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Monday, September 15, 2014

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

sakhi चपन से युवावस्था तक अपन मालवी-उमठवाड़ी परिवेश वाले राजगढ़-ब्यावरा में पले-बढ़े हैं। मालवी में जब हाड़ौती का तड़का लगता है तो उमठवाड़ी बनती है। हालाँकि राजगढ़-ब्यावरा मूल रूप से मध्यप्रदेश के मालवांचल में ही आता है फिर भी इस इलाके की स्थानीय पहचान उमठवाड़ के नाम से भी है। बहरहाल अक्सर महिलाओं के आपसी संवादों में ‘दारी’ और ‘दरी’ इन शब्दों का अलग अलग ढंग से इस्तेमाल सुना करते थे। ‘दरी’ में जहाँ अपनत्व और साख्य-भाव है वहीं ‘दारी’ में उपेक्षा और भर्त्सना का दंश होता है। ‘दरी’ का प्रयोग देखें- “रेबा दे दरी” अर्थात रहने दो सखि। “आओ नी दरी” यानी सखि, आओ न। “अरी दरी, असाँ कसाँ हो सके” मतलब ऐसा कैसे हो सकता है सखि! इसके ठीक विपरीत ‘दारी’ शब्द का प्रयोग बतौर उपेक्षा या गाली के तौर पर किया जाता है जैसे- “दारी, घणो मिजाज दिखावे”, भाव है- इसकी अकड़ तो देखो!
री’ और ‘दारी’ के भेद को समझने की कोशिश लम्बे वक्त से जारी थी। सिर्फ एक स्वर के अंतर से ‘दरी’ में समाया सखिभाव तिरोहित होकर दारी में उपेक्षा अथवा गाली में कैसे तब्दील हो जाता है ? ‘दरी’ का प्रयोग नन्हीं-नन्हीं बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ी औरतें तक करती हैं। हाँ, दारी का प्रयोग वयस्क महिलाओं के आपसी संवाद में ही होता है। दूर तक फैले मालवा के बारे में अपने सीमित अनुभवों के बावजूद कह सकता हूँ कि इस पर बृजभाषा का काफी प्रभाव है। दारी बृज में भी प्रचलित है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी दारी के बारे में लिखते हैं- “बृज में ‘दारी’ बहुत प्रचलित है। औरतों को गाली देने के काम आता है। परन्तु इस शब्द का तात्विक अर्थ क्या है, बृज के लोग आज भी नहीं जानते। साहित्यिक भी ‘दारी’ का अर्थ नहीं जानते। कोश-ग्रन्थों में दासी का रूपान्तर दारी बतलाया गया है! दासी से दारी कैसे बना ? कोई पद्धति भी है? कुछ नहीं! और दासी कहकर या नौकरानी कह कर कोई गाली नहीं देता। गाली में बेवकूफी, दुष्टता, दुश्चरित्रता जैसी कोई चीज़ आनी चाहिए”
निश्चित तौर पर ‘दारी’ शब्द के मूल में दुश्चरित्रता का ही भाव है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ‘दारी’ का रिश्ता ‘दारा’ से जोड़ते हैं जिसमें पत्नी, भार्या का भाव है। वे लिखते हैं, “ दारा एक की भार्या, और दारी सबकी, भाड़े की” । तो क्या 'दारा' में 'ई' प्रत्यय लगा देने से अधिष्ठात्री की अर्थवत्ता बदल कर वेश्या हो जाती है? 'पति' में पालनकर्ता, स्वामी का भाव है। इससे ही 'पतित' बना होगा, ऐसा मान लें ? मेरे विचार में मालवी, बृज के ‘दारी’ शब्द में वेश्या, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्रा के अर्थ स्थापन की प्रक्रिया वही रही है जैसी हिन्दी के ‘छिनाल’ शब्द की रही। ‘छिनाल’ का रिश्ता संस्कृत के ‘छिन्न’ अथवा प्राकृत के ‘छिण्ण’ से है जिसका अर्थ विभक्त, टूटा हुआ, विदीर्ण, फाड़ा हुआ, खण्डित, विनष्ट आदि। ध्यान रहे छिन्न > छिण्ण से विकसित छिनाल में चरित्र-दोष इसीलिए स्थापित हुआ क्योंकि समाज ने बतौर कुलवधु उसकी निष्ठा में दरार देखी, टूटन देखी या उसे विभक्त पाया। संस्कृत की ‘दृ’ धातु में जहाँ विदीर्ण, विभक्त जैसे भाव हैं वहीं इससे मान, सम्मान, शान, अदब जैसे आशय भी निकलते हैं। आदर, आदरणीय जैसे शब्द ‘दृ’ से ही बने हैं। ‘समादृत’ जैसे साहित्यिक शब्द में ‘दृ’ की स्पष्ट रूप से पहचाना हो रही है|
त्नी के अर्थ में हिन्दी संस्कृत में जो ‘दारा’ शब्द है उसमें स्त्री के पतिगृह की अधिष्ठात्री, पत्नी, अर्धांगिनी जैसे रुतबे वाला आदरभाव है। दारा में आदर वाला ‘दृ’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में ‘दारिका’ के दो रूप दिए हैं। एक का विकास ‘दृ’ के टूटन, विभाजन वाले अर्थ से होता है तो दूसरे का विकास सम्मान, अदब आदि भावों से। ‘दारिका’ का एक अर्थ जहाँ वेश्या है वहीं दूसरी ओर इसका अर्थ कन्या, पुत्री, पुत्र आदि भी है। स्पष्ट है कि सखि के तौर पर मालवी में जो ‘दरी’ शब्द है वहाँ ‘दृ’ में निहित आदर का भाव स्नेहयुक्त लगाव में परिवर्तित होता दिखता है और इसीलिए मालवांचल के देहात में ‘दरी शब्द आज भी खूब प्रचलित है वहीं गाली-उपालम्भ के तौर पर 'दारी' की अर्थवत्ता भी कायम है। अलबत्ता सभ्य समाज में जो वेश्या है ‘दारी’ उसे न कहते हुए आपसदारी की गाली में ‘दारी’ देहाती परिवेश में आज भी चल रहा है।

