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बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
18 कमेंट्स:
सोचनेवाली बात है -- वैसे मैं मेरी अपनी मातृभाषा गुजराती मानती हूँ और पितृ भाषा हिन्दी - परिवेश के कारण तो मुम्बई में जन्म और परवरिश हुई तो , मराठी भी ...मातृभाषा? ;-)
प्रश्न अनुत्तरित है ! सदैव कौंधता भी है | एक आम समझ के अनुसार तो यह माना जा सकता है मातृ भूमि से ही कुछ सराकोर रहा हो इस शब्द का | शायद इसीलिये मातृ भूमि और वहां की भाषा के प्रति एक अनुराग भाव समूचे जीवन में पूंजी के समान संतोष देता है |
मैं दस माह की उम्र में मां-बाप के साथ वडोदरा से काशी आया । जिस परिसर में रहते थे वहाँ देश भर से महिलाये प्रसिक्षण के लिए आतीं थीं । सभी अपनी अपनी भाषा मुझे सिखाने की कोशिश में रहतीं । बहरहाल जिस भाषा में बोलना शुरु किया वह हिन्दी थी और आज तक सोचता भी उसी में हूँ । माँ के पिता की भाषा ओड़िया और नानी की भाषा बांग्ला थी । परिवार में जिस तरफ़ के लोग जब आते,वह भाषा तब चलती। माँ गुजराती से ओड़िया की अच्छी अनुवादक थी । पिता के मां-बाप की भाषा गुजराती है लेकिन ओड़िया और बांग्ला उन्होंने भी सीखी।
फार्म में कहीं पूछा जाता है तो लाजमी तौर पर मातृ भाषा - हिन्दी ही लिखता हूँ । कुछ लोग कहते हैं काशिका लिखना चाहिए।
अच्छा लेख है |
मातृभाषा पर चर्चा रुची |
धन्यवाद् ...
अफ़लातून के जवाब में लाजवाब है.
मेरी माता जो थीं ठीक से उन्हें पहचान नहीं सका सो मातृभाषा का असमंजस आजतक बना हुआ है.
बहुत अच्छी चर्चा छेड़ दी है आप ने। मेरे परिवार में हाड़ौती बोली जाती थी। मां भी हाड़ौती ही बोलती थी। लेकिन उस की बोली में कहीं कहीं मालवी का लहजा होता था। लेकिन हम हाड़ौती ही बोलते। दादा जी कथा बांचते तो संस्कृत में लेकिन टीका हाड़ौती में करते। सारा माहौल हाड़ौती का ही था। माँ भी हाड़ौती ही बोलती। लेकिन जब हम मामा के यहाँ जाते तो बोली में अंतर आ जाता लेकिन वह बोधगम्य होता था। कुल मिला कर हमारी मातृभाषा हाडौती हुई। लेकिन जब लिखने-पढ़ने की स्थिति बनी तो हिन्दी से ही सरोकार हुआ। बाद में समझ आया कि मातृभाषा तो हिन्दी ही है। हाड़ौती तो उस की एक बोली मात्र है। ब्रज, अवधी आदि सभी हिन्दी के ही रूप हैं। आप का यह निष्कर्ष सही है कि मातृभाषा माँ से नहीं धरती माँ से संबंध रखती है। धरती के जिस टुकड़े पर आप ने पहले पहल भाषा का संस्कार प्राप्त किया वही आप की मातृभाषा होगी। इस लिए परिवेश ही प्रधान है।
yh vishay bahut hi vistrat hai aaj jabki ak shar se dusre shar .ak rajy se dusre rajy ,ak desh se doosre desh me aana jana aur basna jaruri ho gya hai tb matrbhsha kisko chune ?ya kise kahe ?asmnjas ki sthiti ho gai hai .har privar me antarjatiy vivaho ki prmukhta hai tab privesh hi matrabhasha ka adhikari hoga .
yh chrcha bahut hi mayne rakhti hai kyoki isme hi aaj ke smaj ki chabi hai .
यही सवाल मेरे साथ भी उठा...मेरी पढ़ाई मराठी भाषामे हुई, घरमे हिन्दुस्तानी बोली जाती..माँ तथा दादी गुजरात की थीं...माँ की पढ़ाई गुजराती भाषामे हुई...
