Sunday, April 21, 2013

कल-कल की शब्दावली

भा षा का विकास प्राकृतिक ध्वनियों का अनुकरण करने से हुआ है। पानी के बहाव का संकेत ‘कल-कल’ ध्वनि से मिलता है। इस ‘कल’ के आधार पर देखते हैं कि हमारी भाषाओं को कितने शब्द मिले हैं। कल् की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। नदी-झरने की कल-कल और भीड़ के कोलाहल में यही कल ध्वनि सुनाई पड़ रही है। पक्षियों की चहचह और कुहुक के लिए प्रचिलत कलरव का अर्थ भी कल ध्वनि (रव) ही है। हिन्दी में गला, गली, खर्राटा, खल्ला, गरियाना, गुर्राना, कुल्ला, कल्ला, गाल आदि और अंग्रेजी का कॉल, कैलेंडर जैसे अनेक शब्द इसी कल की शृंखला से बंधे हुए हैं। चलिए, पहचानते हैं इन्हें।
प्राचीन रोम में पुरोहित नए मास की जोर-शोर से घोषणा करते थे इसे calare कहा जाता था। अंग्रेजी का call भी इससे ही बना है। रोमन में calare का अर्थ होता है पुकारना या मुनादी करना। कैलेयर से बने कैलेंडे का मतलब होता है माह का पहला दिन। माह-तालिका के लिए कैलेंडर के मूल में भी यही कैलेयर है। भाषा विज्ञान के नजरिये से calare का जन्म संस्कृत के कल् या इंडो-यूरोपीय मूल के गल यानी gal से माना जाता है। इन दोनों ही शब्दों का मतलब होता है कहना या शोर मचाना, जानना-समझना या सोचना-विचारना।
ल-कल में ध्वनिवाची संकेत से पानी के बहाव का अर्थ तय हुआ मगर ध्वनिवाचक अर्थ भी बरक़रार रहा। बहाव के अर्थ में बरसाती नाले को खल्ला / खाला कहते हैं। यह स्खल से आ रहा है जिसमें गिरने, फिसलने, बहने, टपकने, नीचे आने, निम्नता जैसे भाव हैं। ज़ाहिर है कल का अगला रूप ही स्खल हुआ जिससे नाले के अर्थ में खल्ला बना। कल का ही अगला रूप गल होता है। ज़रा सोचे पंजाबी के गल पर जिसका मतलब भी कही गई बात ही होता है। साफ़ है कि अंग्रेजी का कॉल, संस्कृत का कल् और पंजाबी का गल एक ही है।
ल् का विकास गल् है जिसका अर्थ है टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना आदि। यह कल के बहाववाची भावों का विस्तार है। गौर करें इन सब क्रियाओं पर जो जाहिर करती हैं कि कहीं कुछ खत्म हो रहा है, नष्ट हो रहा है। यह स्पष्ट होता है इसके एक अन्य अर्थ से जिसमें अन्तर्धान होना, गुजर जाना, ओझल हो जाना या हट जाना जैसे भाव हैं। गलन, गलना जैसे शब्दों से यह उजागर होता है। कोई वस्तु अनंत काल तक रिसती नहीं रह सकती। स्रोत कभी तो सूखेगा अर्थात वहाँ जो पदार्थ है वह अंतर्धान होगा। गल् धातु से ही बना है गला जिसका मतलब होता है कंठ, ग्रीवा, गर्दन आदि। ध्यान रहे, गले से गुज़रकर खाद्य पदार्थ अंतर्धान हो जाता है।
ल् से गला बना है और गली भी। निगलना शब्द भी इसी मूल से बना है। गले की आकृति पर ध्यान दें। यह एक अत्यधिक पतला, सँकरा, संकुचित रास्ता होता है। गली का भाव यहीं से उभर रहा है। कण्ठनाल की तरह सँकरा रास्ता ही गली है। गली से ही बना है गलियारा जिसमें भी तंग, संकरे रास्ते का भाव है। गल् में निहित गलन, रिसन के भाव का अंतर्धान होने के अर्थ में प्रकटीकरण अद्भुत है। कुछ विद्वान गलियारे की तुलना अंग्रेजी शब्द गैलरी gallery से करते हैं। यूँ गुज़रने और प्रवाही अर्थ में भी सँकरे रास्ते के तौर पर कल, गल से होते हुए गला और गली के विकास को समझा जा सकता है।
