुचे चौड़े होकर बीबी को बताया देखा बिना ठोके वापिस ले आया.
तीन घंटे में साठ किलोमीटर !!!
फ़िर थोडी देर बाद जनून सवार हुआ कि मोहल्ले के बाहर वाले रास्ते से गाड़ी को चक्कर कटवा कर लाते है. और ये काम भी हमने कर दिखाया अब तक तीन बज चुके थे. गाड़ी अपनी जगह वापस खडी थी. अब जाकर बीबी को भी यकीन आने लगा था, उसने उलाहना दिया जब गाड़ी लाये हो तो कम से कम मंदिर मे पूजा तो करवाओ. हमे खुद गाड़ी चलाने की हुड़क मची हुई थी. हमने तुरंत कहा ,चलो और तब पहली बार हम सपरिवार गाड़ी मे सवार हुय़े, बिना किसी परेशानी के हम मंदिर पहुचे और बीबी ने ये मानने से इंकार कर दिया की हम जीवन मे पहली बार इसे जोत रहे है. मंदिर से आते आते तय पाया गया कि चलो गुड़गांव चलते है (जहा हमारे एक चाचा रहते थे) और साहब हम निकल लिये. ये अलग बात है कि हमने साठ किलोमीटर की दूरी नेशनल हाईवे (दिल्ली जयपुर) पर लगभग तीन घंटे मे पूरी की.
जारी
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 20 कमेंट्स पर 12:52 AM लेबल: बकलमखुद
Monday, May 26, 2008
कालीघोड़ी और प्रिया का पंगा [बकलमखुद -42]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और बयालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
पहली नौकरी के पंगे...
नौकरी पहली नौकरी लगी भिवाडी,अलवर मे,यहां हमने स्कूल से भी ज्यादा मस्ती ली. काम भी करते थे जी, लेकिन हमारे टीम लीडर अग्रवाल जी जयपुर कालेज मे पढाना छोडकर आये थे,और उनका काम कराने का अंदाज ही निराला था. हम ये मानने लगे थे कि ये अगर किसी को दिन भर धूप मे भी खडा करे तो वो बंदा वहां भी इंज्वाय ही करेगा.
इतनी मस्त तबियत के आदमी बस पूछिये मत, एक दिन रात को दो बजे मेरी क्लास ले ली.
-अरोरा कितनी गलत बात है तुम फ़ैक्टरी मे सिगरेट पीते हो.
-सर लिकिन मैने तो बाहर जाकर पी थी
बहुत गलत बात है चलो सिगरेट की डिब्बी निकल कर मेर पास जमा करो,
मैने कहा-
-सर डिब्बी नही है
-अच्छा कल से जेब मे रखा करो, चलो मेरे साथ अभी जुगाड़ करता हूं.
प्रोडक्शन हाल की एंट्री पर एक कैजुअल टकरा गया
-रामदीन तुम अन्दर बीडी का बंडल लेकर जा रहा है, जमा करो, पता नही बीडी अंदर ले जाना मना है.
अग्रवाल जी की आवाज सुनते ही गरीब ने बीडी का बंडल सरेंडर किया, और चला गया. दोनो ने वहीं बैठ कर बीडी लगाली
कुछ दिन बाद फ़िर वही हालत हुई. साहब ने फ़िर कहा- चल अरोडा रामदीन को बुला.
रामदीन आया, साहब ने फ़िर साह्ब ने बीडी का बंडल पूछा.
रामदीन बोला - साहब हम तो उसी दिन छोड दिये थे.
दिल में उतरने वाले रामपुरी...
खैर जीवन मे मस्तिया तो चलती ही रही है, अगली नौकरी दिल्ली और फ़िर आखिरी रामपुर
मे चक्कू छुरी का मार्केट देखते हुये समाप्त हो गई. सच तो ये है कि पिताजी के साथ हर साल जगह बदलते बदलते हमने तय कर लिया था कि भले हॊ गोलगप्पे का ठेला लगाये पर अपना काम जरूर करेगे नौकरी नही करेगे। इसी चक्कर मे बिजली बोर्ड का इंटर्व्यू नही देने गये . इसी कारण इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर तकनीकी सहायक की नौकरी नही की। दूरदर्शन पर कैमरामैनी नही करने पहुचे कि कही पक्की नौकरी लग गई तो कौन छोडने देगा. हमे तो अपना काम करना है.
हुजूर अब हमारी आदते इतनी बिगड चुकी है कि ना अब हमे कोई नौकरी देने को राजी है,ना हम किसी की जी हजूरी करने को, लिहाजा आज की तारीख मे हम रोज कमाते है रोज खाते है. हर सुबह आठ बजे अपना फ़ावडा,बेलचा लेकर अपने कार्य स्थल पर पहुच जाते है ,और हर रात दस बजे अपने घर.मगर वो हाल आगे कहेंगे।.
तो बात रामपुर की हो रही थी सुंदर शहर ,और शहर वाले भी बहुत सुंदर दिल के. दुनिया मे भले ही रामपुरी चाकू मशहूर हो,पर रामपुर के लोग दिल मे उतर जाते है. यहा छह साल रहा इन छह सालो मे लगा मेरा घर यही है.इतना प्यार की समेटा ना जाये. जौली टी वी रामपुर मे मै एक ट्रेनी की तरह लगा था और जब छॊडी तब मै प्रबंधकों की गिनती मे आ चुका था. मालिको से प्यार मिला घर के बडे की तरह. जब मै वहां काम करता था तो दूसरो की तरह मै भी उन्हे कभी कभी गालियो से नवाजा करता था. दिन मे हम १२ से १६ घंटे काम करते थे ,लेकिन मै आज सोचता हूं ,आज मै जो कुछ हूं उन्ही की वजह से हूं. उन्होने काम करने की इतनी आदत डाल दी है कि मै छुट्टी वाले दिन भी घर मे नही रुक सकता.
रिश्ते की बात...
वैसे एक बार बात उठी थी कि मेरा रिश्ता हमेशा के लिये रामपुर से कायम हो पाता,एक रिश्ता आया था मेरे दोस्त के मार्फ़त.लडकी बहुत सुंदर थी ,हमने हां भी की और उन्हे अपने घर का पता भी दिया . लेकिन लड़की जल्दी मे थी और लड़की वाले मेरे घर जाने मे लेट हो गये . लिहाजा लडकी अपने ट्यूशन टीचर के साथ भाग गई. बाद मे फ़िर एक रिश्ता और आया आगरा से .लेकिन हमे लगा कि हमारी कंडीशन इतनी खराब नही है कि हमे लगातार आगरा जाने की जरूरत पडे. लेकिन किस्मत को क्या करे अगला रिश्ता आया शाहदरा से .घर वालो ने कहा ,इस से बडा पागलपन कुछ नही हो सकता कि हम पागलखाने वाले शहर मे शादी ना करे लिहाजा बात तय हो गई और हमे अपने होने वाले साले से बातों बातों मे पता चला की लडकी गाजियाबाद के एम एम एच कालेज से इतिहास मे एम ए कर रही है. हम जा पहुंचे . क्लास मे बेतहाशा शोर मचा हुआ था कुछ लडकिया डेस्क का तबला बजा कर गाने गा रही थी. क्लास मे जो लडकी सबसे ज्यादा जोर से तबला बजा रही थी , उसी से हमारी शादी हुई और हाथ वही है बस डेस्क की जगह इस बंदे का सिर है ,तबला बजे जा रहा है धन धना,धन धन.
मोटर साइकल पर अदाकारी
नई नई नौकरी लगी थी ,पहले कुछ दिनो तो हम अपनी साईकिल से जो हमे दसवी मे फ़ेल ना होने के फ़ल स्वरूप इनाम मे मिली थी से जाते रहे. फ़िर एक सज्जन अपनी राजदूत मोटर साईकल बेच रहे थे ,और ये हमे तभी से पसंद थी,जब से हमने पिक्चर मे काली घोडी द्वार खडी गाना सुना था. हमने कुछ पिताजी से सहायता ली और मोटर साईकल खरीद ली. उन दिनो हमे चमडे की नुकीली एडी वाले जूते पहनने का शौक था ,और हम एक हाथ मे सिगरेट और एक हाथ से गाडी चलाते हुये पूरे अमिताभ स्टाईल मे ( रोते हुये आते है सब वाले)चलाते थे. और जब चाहते पैर के उपर मोटर साईकल घुमाकर वापस मोड लेते.
मोटरसाईकल आने के तीसरे ही दिन मैने अपनी मस्ती मे मस्त होकर एक हाथ मे सिगरेट और दूसरे हाथ से भीड भरे रास्ते मे काफ़ी तेजी से मोटरसाईकल चलाते हुये, वो भी दाये बाये गोल गोल घुमाकर अपने प्रबंध निदेशक की गाडी को ओवरटेक कर बैठा. मै पहुंचा ही था की अगले कुछ मिनटॊ के अंदर प्रबंध निदेशक महोदय भी कारपोरेट आफ़िस मे होने के बजाय वही हाजिर थे . उन्होने मुझे बुलाया मोटरसाईकल लेने की बधाई दी. और मुझसे चाबी मांग ली कि वो देखना चाहते है कैसी चलती है. मै अपने काम मे लग गया. शाम को जाने के समय मैने गार्ड से मोटरसाईकल की चाबी मांगी तो पता चला वो तो साहब के साथ ही ड्राईवर मोटरसाईकल लेकर चला गया था. मुझे बड़ा गुस्सा आया और मै तुरंत कारपोरेट आफ़िस एक सहयोगी के साथ पहुचा .पता चला मोटरसाईकल साहब ने अपने घर भिजवा दी थी, और उन्होने मुझे सडक पर सिगरेट के साथ जिग जैग चलते हुये देख लिया है.
