Monday, April 12, 2010

[नामपुराण-7] दुबे-चौबे, ओझा-बैगा और त्रिपाठी-तिवारी

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...ब्राह्मणों का एक कुलनाम त्रिपाठी भी प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान इसका अर्थ त्रि+पाठिन् बताते है अर्थात तीनों वेदों का पाठ करनेवाला ब्राह्मण। इसकी व्युत्पत्ति त्रिपदी से भी बताई जाती है
ज्ञा न की परम्परा का व्यक्ति की पहचान से गहरा रिश्ता है। आमतौर पर व्यक्ति की पहचान उसके स्थान से जुड़ती रही है जैसे धौलपुर का व्यक्ति धौलपुरी या धौलपुरिया कहलाएगा और लखनऊ का लखनवी। स्थान के आधार पर व्यक्ति की शिनाख्त अकसर तब होती है जब वह मूल स्थान को छोड़ कर कहीं और बसेरा कर लेता है। इसी तरह व्यक्ति की पहचान से ज्ञान परम्परा का रिश्ता भी रहा है। अध्ययन-अध्यापन की गुरुकुल पद्धति इसके मूल में रही। पुराने ज़माने में लोग शिक्षा से जुड़ी उच्च उपाधियों को अपने नाम के साथ जोड़ते थे। भारतीय संस्कृति में वेदों को ज्ञान का मूल स्त्रोत माना गया है। वैदिक अध्यययन के आधार पर अपने कुल की पहचान जोड़ने की परम्परा को इसी रूप में देखना चाहिए। प्राचीनकाल में वेदपाठी
आजकल; वणिकों में जो गुप्ता उपनाम प्रचलित है वह गुप्त का भ्रष्ट रूप है। व्यापक अर्थ में देखें तो छुपने छुपाने में आश्रय देना या आश्रय लेना का भाव भी समाहित है। गुप्त का एक अर्थ राजा या शासक भी होता है क्योंकि वह प्रजा को आश्रय देता है, उसे छांह देता है।
ब्राह्मण समूहों की पहचान इस तथ्य से होती थी कि किस समूह में किस वेद के अध्यययन की परिपाटी है। हिन्दू समाज में ब्राह्मणों के ऋग्वेदी, सामवेदी, यजुर्वेदी जैसे विभिन्न वर्ग हैं। इसी तरह वेदी (बेदी), द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी जैसे उपनाम भी सामने आए। वेदी का रूपांतर बेदी हुआ तो द्विवेदी से दुबे बन गया। इसके बाद चतुर्वेदी का रूपांतर चौबे हुआ।

