सिंह का एक अर्थ राजा भी है और ज्योतिष के राशि चक्र की पांचवी राशि का नाम भी सिंह ही है। यह भी धारणा सामने आई है कि सिंह का मूल अर्थ राजा ही है, मगर यह दूर की कौड़ी है। सिंह से बने जितने भी शब्द हैं उनकी अर्थवत्ता में सिंह की स्थापना एक महाबली और हिंस्त्र पशु के रूप में ही होती है। सिंहावलोकन शब्द का अर्थ है सिंह के समान पीछे देखते हुए चलना, सजगता के साथ गति करना। मुहावरे के रूप में इसका अर्थ होता है पिछले अनुभवों, घटनाओं पर विचार करना है। सम्यक रूप से हर पहलू पर चिंतन कर लेना ही सिंहावलोकन है। शासक को सिंह की तरह होना चाहिए। सिंह के लक्षणों के आधार पर यह शब्द बना है न कि शासक के। इसी तरह सिंहासन शब्द का अर्थ चाहे राजगद्दी या राजा के बैठने की पीठिका होता हो, मगर यह बना है सिंहमुखासन से अर्थात वह आसन जिसके पुश्त पर सिंह की आकृति उकेरी गई हो। यहाँ सिंह का अर्थ राजा नहीं बल्कि शेर ही है। शौर्य और वीरता के प्रतीक के रूप में राजा के आसनों पर शेर की आकृति बनाने का रिवाज़ था। ग्रीक, रोमन और मिस्री सभ्यताओं में भी सिंहमुख आसन मिले हैं। क्या यह माना जाए कि वहां की स्थानीय भाषाओं में भी सिंह के रूपांतरों का निहितार्थ राजा ही होता था?
मनुष्य ने खुद को प्रकृति के साथ ही विकसित किया है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और जल-वायु से संबंधित शब्दावली का मानवीकरण एक सहज प्रक्रिया के तहत मनुष्य करता रहा है। राज्यव्यवस्था विकासक्रम में बहुत बाद में आई। आदिम हिंसा जब युद्धविधियों में ढली तब उसे वीरता और शौर्य जैसे नाम मिले, पराक्रम से उसका रिश्ता बना। राज्य और राजा नाम की व्यवस्था जब बनी उसके बाद ही मनुष्य ने लक्षणों के आधार पर जंगल को एक व्यवस्था या राज्य समझा और शेर को वहाँ का राजा माना। शौर्य प्रतीक के तौर पर सिंह शब्द में राजा या शासक जैसे भाव विकसित हुए। आप्टे कोश में सिंह में निहित विविध भावों में राजा का कोई उल्लेख नहीं है। वहां सिंह का एक अलग अर्थ भी है-अपनी श्रेणी में प्रमुख। चाहें तो इसका अर्थ राजा लगाया जा सकता है। हाँ, मोनियर विलियम्स में ज़रूर सिंह के मूलार्थ के अलावा एक अर्थ राजा भी बताया गया है, मगर यह लक्षणों से प्रेरित परवर्ती अर्थविकास ही है। हिन्दी के विभिन्न शब्दकोशों को टटोलने पर भी शासक के विभिन्न पर्यायों में इंद्र, भूपाल, पृथ्वीपति, राजा, नरेश, भूपति,सम्राट, अधीश्वर, अधिष्ठाता, चक्रवर्ती, नरश्रेष्ठ, महिपाल, राजेश्वर जैसे दर्जनों शब्द मिलते हैं मगर सीधे सीधे इसी अर्थ में वहाँ सिंह की प्रविष्टि नहीं मिलती। मिसालें और भी हैं। विष्णु का एक रूप नरसिंह है। सिंह अगर राजा है तो उसके आगे नर लगाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? पुराणों में विष्णु के शौर्यपरक पराक्रमी स्वरूप को उभारने के लिए नरसिंहावतार की कल्पना की गई है अर्थात सिंह के लक्षणों पर एक दैवीय चरित्र को नया आयाम मिला। यह प्रवृत्ति सिर्फ सिंह शब्द के साथ नहीं है बल्कि सिंह के अन्य पर्यायों के साथ भी है। सिंह को केशरी या केसरी भी कहते हैं। नरकेसरी शब्द का अर्थ हुआ शेर जैसे शौर्य का प्रदर्शन करनेवाला। संस्कृत में शार्दूलः का अर्थ व्याघ्र होता है। प्राचीनकाल में नरशार्दूल उपाधि भी प्रचलित थी जिसका अर्थ प्रमुख व्यक्ति, पूज्य व्यक्ति। जाहिर है यहाँ राजा अर्थ भी लगाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यही कि मनुष्य ने विकासक्रम में प्रकृति से सीखा और भाषा-संस्कृति पर इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। अगर सिंह का मूलार्थ राजा है तब इन तमाम शब्दों का मूलार्थ भी राजा या शासक ही होना चाहिए!!!
