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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
पर
3:16 AM
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
27 कमेंट्स:
मुझे भरोसा है कि प्रिंट मीडिया में जनसत्ता युग फिर आएगा...
आपकी बात सत्य हो...
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
@संजय करीर
आमीन कहता हूं संजय भाई। यक़ीनन, मीडिया के सही मायने सिर्फ अख़बार में ही उजागर होते हैं। सी ग्रेड फिल्मों से भी गया बीता प्रदर्शन करते न्यूज़ चैनलों की गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। अफ़सोस कि प्रिंट मीडिया खुद बाज़ार की ताकतों के आग़ोश में जो गरमाहट महसूस कर रहा है, पत्रकारिता की आत्मा के लिए यह गरमाहट इन्क्यूवेटर की उसी असंतुलित तपिश जैसी है जिसमें झुलसकर नवजात शिशु दम तोड़ देते हैं।
यह असंतुलन सिर्फ हिन्दुस्तान में ही संभव है। पाकिस्तान चाहे कमजोर मुल्क है मगर वहां लोग जनांदोलन करना जानते हैं। हमारे यहां इस शब्द को लोग भूल चुके हैं। दो दशक के बाद हर चीज का दोहराव बहुत ज़रूरी होता है। चाहे नारा हो, फैशन हो, या आंदोलन। सही मायनों में कोई आंदोलन चले तो तीन दशक से ज्यादा हो चुके हैं। एक समूची पीढ़ी को पता नहीं जनांदोलन क्या होता है???
72 साल की नौजवान उम्मीद हमेशा के लिए सो गई...शरीर बेशक प्रभाष जी का सांध्यकाल का था लेकिन उनकी सोच हमेशा सूरज की पहली किरण वाली रही...युवाओं से हीं ज्यादा युवा...इस उम्र में भी अखबारों ने पैसा खाकर चुनाव में ईमान बेचा तो प्रभाष जी ने पूरी ताकत के साथ विरोध किया...प्रभाष जी को अपना अंत निकट होने का जैसे आभास हो गया था...तभी उन्होंने हाल में एक लेख में लिखा था कि उनके पिताजी का भी 72साल की उम्र में ही निधन हुआ था...क्रिकेट के लिए सोने-जागने वाला इंसान क्रिकेट देखते देखते ही दुनिया से विदा हुआ...अलविदा प्रभाष जी लेकिन आपकी सोच हमेशा हमारे साथ रहेगी...उसे भगवान भी हमसे अलग नहीं कर सकता...
जय हिंद...
प्रभाष जोशी जी को
अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ!
प्रभाष जी पर आपके निजी संमरण पढ़े -और उन्हें श्रद्धांजलि दी !
उनकी चिंतन प्रखरता का कायल कौन नहीं ,मगर क्रिकेट के प्रति उनका अतिशय मोह/एक अजब सा क्रश उनकी बौद्धिकता से हमेशा बेमेल ही रहा मेरी अल्प समझ में !
आज अखबार कारपोरेट संस्कृति से अछूता नहीं हो सकता। प्रभाष जी जिस मीडिया से जुड़े थे वह भी कारपोरेट मीडिया ही था। लेकिन वहाँ रह कर अपने मूल्यों को बनाए रखना और उन्हें स्थापित करना। जनता और जनसंगठनों का मूल्य समझना उन्हें तरजीह देना बहुत बड़ी उपलब्धियाँ थीं। इन के लिए वे हमेशा जाने जाते रहेंगे।
ना जाने कब कैसे प्रभाष जी के कागद कारे से मुलाकात हो गई थी और फिर ऐसा रिशता बना कि छूटा ही नही। सोचता हूँ कल रविवार है क्या कागद कारे आऐगा? और उस रिश्ते का क्या होगा? अब बात नही होगा बस साथ साथ यादों में चलेगा। प्रभाष जी को मेरी नमन।
सही कह रहे हो भाऊ,लेकिन जनसत्ता भी तो अब रोगग्रस्त है,यकीन न आये तो रायपुर संस्करण देख लिजिये।
बेहतरीन संस्मरण, औचक रूप से लिखा गया है. सोचता हूँ आप अपनी सुविधा से इसे लिखते तो क्या होता ? फिर भी इतना त्वरित और समसामयिक विवरण लिखने वाले विरले ही हैं. सच है आप ने जिन दिनों का जिक्र किया है मेरी फंतासी भरी दुनिया उन्हीं से पूरी होती है. नव भारत के जयपुर संस्करण के दिनों नारायण बारेठ साहब जोधपुर ब्यूरो के प्रभारी हुआ करते थे. उनकी अनिवार्य शर्त थी कि चाहे जिस पंथ को सराहो पर अच्छा लिखने के लिए जनसत्ता जरूर पढो. वो एक दौर था जिसमे पत्रकारिता और पत्रकारों ने जागरण का काम किया था. आप उसी समय सुघड़ हुए हैं. मुझे लगता था कि आपसे आकर्षण की कुछ वजहें जरूर होगी, आज पाया है कि मेरे बदन पर जमी गर्द से आती महक उन्हीं रास्तों की है जिन से आप लोग सरपट निकले थे.
