Sunday, March 4, 2012

मोची, मोजा, विमोचन और जुराब

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प्र कृति में हर वस्तु का एक आवरण होता है और हर चीज़ का अनावरण होता ही है । आए दिन मूर्तियों के, पुस्तकों के अनावरण होते हैं । अनावरण के लिए विमोचन भी एक शब्द है जो मूलतः नई किताब की रिलीज़ के सन्दर्भ में खूब आम है । विमोचन में भी अनावरण का, लोकार्पण का भाव है । हमारी पृथ्वी के चारों और वातावरण अर्थात वायुमण्डल है । प्रायः हर खगोलपिण्ड के आसपास कोई न कोई आवरण है । चाहे वनस्पति का जन्म हो या किसी जीव का, जीवन का प्रथम स्पन्दन किसी न किसी आवरण के भीतर ही होता है । बीज एक आवरण ही है इसीलिए उसे बीजावरण कहते हैं । अंकुर फूटना दरअसल बीजावरण से मुक्ति है । भ्रूण के लिए गर्भ एक आवरण है । गर्भमुक्ति ही जन्म लेना है । शरीर का संचालन कई अवयव करते हैं । ये सभी काया में स्थित रहते हैं अर्थात काया एक आवरण है, कलेवर है । शरीर की ऊपरी परत को त्वचा कहते हैं । यह भी आवरण है । आवरण रक्षाकवच है । प्रकृति ने हर वस्तु को इसी तरह खूबसूरती से पैक कर मनुष्य के लिए भेजा है ताकि जिस दिन वह सबके सामने आए, तरोताज़ा और नई लगे । अनावरण का दिन ही लोकार्पण का दिन होता है । बाज़ार में भी हर उत्पाद पैकबंद अर्थात आवरण के भीतर होता है ।
विमोचन बना है मुच् धातु में वि उपसर्ग लगने । संस्कृत की मुच् धातु में ढीला करना, खोलना, मुक्त करना, अलग करना, छोड़ना, बाँटना, सिपुर्द करना जैसे भाव हैं । संस्कृत के वि उपसर्ग में वैसे तो निषेध का भाव है किन्तु इसके प्रयोग का दायरा विस्तृत है । वि का प्रयोग विशिष्ट, समझबूझ के साथ, भली प्रकार से, दो हिस्सों में, खोलने आदि अर्थों में भी होता है । इस तरह विमोचन का अर्थ हुआ मुक्त करना, बाहर लाना, सबके सामने लाना, अर्पण करना आदि । विमोचन का प्रयोग अब सिर्फ़ पुस्तक  को लोकार्पण के सन्दर्भ में ही होता है अन्यथा इसका प्रयोग किसी भी संज्ञा को सामने लाने के सन्दर्भ में होता है जैसे-भावविमोचन यानी अपने भीतर के भावों के सामने लाना । अश्रुविमोचन यानी आँसुओं को बाहर आने देना, शृद्धाविमोचन आदि । पुस्तक विमोचन की प्रक्रिया से भी यह स्पष्ट होता है । विमोचनकर्ता या विमोचक आवरण में लिपटी पुस्तक का अनावरण करता है और उपस्थितों को उसका दर्शन करवाता है । यूँ देखें तो किताब के विमोचन में जो खास भाव है वह है प्रकाशित पुस्तक का मुख्य अतिथि द्वारा सबसे पहले खोला जाना । गौर करें, किताब दो हिस्सों में खुलती है । उसके द्वारा पुस्तक की सामग्री को सबसे पहले देखा जाना । रचनाकार द्वारा पुस्तक-अंश का पाठन यानी कथानक को लोगों के सामने उद्घाटित करना जैसी बातें विमोचन में निहित भाव को पूर्णता प्रदान करती हैं । प्रकाशन ही उद्घाटन है । प्रकाशन यानी किसी चीज़ को उजाले में लाना यानी सबके सामने लाना ।
विघ्नहर्ता, दुखहर्ता के अर्थ में संकटमोचक शब्द का भी प्रयोग होता है । यहाँ जो मोचक है वह भी इसी मुच् से आ रहा है । भाव यही है कि भक्त को संकट से मुक्त करना । मोचन में छुटकारा, मुक्ति का भाव है अतः मोचक वह व्यक्ति है जो छुटकारा दिलाए, या मुक्ति दिलाए । मरे हुए जानवरों की खाल उतारने की क्रिया चर्म-मोचन कहलाती है । पशुओं की खाल उतारने वाले समुदाय के लिए मोची शब्द इसी मुच् से आ रहा है । जूते के लिए राजस्थानी में एक शब्द है मोजड़ी । यह दरअसल नोकदार जूती होती है । संस्कृत में मोचिका का अर्थ है एक किस्म का जूता । मोजड़ी शब्द में मुच् को पहचाना जा सकता है । वर्णक्रम में ही वर्ण आता है और ये ध्वनियाँ एक दूसरे से बदलती हैं । मोचक का एक अर्थ चमड़ा उतारनेवाला जब स्थिर हुआ तब मोच, मुच जैसे शब्द