Saturday, October 10, 2009

घर-गृहस्थी की फिक्र (बकलमखुद-109)

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 109वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
पिछली कड़ी-कोर्ट में गुस्से का इजहार [बकलमखुद-108]
हले पहल जिस मकान में कमरा-रसोई किराए पर लिए, वह एक गली में था। कमरे की एक मात्र खिड़की पीछे चौक में खुलती थी। वही एक हवा-रोशनी का साधन थी। पीछे चौक के आस-पास के मकानों में जो लोग रहते थे, उन के मुख से बातचीत से ले कर लड़ाई-झगड़ों में यौनांगों के नामों और अवैध यौन सबंधों की संज्ञाएँ टपकती ही रहतीं। स्त्रियोँ और बच्चों तक को उन से परहेज न था। शोभा महीने भर में ही उकता गई। नए मकान की तलाश आरंभ हुई। तीसरे माह पिताजी के एक मित्र का मकान मिला, यूनियन दफ्तर पर भी नजदीक था। दुमंजिले का कमरा-रसोई तय हो गए। उस में आ गए। यहाँ पहला सीलिंग फैन खरीदा गया। लेकिन उस माह ही घर खर्च में परेशानी हुई। जेब बिलकुल खाली और घर में जरूरी सामान नहीं, क्या किया जाए? सरदार ने असमंजस में घर से यूनियन-दफ्तर तक के चक्कर लगाना आरंभ किया। बीच में एक धर्मकांटा था, जिस का मालिक साहित्य में रुचि रखता था। सरदार कभी कभी उस के साथ चर्चा करने बैठ जाता। उस दिन उस ने आवाज दे ली। वहाँ गया तो उस ने एक नोटिस पकड़ा दिया। उस के किसी पूर्व कर्मचारी ने बकाया वेतन का दावा कर दिया था। सरदार ने तय कर रखा था कि मजदूर के खिलाफ मालिक का मुकदमा न लड़ेगा। लेकिन जेब कह रही थी कि नोटिस ले लो, वकालतनामा हस्ताक्षर करवा लो, कुछ तो फीस मिलेगी, घर में सामान आ जाएगा। मन कह रहा था –यह क्या? पहली ही परीक्षा में फेल हो जाओगे क्या? नोटिस न लिया गय़ा, मना भी न किया। कहा –अभी तारीख दूर है, फिर ले लूंगा। वहाँ से उठा तो खाली जेब फिर कमरे से यूनियन दफ्तर के बीच चक्कर आरंभ हो गए। जैसे-तैसे वह दिन निकाला। दूसरे दिन सुबह अदालत जाने को टेम्पो के पैसे बचाने के लिए किसी से लिफ्ट ली। अदालत में एक नया मुवक्किल आ गया। जेब में कुछ पैसा आया तो असमंजस जाता रहा।
स मकान में रहते साल ही हुआ था कि गर्मी की एक रात सरदार और शोभा पास के पार्क में जा बैठे। वहाँ ठंडक में बैठे-बैठे देर हो गई। घर पहुँचे तो मकान के प्रवेश द्वार पर अंदर से ताला लग चुका था। मकान में किराएदारों के अलावा केवल मकान मालिक का लड़का रहता था, उसे आवाज लगाई, वह उतरा और ताला खोला। लेकिन वापस गया तो बड़बड़ाते हुए। उसी समय तय हो गया कि नया मकान तलाश कर लेना चाहिए, जिस में कमरे का एक रास्ता बाहर जरूर खुलता हो। सप्ताह भर में मकान बदल लिया गया। नए मकान में दो कमरे, रसोई थी। अब उन की जरूरत भी थी, घर में नया सदस्य आने वाला था। बाहर के कमरे को दफ्तर की शक्ल देने के लिए मेज और कुर्सियों की जरूरत थी। दीदी के घऱ से एक फालतू मेज लाई गई, दो कुर्सियाँ खरीदीं एक खुद के लिए और एक मुवक्किल के लिए। कुछ दिन बाद पिताजी आए, मेज और कुर्सियाँ देख प्रसन्न भी हुए। सरदार ने उन से जिक्र किया -तीन चार कुर्सियाँ और होतीं तो ठीक होता। पिताजी ने कहा कमाते जाओ, बसाते जाओ। उस दिन निश्चित हो गया कि अब सब कुछ खुद ही करना है।