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Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

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Tuesday, January 15, 2013

चर्चा कैसी कैसी !!

talk

हि न्दी से प्यार करने वालों का उसके साथ बर्ताव और व्यवहार भी अनोखा होता है । मिसाल के तौर पर चर्चा की बात करें । उर्दू-हिन्दी में बातचीत, कथन, उल्लेख, ज़िक़्र के संदर्भ में चर्चा शब्द का प्रयोग होता है । यह बहुत प्रचलित शब्द है । अक्सर यह बहस भी चलती रहती है कि चर्चा स्रीवाची है या पुरुषवाची । “चर्चा चलती है” या “चर्चा चलता है” । “चर्चा रही” या “चर्चा रहा” । कुछ लोग कह देते हैं कि कथन, ज़िक़्र या उल्लेख की तरह चर्चा के प्रयोग में पुलिंग लगना चाहिए जबकि कुछ लोग इसे स्त्रीवाची कहते हैं और इस तरह चर्चा पर चर्चा चलती ही रहती है । जो हिन्दीप्रेमी नुक़्ते से परहेज़ करते हैं उनका कहना है कि चर्चा के साथ उर्दू वाला पुल्लिंग लगाया जाए । इसके बरख़िलाफ़ जिन हिन्दीप्रेमियों को मुसलमानी बिन्दी से लगाव है वो चाहते हैं कि चर्चा को उर्दू का न माना जाए और इसके साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग किया जाए । उर्दू में चर्चा से चर्चे बना लिया गया है जो बहुवचन है ।
बसे पहले तो एक बात साफ़ कर दें कि चर्चा हिन्दी की अपनी ज़मीन पर तैयार हुआ शब्द है और स्त्रीवाची है । यह मूलतः तत्सम शब्द है । इसमें और संस्कृत के चर्चा शब्द में अगर कोई मूलभूत फ़र्क़ है तो सिर्फ़ यही कि संस्कृत-वैदिक शब्दावली का चर्चा पुरुषवाची है और हिन्दी का चर्चा स्त्रीवाची । संस्कृत का चर्चा लोकभाषा में स्रीवाची चरचा था और हिन्दी की ज़मीन पर भी इसी रूप में सामने आया । आज से क़रीब छह सौ सात सौ साल पहले हिन्दी की विभिन्न शैलियों में चर्चा के चरचा रूप का स्त्रीवाची प्रयोग के लिखित साक्ष्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं । ज़ाहिर है बोलचाल में इसकी रचबस कई सदी पहले हो चुकी होगी । कबीर अपनी सधुक्कड़ी में कहते हैं - “संगत ही जरि जाव न चरचा नाम की । दुलह बिना बरात कहो किस काम की।।” वहीं विनयपत्रिका में तुलसी की अवधी में भी चरचा है- “जपहि नाम रघुनाथ को चरचा दूसरी न चालु।” तो उधर राजस्थानी में मीराँ के यहाँ भी चरचा है - “राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै । तज कुसंग सतसंग बैठ णित, हिर चरचा सुण लीजै ।।
र्चा शब्द में विभिन्न आशय शामिल हैं मगर आमतौर पर इसका अर्थ बहस या विचार-विमर्श ही है । चर्चा में मूलतः दोहराव का भाव है । तमाम कोश चर्चा के अनेक अर्थ बताते हैं मगर रॉल्फ़ लिली टर्नर कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चर्चा प्रविष्टि के आगे सिर्फ़ रिपीटीशन यानी दोहराव लिखते हैं । ज़ाहिर है, बाकी आशय बाद में विकसित हुए हैं विलियम व्हिटनी पाणिनी धातुपाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि चर्च् धातु दरअसल चर् धातु में निहित भाव की पुनरावृत्ति दिखाने वाला रूप है । चर् का मूल भाव गति है (करना, अनुष्ठान, व्यवहार, आचरण, अभ्यास आदि । इससे ही चलने की क्रिया वाला चर बना है) । चर्चर (चर-चर) में दोहराव है । बहरहाल, चर्चा के मूल में चर्च् धातु है जिसका मूलार्थ है दोहराव । आप्टे कोश के मुताबिक इसमें पढ़ना, अनुशीलन करना, अध्ययन करना, विचार-विमर्श करना जैसे भाव हैं । इसी के साथ इसमें गाली देना, धिक्कारना, निन्दा करना, बुरा-भला कहना जैसे आशय भी हैं । इससे बने चर्चा में आवृत्ति, तर्क-वितर्क, स्वरपाठ, अध्ययन, सम्भाषण, वाद-विवाद, अनुशीलन, परिशीलन, अनुसंधान के साथ-साथ शरीर पर उबटन लगाना, मालिश करना, लेपन करना जैसे भाव भी हैं ।
र्च् में निहित दोहराव वाले भाव पर गौर करें तो चर्चा के अन्य आशय भी स्पष्ट हो जाते हैं । बार-बार या दोहराव वाली बात विमर्श के दौरान भी उभरती है और विचार मन्थन में भी । अनुसंधान या खोज के दौरान भी बार बार उन्हीं रास्तों, विधियों, प्रविधियों से गुज़रना होता है । बहस-मुबाहसों में एक ही बिन्दू पर लौटना होता है या किसी एक मुद्दे का बार बार उल्लेख होता है । चर्चा में अफ़वाह, गपशप, चुग़लख़ोरी जैसी बातें भी शामिल हैं । अफ़वाह में आवर्तन की वृत्ति होती है । किसी भी क़िस्म की गप्प, गॉसिप या अफ़वाह जैसी बातें लौट-लौट कर आती हैं । सो बारम्बारता चर्चा का ख़ास गुणधर्म है । यही बारम्बारता मालिश, मसाज़ या लेपन में भी है । मालिश या लेपन करना यानी बार-बार किसी एक सतह पर दूसरी सतह फेरना सो चर्चित का आशय लेपित से भी है । बृहत हिन्दी शब्दकोश में इसका उदाहरण दिया है चन्दन-चर्चित काया । लेपन की क्रिया को चर्चन भी कहते हैं । चर् में निहित गति की पुनरावृत्ति ही ‘चर्चन’ है ।
र्च् से ही बना है चर्चित जिसका अर्थ है- ऐसा कुछ जिस पर लोग बातें करतें हैं । इसमें वस्तु, व्यक्ति, विचार कुछ भी हो सकता है । चर्चित यानी जिस पर चर्चाएँ चल रही हों । कोशों के मुताबिक चर्चित का अर्थ है जिस पर विचार किया गया हो, जिस पर चर्चा हुई हो, जिसे खोजा गया हो। इसके अलावा चर्चित वह भी है जिसकी मालिश हुई हो, जिस पर लेप किया हुआ हो, जो सुगंधित, सुवासित, अभ्यंजित हो । चर्चित के दोनों ही अर्थों में दोहराव की प्रक्रिया स्पष्ट है । आम अर्थों में चर्चित चेहरा वह होता है जो खबरों में हो । खबर को चर्चा का पर्याय मानें । बार बार कोई मुद्दा या व्यक्ति जब चर्चा में आता है तो वह चर्चित कहलाता है । चर्चा योग्य के लिए मुखसुख के आधार पर चर्चनीय शब्द भी बना लिया है । चर्चा करने वाले को वार्ताकार की तर्ज पर चर्चाकार कहते हैं । संस्कृत नाटकों की परम्परा में दो अंकों के बीच दृष्यविधान बदलते हुए दर्शकों के मनोरंजन के लिए गाया जानेवाला गीत चर्चरिका कहलाता था । फ़ाग, होली, बुआई, कटाई जैसे अवसरों पर भी चर्चरिका का चलन था । लोक भाषा में इसे चाँचर, चँचरी या चाँचरी कहते हैं । चाँचरी एक पहाड़ी लोकनृत्य की शैली भी है ।
र्चा प्रायः आर्यपरिवार की सभी भारतीय भाषाओं में है । लोगों की ज़बान पर जब किसी बात का उल्लेख आम हो जाए तो उसे मराठी में जनचर्चा या लोकचर्चा कहा जाता है । इसी तरह रामचर्चा पद है जिसका शाब्दिक अर्थ तो राम का नाम लेना है मगर इसमें मुहावरेदार अर्थवत्ता है । मोल्सवर्थ का इंग्लिश-मराठी कोश इसके बारे में कहता है - A phrase used emphatically or expletively in a speech expressing any positive and utter denial. 