अल्बेयर कामू के "पतन" का नायक कहता है " अगर हम बीसवीं सदी के मनुष्य का इतिहास लिखना चाहें तो क्या लिखेंगे इसके सिवा कि उसने अखबार पढ़े और व्यभिचार किया ..." आज सोचता हूँ कि अगर इक्कीसवीं सदी के मनुष्यों के बारे में लिखा जायेगा तो सिवा इसके क्या होगा " उसने टीवी पर खबरें देखी और पगला गया..." कामू के अवचेतन में जरूर रहा होगा कि बीसवीं सदी में अखबार समाज को बचाए रखेंगे तमाम व्यभिचारों के बाद भी कुछ बुना ही जायेगा. आज सिर्फ नष्ट होने की आशंकाएं है. बड़ी आशंका ये है कि आपकी समझवाली पीढी का पोषण जिस नाल से हुआ था उसे काट दिया गया है. अब जो बचा है वह परखनली शिशु है जिसके संस्कार निश्चित नहीं है.
पत्रकारिता के इस दुरूह क्षेत्र में जीवट की बड़ी जरूरत होती उस पर अगर आप हिंदी में लिखते हैं तो और ज्यादा... मुझे कहा गया था कि अगर पत्रकार बनो तो अंग्रेजी में लिखना ताकि जीवन जीने लायक पैसा जुगाड़ सको. सोचता हूँ आठ सौ रुपये वाला ट्रेनी नब्बे के आगाज़ में कैसे अपने दिन हंसते हुए काट रहा था, वो ख़ुशी कुछ अच्छे लोगों और समूह के साथ काम करने की थी. प्रभाष जी की वैचारिक सोच से मेरा मन नहीं मिलता परन्तु ९१ में जोधपुर आगमन पर देखने जरूर गया था क्योकि वे जिस अखबार के शीर्ष थे, उसी अखबार से मैंने सीखा था खबरों में मानवीय भावनाओं का संचार कैसे हों ?
आपका फोटो भी अपने आप में एक पूरा संस्मरण है.
प्रभाष जोशी का का नाम बना रहे अगर आत्मा का अस्तित्व है तो उसे भी शांति मिले.
"खैर, हम जब डामकोठी पहुंचे तब प्रभाष जी करीब करीब तैयार थे। उन्होंने मामा से कहा- कमलजी, आप चाय वाय पीजिए, तब तक मैं कुछ लिख लेता हूं। हमें याद आया कि अगले दिन रविवार था। दरअसल उनका प्रसिद्ध स्तम्भ कागद कारे कुछ अर्सा पहले ही शुरु हुआ था। संपादकीय पेज पर पूरे ढाई कॉलम में ऊपर से नीचे तक ठसा-ठस होता था वह। किसी हालत में ढाई हजार शब्दों से कम नहीं। हमे लगा, आरती तो छूटी समझिए। वे लिखते रहे, हम चाय पीते रहे। ताज्जुब था कि प्रभाष जी ने मुश्किल से पंद्रह मिनट में अपना काम खत्म कर लिया। पता चला कि अभी आधा लिखा है, बाकी वे रास्ते में लिखेंगे। मंदिर पहुंचने पर प्रभाष जी ने फिर कलम संभाली और बाकी लेख पूरा किया।"
क्रिकेट के उस अनन्य प्रेमी की, पत्रकारिता की पिच पर कितनी तेज़ 'रनिंग बिटवीन द विकेट्स' ! श्रद्धांजलि !
प्रियवर,
तुम्हारा लेख आद्योपांत पढ़ा। प्रभाष जी कितने हमारे अपने थे यह अब बड़ी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा हूं। तुमने बहुत सी बातें याद कराईं जिन्हें याद करने में मुझे वक्त लगता। वे हस्ती थे पर मस्ती भरी हस्ती थे। जो चित्र तुमने लेख के साथ लगाया है ''वाणी'' वाला, उसके साथ के चित्र मेरे विराट संग्रह में कहीं खेए हुए हैं। कल मैं ढूंढता रहा अपने आलेख के साथ भेजने के लिएए मुझे मिले ही नहीं। अस्तु। अपने लेख का लिंक भेज रहा हूं।
http://www.navabharat.org/images/bsp4news7.jpg
सस्नेह
कमलकांत बुधकर
http://www.navabharat.org/images/bsp4news7.jpg
aamin!
श्री जोशीजी को श्रधा सुमन |गंगा जी की कृपा आप पर बनी रहे |
प्रभाष जी को श्रध्दांजली ।
समय भी यह शुन्यता शायद ही भरे .