मै चुपचाप रिक्शा पकड घर पहुचा,और अगले दो दिन जब तक बुलावा नही आया .साहब के सामने पडने से बचता रहा.
आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाती,बुलावा आ गया . प्रबंध निदेशक के साथ तकनीकी निदेशक( उनके छोटे भाई) भी बैठे थे.मुझे कहा गया कि आप सिगरेट और वो भी गाडी चलते हुये बहुत स्टाईल से पीते है, और हम सब यहां इसी लिये इकट्ठा हुये है की आपकी इस स्टाईल को एक बार आपके पूज्य पिताजी को दिखा दिया जाये फ़िर आपको बम्बई भिजवा दिया जायेगा , ताकि आप पूरी तरह से फ़िल्मों मे काम कर सके. वहा बात कर ली गई है,ताकी मेरा हुनर यहा रामपुर मे बर्बाद होने से बचाया जा सके.मेरी हालत काटो तो खून नही जैसी थी.हमने तुरंत माफ़ी मांगी और दुबारा ऐसा ना करने का वचन दिया, लेकिन उन्होने तो ना पिघलने का फ़ैसला कर रखा था. तकनीकी निदेशक ने बडे भाई को समझाने की कोशिश की ,लेकिन उन्होने फ़ैसला सुना दिया या तो पिताजी आयेगे ,या मोटरसाईकल जायेगी .
और हम हर हाल मे पिताजी को बुलाने के अलावा हर फ़ैसले पर राजी (मरता क्या ना करता जी) तय पाया गया कि मोटरसाईकल बिक जायेगी और मुझे रिक्शा से ही आना जाना होगा.लेकिन तकनीकी निदेशक ने कहा की इसे प्रिया स्कूटर दिलवा देते है और मेरी गारंटी ली और अगर मै आगे से ऐसा करता पाया जाऊगा तो स्कूटर जप्ती के साथ पिताजी को भी बुलवा लिया जायेगा, कंपनी ने मुझे बिना ब्याज का लोन दिया ,और उस जमाने मे जबकी प्रिया पर ब्लैक चल रहा था, तकनीकी निदेशक ने मुझे अपने दोस्त की एजेंसी से बिना ब्लैक के दूसरे ही दिन दिल्ली नंबर स्कूटर दिलवा दिया. (दिल्ली नंबर की तब बडी वकत थी जी ) जारी
आपकी चिट्ठियां
सफर में अरुण अरोरा की अनकही की पिछली दो कड़ियों अरुण फूसगढ़ी की कहानी और पंगेबाज ने सिला पेटीकोट पर सर्वश्री समीरलाल, मैथिली, संजय , सिरिल, दिनेशराय द्विवेदी, अनूप शुक्ल, विजय गौर, यूनुस, घोस्टबस्टर, उन्मुक्त, हर्षवर्धन , बोधिसत्व, शिवकुमार मिश्र, काकेश, राजेश रोशन, बेजी, प्रशांत प्रियदर्शी, संजीत त्रिपाठी, अनिताकुमार ,ज्ञानदत्त पांडेय, अरूण, अफ़लातून, प्रमोदसिंह , डा चंद्रकुमार जैन, अनुराग आर्य , प्रमेंद्र प्रताप सिहं, महाशक्ति, हरिमोहनसिंह, सुरेश चिपलूणकर, संजय बैंगाणी , अरविंद मिश्र, अजित वडनेरकर, घुघूति बासूती और सागर नाहर की टिप्पणियां मिलीं। आपका आभार।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 21 कमेंट्स पर 1:50 AM लेबल: बकलमखुद
Sunday, May 25, 2008
चिंता चिता समाना....
कहावत है कि चिंता चिता समाना । जिस तरह से घुन अनाज को पोला कर देता है, दीमक वृक्ष को खोखला कर देती है उसी तरह चिन्ता शरीर को धीरे-धीरे क्षीण करती जाती है जिसकी चरम परिणति मृत्यु है अर्थात् चिन्ता का शीघ्र समाधान न मिले तो शरीर को चिता मिल सकती है। यहां सिर्फ चिंता और चिता का मेल सिर्फ कहावत के स्तर पर नहीं है बल्कि ये दोनों शब्द सचमुच संबंधी भी हैं।
चिता अर्थात दाह संस्कार के लिए चुनकर रखी रखी गई लकड़ियों का ढेर। चिता बना है चित शब्द से जिसका अर्थ है बीना हुआ, संग्रह किया हुआ, जमा किया हुआ, अंबार लगाया हुआ और जमाया हुआ आदि। इसी से बने हैं चुनना, चुनवाना जैसे शब्द । भवन निर्माण में ईंटों की चुनाई होती है । यह चुनाई भी इस चित से बना है। लोकतंत्र में राज्यव्यवस्था के लिए मत प्रणाली के जरिये जन प्रतिनिधि तय करने की प्रक्रिया को चुनाव कहते हैं। यह भी इसी मूल से निकला है। यही नहीं, फारसी का चुनिंदः शब्द जिसे चुनिंदा के रूप में हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है , इससे ही निकला है जिसका मतलब होता है चुना हुआ , छांटा हुआ । जमा करना , एकत्र करना जैसी क्रिया के लिए संचय , संचित जैसे शब्द भी इसी मूल से निकले हैं।
ये सब शब्द बने हैं संस्कृत की चि धातु से जिसमें ढेर लगाना, बीनना, जड़ना, ढकना, भरना, एकत्र करना , संग्रह करना जैसे अर्थ शामिल हैं। चित से ही बना है चित्यम् जिसका मतलब होता है दाह संस्कार करने का स्थान। गौर करें की बौद्ध और जैन देवालयों को चैत्य , चैत्यालय भी कहा जाता है। यह चैत्य भी इससे ही बना है। बौद्ध महास्थविरों के अवशेष इन चैत्यों में रखे जाने की परंपरा रही है। बाद में इन्हीं के इर्द-गिर्द विहार भी बनते चले गए । चैत्य मूल रूप से समाधि या स्मारक ही रहे हैं मगर बाद में देवालय के अर्थ में पहचाने जाने लगे।
चि में निहित चुनने की क्रिया पर अगर गौर करें तो पाएंगे की चुनना, बीनना, संग्रह करना, जमाना आदि सभी क्रियाएं देखने से जुड़ी हुई हैं। बिना देखे-भाले किसी भी किस्म का चुनाव संभव नहीं । अर्थात चुनने से ही ज्ञानबोध होता है और बिना ज्ञानबोध के चुनाव असंभव है-दोनों में अंतर्संबंध गहरा है , सो चि से ही बना चित्त् जिसमें जानना, समझना, चौकस होना, ज्ञानबोध आदि अर्थ समाहित हैं। हिन्दी का चित्त भी यही सारे अर्थ प्रकट करता है जिसमें देखना, विचार करना , मनन करना भी शामिल है।
आमतौर पर चिन्ता का मतलब फिक्र, ध्यान, परवाह आदि माना जाता है। यह बना है चिन्त् से जिसके व्यापक अर्थ हैं और इसी परिवार का शब्द है जिसमें सोच-विचार, चिन्तन मनन आदि बातें शामिल है।
आपकी चिट्ठियां
शब्दों के सफर के पिछले तीन पड़ावों -दुश्मन अनाज का , निखट्टू , लानत है तुझ पर .. , और हैया रे हैया हैया हो.. पर सर्वश्री विजय शंकर चतुर्वेदी, डॉ प्रवीण चोपड़ा , काकेश , दिनेशराय द्विवेदी, समीरलाल, आशा जोगलेकर , घोस्ट बस्टर , संजात त्रिपाठी, डॉ चंद्रकुमार जैन,लावण्या शाह , अभिषेक ओझा, ज्ञानदत्त पांडेय , विजय गौर, अरुण आदित्य , अनुराग आर्य, अरुण, कुश और आलोक पुराणिक की टिप्पणियां मिलीं। आप सब साथियों का दिल से आभार ...। सफर की रौनक बनाए रखें...हम बेहतर पड़ाव लाते रहेंगे।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 13 कमेंट्स पर 1:39 AM
Saturday, May 24, 2008
पंगेबाज ने सिला पेटीकोट !!! [बकलमखुद-41]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और इकतालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
कभी स्याही तो कभी खड़िया...
इसी उत्तरप्रदेश मे उन्नाव ,लखनऊ कानपुर इटावा बिजनोर मेरठ सहारनपुर गाजियाबाद और ना जाने कहा कहा घूमते हुये बीते साल दर साल । यूं समझें कि बिस्तर कंधो पर ही होता . ना पिताजी को रिश्वत पचती ना लोगों को वो.
शुरुआत हुई तख्ती लेकर सरकारी स्कूल मे जाने से.लेकिन एक बात बहुत दुख देती थी,जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे पढते थे तो तख्ती पर मुलतानी मिट्टी लगाकर काली स्याही से लिखना पडता था. जब पिताजी पूरबी उत्तर प्रदेश मे पहुंच जाते ,हमारी तख्ती काली हो जाती,और हम खड़िया से लिखना शुरू कर देते. पेंसिल और पेन से तो मास्टर ऐसे भडकते थे जैसे सांड ने लाल कपडा देख लिया हो. मुझे याद है आठवीं मे स्कूल मे पिता जी का डॉट पेन ले गये थे और मास्टर जी मे पिताजी को स्कूल बुला लिया था. [माता-पिता और भाई-बहनों के साथ अरूणजी ]
लड़कियों के स्कूल में ज्ञान - दीक्षा...