मैंने स्नातक तथा स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए इंग्लिश भाषाका चयन किया...मै तीनो भाषाओँ में लिखती हूँ, लेकिन माँ तथा दादी बेहतरीन उर्दू दान रहे..उनकी हिन्दी hyderabaadee हिन्दी तथा गुजराती भाषसे प्रभावित रही( बोलते समय)...मई अपनी मातृभाषा हिन्दी मानती हूँ...जबकि मेरी हिन्दी वाक़ई शुद्ध रही, नाकि माँ की !
अब कहने को बचा ही क्या है?
आपने कुछ सोचकर ही तो यह पोस्ट लगाई होगी।
महत्वपूर्ण विमर्श.बोलियाँ भाषा शास्त्र की दृष्टि से भाषाएँ ही हैं पर राजनीतिक नज़रिए से बोलियाँ.ऐसा कहीं पढ़ा था.बताएं ताकि अपनी मातृभाषा निश्चित कर सकूं.परिवेश के हिसाब से मारवाडी ही है मातृभाषा, अब इसे बोली मानेंगे तो फिर हिंदी होगी मातृभाषा.मारवाडी का गर्भ-नाल सम्बन्ध तो गुजराती से है,ग्रियर्सन भी इसे स्वतंत्र भाषा मानते हैं,फिर हिंदी की ये बोली कैसे हुई?कोई विवाद उपस्थित करना कतई मकसद नहीं है पर इस विमर्श में इस सवाल को भी जगह मिले ऐसी इच्छा है.
हिंदी को फिलहाल मैं व्यवहार और मेरे चिंतन की भाषा मान रहा हूँ.
@प्रमोदसिंह,अफलातून, क्षमा, दिनेशराय द्विवेदी, लावण्या शाह, डॉ रूपचंद्र शास्त्री,रमेशदत्त सक्सेना,शोभना चौरे.
शुक्रिया आप सबका इस विषय पर अपनी राय जाहिर करने के लिए।
माँ पिताजी कुमाऊँनी बोलते थे। वह कभी बोल ही नहीं सकी। परिवेश की भाषा पंजाबी थी, उसमें भी बोलने में कभी महारत हासिल नहीं कर पाई। हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ाई की भाषाएँ थीं, वे ही आजतक साथ हैं। मातृभाषा हिन्दी ही कहूँगी क्योंकि शायद जानबूझ कर माँ ने इसी में बोलना सिखाया।
घुघूती बासूती
पहले के जमाने में शादी ब्याह अपने ही परिवेश में हुआ करते थे, तो मातृभाषा या पितृभाषा एक ही होती थी इसी लिये मातृ-भाषा को मां की भाषा ही मानने में कोई परेशानी नही थी । पर बच्चा जब बोलना सीखता है तो मां ही उसकी प्रथम गुरु होती है तो वही उसकी मातृभाषा हुई । बाद में चाहे वह अपने विस्तृत परिवेश की भाषा सीख ले पर मातृभाषा तो वही हुई जिसे उसने माँ से सीखा । हमारा बचपन शिक्षा दीक्षा सब मध्यप्रदेश में हुआ हम सब भाई बहन मराठी तथा हिंदी दोनो में सहज अनुभव करते हैं, पर मातृभाषा तो मै मराठी को ही मानती हूँ । हमारी माँ हमें घर में हिंदी नही बोलने देतीं और मराठी साहित्यिक किताबें भी घर में पढी जाती थीं । घर के बाहर अवश्य हमने हिंदी पढी और सीखी आगे विज्ञान की पढाई का माध्यम ही अंग्रेजी था तो वह भी सीखी । शादी के बाद कलकत्ता गये तो बांगला भी सीखी । अब जब अंतर-जातीय और अंतर-प्रांतीय विवाह सर्वमान्य हो चुके हैं तो इसकी नये सिरे से परिभाषा करना शायद आज की जरूरत है ।
अपनी तो मातृ ,पितृ ,पत्नी भाषा एक ही है हिंदी .
आप स्वयं से जब बोलते हैं, अनायास ही, वो जिस भी भाषा में हो या दो तीन भाषा या बोलियों की खिचडी ही क्यों न हो, वही आपकी भाषा है. भाषा से माँ पिता का सम्बन्ध जोड़ना बिलकुल नाइंसाफी होगी. भाषा के साथ भी और माता पिता के साथ भी. और इसको standardize करना और भी गलत होगा. जैसा दिनेश राय जी ने हाडोती को हिंदी मान कर कर लिया. सरकारी तौर पर बात दूसरी है. आपकी भाषा आपके DNA से अलग नहीं है. वो आपके माँ पिता अथवा माता-पिता स्वरुप वातावरण से उपजी है पर अंततः आपका DNA अलग ही है.