प्रभाष जोशी एक संस्था थे, जिन्हें पढकर हमने समाज और राजनीति पर अपने विचार बनाये. तसल्ली ये है कि उन्होंने जाने से पहले अपने जैसे सोच वाले अनेक पत्रकार खडे किये, एकल्व्य की तरह.
ढाई साल पहले सूचना के अधिकार पर हुई एक संगोष्ठी में १० मिनट के लिए उनको सुनने का मौका मिला था. उन १० मिनट की वजह से शायद आपके इस निजी संस्मरण को बेहतर महसूस कर सकता हूँ. आपका भरोसा सत्य हो !
अजित भाई, कोई 17 साल पहले मैंने सागर में हुए एक लोकोत्सव की लंबी चौड़ी रपट जनसत्ता में प्रकाशनार्थ भेजी। करीब एक माह तक प्रकाशन नहीं होने के बाद प्रभाष जी के नाम एक पत्र लिख भेजा और अपने मन का क्षोभ उसमें जमकर उड़ेला। अगले हफ्ते रपट प्रकाशित हुई और बाद में प्रभाष जी का लिखा चार लाइन का पत्र आया ... उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था: यह जोश कायम रहे। संपादक से सवाल पूछने का साहस और अधिकार तुम्हें है। और लिखो, और अच्छा लिखो, छपेगा। पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।
इसके बाद मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। जो भेजा संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। वे सदा प्रेरणा देते थे और देते रहेंगे।
समझ सकता हूं कि आप किस युग के लौटने की आशा कर रहे हैं... काश कि यह हो सके!!! जनांदोलन वाली बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं कि एक पीढ़ी निकल गई जिसे इस शब्द का अर्थ ही समझ नहीं आया।
क्या मेरा यह सोचना सही है कि कहीं न कहीं इसके लिए आज के दौर के हम पत्रकार भी जिम्मेदार हैं जो प्रभाष जी जैसे शलाका पुरुषों की जलाई मशाल को थामकर उनके बताए रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाए।
क्या 1983-84 में कागद कारे शुरू हो चुका था, शायद नही।
@किशोर चौधरी
आपकी टिप्पणी ने बरसों दूर किसी आंगन में उतार दिया। बहुत शानदार लिखा है। सचमुच आठसौ छियासठ रुपए मासिक में हम बहुत सुखी थे। रंगकर्मियों की सोहबत, साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी करते हुए पत्रकारिता चल रही थी। यह वही दौर था जब पत्रकारिता में बहुत सी धाराएं आकर एक हो जाती थीं। नारायण जी हमारे प्यारे मित्र हैं। बातें-मुलाकातें कम हैं, पर गर्मजोशी जिंदा है।
@संजय करीर
भाई, जनांदोलन वाली बात के संदर्भ में आपकी सोच से सौ फीसद सहमत हूं। पत्रकारिता ही इसके लिए जिम्मेदार है काफी हद तक। बाकी समाज के तथाकथित जागरुक, पढ़े लिखे कहे जाने वाले तबके और राजनीतिक दल इस पाप के भागी हैं।
@बेनामी
शायद आप सही कह रहे हैं। पर हमने ऐसा कहां लिखा है कि कागद कारे 1983-84 में छपने लगा है। 1983-84 में तो उनसे हमारी पहली मुलाकात हुई थी। उसके कुछ साल बाद फिर जब हरिद्वार में मिले तब का यह उल्लेख है। ज़रा ध्यान से देखें। अलबत्ता उनका आलेख उस वक्त हर रविवार को छपनेवाले किसी नियमित स्तम्भ के लिए ही था। आपको याद आए तो ज़रूर बताएं कि कागद कारे कब शुरु हुआ था।
बेहद आत्मीय संस्मरण । आभार ।
आपका आलेख,संस्मरण ,आपबीती और सरोकार सब समेटे है.
प्रभाष जी की कमी खाश कर अब खलेगी,क्योंकि इस उम्र में भी ,बिकी पत्रकारिता से उनकी लड़ाई कौन आगे ले जायेगा ,उसी साहस और जोम के साथ ?
25-27 साल पहले मै जनसत्ता प्रभाष जी के लेखों के लिये ही खरीदा करता था । अनेक कठिनाईयों के बावज़ूद उन्होने सुविधाओ से समौझौता नही किया और एपने मूल्यो के लिये सतत संघर्ष करते रहे । उनका यह रूप ही अनेक युवा पत्रकारो के लिये मशाल का काम करता था । उनकी पुस्तक " हिन्दू होने का धर्म " ( राजकमल प्रकाशन 2003) बहुत ही महत्वपूर्ण लेखो का संग्रह है ।
मालिक, भौत दिन बाद सोचा सब लेख सफ़र के पढ़े जायें जो छूटे हुये हैं। इसे पढ़ा तो प्रभाष जी के होने और न होने का फ़र्क और साफ़ हुआ। बेहतरीन संस्मरण। "खाकसार" की पुरानी फोटॊ देखकर बहुत अच्छा लगा।
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