पांचवी क्लास मे मुझे लड़कियो के स्कूल मे पढ़ना पड़ा. हम दो छात्र थे,एक मै और एक अजय.दिन भर क्लास इमली के पेड के नीचे लगती थी और हम भी दिन भर गुट्टे खेलना नमक लेकर हरी इमली उसकी पत्तिया और कैथा खाना सीख गये थे.(बडा स्वादिष्ट होता है बेल जैसा कैथा, हरा इतना खट्टा की पूछो नही, और पका हुआ अजीब सा तल्काहटपन लिये कुछ सूखापन महसूस कराता, लेकिन स्वाद मे अभी भी मूंह मे पानी आ रहा है जी). पास मे एक तालाब था जिससे अकसर हम सिंघाडो के मौसम मे सिंघाडे चुराकर खाते थे. इतने मीठे सिंघाडे अब नही आते.बस नही सीखे तो सिलाई,वो कमी मेरी बडी बहन ने पूरी की जब बोर्ड के इम्तिहान मे आई बहन जी ,मेरे द्वारा सिला गया पेटीकोट छोडने को तैयार नही हुई .तब मेरी बहन ने ही स्कूल जाकर उन्हे पेटीकोट सिल कर दिया,और हम पास हो गये .
[नन्हें पंगेबाज]
बारिशो और सर्दियो के दिनो हम स्कूल जरूर जाते थे, वर्ना घर मे पढना जो पड़ता, ठिठुरते हुये, स्कूल की टूटी कुर्सियो बैंचो को जलाकर हाथ सेकने का अपना ही मजा था जी. वैसे मेरे यार दोस्त मुझे बहुत डरपोक किस्म का इनसान मानते रहे है. इंटर मे मेरे कुछ खास दोस्त जिनमे एक पांडे जी थे, ने मेरा साहस बढाने के लिये बहुत यत्न किये ,जिनमे एक कार्य आधी छुट्टी के समय मुझे जबरदस्ती पकड कर कालेज के पीछे ले जा्ना और मेरे हाथ मे १२ बोर का कट्टा देकर पीपल के पेड़ पर निशाना लगाने की ट्रेनिंग शामिल थी.लेकिन मै शुक्रगुजार हूं पांडे जी का कि उनकी मेहनत सफ़ल नही हो पाई और मै आज भी डरपोक ही हूं,वरना आज मै उनके साथ राजनीति मे जरूर होता.
एक मुन्ना भाई के जिक्र के बिना बचपन की शरारतो का इतिहास अधूरा सा रह जायेगा, लेकिन उसे आप यहा देख ले-
"बचपन कभी नही जाता
बस रूप बदल लेता है
समाज बचपना ना बताये
इसलिये बस दिल मे
उछाले भर लेता है
मै आज भी जी लेता हू वो पल
जब मेरे बेटे दोहराते है
मेरा बीता कल "
औरत, मर्द और शादी का रिश्ता !
शिक्षा के नाम पर हमारे तमाम गुरुजनो ने अथक परिश्रम के बाद हमे जबरदस्ती इलेक्ट्रानिक्स मे डिप्लोमा दिला ही दिया,वरना हम तो इस मामले मे कबीर के भक्त बनना चाहते थे, अभी भी बनना तो बाबा ही चाहते है, पर शायद हमे ही हराम की कमाई-
मसि कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ
ना कबीर जी को लिखना पढना आता था,ना हम सीखना चाहते थे कलम से हमे सख्त चिढ़ है इसीलिये यहा भी हम अपने कूटू बोर्ड के जरिये ही आपसे मुखातिब है.
डिप्लोमा मे भी हम पूरे गांव के गंवार ही थे. हमारी क्लास मे बस एक ही लड़की थी.एक दिन मैथ्स की क्लास मे हम पीछे बैठे बतिया रहे थे कि उसने हमारी शिकायत कर दी-
" सर ये अरोडा पीछे बैठा बतिया रहा है,और ये इतना शोर मचाता है कि मुझे क्लास के बाद भी पढ़ने नही देता"
" देखो अगर तुमने दुबारा आवाज निकाली तो तुम्हारे सेशनल काट दूगा,समझे"
हमे तुरंत धमका दिया गया.जैसे ही क्लास खत्म हुई हम भी अध्यापक के पीछॆ भागे,और अपनी स्थिति साफ़ की. तुरंत अभयदान मिला, चिंता मत करो वो तो मैने उसकी बात रखने के लिये मैने वैसे ही कह दिया था,जाओ मस्त रहो..
हम भी जोश मे तुरंत वापस गये,और बोल दिया कि ये शिकायत क्यो की?
"देखो तुम एक बात समझ लो,मै यहां अकेली हूं फ़िर भी किसी आदमी से डरती नही हूं"
जैसे ही हमे यह जवाब मिला हमने भी प्रत्युत्तर दे दिया
"और तुम भी समझ लो "मै भी किसी औरत से नही डरता"
बात प्रिंसीपल तक पहुची हमे बुला लिया गया
लंच टाईम था सारे हेड वहा जमा थे, हम डरते डरते अंदर घुसे.
"क्या बात है कैसे तुम बदतमीजी से पेश आ रहे हो,मै तुम्हे रेस्टीकेट कर घर भेज दूंगा"
मधुकर जी ( इलेक्ट्रानिक्स के हेड) ने हमारे से सवाल कर दिया
-सर मैने तो किसी से कुछ नही कहा
-तुमने उस लडकी से औरत क्यूं कहा ?
-जी उसने मुझे आदमी कहा था
-तो तुम आदमी नही हो ?
सबके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई थी
-जी नही ,मै लडका हूं
-तो आदमी कब बनोगे ?
-जी शादी के बाद
-अच्छा तो तुमने उसको औरत क्यो कहा ?
-जी वो शादी शुदा है
-चलो बाहर जाओ और दुबारा शिकायत ना आये
प्रिंसीपल साहब अपनी हंसी रोक कर बोले.
और मेरे बाहर निकलते ही अंदर हंसी का तूफ़ान आ गया.
फौज में पंगा नहीं चलेगा !!!
हमने डिप्लोमा मे एनसीसी भी ले ली थी. ले क्या ली थी मजबूरी थी जी.
हमने कहा भी कि हम मेडीकली फ़िट नही है, तब हमे बताया गया कि अगर आप मेडिकली फ़िट नही है तो घर भेज दिये जायेगे. लिहाजा लेनी पडी, लेकिन अगले साल तक एनसीसी के इंस्ट्रक्टर की समझ मे आ गया,कि फ़ौज के मामले मे देश हमारे भरोसे ना रहे. जब हम उनके पास पहुचे तो उन्होने बता दिया कि आप शाम को आ जाय करो आपको बिना एनसीसी ज्वाईन करे ही, स्नेक्स मिल जाया करेगे.
"स्कूल के दिन
जीवन के सबसे
अच्छे पलछिन
ना आज की चिंता
ना कल तमन्ना
किसे था पता
कल बज उठेगी
वक्त की खडताल
ता धिन तिन्ना
ता धिन तिन्ना"
जारी
[अरुणजी ने वर्तनी के साथ भी खूब पंगे लिए हैं। भरसक कोशिश की है कि इतना ठीक कर दें कि भाषा के प्रति भावुक पाठक हमसे पंगा न ले सके। वैसे भी अरुण जी ने हमें हड़का रखा है कि एडिटर इतना भी नहीं करेगा तो और क्या करेगा ? कुछ नज़र आए तो ज़रूर बताएं, सुबह ठीक कर देंगे :)]
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 26 कमेंट्स पर 3:01 AM लेबल: बकलमखुद
Friday, May 23, 2008
अरुण फ़ूसगढ़ी की कहानी...[बकलमखुद-40]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और चालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।
हमें पता चला कि गुरूवार यानी 22 मई को उनका जन्मदिन भी था। उन्हें विलंबित बधाइयां।
घोषणा
आखिर कार हम भी फंस ही गये जी अजित जी के कहे मे। फंसते भी कैसे नही इन्होने गारंटी दी है कि हमारी भी जैविक दैहिक यात्रा की किताबे ठीक गांधी वांग्मय की तरह छपवा कर कम कम से कम १०० लोगो मे बांटेगे, आप तुरंत अपनी मुफ़्त प्रति के लिये तुरंत उन्हे घेरे, ना मिले तो तड़कती-भड़कती अजित जी की ऐसी तैसी करती दो चार पोस्ट तो ठेल ही दे। आखिर फ़्री मे मिलती रद्दी भी छोडी थोडे ही जाती है जी :-
" हम एतद द्वारा घोषित करते है ,यहा दी गई समस्त सामग्री हमारी समस्त जानकारी के अनुसार एक दम सत्य घटनाओ पर आधारित है " आप बेकार मे कोई भ्रम ना पाले, हमे इस लेखन द्वारा जिस जिस की ऐसी तैसी करनी है वोह हमारी नजर मे सत्य ही है। अगर किसी को कोई शक हो तो पंगा लेके देखे ?