गौर करें सुबह सोकर उठने के बाद मुँह में पानी भर कर गालों की पेशियों को ज़ोरदार हरक़त देने से ताज़गी मिलती है। इसे कुल्ला करना कहते हैं। यह कुल्ला मूलतः ध्वनि अनुकरण से बना शब्द है और इसमें वही कल-कल ध्वनि है जो पत्थरों से टकराते पानी में होती है। वैसे कुल्ला का मूल संस्कृत के कवल से माना जाता है। हिन्दी में जो गाल है वह संस्कृत के गल्ल से आ रहा है। फ़ारसी में गल्ल से कल्ला बनता है जिसका प्रयोग हिन्दी में भी होता है जैसे कल्ले में पान दबाना यानी मुँह में पान रखना। गल्ल और कल्ल की समानता गौरतलब है। गल्ल से हिन्दी में गाल बनता है और फ़ारसी में कल्ला। मगर दोनों ही भाषाओं में कुल्ला का अर्थ गालों में पानी भरकर उसमें खलबली पैदा करना ही है।
ताज़गी के लिए कुल्ला के अलवा गरारा भी किया जाता है। यह संस्कृत के गर्गर (गर-गर) से आ रहा है। कल कल का ही विकास गर गर है। आमतौर पर गर गर ध्वनि गले से अथवा नाक से निकलती है। इस ध्वनि के लिए नाक या गले में नमी होना भी जरूरी है। क वर्णक्रम की ध्वनियाँ आमतौर पर एक दूसरे से बदलती हैं। नींद में मुँह से निकलनेवाली आवाजों को खर्राटा कहा जाता है। इसकी तुलना गर्गर से करना आसान है। यहाँ ध्वनि में तब्दील हो रही है। ख, क ग कण्ठ्य ध्वनियाँ है मगर इनमें भी संघर्षी ध्वनि है और बिना प्रयास सिर्फ निश्वास के जरिये बन रही है। सो खर्राटा शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ रहा है। हाँ, गुर्राने गो भी न भूल जाएँ। 
अंग्रेजी के गार्गल gargle शब्द का प्रयोग भी शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर होने लगा है। इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच भाषा के gargouiller मानी जाती है जो प्राचीन फ्रैंच के gargouille से जन्मा है जिसमें गले में पानी के घर्षण और मंथन से निकलने वाली ध्वनि का भाव निहित है। इस शब्द का जन्म गार्ग garg- से हुआ है जिसमें गले से निकलने वाली आवाज का भाव है। इसकी संस्कृत के गर्ग (रः) से समानता गौरतलब है। गार्गल शब्द बना है garg- (गार्ग) + goule (गॉल) से। ध्यान रहे पुरानी फ्रैंच का goule शब्द लैटिन के गुला gula से बना है जिसका अर्थ है गला या कण्ठ। लैटिन भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ी है। लैटिन के गुला और हिन्दी के गला की समानता देखें।
पशब्द, निंदासूचक या फूहड़ बात के लिए हिन्दी उर्दू में गाली शब्द है। प्रायः कोशों में इसका मूल संस्कृत का गालि बताया गया है। ध्यान रहे कल् या गल् में कुछ कहने का भाव है प्रमुख है। कल्-गल् की विकास यात्रा में अपशब्द के लिए गालि का विकास भी इसी गल् से हुआ। गल् यानी ध्वनि। कहना। गाल यानी वह अंग जहाँ जीभ व अन्य उपांगों से ध्वनि पैदा होती है। गला यानी वह महत्वपूर्ण अंग जहाँ से ध्वनि पैदा होती है। गुलगपाड़ा, शोरगुल, कोलाहल, कल-कल, कॉल, गल, कलरव, गर-गर, गॉर्गल जैसे शब्दों में कहना, ध्वनि करना ही महत्वपूर्ण है। गाली का एक अन्य रूप गारी भी होता है। उलाहना, भर्त्सना, धिक्कार या झिड़कने को गरियाना भी कहते हैं। किसी को दुर्वचन कहने, लताड़ने, फटकारने के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया जाता है। जॉन प्लैट्स के कोश में गाली की व्युत्पत्ति प्राकृत के गरिहा से बताई गई है। संस्कृत में इसका मूल गर्ह् है जिसका अर्थ भर्त्सना या धिक्कार ही है। गर्ह् के मूल में भी गर् ध्वनि को पहचाना जा सकता है।
गाली बकने की क्रिया के लिए गाली-गलौज शब्द भी है। इसमें गलौज ध्वनि अनुकरण से बना है। गलौज, गलौच, गलोच में क्या सही है, क्या ग़लत इसके फेर में नहीं पड़ना चाहिए। वैसे हिन्दी कोशों में गलौज को ही सही बताया गया है। चूँकि ध्वनि अनुकरण का मामला है इसलिए अलग अलग क्षेत्रों में और का फ़र्क़ हो सकता है।  इसी कड़ी में गाली-गुफ्तार पर विचार करें। गुफ्तार मुख-सुख से नहीं आया है मगर गाली-गुफ्तार पद का प्रयोग हिन्दी में गाली-गुफ्ता की तरह होता है। अनजाने में गालीगुप्ता भी देखा जाता है।