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Tuesday, June 26, 2012

गुण्डे की नेता से रिश्तेदारी

"कन्नड़ में गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे ।"

प्रा यः सभी भाषाओं में शब्दोंकी अर्थावनति की प्रवृत्ति होती है । प्रभाव और महिमा का बोध कराने वाले शब्द काल के प्रवाह में धीरे धीरे व्यग्यसूचक हो जाते हैं बाद में उनमें विपरीत भाव तक पैदा हो जाता है । शब्दों का सफ़र में ऐसे अनेक उदारहरण मिल जाएँगे जैसे ऐहदी, नौकर, चाकर, पाखण्डी, गुरु आदि। तथाकथित नेता इस बात से नाराज़ रहते हैं कि उन्हें गुण्डा कहा जाने लगा है । अब उन्हें कौन समझाए कि नेता वह है जो किसी समूह को राह दिखाए, अगुवाई करे । नेता शब्द की अभिव्यक्ति वाले न जाने कितने शब्द हैं जैसे-नायक, प्रमुख, प्रधान, सरदार, आक़ा, साहिब, गुरु वगैरह वगैरह । अब गुण्डों का सरदार भी नायक ही होता है । अब अगर गुण्डा शब्द के मूल में ही प्रधान और नेता जैसे भाव हों तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ! और बुरा ही मानना है तो खुद को नेता कहलवाना भी बंद कर दें क्योंकि नेता की अर्थवत्ता ने भी नकारात्मक रूप अपना लिया है । जब कोई व्यक्ति ज्यादा दंद-फद दिखाता है उसे नेता  कहते हैं । नेतागीरी शब्द पूरी तरह से नकारात्मक है जिसका अर्थ है निजी स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाना ।