(इस पर किसी भी शको शुबह करने वाले जान ले, हमने उनकी ऐसी तैसी करने वाली चार छै पोस्टे पहले ही लिख रखी है, बस नाम डाल कर पोस्ट करना शेष है)
मै एतद द्वारा घोषणा करता हूं कि अब तक प्राप्त समस्त जानकारियो के अनुसार मेरा नाम अरूण अरोरा पुत्र श्री सुरेन्द्र अरोरा पुत्र मास्टर ताराचंद अरोरा है और हमे ग्राम फ़ूसगढ पोस्ट कच्ची गढी,जिला मुज्जफ़रनगर ,उत्तर प्रदेश का निवासी होने का गौरव प्राप्त है, यू आप हमे अरूण फ़ूसगढी भी कह सकते है.
ऊपर से दूसरा नंबर...
माता पिता के बताये अनुसार मेरा जन्म रानी झासी असपताल मे जिला झांसी ,प्रदेश उत्तर प्रदेश (मुलायम जी के हिसाब से उत्तम प्रदेश,है या नही ये हमे पता नही) मे, साल हम बताना नही चाहते (बता दिया तो बाल काले करने का क्या फ़ायदा ,और असत्य हम से काहे बुलवाना चाहते हो भईये),मे हुआ था. उस समय हम दो हमारे चार का जमाना था जी. इसी नियम का पालन करते हुये पिताजी ने बच्चो की संख्या चार पर ही सीमित कर दी थी,आखिर सरकारी कर्मचारी जो थे.यानी हम दो भाई, दो बहन है ,मेरा नंबर उपर से दूसरा है.
बाबा हेडमास्टर थे,लोगो को पढ़ाने और छडी से पीटने के शौकीन, मे कभी कभी ये भी लगता है,उन्हे हमारे सर घुटाने का भी शौक था,गर्मियो मे ,जब तक वो रहे, हमारे सर पर बाल ना रहे.पिताजी को उनकी लापरवाही के गालिया मिलती,कभी कभी छडी से हाजिरी भी ले ही ली जाती,
वैसे गांव मे उन्हे गांव के बच्चो को जबरन अपनी पाठशाला मे ले जाकर पढाने ( वो सहारनपुर मे एक बोर्डिंग स्कूल मे हेडमास्टर थे)और उनके उन मा बाप, जो उनके इस कार्य मे बाधक थे को छड़ी से पीटने के लिये भी मशहूर थे. मैने खुद काफ़ी बड़े बड़े लोगो को उन्हे बीच सडक लेट कर पर दंडवत प्रणाम भी करते देखा है.
दादी ने हमे नही देखा, तो हम दादी का प्यार कहां से पाते, फ़ोटो तक नही देख पाये जी. हां बाबा,का साया जरूर दस साल तक सर पर रहा, उनकी फ़ोटॊ मै आपको जरूर दिखाना चाहूंगा.
गांव मे छूट्टियो मे जाते थे,जहा रहंट से लेकर क्रेशर तक इधर से उधर हमेशा खदेडे जाते रहे है. कभी खांड की बोरियो के अंदर छेद कर खांड खाते पकडे जाते,कभी राब के मटके मे से राब( खाने के बाद खिंडाने के आरोप मे), कभी शक्कर के उपर चलते हुये,कभी भैसे की सवारी करते ,कभी गन्ने की पिराई मशीन के आगे चुल्लू लगाकर रस पीते, या फ़िर पेड पर बैठ कर आमो को निपटाते,खुदा गवाह की हमारे गांव पहुचने के बाद अगर कलमी आम या शहतूत के पेड पर पत्तिया भी बचती हो. नहर के किनारे रेत मे दबे तरबूजो को नहर मे खडे होकर मुक्का मार कर खाने मे जो आनंद आता था.आज कहां मिल सकता है.
पंगेबाजी शुरू से ही
आम के मामले मे दिन भर पंगा होता ही रहता था,हम भुसे की कोठरी मे आम छिपा देते ताकी अगले दो चार दिन मे पक जाये,और दूसरे के छिपाये आमो को ढूढ कर खा जाते,लेकिन जब सारे लोग ऐसा ही करेगे तो क्या होगा ? यानी एक छिपाकर जाता,दूसरा खोज कर खा जाता ता फ़िर कही और छिपा देता.
एक दिन मैने देखा कि सारे बच्चे हुक्का पी रहे थे,लिहाजा हमने भी दम मारने की कोशिश की ,और क्योकि पहले का कोई अनुभव भी हमें नही था, इसलिये गड़बड़ हो गई,हमने खीचने के बजाय पूरे दम से फ़ूक मार दी,पानी उपर आया चिलम तड़क गई,मामला ठंडा हो गया, सारे भाग लिये, थोडी देर बाद छोटे बाबा ने हुक्का मंगवाया और पहली नजर मे ही आदेश निकाल दिया ,जरा इस शैतान पलटन को घेर के लाओ... परेड हुई,और सबने हमारा नाम ले दिया की चिलम बंदे ने तोडी है... कान पकड कर कम से कम चार फ़िट उपर उठा दिये गये थे.दिन से आज तक कान लंबे ही है. ये अलग बात है बाद मे सारे पिटे.आखिर हम भी कोई चुप रहने वाले नही थे ना.
लेकिन वो गांव की पक पक कर लाल हुये दूध की लस्सी, जिस पर मक्खन के मोटे मोटे कतरे तैरते रहते हो... वो चूल्हे पर बनी सौंधी सौंधी महक वाली हाथ की रोटी पर रक्खा मक्खन का ढेला,अब तो शायद इस जनम मे क्या मिलेगा ?
लू के थपेडे को समेटती
पेड की छाया
दिल को सूकून पहुंचाता
घडे का पानी.
ना पेड़ बचेगे ना घडे
बस रह जायेगी कहानी.
जारी
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 26 कमेंट्स पर 2:16 AM लेबल: बकलमखुद
Thursday, May 22, 2008
हैया रे हैया हैया हो ....
दुनियाभर में समुद्री मार्ग से होने वाली यातायात, व्यापार या सैन्य गतिविधियों के संदर्भ में नेवी शब्द का प्रयोग होता है। जलसेना के लिए आमतौर पर नेवी शब्द ही इस्तेमाल होता है जबकि व्यापारिक अर्थों में सामुद्रिक गतिविधियों के लिए अंग्रेजी में मर्चेंट नेवी जैसा शब्द है। संस्कृत में जहाज या पोत को नौ: कहते हैं जबकि किश्ती या बोट के लिए नौका शब्द है। हिन्दी का नाव शब्द इस नौ: या नौका से बना है। इसी तरह जहाजी परिवहन के लिए हिन्दी मे नौचालन शब्द चलता है जबकि अंग्रेजी में नेवीगेशन । ये दोनों शब्द एक ही मूल से जन्में हैं। इसके लिए संस्कृत और इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में जो शब्द मिलता है वह नौ: या nau है।
संस्कृत में नौः शब्द में नौका, जहाज, बेडा, नक्षत्रपुंज जैसे अर्थ शामिल है। नौ बना है नुद् धातु से जिसमें धकेलना, ठेलना, हांकना जैसे भाव शामिल हैं। नुद् में प्रोत्साहित करना, उकसाना, आगे बढ़ाना, ढकेलना आदि भाव भी शामिल है। पुराने ज़माने के जो पोत थे वे सभी मानव श्रम से ही चलते थे और यह काम बेहद कठिन था। जहाज़ के तल में मल्लाहों के बैठते थे और वे लगातार डांड या चप्पू चलाते थे। पोत नायक की तरफ से उन्हें उत्साहित करने के लिए लगातार समवेत ध्वनियों का उच्चार होता था। नाविक स्वयं भी -हैया रे, हैया हो... जैसी आवाजें निकालते थे। बाद के दौर में बड़े जहाज़ों को खेने के लिए गुलामों या बंदियों का इस्तेमाल आम हो गया । इन खिवैयों की बड़ी दुर्दशा होती थी और कई तो अत्यधिक श्रम करते हुए दम तोड़ देते थे।
बहरहाल नौ: या nau शब्द ने ग्रीक भाषा में naus, nautes होते हुए nautikos का रूप लिया जिसका मतलब होता है मल्लाह या नाविक। बाद में nautical शब्द भी इससे ही बना जो समुद्र संबंधी या समुद्री जैसे अर्थो में काम आने लगा। इसी से बना navis जिससे बाद में navigation जैसे कई अन्य शब्द भी बने। नौ: या nau से न सिर्फ अंग्रेजी में बल्कि ज्यादातर यूरोपीय भाषाओं में नाव या जहाज के अर्थ में ही अनेक शब्द निकले हैं जैसे ग्रीक nau , लैटिन navis , आईरिश nau , आर्मीनियाई nav, और जर्मन में nuosch जैसे शब्द वगैरह। इसी तरह प्राचीन ईरानी यानी अवेस्ता में भी यह navaza के रूप में और फारसी में नाव के रूप में मौजूद है।
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दोस्ती का पुल पुख्ता करे बकलमखुद...आमीन
बकलमखुद के उनचालीसवे सोपान पर बेजी की अनकही खत्म हुई । बेजी ने इस मौके पर अपनी टिप्पणी में सफर के सभी साथियों को गहरी आत्मीयता से याद किया है और इस पहल को नए स्नेह - संबंधों की कड़ी माना है। बेजी ने जो लिखा उससे बेहतर बकलमखुद की परिभाषा हो भी नहीं सकती। आभार डॉक्टर साहिबा...यहां प्रस्तुत है बेजी की टिप्पणी जो अगर पोस्ट पर ही पड़ी रहती तो सभी साथियों तक नहीं पहुंच पाती इसलिए अलग पोस्ट के रूप में दे रहा हूं।
बकलम पर लिखने के लिये जब अजित जी ने कहा तो सोचा इसी बहाने फिर पुरानी गलियाँ घूम लूँगी...तब बिलकुल अंदाज़ा नहीं था आप सब इतने अपनापे के साथ सुनेंगे...घूमते घूमते मैं सच में ही जी आई... आभार शब्द बहुत छोटा पड़ रहा है...जितने अपनेपन से आई थी उससे ज्यादा साथ लेकर जा रही हूँ...