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Saturday, April 20, 2013

‘छद्म’ और ‘छावनी’

से शब्द जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली के हैं मगर बोलचाल की हिन्दी में आज भी डटे हुए हैं उनमें छद्म शब्द भी शामिल है। कपटपूर्ण व्यवहार के संदर्भ में हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। छल-छद्म एक आम मुहावरा है जिसका अर्थ है छल, कपट या धोखे का प्यवहार। छद्मवेषी व्यक्ति वह है जो अपना असील रूप छिपाने के लिए रूप बदल कर रहता है। छद्म करनेवाले व्यक्ति को छद्मी कहते हैं। ध्यान रहे, देहात में पाया जाने वाला संज्ञानाम छदामी (लाल) या छदम्मी (लाल) इस छद्मी का अपभ्रंश रूप नहीं है। ये नाम दरअसल यूनानी मुद्रा द्रख्म से आ रहे हैं जो मौर्यकाल में भारत में द्रम्मम् के नाम से चलती थीं जिनका देशी रूप दाम, दमड़ी हुआ। मूल्य के अर्थ में दाम शब्द यहीं से आ रहा है। दाम का छठा हिस्सा छदाम कहलाया। दो दमड़ी यानी एक छदाम। पुराने ज़माने में दमड़ीमल भी होते थे और छदामीलाल भी। ख़ैर बात छद्म की चल रही थी।
द्म में जो फ़रेब, झूठ, छुपाव, बनावटीपन आदि का भाव है वह दरअसल छद् से आ रहा है। संस्कृत में छद् का अर्थ है आवरण। छद् का ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीं फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। छद् का मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्र, छत्रक या छत्रकम् । इन्ही शब्दों से बने हैं छाता, छत्री छतरी जैसे शब्द जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहाँ उन्हें दफनाया जाता था, छतरियाँ बनाईं जाती थीं।
नावटी, नकली, जाली या फर्जी में मूलतः सच्चाई को छुपाने का भाव है। ऐसा व्यवहार जिसमें सच को छुपाया जाए, उस पर पर्दा या आवरण डाला जाए, छद्म की श्रेणी में आता है। छद्म में छद् को अगर पहचाना जाए तो सब स्पष्ट हो जाता है। छद का छत रूप अगर संरक्षण है तो वह एक आवरण भी है। संस्कृत में छद्मन् का अर्थ है स्वांग, बहाना, छुपाव, कपट आदि। छल शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्दसागर में स्खल से बताई गई है जो मेरे विचार में ठीक नहीं है। छल में भी वही ‘छ’ है जिसमें छुपाव या आवरण का भाव है। छल-छद्म में दुराव या छुपाव की पुनरुक्ति है।
फ़ौजी पड़ाव के लिए हिन्दी में छावनी शब्द आम है। कई बड़े शहरों में छावनी नामधारी इलाके होते हैं। इसका मतलब यह किसी ज़माने में वहाँ सेना का स्थायी या अस्थायी बसेरा था। उन्हीं स्थानों पर बाद में नई आबादी बस जाने के बावजूद इलाके के नाम के साथ छावनी शब्द जुड़ा रहा जैसे छावनी चौराहा या छावनी बाज़ार आदि। आज के दौर में भी जिन शहरों में आर्मी कैंटोनमेंट होता है उसे छावनी ही कहते हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड को भी छावनी बोर्ड ही कहते हैं। जानते हैं छावनी शब्द कहाँ से आया और इसका अर्थ क्या है। संस्कृत में आच्छादन का अर्थ होता है आवरण, वस्त्र या छाजन आदि। आच्छादन में भी छद् को पहचाना जा सकता है। उपसर्ग के बाद छादन बचता है। किसी ज़माने में बटोही राह में जब रुकते थे तो टहनियों को अर्धवृत्ताकार मोड़ कर उनके दोनों सिरे ज़मीन में गाड़ देते थे और उस ढाँचे पर चादर तान देते थे। यह उनका अस्थायी आश्रय बन जाता था।
गौर करें, यह जो चादर है वह भी इसी कड़ी का शब्द है। छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा – छत्रक > छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर। मराठी में छादनी का अर्थ होता है ढक्कन, आवरण आदि और इसी रूप में यह हिन्दी में भी है। छादनी से छावनी में तब्दील होने का क्रम यूँ रहा- छादनी > छायणी > छायणी > छावणी। हिन्दी शब्दसागर छादनी का उल्लेख नहीं करता किन्तु इसका रिश्ता छाना क्रिया से जोड़ता है साथ ही देशी छायणिया, छायणो जैसे शब्दों से इसका सम्बन्ध बताता है। स्पष्ट है कि छायणिया या छायणो जैसे रूप प्राकृत-अपभ्रंश के हैं और इनका मूल छादन या छादनी है। इसी कड़ी में छाँह, छाँव, छावण, छावन, छाजन, छप्पर जैसे शब्द भी हैं जिनमें आवरण, डेरा, तम्बू, आश्रय, ढक्कन जैसे भाव हैं।