गुण्डा शब्द की व्याप्ति आर्यभाषा परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में क़रीब क़रीब एक सी है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इसमें निहित नकारात्मक भाव भी सभी भाषाओं में है किन्तु दक्षिण की मराठी, तमिल जैसी भाषाओं से यह संकेत मिलता है कि मूलतः गुण्डा शब्द का आशय शक्तिशाली, प्रभावशाली, ताक़तवर, नायक जैसी अर्थवत्ता रखता था । तेलुगू में गुण्डुराव या गुण्डूराज आख़िर प्रभावी नाम ही हैं जिसका अर्थ नेता, प्रमुख ही है। आखिर गुण्डा शब्द में इन भावों का विकास किस तरह हुआ होगा ? सबसे पहले बात करते है इसके जन्मसूत्रों और रिश्तेदारियों की । संस्कृत के गुंड, गंड, गुड़, खण्ड, खांड, काण्ड जैसे शब्द एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । इन सबमें जो मूल भाव है वह है उभार । ध्यान रहे ये सभी शब्द एक वर्णक्रम में आते हैं अर्थात क-ख-ग आदि । एक ही वर्णक्रम के शब्द आपस में रूपान्तरित भी होते हैं । उभार के अर्थ पर ध्यान दें । समतल पर किसी उठाव का पैदा होना दरअसल उस समतल क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है । कोई भी पर्वत शृंखला दरअसल पार्थिव उभार है जिसके दोनो  ओर के इलाके पृथक भूक्षेत्र होते हैं ।
गुड़ का जन्म हुआ है गड् से जिसमें पिण्ड का भाव भी है, कूबड़ अथवा गाँठ का भी और रस, राब या शीरा का भी । ये सभी लक्षण गन्ने हैं । गन्ना का मूल काण्ड और गण्ड दो शब्दों से बताया जाता है । ये दोनों एक ही कतार में खड़े हैं । गण्ड का अर्थ उभार या गाँठ होता है । ध्यान रहे, गन्ने पर एक निश्चित दूरी पर उभार होता है जिसे गाँठ कहते हैं । इसी उभार के लिए संस्कृत में काण्ड शब्द भी है । अध्याय, खण्ड, विभाग जैसे अर्थों पर जो मुख्यतः विभाजन को बताते हैं । पौराणिक ग्रन्थों के अध्यायों को काण्ड कहा जाता था पुस्तक के विभिन्न भाग काण्ड कहलाते थे । गन्ने का तना देखें तो इसमें भी यही काण्ड नज़र आता है । इस काण्ड का ही एक रूप खण्ड है । खण्ड यानी विभाग, क्षेत्र, अंश आदि । हमारे इर्दगिर्द खण्ड से जुड़ी कितनी ही संज्ञाएँ हैं जैसे झारखण्ड, उत्तराखण्ड, बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड आदि इसका ही रूप फ़ारसी में कन्द होता है जैसे ताशकन्द, समरकन्द आदि । आप्टे कोश के मुताबिक काण्ड के मूल में संस्कृत का कण् है ।
संस्कृत की कण् धातु में क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने का भाव है। कण् में पीसना, चूरना जैसा भाव भी है । पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है । यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या । संस्कृत की कण् धातु में निहित हिस्सा, शाखा, भाग, लघुतम अंश जैसे अर्थों से ही इसमें अध्याय या प्रसंग का भाव विकसित हुआ । घास प्रजाति के पौधे के लिए भी काण्ड शब्द प्रचलित हुआ जिसमें बाँस से लेकर गन्ना भी शामिल है । किसी वृक्ष की शाखा, डाली अथवा तने को भी काण्ड कहा जाता है। इसी कड़ी से जुड़ा है प्रकाण्ड शब्द । संस्कृत का प्र उपसर्ग जब संज्ञा या विशेषण से पहले लगता है तो उस शब्द में सम्पूर्णता का भाव भी समाहित हो जाता है । इस तरह एक नया विशेषण बनता है जिसमें अत्यधिक, आधिक्य या अत्यंत का भाव समाहित है जैसे पेड़ का तना । प्रकांड का दूसरा अर्थ है कोई भी प्रमुख पदार्थ या वस्तु। इसीलिए आमतौर पर किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रवीणता रखनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में प्रकांड पंडित कहा जाता है।
संस्कृत के गण्ड में उभार का जो भाव है वह उसे विशिष्ट बनाता है । समतल सतह पर कोई भी उभार विशिष्ट है । समाज में किसी व्यक्तित्व का उभार उसे खास बनाता है । ऐसे लोग नायक कहलाते हैं । गण्ड का एक अर्थ नायक, योद्धा या शूरवीर भी है । संस्कृत के गण्ड का प्रभाव द्रविड़ भाषाओं पर भी है । तमिल में कण्डन का अर्थ भी योद्धा होता है । कन्नड़ में गुण्ड का अर्थ चाकर होता है जो किसी ज़माने में फौज की अग्रिम पंक्ति के नायक होते थे । जे पी फेब्रिसियस के तमिल लैक्सिकन के मुताबिक गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । तेलुगु में व्यक्तिवाचक संज्ञा के तौर पर गुंडूराव नाम खूब प्रचलित है । इसमें नायक का ही भाव है । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे । पर्वतशृंखलाएँ पृथ्वी का उभार ही हैं और पर्वत शिखरों में नायक भाव स्थापित है । उभार से ही गण्ड के गण्डि, गुण्डी, घुण्डी, गण्डा जैसे रूप सामने आते हैं जिसका अर्थ है कोई ग्नन्थि, गूमड़, रूई या कपड़े का गोला, गेंद या मन्त्र विद्ध ताबीज आदि ।
राठी में एक शब्द है गांवगुंड जिसका अर्थ है ग्रामनायक या ग्रामयोद्धा । अथवा भांड-मीरासी जैसा कोई पात्र जो देखते ही देखते अपने करतबों से भीड़ जुटा लेता है । मराठी में गुंडा शब्द का अर्थ है एक गोल, चिकना पत्थर । यह सालिगराम भी हो सकता है । इसके अलावा एक दुष्ट या कमीन किस्म का व्यक्ति जो हर तरह की चालें चलना जानता है । कुल मिला कर “गुण्ड” जो किसी समूह का नायक था, बाद में अपनी उद्धत, अहंकारी वृत्ति के चलते खल-चरित्र बन गया । नायक शब्द की अर्थवत्ता तो कायम रही मगर नायक की अर्थवत्ता वाले गण्ड, गुण्ड जैसे शब्दों की अर्थावनति हुई । अशिष्ट, अशालीन, उदण्डतापूर्व व्यवहार करने वाले व्यक्ति को गुण्डा की संज्ञा मिली ।
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Saturday, February 11, 2012