धर खबर आई कि दादा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं। सरदार उन से मिलने गया, देखा दादा जी की चला-चली की बेला है। उन्हें देख कर वापस लौटा तो खबर आई, दादा जी नहीं रहे। इस दशा में शोभा तो जा नहीं सकती थीं। सरदार अकेला ही बाराँ गया। वहाँ फिर चर्चा हुई कि बहू के पास कोई नहीं है। वापसी में छोटी बहिन अनिता को साथ लिया। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत का दिन था, शाम को सभा थी। सरदार और अनिता दोनों देर रात सभा से लौटे तो पत्नी ने अस्पताल जाने का संकेत दिया। उसी समय उन्हें पास के अस्पताल भर्ती कराकर सरदार मौसी को बुलाने दौड़ा। मौसी आ गईं तो तसल्ली हुई। सुबह दूसरे पहर तक बेटी नए सदस्य के रूप में साथ थी। खबर होने पर मामा जी, मामी जी मिलने आए। मामी जी अस्पताल तक गईं, मामा जी घर ही बैठे रहे। मामी जी मिला कर सरदार वापस लौटा, तब तक एक कागज पर मामाजी बिटिया की कुंडली बना चुके थे। उन के हिसाब से नाम कुछ और रखा जाना था। लेकिन जन्म नक्षत्र पूर्वाभाद्रपद था। उस दिन से उसे पूर्वा कहना आरंभ किया तो कोई दूसरा नाम जुबान पर चढ़ा ही नहीं। बेटी हमेशा शिकायत करती कि उस की सहेलियों के कई नाम हैं, घऱ का अलग. स्कूल का अलग और नाना-मामा का अलग, उस का एक ही क्यों है?
कुछ दिनों में माँ आ गईँ, शोभा और पूर्वा को अपने साथ ले गईं। दो माह में दोनों वापस लौटीं तो गर्मियाँ जोरों पर थीं। सरदार एक दिन अदालत से लौटा तो शोभा ने बताया पूर्वा बार-बार दस्त जा रही है। पत्नी से पूछा कि क्या बात हो सकती है? वह डॉक्टर की बेटी, उस ने अपने अनुभव से कहा, लगता है पहली गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही है। सरदार शाम को ठंडाई के लिए ब्राह्मी भिगो कर गया था। उस में से दो पत्ती ले कर निचोड़ा, निकला हुआ रस चम्मच से बेटी को पिलाया, दस्त बंद हो गए। युक्ति काम कर गई थी। लेकिन युक्तियों से काम न चलने वाला था। देर-सबेर कोई स्थाई चिकित्सक तो देखना ही था। यूँ तो मामा बैज्जी कोटा में ही थे, लेकिन वे दूर थे। चिकित्सक नजदीक होना चाहिए था। पड़ौसी एलआईसी साथी डीसी त्रिपाठी के बड़े भाई होमियोपैथ थे। पूर्वा को वहीँ दिखाया जाने लगा। वे मीठी गोलियाँ देते, जिन्हें पूर्वा बड़े चाव से खाती। सरदार को भी गोलियों ने चमत्कृत किया। पाँच मि.लि. की शीशी में कोई पाँच-दस बूंद दवा होती और वह चमत्कार की तरह बीमारी से निपटती। सरदार जीव-विज्ञान स्नातक और आयुर्वेद विशारद तो था ही, एक दिन होमियोपैथी की एक किताब भी घर आ गई।
स मकान मालिक के व्यवहार से भी असंतुष्टि हुई तो फिर मकान बदला गया। इस बार जो मकान मिला उस में भी वही दो कमरे और रसोई थे, लेकिन बड़े थे। बाहर का कमरा बड़ा था। एक मेज, दो कुर्सी मे दफ्तर भौंडा लगता। एक मित्र ने अपने कारखाने से लकड़ी का एक तख्त बनवा कर भिजवा दिया, दफ्तर ठीक लगने लगा। एक दिन सरदार अदालत से घर लौट रहा था तो टेम्पो स्टेंड पर एक बढ़ई को लकड़ी की एक बैंच बेचते देखा। कीमत सवा सौ बता रहा था। भाव किया तो नब्बे तक आ गया। घर आ कर पत्नी को पैसा दे कर भेजा। कुछ देर बाद देखा पत्नी के पीछे बढ़ई बेंच उठाए आ रहा है। पत्नी ने बताया पिचहत्तर में खरीदी है।

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11 कमेंट्स:

Arvind Mishra said...