अजित जी का शुक्रिया...हमने जितनी जगह माँगी हमें घेर लेने दी...
प्रभाजी ... मुझे भी यहाँ रहते रहते आदत हो गई थी...रूठने का नाटक करूँ तो मनाइयेगा ज़रूर....
अनिताजी से दोस्ती की पहल जरूर करूँगी...
यह स्तंभ अपने आप में निराला है....यहाँ महान लोगों की कहानी तो नहीं ही लिखी जा रही....पर आम लोगों के जीवन, जीवनी ,संघर्ष और हर्ष के पलों को लफ्ज़ों में समेटा जा रहा है। सफर रोचक है और जारी रहना चाहिये...ना जाने कितनी पहचान -दोस्ती और स्नेह के रिश्तों में बदल जायेगी...यह वो पुल हो सकता है जिसके छोर पर मनचाहा दोस्त मिले...।
आपकी चिट्ठियां
बेजी की अनकही के आठों पड़ावों पर 64 साथियों की 170 टिप्पणियां मिलीं।
ये हैं अविनाश, विजय गौर, सुजाता , प्रमोदसिहं, डॉ अनुराग आर्य , शिवकुमार मिश्र, रवि रतलामी, अर्बुदा, अनुराधा श्रीवास्तव, मनीष, रजनी भार्गव, नीरज रोहिल्ला, संजय , पारुल, सागर नाहर ,दीपा पाठक, कुश, आभा, अशोक पांडे, नीरज गोस्वामी, सिद्धार्थ, हर्षवर्धन, संजय बैगाणी, अनामदास,आलोक , दिनेशराय द्विवेदी, समीरलाल, अनूप शुक्ल, लावण्या शाह, संजय बैंगाणी, अरूण, काकेश, संजीत ,नीरज गोस्वामी, घुघूति बासूती, चंद्रभूषण, विजयशंकर चतुर्वेदी, डॉ चंद्रकुमार जैन, अनिताकुमार, बेजी, नीलिमा सुखीजा अरोरा, घोस्टबस्टर ,राजेश रोशन, हर्षवर्धन, विमल वर्मा, नचिकेता ,रख्शांदा, प्रियंकर , यूनुस, रचना, अभिषेक ओझा, अफ़लातून, ममता , अजित वड़नेरकर, अरविंद मिश्र, अतुल , मनीष , लवली कुमारी , स्वप्नदर्शी, जाकिर अली रजनीश, प्रशांत प्रियदर्शी, कंचनसिंह चौहान, और प्रभा । आप सबका आभार ।
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Wednesday, May 21, 2008
जा रही हूं कहां, मक़सद क्या है ! [बकलमखुद 39]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और उनचालीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।
आस्मां रहे, रंग रहें, मैं रहूं...
अपने उम्र के उस पड़ाव पर यहाँ से गुजरी हूँ जहाँ रुक कर सोचना जरूरी था। कहाँ जा रही हूँ ? मेरा मकसद क्या है ? क्या करना चाहती हूँ ? कितना कर सकी हूँ?
अस्तित्व
तरंगों का एक
चुंभकीय आकर्षण…
बस
इतना ही है
मेरा अस्तित्व
दिशा कोई भी तरंग
बदल सकती है
उद्विग्न कर सकती है
उल्लासित कर सकती है
मैं अपने अस्तित्व में
इसके बढ़ते घटते
रूप को
बाँध कर
रखना चाहती हूँ
पर ठोस नहीं हूँ
तरल नहीं हूँ
वायु नहीं हूँ
बस अवस्था हूँ
जो तापमान के बदलने से
बदल जाती है
कुंजी मेरे हाथ नहीं है
कुंजी पटल पर ना जाने कौन
थपथपाता है
और मैं अपने
अस्तित्व में
इन तरंगों को
घटा जोड़ कर
दिशा तय करती हूँ
दिशा.....जो उद्यत है
आश्रित है
फिर से
कुंजी आघात पर....
......वो कुंजी
जो मेरे पास में नहीं है
हाथ में नहीं है
बदल रही हूँ
यही नियति है
अपनी ऊर्जा में
कभी क्षीण
कभी प्रबल
चाहती हूँ....
इस कदर
तरंग से तरंग जोड़ दूँ...
कि हो जाऊँ
स्थिर....
नहीं तो...
ब्रह्मांड में...
फैल जाऊँ
बिखर....
सारे जवाब नहीं मिले। 35 बरस। कम तो नहीं है। ऐसा लगता है कि जितना हासिल कर सकती थी उससे बहुत कम किया। दिशा, मंजिल और रास्ता....अभी भी धुँधला सा है। अब तक का सफर बेहद रूमानी था.....। आगे ना जाने किस्मत को मैं क्या मोड़ दे सकूँ... चाहती हूँ-
रात को ओढ़ लूँ...
रात में खो चलूँ
रौशनी उतार कर
आज खुद से मिलूँ
प्रज्वलित हो चलूँ
आज खुद ही जलूँ
सूर्य बन कर उगूँ
आभा बन कर जगूँ
भस्म गर हो गई
बीज बन कर जियुँ
अंकुरित हो सकूँ
जिन्दगी बन सकूँ
स्वर के लय पर…
शब्द के आशय में...
स्नेह के अहसास में….
सोच के पँख पर….
एक तरंग बन सकूँ…
एक सदिश की तरह
चल सकूँ... छू सकूँ…
आज मैं...काश मैं...
मैं बन सकूँ
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कविता की शुरुआत कैसे हुई, क्यों की गई, कहाँ से प्रेरित हुई, कौन प्रेरणा के स्रोत रहे....
बहुत कम पढ़ा है.....साहित्य की खास जानकार नहीं हूँ...जैसा की प्रशंसक और आलोचक दोनो कहते रहे हैं...बेहद संवेदनशील हूँ....और इसके अलावा कविताओं की कोई खास वजह नहीं रही है....
दृष्टिकोण पर काफी पहले लिखी एक पोस्ट याद आ रही है
सजीव
सोच रही हूँ....
सारे समय सोचते रहना क्यों जरूरी है....हर बात की खाल निकालना...रोशनी को भी इतने शेड्स में देखना....कहाँ से आई..कहाँ छनी...कहाँ गिरी...कहाँ रुकी....
उस उजाले से क्या उजागर हुआ....वह कितना साफ दिखा...उसके साये कितने लंबे कितने छोटे....
उनका अस्तित्व कितना निर्भर इस रोशनी पर.....
हाथ में जैसे एक टॉर्च...मन में एक धुँधला सा ख्वाब.....कोशिश हर बिम्ब में उसे तलाशने की....
जिन्दगी जैसे इसी तलाश का नाम हो....
धुँधली सी इस तस्वीर की आड़ी तिरछी रेखायें...कभी गुम हो जाती है..कभी और साफ दिखती हैं....
जहाँ साफ दिखती हैं...वहीं थम जाने का मन करता है....जैसे खुद को निहारने का एक मौका मिला हो....
मन...हाँ मैं मन के आधीन हूँ....मन का पूरे मन से करना चाहती हूँ.....
इस आधीनता से कभी परेशान नहीं हुई....पर इसके स्वाधीनता पर संदेह, प्रश्न देखती हूँ तो बौखला जाती हूँ....
योग की छोटी सी बात कि साँस को महसूस कर के अंदर बाहर करो....मेरी समझ से बाहर है....
साँस जैसी सहज बात को इतना असहज करने की क्या जरूरत है.....पता नहीं.....
दौड़ते समय हाँफना, हँसते समय रक्त का संचार अधिक होना...दुखी खबर सुनने पर गहरी साँस लेना....इससे अधिक और क्या सहज होगा....
संयम, नियंत्रण .....जीवन का सबसे अमूल्य पाठ....हाँ ऐसा ही कुछ कहकर इसे सिखाया जाता है.....
एक एक करके अपनी इन्द्रियों को बंद करते चलो....कबतक.....जबतक जड़ ना हो जायें....
जबतक मेरे और मेरे आसपास पड़े निर्जीव चीज़ों में कोई अंतर ना रह जाये......
इन्द्रधनुष....सात रंग....तीन प्राथमिक रंगों का संगम....सफेद रंग.....जिसे पहचानना आँखों पर निर्भर....
आँख बंद कर लो....रंग अपने जिन्दगी से अलग कर लो....
जीवन क्या है...क्यों है....मैं नहीं जानती....पर अगर मुझे मिला है तो मैं जीवित रहना चाहती हूँ.......
हो सकता है कि संन्यास और त्याग से अंतिम सच तक जल्दी पहुँचा जा सके.....
मुझे कोई जल्दी नहीं है....
