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Saturday, June 23, 2012
शब्दों के सालिगराम
लो क की भाषा हमेशा प्रवाहमयी होती है । इसका वेग शब्दों को जिस तरह माँजता, चमकाता है, जिस तरह उनका अनघड़पन तराशकर उन्हें सुघड़ बनाता है, शब्दों का मोटापा घटा कर उन्हें सुडौल बनाता है, वह सब अनुकूलन के अन्तर्गत होता है जो प्रकृति की हर चीज़, हर आयाम में नज़र आता है । अनुकूलन यानी सहज हो जाना । सहजता ही स्थायी है, सहजता में ही प्रवाह है और सहजता ही जीवन है । जीवन यानी गति, प्रवाह । प्रकृति के अर्थ से ही सब कुछ स्पष्ट है । प्रकृति यानी जो मूल है , पहले से है । अपने मूल रूप में ही कोई चीज़ सहज रहती है । इस मूल वस्तु में प्रकृति के विभिन्न रूपाकारों के साहचर्य से निरन्तर बदलाव होता है जिसका आधार ही अनुकूलन है । भाषा पर समाज और भूगोल का बड़ा प्रभाव पड़ता है । मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार भाषा की खोज है । विभिन्न मानव समुदायों में ध्वनियों के उच्चारण भी भिन्न होते हैं । मनुष्य ने ध्वनि-समूहों को पहचाना और फिर शब्दों के रूपान्तर सहज हो गए । क्ष का रूपान्तर क, ख, श हो सकता है । श का रूपान्तर स में हो सकता है । य का रूपान्तर ज में हो सकता है और व का रूपान्तर ब, प में हो सकता है । स के ह में बदलने का क्रम भारत से ब्रिटेन तक एक सा है । दिलचस्प रूपान्तरों के हजारों उदाहरण हमें बोलचाल की भाषा में मिलते हैं ।
तत्सम या संस्कृत मूल के शब्द जब आमजन की अभिव्यक्ति का हिस्सा बनने लगते हैं तो लोकबोली का प्रवाह उन शब्दों के जड़ स्वरूप को गतिमान बनाता है । लोक में प्रचलित कितने ही शब्दों का मूल जानकर अचरज होता है कि काल के प्रवाह में ये कितने बदल गए । और यह बात भी ध्यान आती है कि ये न बदलते तो बोली-भाषा का अभिन्न अंग भी न बन पाते । अन्यमनस्कता के लिए उचाटपन शब्द का इस्तेमाल भी हो सकता है पर लोकमानस ने सामान्य संवाद के लिए अन्यमनस्कता को बरसों पहले एकतरफ़ रख कर अनमना शब्द बना लिया था । तब क्या हमें अन्यमनस्कता के गायब हो जाने का स्यापा करना चाहिए ? गौर करें कि यह अनमना शब्द भी अन्यमनस्कता से ही जन्मा है । हाँ, साहित्यिक लिखत-पढ़त में अथवा शिष्टसंवाद के लिए संस्कृतनिष्ठ, तत्सम प्रभाव वाला अन्यमनस्कता शब्द भी स्मृति से लुप्त नहीं हुआ है और व्यवहार में बना हुआ है ।
ध्यान रहे अन्यमनस्कता में मुख्य तत्व मन का है । जिसका जी किसी एक जगह न लगता हो । बार-बार ध्यान भंग होता है, कहीँ और भटकता हो । मन का कहीं ओर भटकना ही अनमनापन है । अन्य में इतर, कहीं ओर, भिन्न आदि भाव हैं । मन का कहीं ओर जाना ही अन्यमनस्कता है । हिन्दी में एक और ऐसा ही शब्द है वैमनस्य जिसका प्रचलित अर्थ शत्रुता, द्वेषभाव, बैरी होना है। यह बना है संस्कृत के विमन से । इसका फ़ारसी रूप बेमन है । ध्यान रहे संस्कृत के वि उपसर्ग का फ़ारसी रूप बे होता है । विमन में म्लान, कुम्हलाया हुआ, खिन्न, उदास, निष्चेष्ट, क्लांत जैसे भाव हैं । लगभग यही बात बेमन में है । हिन्दी के तत्सम शब्द बोली-भाषा में अलग रूप लेते हैं जिसकी कुछ जानी-पहचानी प्रवृत्तियाँ हैं । मिसाल के तौर पर व का ब हो जाना बेहद आम है । यह अनुकूलन के लिए ही होता है ।