जीवन के संघर्ष के इन्द्रधनुषी रंग दिख रहे हैं !

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

इतनी सहजता और इतनी आत्मीयता? धन्य वकील साहब।

विनोद कुमार पांडेय said...

कहाँ कहाँ और कैसे कैसे यह जीवन रूपी पहिया चलती है..बहुत ही विविधता भरा जीवन है बस आदमी को अपनी मेहनत और आत्मविश्वास कभी कम नही होने देना चाहिए....

निर्मला कपिला said...

वाह् भाभी जी ाअसे अच्छी खरीदारी कर लेती हैं बहुत बडिया लगा ये अंक भी शुभकामनायें

शोभना चौरे said...

bahut

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

तिनका तिनका जोड़ घोसला तैयार कर ही रहे है आप . लक्ष्मी का आगमन तो हो ही चूका है . आगे का इंतज़ार

प्रकाश पाखी said...

काफी दिनों बाद आपकी रचनाए पढ़ पाया हूँ पर 'आज मुआ काम नहीं करता' वाली पोस्ट से पढना शुरू किया ,पढ़कर हमेशा की तरह से एक संतुष्टि प्राप्त हुई...फिर सायर सिंघ सपूत की बात तो विषय वस्तु से दिल के करीब लगी...अपने आपको सायर सिंघ सपूत तीनो मानते आये है तो पढ़ कर आनंदित होना ही था..राखत और राइट का लिखने से सम्बन्ध जानकार रोमांच ..सरसराहट और सर्प के udgam को पढ़ते कई nai cheeje jaanne को मिली ..पर agyey की panktiya तो kamaal की लगी

साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
तुम्हे नहीं आया।
एक बात पूछूँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना,
विष कहाँ पाया?
गली की पोस्ट पर ठहर गया..तनिक रुक कर आपके शब्दों के सफर को सराहने लगा...
रोड इंसपेक्टर पर रिश्ते से रोड तक के सूत्र जुड़े देख कर लगा की शब्द कितनी शक्ति रखते है...
कोर्ट में गुस्से का इजहार और घर गृहस्ती की फ़िक्र एक साथ पढ़े...कडियों में प्रेरक गाथा प्रभावित करने वाली थी...मेरी मजबूरी है हमेशा ब्लॉग पढने का समय नहीं मिल पाटा है पर जब भी समय मिलता है आपकी सभी पोस्ट पढ़कर ही दम लेता हूँ...इस सफर को जारी रखें..
बधाई और आभार.

अजित वडनेरकर said...

@प्रकाश पाखी

प्रकाश भाई,
पहली बार किसी की टिप्पणी इस अंदाज़ में पढ़ रहा हूं। सफर के सच्चे हमक़दम की तरह आपकी हर पंक्ति में
एक एक पड़ाव से खुद का जुड़ाव महसूस हो रहा है।
आप आते रहें यूं ही, सफर को हमेशा बढ़ता पाएंगे।
दिल से आभार
शुभकामनाएं।
सस्नेह
अजित

Abhishek Ojha said...

प्रकाशजी तो हमारे जैसे पाठक लगते हैं :) और इधर 'कमाते जाओ बसाते जाओ'. पर अमल हो रहा है धीरे-धीरे. ये खरीदार में मोल-मोलाई सबके बस की बात नहीं. मैं तो बिलकुल ही कच्चा हूँ :)

Asha Joglekar said...

कहानी और भी दमदार हो रही है ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कितनी सच्ची आत्मकथा सहजता से लिखी है आपने ..यादगार --

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