जीवन सुंदर है...मेरे लिये....
नवजात शिशु की भींची हुई आँखे जब खुलती हैं.....कली जब नींद से उठती है....बच्चा जब स्तन पकड़कर सो जाता है....बादल जब हाथी घोड़ा और ऊँट बनता है.....
सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज़ को भी कुदरत ने कितनी बारीकी से बनाया है....
बर्फ का हर कण का रूप अलग....जैसे एक ही रंग के हज़ारों फूल ....आसमान से झड़ रहें हो....
आँख बंद कर लूँ....
पेड़ पर बैठी कोयल की कूक...हवा के पदचाप ... लहरों का स्वर....बच्चे की खिलखिलाहट
सुनना बंद कर दूँ....
रात को हरसिंगार से आती खुशबू....बरसात मिट्टी पर गिरे तब उठती सौंधी खुशबू....माँ की रसोई की महक.....
सूँघना बंद कर दूँ.....
साँसो की गरमी, स्पर्श की नरमी....पीठ पर थपथपाहट....गोद की ममता....महसूस करना छोड़ दूँ.....
संवेदनाओं को दफना दूँ....आँसू और दर्द का संबंध देखना छोड़ दूँ.....अपने स्नेह की ताकत का अंदाजा लगाना छोड़ दूँ....
सोचना छोड़ दूँ.....
मैं जीवित हूँ....हो सकता है कि यह कोई माया हो.....जैसे कुछ बूँदो से गुजर कर प्रकाश सात रंग में बँट जाता है....पर मैं यह सात रंगों को बड़ी लगन से पहनना चाहती हूँ....जबतक आसमाँ पर हूँ....पूरे रंगों में खिलना चाहती हूँ....
सोचना चाहती हूँ....महसूस करना चाहती हूँ.....
स्व के अहम में जीवित रहना चाहती हूँ....
-समाप्त
[साथियों आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया जो इस पहल को पसंद किया । अब तक जिन साथियों ने यहां अपनी कही उन सबके प्रति आभार जताने की औपचारिकता नहीं निभा रहा हूं , बस इतना ही कि आपकी कही ने हम सबको उन लम्हों की सौगात लौटा दी, जो न जाने कितने पहरों ने छीन ली थी । बिसरे हुए लम्हें अगर फिर याद आएं तो ज़रूर यहां आएं और सबको सुनाएं वो भूली दास्ता...जो फिर याद आ गई ... शुक्रिया...
अजित ]
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 19 कमेंट्स पर 3:47 AM लेबल: बकलमखुद
Tuesday, May 20, 2008
बेजी का पसंदीदा पड़ौस-ब्लागजगत [बकलमखुद-38]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और अड़तीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।
घर-परिवार में रम गए...
शादी के बाद का सफर भी कम दिलचस्प नहीं था। मैं पुरानी हिन्दी की हीरोइन्स से पूरी तरह इन्सपायर्ड थी। सो घर का काम बड़ा दिल लगाकर करती। जब तक जयसन घर नहीं पहुँचते खाना नहीं खाती।
अजीब सी बात थी। पाँच बहनों के दुलार में बड़े जयसन को लड़की और लड़के का फर्क बिल्कुल समझ नहीं आता। जिस दिन मुझे देर होती वो भी भूखे प्यासे बैठे रहते।
जयसन को बच्चों से बेहद लगाव है। उनकी तरफ की जिम्मेदारियों की तरफ वो बहुत सजग हैं। काम में अपना सहयोग देना कर्तव्य समझते हैं। नहीं कर पाते तो दुखी भी हो जाते हैं।
हम में से कोई भी धर्म को लेकर धुनी नहीं है। दोनों को धर्म के भीतर के चिंतन में ज्यादा रुचि है। जो दिल को भा जाता है याद रख लेते हैं। जयसन को बाईबल, रामायण, महाभारत के बारे में मुझसे ज्यादा पता है। जानना हम दोनो चाहते हैं।
त्योहार सभी मनाते हैं। दुबई में भी।
बहुत कुछ साथ साथ देखा। प्लेग, गुजरात का साइक्लोन, भूकंप, दंगे.... । नर्मदा बचाओ की गर्मी देखी...उसपर नया पुल बनते देखा, नर्मदा की गोद में किश्ती में झूलकर देखा।
सबसे मुश्किल मेरा दुबई में आकर काम करना रहा। जयसन अभूदाबी में कार्यरत थे। मैं चाह कर भी कहीं काम नहीं कर पा रही थी। हज़ार झंझट थे। फिर से एक्साम लिख कर क्वालिफाई करना। फिर काम ढूँढना। अँधाधुँध काम के लिये अप्लाई किया। दुबई में नौकरी मिली। सवा साल की गुड़िया और चार साल का जोयल। दुबई का द भी मालूम नहीं था। जुलाई की गर्मी। कार एकही थी जो जयसन के पास थी । जयसन के काम की जगह से चार घंटे का रास्ता था। आना जाना हफ्ते में सिर्फ एक बार।
पर मैं अड़ी थी। बहुत मुश्किल था ऐसे में ऐसे जज़्बाती निर्णय को समर्थन देना। पर जयसन ने दिया।
एक साल में अकेले एक नये देश में जीना सीखा। कार खरीदी। सड़के और रास्ते सीखे। बच्चों को जैसे तैसे सँभाला। काम किया। किसी तरह अपना आत्मविश्वास बनाये रखा।
करीब तीन साल दूर रहने के बाद....हर हफ्ते अप डाउन करने के बाद आज हम सब दुबई में साथ हैं।
भाई (http://www.blogger.com/profile/08211042258385059443) आइ बी एम, माइक्रोसॉफ्ट और फिर इंटेल पहुँचा। भाभी भी स्टेट्स में भाई के साथ। मम्मी पापा ने पाँच बेडरूम बड़ा सुंदर बँगला बना लिया।
मैने क्लीनिक की नौकरी साल भर के बाद छोड़ दी। यहाँ स्कूल में जब बच्चों की सँख्या 1500 से अधिक हो जाती है तो डॉक्टर लाजिमी होता है। जोयल और गुड़िया के स्कूल में जब जगह बनी मैंने भर दी।
दुबई में अपने शौक नहीं छोड़े। बैडमिन्टन, टेबलटैनिस स्कूल में अक्सर अब भी खेलती हूँ।
गुड़िया भरतनाट्यम और कर्नाटिक म्यूसिक सीखती है। जोयल कीबोर्ड सीखता है। दोनो सी बी एस ई स्कूल में जाते हैं। ऑप्शनल लैंगुएज हिंदी है।
जयसन जो हिन्दी बिल्कुल नहीं जानते थे अब मलयालम एक्सैंटेड हिन्दी फर्राटे से बोलते हैं। लक्ष्मी और प्रीती आज भी साथ है। कॉलेज में जास्मिन, वैशाली , शशि और ममता मिले। लक्ष्मी बरोड़ा में। कल ही जन्मदिन के लिये एक पार्सल आया। प्रीती भी बरोड़ा में। साउदी से वापस जाते जाते दुबई होकर गई। वैशाली और ममता भी नहीं छूटे। [जयसन के मम्मी-पापा के साथ]
दोस्ती के मामले में हमेशा कंजूसी की। बहुत सोच समझ कर....और एक बार हो गई तो कभी छूटी नहीं।
पिछला साल बहुत अजीब रहा। जीवन में जो कोई – पहचान, ख्याल, सपना....कहीं छूट गया था वापस मिल गया। फिर से रूबरू होना अपने आप में एक अनुभव था।
खुद भावनाओं के उतार चढ़ाव पर रही। जयसन ना जाने कैसे संयत होकर समझते रहे।
मैं और तू
मैं
समंदर बवंडर
मैं हलचल चंचल
गहरे में उतरती
उथले में उभरती
लहरों में सँभलती
साहिल पर छलकती
बहकती चहकती
सिमटती बिखरती
चाँद की चाह में
ललक से उछलती
सीपी सी शर्माई
मोती सी भर्राई
तूफान हूँ
मन का ऊफान हूँ
बोतल में राज़
की राजदार हूँ
डुबोया भी है
और उभारा भी है
मैं बेचैन हूँ
स्वप्निल नैन हूँ
तू
वो आगोश है
जिसके होश में
सँभलती भी हूँ
संवरती भी हूँ
जहाँ सिमट कर
आराम से
नींद की छाँव में
ठहरती हूँ मैं
मैं समंदर हूँ
तरंगों भरा....
तू वो तल है
जो इसको लेकर खड़ा....
और ब्लागिंग की सतरंगी दुनिया में बेजी
दो साल हुए ब्लागिंग को। भाई ने ही रास्ता दिखाया था। काफी लिखा, वहुत पढ़ा।
मेरे पसंद के कई ब्लॉग हैं। सबसे पसंदीदा ब्लॉगर अ से ही हैं-
अजदक, अनामदास, अजगर, अनिल, अभय, अजित, अफलातून, अनुराग आर्या, अनुराग अन्वेषी, अनिताजी, अनूप भार्गव और अरुण
अविनाश की कवितायें पसंद है
ब्लॉगर दंपति- आभा और बोधिसत्व ,.अनूप और रजनी, मसीजीवी और नीलिमा
आलोक जी के फैन हैं हम...
अज़दक, मीत और पारुल की आवाज़ बेहद पसंद है
उड़न तश्तरी का जवाब नहीं...जब कभी उड़ना हो तो हाज़िर और रेस्क्यू ऑपरेशन्स से भी परहेज नहीं...
