लाज़मी, मुलाज़िम और लवाज़मा ये तीनों ही शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित हैं । अत्यावश्यक या अनिवार्य के अर्थ में हिन्दी में लाजमी शब्द का भी इस्तेमाल होता है । मूलतः यह सेमिटिक धातु ल-ज़-म से बना है जिसमें बान्धना, जुड़ना, सटना, लगना, चिपकना, बाध्यता, सेवा-टहल, साथ होना, वफ़ादार होना, कर्तव्यनिष्ठा, अनिवार्यता, आवश्यक, ज़रूरी, अवश्यंभावी अथवा अटल जैसे भाव हैं । ल-ज़-म से अरबी में लाज़िम शब्द बना जिसमें यही सारे भाव हैं । ध्यान रहे कोई चीज़ बन्धनकारी तभी होती है जब वह आवश्यक या अनिवार्य है । किसी के साथ तभी हुआ जाता है जब वैसा करना आवश्यक होता है । किन्हीं दो इकाइयों का आपस में जुड़ना या सटना किसी अनिवार्यता के चलते ही होता है । हर व्यक्ति से नैतिक रूप से कुछ न कुछ काम करने की अपेक्षा समाज रखता है । ये काम उस व्यक्ति से जुड़े हुए हैं और इसीलिए इन्हें फ़र्ज़ या कर्तव्य कहा जाता है । फ़र्ज़ निभाना आवश्यक होता है जिसके लिए अरबी में लाज़िम शब्द है ।
आज़ादी से पहले तक उर्दू-फ़ारसी मिश्रित हिन्दी, जिसे हिन्दुस्तानी कहा जाता था, बोली जाती थी उसमें लाज़िम शब्द का इस्तेमाल खूब होता था । शायरी में भी आवश्यक, फ़र्ज़, कर्तव्य आदि के सन्दर्भ में लाज़िम शब्द का इस्तेमाल होता रहा है मसलन फ़ैज़ की वो नज़्म याद करें – “ लाज़िम है कि हम भी देखेंगे ” । तत्सम शब्दावली अक्सर बोली-भाषा में वर्णविपर्यय या स्वरविपर्यय के ज़रिए बदलती है । यहाँ भी वही हो रहा है । अरबी के तत्सम शब्द लाज़िम में स्वरविपर्यय हुआ और ज़ के साथा जुड़ा ह्रस्व ई स्वर म के साथ चस्पा हो गया इस तरह लाज़िम का रूपान्तर लाजमी हो गया । हिन्दी में नुक़ता लगाने का रिवाज़ नहीं है सो स्वरविपर्यय के साथ ही नुक़ता भी गायब हो गया । यह उसी तरह हुआ जैसे अरबी का वाजिब, बोली भाषा में वाजबी हो गया । ‘लाजमी’ यानी अनिवार्य । किसी काम की अनिवार्यता के सन्दर्भ में ‘लाजमी’ शब्द का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है मसलन- “उनकी नाराज़गी लाज़मी है” या फिर “ उन्हें लाज़मी तौर पर सियासत करनी थी ” जैसे वाक्यों से इसे समझा जा सकता है । ‘लाजमी’ के स्थान पर ‘लाज़िमी’ शब्द का प्रयोग भी होता है ।
सेमिटिक धातु l-z-m ( ल-ज़-म) से बने ‘लाज़िम’ से कुछ अन्य शब्द भी बने हैं जैसे मुलाजिम या ‘लवाजमा’ । अरबी का प्रसिद्ध उपसर्ग है ‘मु’ जिसका अर्थ होता है “वह जो” । गौर करें लाज़िम में निहित बाध्यता, सेवा-टहल, साथ होना, वफ़ादार होना, कर्तव्यनिष्ठा जैसे भावों पर । ‘मु’ उपसर्ग लगने पर कर्ता का भाव उभरता है अर्थात ये सब काम करने वाला यानी चाकर, कर्मचारी, अर्दली, सेवक आदि । लाज़िम के साथ जब मु उपसर्ग लगता है तो बनता है मुलाज़िम जिसमें यही सारे भाव हैं । किसी की नौकरी करना, चाकरी करने को ही मुलाज़मत कहा जाता है । मुलाज़िम के लिए कर्तव्यनिष्ठ होना ज़रूरी है । ‘लाज़िम’ में अनिवार्यता का जो भाव है, मुलाज़िम की मुलाज़मत की यह सबसे पहली शर्त है । अनिवार्यता यानी बाध्यता यानी गुलामी । जिस काम के बदले भोजन के अलावा कुछ न मिले वह गुलामी, दासता और जिस काम के बदले कुछ उजरत यानी पारिश्रमिक, मेहनताना मिले वह नौकरी । सो नौकर और गुलाम का यह फ़र्क़ भी मुलाज़िम में नहीं है । मुलाज़िम के साथ बतौर सेवक, चाकर , नौकर , ख़िदमतगार चाहे कर्तव्यनिष्ठा और सेवा की अनिवार्यता जुड़ी हो मगर उसके साथ उजरत की अनिवार्यता स्पष्ट नहीं है ।