पहचानिए हिन्दी के दो कमीनों को…[कम-2]

पिछली कड़ी-‘काम’ में ‘कमी’ की तलाश [कम-1]

हिन्दी की ज़मीन पर मेरे विचार से दो ‘कमीन’ विराजमान हैं । बोलचाल की भाषा में फ़ारसी के कमीन का चलन बढ़ा और जनमानस में सदियों से प्रचलित(पाली/हिन्दी) का ‘कम्मीं’ भी ‘कमीन’ बन गया

श्रम विभाजन और वर्ग विभाजन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । कार्मिक विभाजन हुआ ही इसलिए था क्योंकि जो पहले से श्रेष्ठ थे वे बेहतर स्थिति में रहें । श्रम से जुड़ी व्यवस्था में मनुष्य ने ‘कर्म’ शब्द के साथ भी भेदभाव बरता । कर्म से जुड़ी सामान्य सामाजिक-पहचान सदियों बाद जातीय पहचान बन गई और फिर उस शब्द को हीन अर्थों में देखा जाने लगा । रोज़मर्रा से जुड़े तमाम कार्यों को सम्पादित करने वाले श्रमिक समाज पर नज़र डालिए, एक नहीं, हज़ारों ऐसे शब्द मिल जाएँगे । दुनियाभर के समाजों में मनुष्य सदियों से जातीय हीनता का दंश सहता रहा है । प्रायः सभी भाषाओं में नस्ली भेदभाव के शब्द मिलते हैं । भारतीय भाषाओं में भी ये हैं । वैदिक साहित्य से ही ये साक्ष्य मिलने लगते हैं । बहरहाल, ‘कमीन’ शब्द के सन्दर्भ में हमेशा ग़लतफ़हमी रही है । हिन्दी में ‘कमीन’ शब्द भी प्रचलित है और ‘कमीना’ भी । दोनो को एक ही समझा जाता है । देखा जाए तो दोनो में बहुत ज्यादा अन्तर भी नहीं है । अपने मूल रूप में ये दोनों ही अपशब्द नहीं थे, मगर आज दोनों की ही अर्थावनति हो चुकी है और इनका प्रयोग अभद्र बोल-व्यवहार समझा जाता है ।