फुरसतिया जी की चिट्ठाचर्चा और लंबी पोस्ट्स...पता नहीं क्यों पर फुरसतिया शब्द दिमाग में कौंधते ही वे साईकल पर दिखते हैं...
मनीष जोशी की कलम, प्रत्यक्षा दी का लेखन, रविश जी की रिपोर्टिंग और मीनाक्षी दी के हाईकू...
मनीष जी की शामें , सृजन जी की संयत कलम और विमल जी की ठुमरी
प्रियंकर जी की पसंद, कवितायें और टिप्पणी,
पर्यानाद, बलविंदर जी , दिनेश जी और शास्त्री जी की सजग कोशिश...
संजीत, प्रशांत , बालकिशन और अजय कुमार झा का तारीफ करने का अंदाज़
घोस्ट बस्टर जी का चित्र, ज्ञानदत्त जी की रेलगाड़ी और शिव कुमार जी की बंदूक
घुघूति जी का अंदाज़, लेखन और परिपक्व सोच...
चोखेरबालियाँ...
नये लोगों में पल्लवी, रश्मि प्रभा, महक, कंचन
दो दो - रचना, नीलिमा, बेंगाणी ब्रदर्स
स्वप्नदर्शी , लावण्या जी ,आशा जी, ममता और रजनी जी का शालीन व्यक्तित्व
देबू दा, जीतू जी, गीतकार –पुराने ब्लॉग साथी
अशोक जी का कबाड़खाना, सस्ता शेर,युनुस जी का रेड़ियो , इरफान जी की टूटी बिखरी और काकेश की काँव काँव
इन ब्लाग्स के पीछे के लोग काफी दिलचस्प लगे। सभी के पीछे एक व्यक्ति साफ नज़र आता है।
हमेशा लोगों को समझने का शौक रहा। भाषा की खूबी से ज्यादा कौन किस परिस्थिति में किस प्रकार की प्रतिक्रिया देता है जान सकी।
कितने विवाद हुए - ब्लॉग जगत के लगभग हर विवाद में हिस्सा लिया ....
हिंदू मुसलमान- सारा को खत
पत्रकार क्यों बने ब्लॉगर
नारी क्या करे क्या नहीं..
मेरे लिये ब्लॉगजगत मेरा पसंदीदा पड़ोस है....दोस्त भी हैं, अच्छे लोग भी है, अपने भी है, सपने भी...सीखने की काफी गुंजाइश..... अनामदास ने एक बार कहा था आज का कॉफी हाउस...
बकलम पर डॉ चँन्द्रकुमार जी की टिप्पणियों ने खुश किया।
खुद टिप्पणी करने में कितनी भी कंजूसी की हो...मुझ पर सभी मेहरबान रहे हैं...
विजय शंकर जी भी...
पत्रकार एक ऐसा जीव था जिसके बारे में सिर्फ अज्ञान था। यहाँ चैनल्स और अखबार के पीछे काम करने वाले दिल और दिमाग को जाना। अलग अलग स्त्रियों के भूगोल को समझा।
मेरे दोस्तों के लिस्ट में इतनी तेजी से कभी अपडेटिंग नहीं हुई।
मीनाक्षी, अर्बुदा, मनीष जोशी, पूर्णिमा वर्मन , श्वेता सभी से मिलना हुआ। मीनाक्षी दी , अर्बुदा और मनीष जी से दोस्ती हो गई। [अगली कड़ी में समाप्त]
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 21 कमेंट्स पर 12:35 AM लेबल: बकलमखुद
Monday, May 19, 2008
निखट्टू, लानत है तुझ पर !!
निकम्मे-नाकारा लोगों की दुनिया में बड़ी दुर्गति होती है । ऐसे लोगों की न सिर्फ कोई कद्र नहीं करता बल्कि उन्हें अपने पास भी कोई फटकने देना चाहता। काम का न काज का , दुश्मन अनाज का जैसी कहावतें इन्हीं लोगों के लिए कही जाती हैं। ये कहावतें समाज ने ही अपने अनुभवजनित ज्ञान के आधार पर बनाई। मगर समाज में हर चीज़ के दो पहलू कई बार इस अंदाज में सामने आते हैं मानों चित भी मेरी, पट भी मेरी । मलूकदास जी का वह प्रसिद्ध दोहा भी याद कर लीजिए –
अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए , सबके दाता राम ।।
अब इस दोहे से क्या सीख मिल रही है ? यही न कि रामजी सबकी भली करते हैं , बेफिक्र रहें ! चाहे न मिल रही हो मगर लोग तो इसका भावार्थ यही बताते हैं कि काम करने की ज़रूरत क्या है ? यूं अजगर और पक्षी का संदर्भ तो मलूकदास जी ने इसलिए दिया है कि मनुश्य का जन्म ही कर्म करने के लिए हुआ है सो कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो। शायद यही है उनका भावार्थ। रामजी सबको देंगे !!!
बहरहाल बात हम कर रहे हैं आलसी , नाकारा और निकम्मों की । ऐसे ही लोगों के लिए हिन्दी में निखट्टू जैसा शानदार शब्द भी है और खूब इस्तेमाल होता है। आलसियों को चाहे निकट न फटकने की समझाइश दी जाती हो मगर निखट्टू और निकट शब्द में तो गहरी रिश्तेदारी है। जानते हैं ।
संस्कृत में एक धातु है कट् जिसमें जाना, स्पष्ट करना , दिखलाना आदि भाव समाहित हैं। संस्कृत-हिन्दी का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है नि जो शब्दों से पहले लगता है और कई भाव प्रकट करता है। नि में निहित एक भाव है पास आने का , सामीप्य का। कट् धातु में जब नि उपसर्ग का निवेश होता है तो बनना है- नि+कट्=निकट । कट् यानी जाना, इसमे नि जुड़ने से हुआ पास जाना, पाना आदि। इससे मिलकर संस्कृत का शब्द बनता है नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। एक अन्य शब्द बना नैकटिकः जिसका मतलब हुआ साधु, सन्यासी या भिक्षु।
नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। कट् धातु मे स्पष्ट करना , दिखलाना जैसे भाव तो पहले ही उजागर हैं जो संत-सन्यासियों का प्रमुख कर्तव्य है। अब मनुश्य सन्यास लेता ही इसलिए है ताकि वो खुद को पा सके । शास्त्रों में आत्मा को ही ब्रह्म कहा गया है । जिसने अपनी अंतरात्मा को पा लिया अर्थात् खुद को पा लिया वही, ज्ञानी। संन्यस्त होने का सुफल उसे मिल गया। इसीलिए उसे नैकटिकः कहा गया। यही नैकटिकः दरअसल निखट्टू है।
संत मलूकदास के कहे को समझे बिना लोगों ने उस पर अमल शुरू कर दिया तो नैकटिकों के ऐसे सम्प्रदाय को यानी भिक्षुकों को निखट्टू कहा जाने लगा। बुद्ध से बुद्धू और पाषंड से पाखंड और पाखंडी जैसी अर्थगर्भित नई शब्दावली बनाने वाले समाज ने अगर इधर-उधर डोलने वाले, आवारा, जिससे कुछ काम न हो सके अथवा नाकारा-निकम्मे के लिए नैकटिकः से निखट्टू जैसा शब्द बना लिया हो तो क्या आश्चर्य ? किसी ज़माने में भिक्षावृत्ति सिर्फ सन्यस्त लोगों के लिए आहार जुटाने की प्रणाली थी मगर बाद में इसकी अवनति इतनी हुई कि – जाओ, भीख मांगो, जैसे उलाहने प्रचलित हुए जो मुहावरा बन गए।
ज़रूर देखें-
बुद्ध और पाखंड ।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 15 कमेंट्स पर 2:54 AM
Sunday, May 18, 2008
अंडे वाली मेम यानी बेजी... [बकलमखुद-37]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और सैंतीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।
प्यार , इकरार और शादी...
जयसन को हमने देखा और हमारा दिल आ गया। पर अब हम सयाने हो चुके थे। इस बार दिल के साथ दिमाग का भी इस्तेमाल करना जरूरी समझा। साहब भी कुछ हमारी ही सिचुएशन में थे। सो वो भी फूँक फूँक कर आगे बढ़े। लिहाजा हम 1993 फरवरी को मिले... मिलते रहे। बात होती रही। दोस्ती हो गई। पर मजाल है कि किसी ने प्यार का जिक्र किया हो।
1996 में इनकी हिम्मत हुई। मम्मी और पापा निश्चिंत नहीं थे। उन्हे मैं जयसन के परिवार और माता पिता को सँभालने के लिये परिपक्व नहीं लगती थी। पर मैं जिद पर अड़ी थी। ऐसा लड़का लाओ जो दहेज ना ले, मेरे आगे पढ़ने पर एतराज ना करे, अच्छी नौकरी करता हो, डोनेशन से ना पढ़ा हो, सिगरेट शराब नहीं पीता हो और हमारे परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहता हो।
अपने समाज के बारे में कोई यूफिमिस्म नहीं था। ऐसा लड़का मिलना लगभग असंभव था।
और आठ जनवरी 1997 को जयसन से विवाह हो गया।
विवाह एमडी के पहले साल में किया था। इसके आगे रास्ता बहुत कठिन था।
दोनो को आगे बढ़ना था।
मेरा खर्चा उठाओगे ?