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Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

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Friday, April 5, 2013

नस्ली सही, नस्लीय ग़लत

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जो शब्द ग़लत बर्ताव के शिकार हैं, उनमें ‘नस्ल’ का ‘नस्लीय’ रूप भी शामिल है। ‘नस्ल’ मूलतः अरबी शब्द है। शब्दकोशों में हिन्दी रूप ‘नसल’ होता है पर ‘अस्ल’ के ‘असल’ रूप की तरह यह आम नहीं हो पाया और इसका प्रयोग वाचिक ही बना रहा। नस्ल के मूल में अरबी क्रिया नसाला है जिसमें उपजाना, पैदा करना, जन्म देना, प्रजनन करना, बढ़ाना, दुगना करना, वंश-परम्परा जैसे भाव हैं।
साला की अरबी धातु नून-सीन-लाम (ن س ل ) बताई जाती है जिससे पुनरुत्पादन, वृद्धि जैसे आशय प्रकट होते है। शब्दकोशों के मुताबिक नस्ल का मूलार्थ सन्तान, औलाद, लड़का, लड़की, शावक, सन्तति , परिणाम आदि है किन्तु प्रचलित अर्थों में नस्ल में जाति का भाव प्रमुख तौर पर उभरता है। इसके अलावा कुल, परिवार, वंश जैसे आशय भी प्रकट होते हैं। हिन्दी में किसी शब्द के सम्बन्धवाची आशय उसके साथ ‘ईय’ प्रत्यय लगने से ज़ाहिर होते हैं जैसे मानव + ईय़ = मानवीय या जाति + ईय = जातीय आदि। नस्ल चूँकि विदेशज शब्द है और सम्बन्धवाची आशय प्रकट करने वाला रूप ‘नस्ली’ मूल अरबी के अलावा फ़ारसी, उर्दू-हिन्दुस्तानी में भी सुरक्षित है सो ऐसे में नस्ल का ‘नस्लीय’ रूप खटकता है। अगर ‘नस्ल’ से ‘नस्लीय’ ही बनाना है तो ‘जातीय’ क्या बुरा है? भाषा तो लगातार आसान होती जाती है। नस्ल का हिन्दी रूप तो नसल है। तब ‘नसलीय’ बनाइये!! अगर ‘नस्ल’ लिखना सुहाता है तो ‘नस्ली’ ही लिखिए, ‘नस्लीय’ नहीं।
क तरफ़ हम ‘चिकित्सक’ के स्थान पर ‘डॉक्टर’ की पैरवी करते हैं कि इसमें कम अक्षप हैं, आसान है। मगर दूसरी तरफ़ कम शब्द वाले ‘नस्ली’ में हिन्दी का प्रत्यय लगाकर उसे और भी लम्बा (नस्लीय) कर देते हैं। आसान से ‘सौहार्द’ को जबर्दस्ती ‘सौहार्द्र’ बनाने पर तुले हैं जबकि बोलने में यह कठिन है। आसान हिन्दी के पैरोकार इस पर चुप्पी लगा लेंगे।

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