Friday, June 25, 2010

पाणिनि के पीछे पश्चिमी पंडित!!

...प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक, विचारक, भाषाविद् और मेरे प्रिय लेखक रामविलास शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक भाषा और समाज के दूसरे संस्करण की भूमिका का यह अंश पेश है। मार्क्सी होने की आड़ में बारहा उनकी आलोचना करनेवालों की आंखें इसे पढ़ कर खुल जानी चाहिए कि भाषाविज्ञान को लेकर डॉक्ट्साब का दृष्टिकोण क्या था और कितनी व्यापक दृष्टि उनकी थी। ...

bhasha
तिहासिक भाषा विज्ञान ने प्राचीन और आधुनिक भाषाओं के नए ज्ञान से मानव संस्कृति को समृद्ध किया। उन्नीसवीं सदी केमें समाज संबंधी विज्ञानों में जैसा महत्व भाषा विज्ञान को प्राप्त हुआ, वैसा अन्य किसी विज्ञान को नहीं। इस समग्र विकास में भारत के प्राचीन भाषा विज्ञान की भूमिका निर्णायक थी। यह कल्पना करना कठिन है कि पाणिनि के व्याकरण के बिना ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और आधुनिक भाषा विज्ञान की क्या स्थिति होती।  यही नहीं कि संस्कृत के ज्ञान से यूरोप के विद्वानों को एक नया संस्कार दिखाई दिया वरन् उस संसार की पूरी पहचान के लिए पाणिनि के रूप में उन्हें एक महान मार्गदर्शक भी मिला। उन्हें खेद इसी बात का था कि पाणिनि ने जैसा भरा पूरा और वैज्ञानिक विवरण संस्कृत का प्रस्तुत किया था, वैसा यूरोप की किसी भाषा का प्रस्तुत न किया गया था। वैसे तो पाश्चात्य विद्वान और उनके भारतीय अनुयायी हर क्षेत्र में भारत को यूनान, सुमेर और बाबुल की सभ्यताओं से अनेक प्रकार की विद्याएं सीखता हुआ मानते हैं। इनमें भी यूनानियों की प्रतिभा का क्या कहना? पर व्याकरण के क्षेत्र में किसी को यह कहने का साहस नहीं हुआ कि पाणिनि ने व्याकरण रचना कौशल यूनानियो से सीखा था।
पाणिनि से प्रभावित उन्नीसवीं सदी के ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भाषाओं का नई रीति से विश्लेषण आरम्भ किया। यह रीति यूरोप में पहले नहीं थी। भारत की इस प्राचीन रीत का पुनर्जन्म उन्नीसवी सदी के यूरोप में हुआ। इस रीति पर चलने वाले ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने बीसवीं सदी के विवरणात्मक भाषा विज्ञान को प्रभावित किया। इस आधुनिक विज्ञान का सूत्रपात उन्नीसवी सदी के अंतिम चरण में फ्रान्सीसी भाषाविज्ञ विद्वान सोस्योर ने किया। वह संस्कृत के विद्वान थे और उनका मूल कार्य क्षेत्र ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ही था। उनके बाद बीसवी सदी में विवरणात्मक भाषा विज्ञान को व्यवस्थित रूप अमेरीकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने दिया। उनका प्रशिक्षण जर्मनी में हुआ था। उनके गुरू प्रोकोश अमेरिकी rvs निवासी जर्मन थे और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के विशेष थे। खास बात यह कि ब्लूमफील्ड पाणिनि के प्रेमी और विशेषज्ञ थे। अमेरिकी आदिवासियों की भाषाओं के विवेचन में उन्होने पाणिनीय पद्धति का उपयोग किया था। उनके बाद जब इस विवरणात्मक सम्प्रदाय के विरोध में नोम चोम्स्की ने विद्रोह का झंडा उठाया, तब पाणिनि से अपना संबंध उन्होंने भी जोड़ा। उनकी व्याकरण पद्धति को जेनेरेटिव या ट्रान्सफोर्मेशनल कहते हैं, हिन्दी मे हम उसे परिणामी व्याकरण कह सकते हैं क्योंकि परिणाम का एक अर्थ वही है जो अंग्रेजी में ट्रान्सफोर्मेशन का है।
स प्रकार लगभग दो सौ वर्ष का पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिक विकास किसी न किसी रूप में भारत से और पाणिनि से संबंद्ध है। पर स्वयं भारत में पाणिनि का जो पुनर्मूल्यांकन अपेक्षित था, वह नहीं हुआ, पाणिनि और संस्कृत के भाषा वैज्ञानिक रिक्थ से प्रेरित होकर भारतीय भाषा विज्ञान को जो प्रगति करनी चाहिए थी, वह उसने नहीं की। इसका मुख्य सामाजिक कारण भारतीय सामन्तवाद का ह्रास और उसके ह्रास काल में यहां अंग्रेजो का प्रभुत्व था। संस्कृत और पाणिनि के अध्ययन अध्यापन की पद्धति वही पुराने ढंग की बनी रही। यूरोप के भाषा विज्ञानी न केवल समाज संबंधी विद्वानों से परिचित थे वरन् वे भौतिक विज्ञान से भी परिचित थे और विशेषकर जीव विज्ञान से वे प्रभावित हुए थे। ज्ञान के इस आधुनिक विकास से भारत के रूढ़िवादी विद्वान अपरिचित थे। उनके विरोध में जो भी नई प्रवृत्तियां उभरती थीं, वे उनका दमन बड़ी कट्टरता से करते थे।

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12 कमेंट्स:

Rangnath Singh said...