फ़ारसी का कमीना

‘कम’ शब्द की तरह ही ‘कमीन’ शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में भी हिन्दी कोश ज्यादा जानकारी नहीं देते हैं । अलबत्ता यह स्पष्ट है कि हिन्दी में आज गाली की तरह मशहूर ‘कमीना’ शब्द फ़ारसी मूल के ‘कमीनः’ (कमीनह्) से बना है । संस्कृत-फारसी का विसर्ग हिन्दी में स्वर हो जात है । सवाल यह है कि ‘कमीन’ शब्द कहाँ से आया है ? मोटे तौर पर तो ‘कमीन’ और ‘कमीना’ एक ही जान पड़ते हैं मगर ‘कमीना’ जहाँ सौ फ़ीसद फ़ारसी शब्द है, वहीं ‘कमीन’ शब्द का रिश्ता एकाध जगह फ़ारसी से और कुछ जगह हिन्दी से बताया गया है । हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के कई कोशों में तो ‘कमीन’ शब्द दर्ज़ तक नहीं हुआ है । शायद इसीलिए कि ‘कमीन’ को ‘कमीना’ का पर्याय मान लिया गया । मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश ‘कमीन’ शब्द है ही नहीं और फ़ैलन के कोश में ‘कमीन’ शब्द को तो हिन्दी का बताया गया है मगर उसकी व्युत्पत्ति फ़ारसी ‘कमीनः’ से बताई गई है । ‘कमीन’ का अर्थ फ़ैलन नीच जात बताते हैं और ‘कमीना’ का अर्थ टहलुआ, चाकर, सेवक, नौकर, दास आदि । फैलन ‘कार-कमीन’ और ‘कमीन-कंडु’ शब्दों का उल्लेख भी करते हैं ।

कम्मी से कमीन

‘कमीन’ शब्द प्राचीन भारतीय समाज की जजमानी प्रथा के सन्दर्भ में सामने आता है और इसीलिए मेरे विचार में हिन्दी के ‘कमीन’ और ‘कमीना’ दो अलग अलग शब्द है, दोनों की अलग अलग अर्थवत्ता है और दोनों के जन्मसन्दर्भ भी पृथक है । ‘कमीना’ बना है फ़ारसी के ‘कमीनः’ से जिसके मूल में ‘थोड़ा’, ‘कुछ’, ‘न्यून’ के अर्थवाला फ़ारसी का ‘कम’ शब्द है । इसका रिश्ता पुरानी फ़ारसी और अवेस्ता के ‘कम्ना’ शब्द से है । दूसरी ओर ‘कमीन’ शब्द के मूल में संस्कृत का ‘कर्म’ शब्द है । पाली, अपभ्रंश में ‘कर्म’ का ‘कम्म’ रूप होता है । हिन्दी के विभिन्न रूपों में ‘कार्य’ के अर्थ में प्रचलित ‘काम’ शब्द इसी ‘कम्म’ का अगला रूप है । जिस तरह हिन्दी का ‘काम’ शब्द पाली , अपभ्रंश के ‘कम्म’ का रूपान्तर है उसी तरह पाली के ‘कम्मी’, ‘कम्मिक’ ( पाली हिन्दी कोश, भदन्त आनन्द कौसल्यायन ) का रूपान्तर है हिन्दी का ‘कमीन’ शब्द जिसका आशय है कार्मिक, कर्मी, करने वाला , मज़दूर, श्रमिक आदि । प्रचलित तौर पर वे जातियाँ जो सेवाएँ लेती हैं उन्हें ‘जजमान’ कहते हैं और वे जातियाँ जो सेवाएँ प्रदान करती हैं, उन्हें ‘कमीन’ कहते हैं । सो काम करने वाले ‘कम्मी’ कहलाए । अब यहाँ ‘कमीन’ नीच व्यक्ति नहीं है बल्कि इसका अर्थ है ‘कार्मिक – कर्मकार’ । शोषण का दायरा जब व्यापक हुआ तब निम्नवर्गीय सेवाओं और गौण कृषिकर्म करने वाले तबकों को ‘कम्मी’ कहा जाने लगा । बाद के दौर में तो ब्राह्मणों के सेवाकर्म को छोड़ कर शेष सभी सेवाएँ गौण कर्म समझी जाने लगीं मसलन, खेत-मजूरी, हस्तशिल्प, कुम्हारी, लुहारी जैसे काम, घास छीलना, बाँस छीलना जैसे काम करने वाले समुदाय ‘कमीन’ जाति कहलाने लगे ।