प्राचीनकाल में भी नाम के साथ सिंह लगाने के परिपाटी थी। यह परम्परा कितनी पुरानी है, कहना कठिन है किन्तु संदर्भों के अनुसार अमरकोश में इसका इस्तेमाल शाक्यसिंह कहकर गौतमबुद्ध के लिए हुआ है जिसका अर्थ शाक्यवंश में सिंह के समान श्रेष्ठ। यहाँ सिंह को राजा का पर्याय मानते हुए शाक्यसिंह की व्याख्या करना भूल होगी। संस्कृत में केशिन् का अर्थ भी सिंह ही होता है। दक्षिण के राजा यह उपाधि लगाते थे। इतिहास में पुलकेशिन नाम के दो प्रसिद्ध राजा हुए हैं। अत्यंत प्राचीन समाजों में टोटेम अर्थात कुलचिह्नों या गणचिह्नों का प्रचलन था। दुनियाभर में यह प्रथा रही है। टोटेम प्रकृति से ही चुने जाते थे। शेर, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, बाज, सर्प, मगरमच्छ, मछली अथवा बंदर जैसे कई अन्य पशु-पक्षी-कीट विभिन्न गणसमुदायों के कुलचिह्नों में देखे जा सकते हैं।
नाम के साथ केशरी या केसरी आज भी जोड़ा जाता है जिसमें वहीं भाव है जो सिंह में है जैसे सीताराम केसरी। क्षत्रियों में जिस तरह से अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परिपाटी है वह इसी वजह से है क्योंकि प्राचीनकाल में उन्हें लगातार युद्धकर्म में जुटे रहना पड़ता था। नाम के साथ शौर्यसूचक सिंह लगने से उनका जातीय गौरव उभरता था जो उत्साह और ऊर्जा का संचार करता था। शाक्यसिंह के बाद विक्रमादित्य के साथ सिंह शब्द लगाने का लिखित प्रमाण मिलता है। रामगोपाल सोनी के शब्दसंस्कृति पुस्तक में दिए संदर्भ के अनुसार अमरकोश के रचनाकार ने भी अपने नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ा। ईसापूर्व पहली सदी में विक्रमादित्य के नवरत्न के तौर पर अमरसिंह के नाम का उल्लेख मिलता है। मज़ेदार यह भी है कि भारतीय नामों में शेरसिंह, केहरसिंह, केशरीसिंह, केसरसिंह जैसे नाम भी मिलते हैं। इन तमाम शब्द युग्मों के दोनों पद जैसे शेर+सिंह का अर्थ एक ही है। जाहिर है नाम रखनेवालों ने पहले पद का प्रयोग तो शेर की तरह किया मगर दूसरे पद में रूढ़ उपाधि की तरह सिंह लगा लिया। ठीक वीरबहादुर की तरह से जिसमें वीर और बहादुर दोनों का अर्थ एक ही है। स्पष्ट है कि सिंह का मूलार्थ राजा नहीं बल्कि वनराज सिंह ही था। आखिरी बात। अत्यंत प्राचीन समाजों में टोटेम अर्थात कुलचिह्नों या गणचिह्नों का प्रचलन था। दुनियाभर में यह प्रथा रही है। टोटेम प्रकृति से ही चुने जाते थे। शेर, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, बाज, सर्प, मगरमच्छ, मछली अथवा बंदर जैसे कई अन्य पशु-पक्षी-कीट विभिन्न गणसमुदायों के कुलचिह्नों में देखे जा सकते हैं। इसके अलावा जल, वायु, सूर्य, अग्नि जैसे तत्व भी टोटेम रहे हैं। इनमें कई आज भी प्रचलित हैं और कई लुप्त हो गए। भारतीय संस्कृति के ख्यात अध्येता देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय लोकायत में लिखते हैं कि वैदिक संहिताओं के नाम पशुओं के नामों पर हैं जैसे आश्वलायन, माण्डुकायन, लांगुलिक और शार्दूलीय। यहां मेंढक, बंदर, घोड़ा और शार्दूल यानी शेर के स्वरूप स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। तैतिरीयोपनिषद का नाम तित्तिर यानी तीतर के आधार पर पड़ा। बच्चा शब्द के मूल में वत्स ही है जिसका प्राचीन अर्थ पशुशावक ही था। गौतम, शुनक, वत्स, कौशिक, मांडुकेय अथवा कश्यप जैसे नाम किसी न किसी पशु के नाम पर आधारित ही हैं। हमारे कई राज परिवारों का राजचिह्न सूर्य रहा है। कुछ के साथ सिंह नज़र आता है। चंद्रवंशी या सूर्यवंशी जैसे गोत्र के मूल में यही आदिम टोटेमवाद है। विष्णु के नरसिंह रूप में भी यही बात है। मेरे अपने परिवार के कुलदेवता के रूप में विष्णु के नरसिंह रूप की ही पूजा होती है, अन्य किसी की नहीं। हमारे परिवार में सर्प को कभी मारा नहीं जाता, बल्कि उसे छोड़ दिया जाता है। ये तमाम बातें क्या साबित करती हैं?
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