गुरुकुलों में दी जानेवाली उपाधियों को कई लोग उपनाम की तरह अपने साथ लगाते हैं जैसे प्रसिद्ध लेखक चंद्रगुप्त विद्यालंकार के नाम के साथ विद्यालंकार शब्द दरअसल गुरूकुल की उपाधि है। इसी तरह वेदालंकार, विद्यावाचस्पति, वाचस्पति, वेदपाठी, त्रिपाठी आदि उपनाम व्यक्ति की पहचान का रिश्ता ज्ञान परम्परा से स्थापित करते हैं। उपनयन संस्कार के बाद बालक की शिक्षा शुरू होती थी। शिक्षित होने के बाद कोई भी बटुक समाज में अपने कुल की पहचान से नहीं बल्कि गुरुकुल की पहचान से जाना जाए। प्राचीन गुरुकुलों की पहचान उनके अधिष्ठाता ऋषि-मुनियों के नाम से थी। ऋषि-मुनियों के नाम से जुड़े उपनाम हिन्दू समाज में बहुतायत है जैसे भृगु ऋषि के कुल में उत्पन्न होनेवाले भार्गव कहलाए, गर्ग की परम्परा वाले गार्गेय, गार्ग्य कहलाए। गर्ग की पुत्री का नाम इसी वजह से गार्गी हुआ। याद रहे गार्गी का ही एक नाम वाचक्नवी भी है जिसका अर्थ है प्रखर वक्ता, सुमेधा सम्पन्न। याद रहे गार्गी वाचक्नवी का उल्लेख उपनिषदों में प्रमुखता से आया है। ऐसा माना जाता है कि वे ऋषि वचक्नु की पुत्री थीं इसी वजह से उन्हें वाचक्नवी कहा गया, पर वचक्नु मुनि के अस्तित्व को संदिग्ध भी माना जाता है। 
ॉब्राह्मणों की आम पहचान शर्मा उपनाम से होती है जो शर्मन् का रूपांतर है। वाशि आप्टे कोश के अनुसार ब्राह्मणों के नामों के साथ प्रायः शर्मन् अथवा देव, क्षत्रियों के नाम के साथ वर्मन् अथवा त्रातृ, वैश्यों के साथ गुप्त, भूति अथवा दत्त और शूद्रों के साथ दास शब्द संयुक्त होता था। - शर्मा देवश्च विप्रस्य, वर्मा त्राता च भूभुजः, भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रश्य कारयेत्। शर्मन् का अर्थ है आनंद, कल्याण, शांति, आश्रय, आधार आदि। ब्राह्मणों के स्वस्ति वचनों में कल्याण की भावना निहित है यह भाव भी इसमें निहित था। वर्मन ने वर्मा उपनाम भी बना है जो कायस्थों और वणिको में भी होता है। बंगालियों में वर्मन का रूप बर्मन हुआ। आज के प्रसिद्ध आयुर्वैदिक ओषधि निर्माता डाबर में यह बर्मन Ch झांक रहा है। दरअसल यह डॉक्टर बर्मन का संक्षिप्त रूप है। आजकल  वणिकों में जो गुप्ता उपनाम प्रचलित है वह गुप्त का भ्रष्ट रूप है। गुप्त बना है संस्कृत की गुप् धातु से जिसमें छिपाने का भाव है। गुप्त का गुप्ता अंग्रेजी वर्तनी की देन है। पुराने ज़माने में राजाओं-नरेशों के नाम के साथ गुप्त जुड़ा रहता था। व्यापक अर्थ में देखें तो छुपने छुपाने में आश्रय देना या आश्रय लेना का भाव भी समाहित है। गुप्त का एक अर्थ राजा या शासक भी होता है क्योंकि वह प्रजा को आश्रय देता है, उसे छांह देता है। गुप्त के पालक या शासक-सरंक्षक वाले भाव का विस्तार इतना हुआ हुआ कि यह एक राजवंश की पहचान ही बन गया। भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलानेवाला समय गुप्त राजवंशियों का ही था।
दिवासी समाज में पुरोहित को बैगा भी कहा जाता है। बैगा एक उपजाति भी है। ये लोग वनवासी समाज में धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न कराते हैं। बैगा शब्द बना है विज्ञ से जिसका अर्थ है ज्ञानवान, जानकार, समझदार आदि। किसी भी समाज में पुरोहित का काम सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि कुल की परम्पराओं, विधिविधानों का उसे ज्ञान होता है। ओझा शब्द के साथ भी यही बात है। ओझा या झा आमतौर पर ब्राह्मणों का उपनाम है किन्तु देहात में ओझा उस व्यक्ति को भी कहते हैं जो झाड़-फूंक और कर्मकांड करवाता है। जरूरी नहीं कि यह व्यक्ति ब्राह्मण है मगर समाज में उसका रुतबा ज्ञानी होने की वजह से ही है। झाडफूंक वाले पुरोहित के साथ लगा ओझा शब्द उसकी उपाधि है जबकि ब्राह्मण वर्ग में ओझा या झा उपनाम हैं। हालांकि ओझा शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो पता चलता है कि किसी जमाने में यह उपाधि ही थी। ओझा शब्द बना है उपाध्याय से जो ब्राह्मणों का एक प्रसिद्ध उपनाम है। प्राचीनकाल में गुरुकुल में अध्यापन कार्य करनेवाले को उपाध्याय कहते थे। संस्कृत का ध्य प्राकृत के या में बदलता है। उपाध्याय से ओझा में बदलने का क्रम कुछ यूं रहा-उपाध्याय> उवज्झाय> उउज्झा > ओझा। महाराष्ट्र में उपाध्याय से पाध्ये सरनेम बनता है। उत्तरप्रदेश का खत्री समुदाय अपने पुरोहित के लिए पाधाजी सम्बोधन उच्चारता है। यह भी उपाध्याय का  ही रूप है।
उपाध्याय शब्द बना है उप+अध्याय। उपाध्याय के अन्वय से स्पष्ट है कि किसी ग्रंथ के विशिष्ट अंश का अध्यापन करानेवाले अध्यापक को उपाध्याय कहते हैं। प्राचीन गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी को वेदों के विशिष्ट अंश पढ़ाने के लिए नियमित वृत्ति अर्थात वेतन पर जो शिक्षक होते थे वे उपाध्याय कहलाते थे। कालांतर में शिक्षावृत्ति अर्थात पारिश्रमिक के बदले पढ़ानेवाले ब्राह्मणों  का पदनाम ही उनकी पहचान बन गया जो बाद में ब्राह्मणों का कुलनाम भी प्रचलित हुआ। ब्राह्मणों का एक कुलनाम त्रिपाठी भी प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान इसका अर्थ त्रि+पाठिन् बताते है अर्थात तीनों वेदों का पाठ करनेवाला ब्राह्मण। एक अन्य व्याख्या यह भी है कि शिक्षा स्नातक बनने से पूर्व वैदिक ग्रंथों का तीन बार घोटा लगा चुका बटुक त्रिपाठी हुआ। इसकी व्युत्पत्ति त्रिपदी से भी बताई जाती है जो अधिक तार्किक है। संस्कृत में त्रिपदी का एक अर्थ है गायत्री छंद। गौरतलब है गायत्री का प्रसिद्ध मंत्र यजुर्वेद में ही है। भाव यही कि यजुर्वेदी और गायत्री पाठ करनेवाले ब्राह्मण त्रिपदीय ब्राह्मण कहलाए और इसका देशज रूप त्रिपाठी हुआ। त्रिपाठी से ही तिवारी उपनाम भी बना है। क्रम कुछ यूं रहा त्रिपाठी >तिरवाठी> तिरवाई> तिवराई> तिवारी। त्रिपाठी से तिवारी के रूपांतर में वर्ण विपर्यय भी हुआ है। अन्त्याक्षर का लोप हुआ। आद्यक्षर त्रि में निहित त+र ध्वनियां खुलती हैं। मध्याक्षर में स्वर का भी विर्पयय हुआ और बन गया तिवारी।
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18 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