चमड़े के पादत्राण के अर्थ में रूढ़ हो गए । अवेस्ता में इसका रूप मौच होता है । पहलवी में यह मोज़ग़ या मुचक हुआ जिसका अर्थ जूता ही है । पर्शियन में इसका मुजेह , मोजाह या मोजः रूप मिलता है जिसका अर्थ होता है पैरों से ऊपर पिण्डलियों तक पहना जाने वाला एक कपड़ा । इसे पायताबा भी कहते हैं और जुराब भी । यह दिलचस्प है कि मुक्त, अनावरण, खोलना, बन्धन मुक्त करना जैसे भावों वाली मुच् धातु से बने शब्दों के रूपान्तर मोजा, मोजड़ी जैसी संज्ञाएँ बनीं जिनमें आवरण या कवर का भाव आता है ।
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मोजे के लिए जुराब शब्द का भी हिन्दी में खूब प्रयोग होता है । बरास्ता फ़ारसी होते हुए उर्दू और फिर हिन्दी में जुराब शब्द दाखिल हुआ । जुराब के सन्दर्भ में दो धारणाएँ हैं । पहले मत के मुताबिक जुराब ईरानी मूल का शब्द है । डॉ अली नूराई के फ़ारसी-अंग्रेजी कोश में दी गई धातु तालिका के मुताबिक पर्शियन धातु गुर्ब से बना है जिसका अर्थ मोजा या पायताबा होता है । डॉ मोहम्मद मोईन के फरहंग ए मोइन के हवाले से वे इसी धातु से अरबी के जौराब की व्युत्पत्ति बताते हैं । पुरानी फ़ारसी में इससे रूप गोराब था । आज की फ़ारसी में यह जुराब है । नूराई के कोश में गोराब की अर्थवत्ता की कोई व्याख्या नहीं मिलती । दूसरी व्युत्पत्ति के मुताबिक यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है इसकी मूल धातु ग-र-ब (g-r-b) है । डॉ मोइन के मुताबिक यह j-r-b है । अरबी में और ध्वनियाँ आपस में बदलती हैं । बेवर्ली ई क्लैरिटी की अरेबिक – इंग्लिश डिक्शनरी में ग-र-ब में नज़दीक, छुपाना, लिपटना, चुस्त जैसे भाव हैं ।
रबी में गुरुब, गौराब, गर्राब , तग़र्रब जैसे शब्द इससे बनते है जिनमें निकटता, सटना, सामीप्य जैसे भाव है । इसका एक रूप गिराब है जिसका अर्थ है मशक, चमड़े से बनी पानी की थैली । इसका एक रूप और है जिसका अर्थ है ज्राब यानी चमड़े की थैली । गौर करें कि मशक भी चमड़े की थैली ही होती है । जिस तरह मुच् धातु में मुक्त करना , छुटकारा दिलाना आदि क्रिया करने वाला व्यक्ति मोची है । अर्थात चमड़ा उतारने वाले की संज्ञा मोची है । बाद में चमड़े से बनी वस्तु की संज्ञा भी इन्हीं ध्वनियों से बनी । मोजा, मोजड़ी इसके उदारहरण हैं । कुछ वही बात इस गिराब में है । ध्यान रहे, शरीर से खाल चिपकी रहती है, सटी रहती है । खाल के भीतर तमाम अवयव छुपे रहते हैं । ग-र-ब में निहित नज़दीक, छुपाना, लिपटना, चुस्त जैसे तमाम भाव यहाँ व्यक्त हैं । सो चमड़े या खाल से बनी थैली को गिराब नाम मिला । इसका एक रूप जिराब हुआ । यह जुराब का पूर्वरूप था । जुराब की खासियत है कि वह शरीर से एकदम चिपकी रहती है । जिराब के विभिन्न रूपान्तर कई भाषाओं में भी हुए मसलन- अरबी के जौराब का एक रूप होता है गौराब । जौराब का पूर्वरूप है जिराब । अल्बानी में यह कोराप होता है तो अज़रबैजानी में कोराब, बुल्गारी में यह चोराप और और फ़ारसी में जोराब, जुराब । रोमानी में यह सिओराब है, सीरियाई में चरापा है, ताजिक में जुरोब है तो तुर्की में यह कोराप है ।
स्पष्ट है कि गिराब अगर थैली है तो मोज़ा यानी जुराब भी एक थैली है । चमड़े की थैली । चमड़े का पादत्राण से रिश्ता सदियों पुराना है । निश्चित ही पैर ढकने के चमड़े के आवरण को भी जिराब कहा गया । यह जूता था । अरबी में मूलतः शरीर की खाल को जिल्द कहते हैं मगर हिन्दी में जिल्द का रूढ़ार्थ अब आवरण हो गया है । खाल भी आवरण ही है । सो समझा जा सकता है कि जुराब मूलतः पैरों का रक्षा कवच था । बाद में इसमें मोजे की अर्थवत्ता भी जुड़ गई और तब चमड़े के स्थान पर खूबसूरत सूत और ऊन  से बुने हुए मोजे बनने लगे ।