कूपमण्डूक प्रत्ययवादियों ने इस देश में ज्ञान के क्रमागत विकास को जितना नुकसान पहुंचाया उसके ऊपर भी डा़. शर्मा ने काफी अच्छा लिखा है। ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टि के विकास के बिना यह विकास संभव नहीं था इसे भी डा. शर्मा बखूबी जानते थे। उम्मीद है अतीत की उपलब्धियों पर मुग्ध और लुब्ध वर्ग की जड़ता तोड़ने में उनके लेख मददगार साबित होंगे।

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस सुंदर लेख के लिए बधाई। आप ने पाणिनि और डा. शर्मा दोनों को एक साथ स्मरण किया।

Smart Indian said...

सुन्दर जानकारी, धन्यवाद!

प्रवीण पाण्डेय said...

संस्कृत एक सम् कृत अर्थात अच्छे से गढ़ी हुयी भाषा थी । पाणिनि के सूत्र वैज्ञानिक हैं या कहें कि आज का विज्ञान पाणिनीय है । राजनैतिक उत्पीड़न का शिकार रही है संस्कृत । अब संस्कृत को पुरानी घोषित कर हम विकृत होते जा रहे हैं ।
बंगलोर में यदि कभी संप्रेषण में समस्या आती है तो हम समझाने में विशुद्ध संस्कृत के शब्द उपयोग करते हैं । सम्बन्ध गहरा है और हम इस विषय में अपने छिछलेपन को उपलब्धि मान बैठे हैं ।

Mansoor ali Hashmi said...

# पाणिनि = हमने ही अपने ज्ञान की क़दर " जानी नी" !

# सोस्योर = ही वास So Sure ऑफ़ दी इम्पोर्टेंस ऑफ़ दी पाणिनि.

# ब्लूमफील्ड = हमने तो नाम ही आज सुना !, हाँ, इससे मिलता-जुलता नाम हमें रोमांचित ज़रूर करता रहा है.....

# नोम चोमस्की = 'नोमस्कार' को 'चोमत्कार' , अपनी ही चीज़ आयात कर चमत्कृत होना कोई हम से सीखे.

-मंसूर अली हाशमी

http://atm-manthan.com

निर्मला कपिला said...

बहुत ग्यानवर्द्धक जानकारी है धन्यवाद

Anonymous said...

अजित जी, आप अनर्थ कर रहे है। पाणिनी के माध्यम से आप उन प्रतिगामी शक्तियों को पुन: जाग्रत करनें का खतरनाक कार्य कर रहे हैं, जिन्हें हम प्रगतिवादियों, विकासवादियों , साम्य और समाजवादियों , सेक्युलरवादियों नें बड़ी मेहनत से दफन कर दिया था।

पाणिनी अर्थात संस्कृत यानि ब्राह्मण मतलब श्रेष्ठता के साँप को बड़ी मुश्किल से रौंदा गया, कृपया अपनीं विद्वता प्रदर्शन के चक्कर में उसे जगानें का दुस्साहसिक कर्म न करें।

शर्मा जी महत्वपूर्ण नहीं है। क्रांति की जिस दिशा मे हम अग्रसर है, वह महत्वपूर्ण है। जैसे सारे तथाकथित मानवीय सम्बन्ध अंतत: नर और मादा में बदल जाते हैं वैसे ही समस्त भाषा का निपात विचार से उठकर विचार में ही समाहित हो जाता है--और यह विचार है ‘महान मार्क्स’ के शब्द ।

Arvind Mishra said...

महान मार्क्स के शब्द -अनाम का कटाक्ष मार्क किया जाय !

L.Goswami said...

रंगनाथ जी से सहमत.

अजित वडनेरकर said...

गोबर, लीद और उपलों की चर्चा को विद्वत्ता प्रदर्शन न मानें बेनामी दोस्त। कुछ सीखने समझने में अगर कामयाब रहे तो समझदार जरूर कहलाना चाहेंगे। अलबत्ता मार्क्स के बहाने से आपका व्यंग्य बहुतों को पसंद आएगा। मैं तो खैर गदगद हूं।
आभार...

Mansoor ali Hashmi said...

PS: टिप्पणी की... अंतिम पंक्ति इस तरह पढ़ी जाए:-

# नोम चोमस्की = 'नोमस्कार' , 'चोमत्कार को.

उम्मतें said...

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