नामों का व्याकरण जानना अच्छा रहा.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

'ऋषि वाचक्नवी' फिर 'वचक्नु मुनि' - कुछ गड़बड़ है, ठीक कीजिए।

प्रवीण पाण्डेय said...

ज्ञानवर्धक सदैव की भाँति ।

36solutions said...

त्रिपाठी से तिवारी तक के सफर को जानना अच्‍छा लगा. धन्‍यवाद अजित भईया.

Amitraghat said...

क्या जानकारी मिली है.....वाह"

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

चौबे जी छब्बे बनने गए दुबे रह गए . ऐसी कहावते भी खूब चलन में है

किरण राजपुरोहित नितिला said...

जैसे राजाओ के पुरोहित राजपुरोहित कहलाये और जागीर के मालिक बनकर फिर वही जागीरदार भी कहे जाते है .

अफ़लातून said...

शकों की सेना में शामिल थे सक्सेना!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

सबके बारे मे जानना बहुत अच्छा लगा..खासकर ’उपाध्याय’ के बारे मे.. सच मानिये ऎसा लग रहा है जैसे मेरी ही खोयी हुयी जागीर मिल गयी हो.. :)

Sanjeet Tripathi said...

अच्छा लगा शब्दों ( उपनामों ) का यह सफर।
शुक्रिया

उम्मतें said...

@ अफलातून :)
@ समीर लाल जी हम समझे कि अजित जी उपनामों की चर्चा कर रहे हैं :)

Gyan Dutt Pandey said...

वेदी-द्विवेदी-त्रिवेदी-चतुर्वेदी ठीक। ये पांड़े कहां से टपके? कोई वेद तो बचा नहीं इनके लिये!

अजित वडनेरकर said...

@ज्ञानदत्त पाण्डे
पाण्डे जी की चर्चा तो चुकी है ज्ञानदा। फिर भी अगली कड़ियों में उसका उल्लेख ज़रूर होगा।

डॉ टी एस दराल said...

वाचस्पति और वाचक्नवी जैसे शब्दों की उत्पत्ति के बारे में जानकर अच्छा लगा .
ज्ञानवर्धक पोस्ट.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

नामों की विस्तृत समीक्षा पढ़कर ज्ञान में वृद्धि हुई!

Dr. Shreesh K. Pathak said...

पाठकों के बारे में भी बताएं,श्रीमान,...!

Mansoor ali Hashmi said...

वाक़ई 'तिवारी' [ND] बनने में बड़ा लम्बा सफ़र तै करना पड़ा.

Upesh Kumar said...

आपने लिखा है कि 'ब्राह्मणों की आम पहचान शर्मा उपनाम से होती है जो शर्मन् का रूपांतर है।'

क्या यहाँ शर्मन से तात्पर्य बौद्ध श्रमण से है ।

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