'टंग' गई फिर से 'मदर' चौखट पे आज,
पितृ भक्तो का यहाँ चलता है राज,
मात्र [केवल] भाषा ही की ये चर्चा नही,
कैसे बचती देखिये अब माँ की लाज?
पहले तो धीरू जी पत्नी भाषा वाली बात पर हँसी आयी... अच्छा लगा... ... हास्य
अब कुछ बातें। आपने जिस संस्कृत श्लोक का जिक्र किया है, कल उसे फेसबुक पर एक मित्र ने साझा किया तब हमने कुछ देखा...
फिर पता चला कि वह श्लोक या वेदमंत्र ऋगवेद के प्रथम मंडल के 13वें सूक्त में 9वें स्थान पर है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, इस श्लोक के अर्थ में कहीं से भी मातृभाषा नहीं आ रहा।
और ग्रिफिथ महोदय भी इसके अनुवाद में
9 Ila, Sarasvati, Mahi, three Goddesses who bring delight, Be seated, peaceful, on the grass. लिखा है। ... ...
ऋगवेद का वह हिस्सा यहाँ देख सकते हैं-
http://services.awgp.in/www.awgp.org/global/page_3/data/download/books/2.important-books/1.5ved-darshan/rigved/Rigveda_Part_1A.pdf
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
दूसरी बात कि मातृभाषा एक से ज्यादा हो सकती है, ऐसा विचार रखने पर कुछ लोगों ने ऐतराज जताया था।
उदाहरण- पटना का लेते हैं। यहाँ पटना शहर में जिनका घर है, वे मगही और हिन्दी(अक्सर बाजार में, घर में भी। किरायेदारों से), दोनों बोलते हैं। यानी बच्चा जन्म लेने के बाद दोनों भाषाएँ एक साथ सुनकर बड़ा होता है। जाहिर है दोनों भाषाएँ बोलना सीख जाता है। तब हम यह क्यों नहीं सकते कि मातृभाषा (कहा जाता है कि माता की भाषा लेकिन यहाँ अर्थ थोड़ा विस्तृत रूप में बदल देते हैं, आपसे सहमति है ) ... ...
... ... कुछ जनों ने कहा है कि जिस भाषा को बोलने जानने के लिए व्याकरण नहीं सीखना पड़े... ... वह मातृभाषा है... ... बस याद आ गया इसलिए कह रहे हैं!
पहले तो धीरू जी पत्नी भाषा वाली बात पर हँसी आयी... अच्छा लगा... ... हास्य
अब कुछ बातें। आपने जिस संस्कृत श्लोक का जिक्र किया है, कल उसे फेसबुक पर एक मित्र ने साझा किया तब हमने कुछ देखा...
फिर पता चला कि वह श्लोक या वेदमंत्र ऋगवेद के प्रथम मंडल के 13वें सूक्त में 9वें स्थान पर है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, इस श्लोक के अर्थ में कहीं से भी मातृभाषा नहीं आ रहा।
और ग्रिफिथ महोदय भी इसके अनुवाद में
9 Ila, Sarasvati, Mahi, three Goddesses who bring delight, Be seated, peaceful, on the grass. लिखा है। ... ...
ऋगवेद का वह हिस्सा यहाँ देख सकते हैं-
http://services.awgp.in/www.awgp.org/global/page_3/data/download/books/2.important-books/1.5ved-darshan/rigved/Rigveda_Part_1A.pdf
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दूसरी बात कि मातृभाषा एक से ज्यादा हो सकती है, ऐसा विचार रखने पर कुछ लोगों ने ऐतराज जताया था।
उदाहरण- पटना का लेते हैं। यहाँ पटना शहर में जिनका घर है, वे मगही और हिन्दी(अक्सर बाजार में, घर में भी। किरायेदारों से), दोनों बोलते हैं। यानी बच्चा जन्म लेने के बाद दोनों भाषाएँ एक साथ सुनकर बड़ा होता है। जाहिर है दोनों भाषाएँ बोलना सीख जाता है। तब हम यह क्यों नहीं सकते कि मातृभाषा (कहा जाता है कि माता की भाषा लेकिन यहाँ अर्थ थोड़ा विस्तृत रूप में बदल देते हैं, आपसे सहमति है ) ... ...दो या उससे ज्यादा हो सकती है!
... ... कुछ जनों ने कहा है कि जिस भाषा को बोलने जानने के लिए व्याकरण नहीं सीखना पड़े... ... वह मातृभाषा है... ... बस याद आ गया इसलिए कह रहे हैं!
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