बच्चे हमेशा से पसंद रहे। एम डी के लिये मैने खुद के सामने सिर्फ दो विकल्प छोड़े थे। साइकियाट्री और पीडियाट्रिक्स। बहुत जल्द अहसास हुआ की मैं अच्छी साइकियाटरिस्ट नहीं बन सकती। और अगर बनी तो खुद भी पागल होने की संभावना बहुत थी। किंतु पीडियाट्रिक्स की सीट टॉपर्स के हाथ थी। मैं अच्छे विद्यार्थियों में होने के बावजूद टॉप पर नहीं थी। पर ऐन वक्त पर एक सीट खाली हुई और मेरे हाथ लग गई। नान स्टाइपेन्डरी सीट( यानि सिर्फ स्टूडेन्ट एलौअन्स) । तब जयसन से शादी नहीं हुई थी। जयसन और जोबी (भाई जो तब तक यू एस पहुँच चुका था) दोनो को पूछा...मेरा खर्चा उठाओगे....दोनों ने झट हाँ कर दी।
जूनियर और सीनीयर की चक्कियों में पिसती, खटती मैं पीडियाट्रिशियन हो गई। प्रीति ने पैथोलोजी में पीजी किया। लक्ष्मी की शादी हो गई। और जास्मिन....
जास्मिन ने नेह से शादी की। और फिर पता चला एक धीरे धीरे बढ़ते हुए ब्रेन ट्यूमर का।
जास्मिन मानसिक, शारीरिक , व्यवसायिक और घरेलू ...ना जाने किस किस स्तर पर संघर्ष कर रही थी। मेरे लिये नेह और जास्मिन का प्रेम किसी अजूबे से कम नहीं था। दवाई और बीमारी की वजह से ना जाने उसमें कितने बदलाव आये....पर नेह कहता.... “heaven’s envy is togetherness!!...”
ट्यूमर और जीवन का संघर्ष दोनो बखूबी जीत गये और आज एक बच्चे के माता पिता हैं। नेह पीड़ियाट्रीशियन और जास्मिन गायनेकोलोजिस्ट।
लक्ष्मी एक बच्ची की माँ बनी...कुछ उलझनों से शादी टूटी.....बिखरते-बिखरते बनाने के लिये एक बेहद प्यारा हमसफर मिला...और वो दोनो अपने दोनो बच्चों के साथ अपनी दुनिया में संतुष्ट और खुश।
पहली नौकरी-भरूच के सेवाश्रम में...
नौकरी के लिये पहला कदम रखा भरूच के सेवाश्रम अस्पताल में। वहाँ डॉ मूबीना से दोस्ती हुई। किसी मुसलमान से पहली बार दोस्ती हुई। डॉ मूबीना ने हमें अपने परिवार जनों से मिलाया, घर बुलाया, ईद में मेहमान नवाज़ी की। किसी मुसलमान परिवार को पहली बार करीब से देख रहे थे। अपने ढेर सारे पूर्वाग्रहों को गलत पाया।
पर काम के हिसाब से सेवाश्रम में मन नहीं लगा। मुझे काम करना था। बहुत सारा और बहुत मन लगाकर। जगह मुझे पता थी। जगड़िया में बसा सेवा रूरल।
पगुथन से दो घँटे का रास्ता। बीच में नर्मदा जिसपर देर देर तक ट्रैफिक अटका खड़ा रहता था। जयसन शिफ्ट ड्यूटी में थे। ऐसा सपना भी पागलपन ही था। नाइट ड्यूटी के बाद बाइक में ऐसा सफर चुनना महज पागलपन था। पर मेरे आँखों में उगते सपने जयसन को दिख रहे थे। वो बहुत सहजता से और पूरे स्नेह से मान गये। [सेवा में]
मेरे सपनों की सेवा
सेवा रूरल (www.sewarural.org) बिलकुल मेरे सपने जैसा था। गाँव , गाँव में जरूरतमंद बच्चे और हमारी पहुँच उन तक। गाँव जाते, वहाँ बच्चे देखते, ओ पी ड़ी चलाते, राउन्ड लेते, हैल्थवर्कर्स को सिखाते। बहुत सारे बच्चे झिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए मिलते। मुझे दिनरात का होश नहीं था। अनिल भाई और लता बेन से बेहद प्रभावित हुए। जयसन भी वहाँ सबके प्यारे बन गये। कर्म और धर्म का मर्म यहाँ समझा और यह भी की चाहो तो कुछ नामुमकिन नहीं है चिकित्सक की तरह मेरे दिल की सबसे अजीज जगह आज भी यही है....जहाँ मुझे लगा कि सचमुच मैं एक अच्छे बदलाव का हिस्सा थी।
पूर्ण गर्भवती होने पर भी खुशी खुशी काम करती रही। सास ससुर मुझे ऐसे समय अकेला पा कर केरल से साथ रहने आये। उनके साथ रहकर कभी सास बहू जैसा नहीं लगा। उनके लिये मैं महज एक बच्ची थी जिसे वो धीरज से सही और गलत समझा सकती थी।
सरकारी ढर्रे से साबका
मम्मी पापा ज्यादा दूर नहीं थे। हमेशा शादी के बाद भी आसपास ही रहे और मुझे सहेजने की कोशिश करते रहे।
1999 डिसेंबर में जोयल आया..। हमारी जिन्दगी में एक नया अध्याय। और फिर लगने लगा कि जयसन के ऊपर इतना शारीरिक और मानसिक दबाव ड़ालना उचित नहीं और दो साल जगड़िया में काम के बाद मैने नौकरी छोड़ दी।
अगला पड़ाव था भरूच सिविल अस्पताल । यहाँ सरकारी ढर्रे से पहली बार मिली।
पूरी तत्परता से काम करती रही। सिस्टम के अंदर रह कर भी अच्छी सेवा दी जा सकती है ऐसा मेरा विश्वास था।
कई बाते याद आती हैं-मैं कुपोषित बच्चों के लिये अंडा लिखती और एक दो दिन बाद फिर नहीं मिलता। अंडा जिसका खर्च सरकार उठाती है जाता कहां था ? मैने भी सोचा की इस बात को छोड़ा नहीं जा सकता। अंडे के पीछे पीछे मैं पहुँची सरकारी कर्मचारियों के किचन तक। मेरे बात के पीछे लगे रहने की वजह से अंडा बच्चों को मिलने लगा। और नाम भी हुआ....अंडे वाली मैम।
बहुत अच्छी दवाईयाँ सरकारी दवाखानों में हासिल थी। मेरा प्रिस्क्रिप्शन बाहर की दवा के लिये हरगिज नहीं होता। दस पंद्रह की ओपीड़ी सौ में बदलने लगी। मैडिकल रिप्रेजेंटेटिव से बहुत कम मिलती। मिलती तो भी उसे ही हताशा होती। दो महीने बाद हॉस्पीटल सुपरिंटेडेंट के दफ्तर मे बुलाया गया और पूछा गया.....क्यों इतनी दवाइयाँ खर्च करती हो... सब क्या यूँ ही बाँट दोगी...बाहर से लिखा करो...।
सीज़ेरियन और मुस्किल प्रसव में बतौर पीड़ियाट्रीशियन हाज़िर रहती। एक दिन गायनेक वॉर्ड में एक दर्दी मिला और पूछने लगा आपको क्या फिर पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान....मैने पूछा फिर मतलब....। उसने कहा वो साब ने आपके नाम से लिये हैं ना। तब से सभी दर्दियों को समझाना शुरु किया की मेरे लिये किसी को पैसा ना दे।
जिस सरकारी सिस्टम से मैं रूबरू हुई थी उससे आज भी घिन आती है। क्लर्क, पुराने कर्मचारियों की अजीब सी मानसिकता......। अच्छे और सही लोगों का इतना अभाव।
सिविल अस्पताल में मुझे जो सबसे अधिक दिखा वह थी सरकार और सरकारी कर्मचारियों की आम जनता की तरफ उदासीनता और बेपरवाही।
और पहुंच गए यूएई...
सिविल अस्पताल की हर बात निराली थी। एमरजन्सी में रात को ऐम्बूलैंस आता और मैं निकलती...जोयल पीछे पीछे आता ...ड्राइवर बोनेट पर एक लात मारता...फिर खर्र खर्र करती चालू होती ऐम्बूलैन्स। इसका असर यह हुआ कि जोयल को जब खिलौने वाली ऐम्बूलैंस दी गई वह जोंर से उसे पटकता और देखता की चालू होती है कि नहीं।
2002 अक्तूबर में गुड़िया हमारी जिंदगी मे आ गई। उसी समय जयसन के एक अच्छे नौकरी के ऑफर के चलते सिविल छोड़ हम पहुँच गये यू ए ई।
जयसन ने शादी के बाद छह अलग जगह-सूरत, हैदराबाद, जामनगर, भरूच, अबूधाबी और दुबई में नौकरी की।
मैने शादी के बाद पाँच अलग –सूरत, जगड़िया, भरूच,दुबई(2) जगह नौकरी की।
कुल सात घर बदले।
दो बच्चे।
आठ हाउस मेड।
शादी के बाद एम डी पूरा किया। जयसन ने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी एम बीए के लिये ज्वाइन किया।
कई बार अलग रहे।
एक दूसरे पर कभी कुछ थोपा नहीं।जारी
[जोयल और गुड़िया नाना-नानी के साथ]
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 12:58 AM लेबल: बकलमखुद