सैकड़ों उदाहरण हैं- वेद > बेद । वैद्यनाथ > बैजनाथ । सामान्यतौर पर द्वि की वृत्ति दु में बदलने की है । यह नज़र आता है द्विवेदी के दुबे रूपान्तर में । इसी तरह अच्छा-भला विष्णु बन जाता है बिशन । वञ्क का टेढ़ापन बाँका बन कर नमूदार होता है । वातिंगण > बैंगन । वात > बादी । विमान > बिमान > बेवान । वन > बन । वट > बड़ । वामन > बौना । वकील > बोकील । वाराणसी > बनारस । विकार > बुखार । विष्ट > बीट । वल्लभ > बल्लभ । वाल्मीकि > बाल्मीकी > बामी । वीणा > बीन । वचन > बयन > बैन । विना > बिना > बिन । स्पष्ट है कि हिन्दी की बोलियों ने तत्सम शब्दावली के विमन की तुलना में फ़ारसी बे उपसर्ग लगने से बने बेमन को अपनाया क्योंकि यूँ भी विमन को बेमन होना ही था, जो बरास्ता फ़ारसी मिल गया । वैमनस्य के भीतर का विमन मनमुटाव और उससे भी बढ़कर द्वेष का भाव धारण कर रहा है जबकि स्वतन्त्र रूप में विमन अन्यमनस्कता, उचाटपन या खिन्नता को उजागर कर रहा है ।
संस्कृत के उच्चाटन का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का उच्चट शब्द है जो उद् और चट् के मेल से बना है । उद्+चट् की संधि उच्चट होती है । उद यानी ऊपर, चट् यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । उच्चाटन भी इसी उच्चट से ही बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि । आग में लकड़ी के जलने की चट्-चट् आवाज़ होती है जो लकड़ी की ऊपरी परत के अलग होने से पैदा होती है । गाल पर पड़े थप्पड़ को चाँटा कहते हैं जिसका मूल यही चट् है । जिस प्रहार को गाल पर जड़ने से चटाक की आवाज़ आती है उस क्रिया को चाँटा कहा गया ।
अधीरता दिखाते हुए कुछ भी खाने की क्रिया को चलती बोली में भकोसना कहते हैं । भकोसना की अर्थवत्ता इतनी सशक्त है कि बिना चबाए, हप-हप कर खाते व्यक्ति का चित्र सामने आ जाता है । आहार ग्रहण करने, खाना खाने, भोजन करने की की सामान्य क्रिया को संस्कृत में भक्षण कहते हैं । हिन्दी की अल्प प्रचलित तत्सम शब्दावली में भी भक्षण शब्द इसी अर्थ में मगर कुछ नाटकीय अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । आहार ग्रहण करने की अतिमानवीय क्रिया का आभास कराती है भक्षण का प्रयोग । यही नाटकीय अभिव्यक्ति साकार हुई लोकभाषा में और भक्षण > भकसन > भकोसन रूप में सामने आई । इसका एक अन्य रूप भकोसना हुआ । गौर करें अनगढ़ पत्थर या चट्टान पर । अगर ये किसी बहती धारा के रास्ते में हैं तो निश्चित ही समय के साथ इनका आकार चिकना, सुघड़ होता चला जाता है । पानी की धार ने निर्बाध बहने के लिए पत्थर की खुरदुरी सतह को चिकना कर दिया । इसे यूँ भी कह सकते हैं कि पत्थर ने अपनी कठोर सतह को घिस जाने दिया । शब्दों के साथ भी ऐसा ही होता है । भाषा के बहते नीर में घिस-घिस कर शब्दों के सालिगराम ( शालिग्राम) बनते हैं । यही अनुकूलन है ।
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4 कमेंट्स:
पत्थर के सारे कोने सपाट हो जाते हैं और एक चमचमाता हुया सा शब्द रह जाता है..
हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक आलेख
आभार
पूजनीय हैं ये शब्दों के सालिगराम ।
यहां इस बात का कोई औचित्य नही है पर बात बताने का लोभ संवरण नही कर पा रही हूं ।
हमारी मां एक भजन गाती थीं
दयामय शालिग्रामाSS बोलSत का नाही ।
वे बताती थीं कि उनका एक बुंदेलखंडी काम करने वाला उसे
डब्बा मे सालिगरामाS बोलSत का नाही ऐसे गाता था ।
यह सुनने समझने वाली बात है संस्कृत प्राकृत की नही ।
एक उत्कृष्ट निबंध ! भूमिका से लेकर उपसंहार तक, 'शब्दों का सफ़र' के शीर्षक को सार्थक करता हुआ. 'अनमनेपन' और औपचारिकता मात्र का निर्वहन करने वाले समय में अत्यंत गंभीर और साहित्यिक लेख के लिए बधाई और धन्यवाद.
http://aatm-manthan.com
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