अब बात ‘लवाजमा’ की । हिन्दी में लवाजमा लवाजमा शब्द में ठाठ-बाट का भाव पैबस्त है । आमतौर पर हिन्दी में इसका आशय दल-बल, साज़ो-सामान से लैस होकर लोगों के सामने आने से लगाया जाता है । ‘लवाजमा’ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से होते हुए फ़ारसी के ज़रिये यह हिन्दी में दाखिल हुआ है । हिन्दी का लवाजमा अपने मूल अरबी रूप में लवाज़िमा है जिसकी पैदाइश भी सेमिटिक धातु l-z-m ( ल-ज़-म) से हुई है जिसमें मूलतः ज़रूरी या आवश्यक जैसे वही भाव हैं जिनकी चर्चा ऊपर हो चुकी है । आज जिस रूप में हम लवाजमा शब्द का प्रयोग करते हैं उसमें नौकर-चाकर, फौज - फाटा सहित खूब सारा माल – असबाब भी शामिल है । गौर करें माल असबाब के अर्थ में लवाजमा में समूची गृहस्थी या पूरा दफ्तर शामिल नहीं है बल्कि सिर्फ़ वही जो बेहद ज़रूरी होता है । जैसे पुराने ज़माने के स्वयंपाकी लोग कहीं भी यात्रा पर जाते थे तो रसोई का सामान उनके साथ चलता था । यह सामान दरअसल समूची रसोई नहीं है , पर सफ़र में अपना भोजन बनाने का सुभीता हो जाने पुरता असबाब ही काफी है । यही ‘लवाजमा’ है । अब समर्थ व्यक्ति इस रसोई के साथ महाराज भी रखेगा । एक चाकर भी रख लेगा । यह भी ‘लवाजमा’ में शामिल है ।
मूल अरबी ‘लवाज़िमा’ में भी अंगरक्षक, नौकर चाकर और रोज़मर्रा की वो तमाम चीज़ें शामिल है जिनके बिना काम न चल सके । अब बात यह है कि आवश्यकता का अन्त नहीं । इच्छाएँ भी अनन्त हैं । तो ज़रूरी या अनिवार्य जैसे शब्द भी अलग अलग व्यक्तियों के सन्दर्भ में सापेक्ष होते हैं । किसी के लिए दिन में चार बार का भोजन ज़रूरी है तो कोई एक वक्त की रोटी को ही खुदाई नेमत समझता है । किसी के रोज़ छप्पन भोग का थाल चाहिए और किसी के लिए सूखा टिक्कड़ ही मोहनभोग समान है । किसी को फर्श पर नींद आती है किसी को चारपाई ज़रूरी है । सो लवाज़िमा के ज़रूरी वाला दायरा लोगों के स्तर के हिसाब से छोटा-बड़ा होता रहता है । मराठी में लवाजिमा शब्द प्रचलित है जिसमें नौकर - चाकर, साज़ो - सामान, परिजन समेत ठाठ-बाट शामिल है । कुल मिलाकर यही सारी बातें लवाजमा में शामिल हैं । ठाठ-बाट भी ऐसे ही नहीं आ जाता । रसूख़दारों के साथ रहना ही अपने आप में मेहनताना है । इसे पुराने ज़माने के लोग जानते थे इसीलिए चमचे, टहलुए चापलूस के भेस में भी वे अपना पारिश्रमिक वसूल कर लेने की कला में माहिर थे । आज के दौर में अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, नारी उत्पीड़न विरोधी मंच, उपभोक्ता मंच, पारिवारिक कल्याण प्रकोष्ठ, गली-मोहल्ला सुधार मंच, स्वदेशी अपनाओ मंच आदि विभिन्न प्रकल्पों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव समेत सवा सत्ताईस पदाधिकारियों और सैकड़ों सदस्यों की फ़ौज ही रसूख़दारों की मुलाज़मत में इसीलिए होती है ताकि ठाठ-बाट बना रहे ।
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