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6 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

हमें तो रह रह कर संकटमोचन याद आते हैं..

अजय कुमार झा said...

जय हो ...विमोचन की व्याख्या बिल्कुले सटीक समय पर किए हैं महाराज । आपसे फ़िर इस बार मिलना नय हो सका । कुछ मशरूफ़ियत ने और कुछ कमबख्त इस तबियत ने दुश्मन सा रोल अदा किया पिछले दिनों । खैर सफ़र जारी रहे , किसी न किसी पडाव पे मिलना तो होगा ही ।

अजित वडनेरकर said...

@राजेश करमहे
भाई,

यही सब बातें हमारे आलेख में हैं । शब्दों का सफ़र सहज-सामान्य और सरल तरीके से शब्द विवेचना और व्युत्पत्ति का प्रयास है ।
ज्ञान की महिमा गूढ़ता में नहीं, सम्प्रेषण में है ।

दुर्भाग्य से भारतीय परम्परा () ज्ञान को छुपाने में यकीन करती है । ज्ञान को जितना दुरूह, दुर्लभ और कठिन बनाओ
ज्ञानी की महिमा भी उतनी ही बढ़ती है...ऐसा ही कुछ हमारे यहाँ होता आया है ।

मंसूर अली हाश्मी said...

उपयोगी , ज्ञानवर्धक लेख. ख़ूब मेहनत करते है आप शब्दों की तह तक जाने के लिए. किसी भी 'शब्द' या 'विषय' को पकड़ते है तो उसे टोपी से ले कर जुर्राब तक [यानि टॉप तो बोटम] Lace करके ही छोड़ते है.
'आवरण' , 'अनावरण' पर अरबी का एक मकौला याद आया : जिसका अर्थ कुछ इस तरह है:
" आदमी ज़ुबान [शब्द/बात] के नीचे [परदे में] छुपा होता है." यानि 'बोलकर' ही आदमी अपना परिचय करवाता है.

"المرء مخبوء تحت لسانه" [अल-मरओ मखबूअ तहत लिसानेही]

विष्णु बैरागी said...

याने कि ये ये तो हम हैं जिन्‍होंने ऊँच-नीच की दीवारें खींच दीं। वर्ना कोई फर्क नहीं है मोची और संकटमोचन में।

इस पोस्‍ट ने तो तबीयत खुश कर दी। जीयो अजित भाई।

Asha Joglekar said...

मोची के पास जाना हो तो पांव को जूते से मुक्त करना ही पडता है । मोती ही हमारे लिये तब संकटमोचन सा लगता है ।

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