कम्मकर से कमेरा

न्हीं अर्थों में पाली में ‘कम्मकर’, ‘कम्मकार’ जैसे शब्द भी हैं जिनसे हिन्दी का ‘कमेरा’ शब्द बना है । ‘कमेरा’ यानी मज़दूरी करने वाला । ‘कम्मी’ यानी कमाने वाला । चाकर, सहायक, छोटे-मोटे काम करने वाला ही ‘कमेरा’ है । फैलन के कोश में जो ‘कार-कमीन’ है वह दरअसल ‘कारकम्मी’ ही है । इसी तरह हिन्दी – उर्दू कोशों में ‘कमीनकंडु’ शब्द मिलता है जिसका अर्थ पुराने ज़माने में तीर तैयार करना था । गौरतलब है संस्कृत में ‘काण्ड’ शब्द बाँस की गाँठ को कहते हैं । बाँस छील कर तीर बनाने वाला ‘काण्डपाल’ कहलाता है । इससे ही बना है ‘कण्डु’ या ‘कडु’ शब्द । जाहिर यह कर्म से जुड़ा नाम है इसलिए इसके साथ जुड़े ‘कमीन’ शब्द का पूर्वरूप ‘कम्मी’ ही तार्किक है । इसी तरह मुहावरेदार भाषा में ‘कम्मीं-कमीन’ शब्दयुग्म का प्रयोग भी होता है । यहाँ ‘कम्मीं’ और ‘कमीन’ दोनों का अर्थ अलग अलग है । यहाँ ‘कम्मीं’ का आशय छोटी जात या ओछा काम करने वाले से है जबकि कमीन में फ़ारसी वाले ‘कमीना’ ( नीच, धूर्त, क्षुद्र, लफंगा, बदमाश ) का आशय निकलता है । ख्यात लेखक यशपाल ने मेरी तेरी उसकी बात उपन्यास में कमीन का अर्थ “ बेगार, कठिन परिश्रम और अप्रिय काम करने वाले ” बताया है । कम्मी और कम्मा के अवशेष हमें आज भी अपने आसपास मिलते हैं । कमीना में कमीन की तलाश करने वाले ज़रा पहचानें निकम्मा और निकम्मी जैसे शब्दों को । जिसके पास काम नहीं है वह निकम्मा, जो व्यस्था काम न करे वह निकम्मी । ये बेहद प्रचलित शब्द हैं ।  मूल भाव है कर्म का । लोगों को काम करना चाहिए । कम्मी यानी कामगार । बाद में यह हीनकर्म के अर्थ में रूढ़ हो गया ।

कम्मी यानी प्रजा 

‘कमीन’ और ‘कमीना’ शब्द भाव सादृष्य और अर्थ सादृष्य के चलते आपस में कुछ इस तरह घुलमिल गए कि ये एक मूल से जन्मे जुड़वाँ शब्द नज़र आने लगे । ध्यान देने की बात है कि यजमानी प्रथा से जुड़े ‘कम्मी’ शब्द में कामगार के भाव के साथ प्रजा का भाव भी है । अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि संरक्षण और शोषण भी एक चीज़ के दो आयाम हैं । किसी के संरक्षण में जाते ही शोषण का आरम्भ होता है । मगर मूलतः शोषण की शुरुआत पुचकारने से होती है । अतः यह नहीं माना जा सकता कि अपने शुरुआती दौर में ही यजमानी प्रथा का ‘कमीन’ शब्द सचमुच गाली का दर्ज़ा रखता था । समूची प्रजा, रियाया के लिए गाली समान शब्द का प्रचलन भला किसी भी काल की सत्ता-व्यवस्था में क्योंकर सम्भव होगा ? निश्चित ही फ़ारसी ने जब हिन्दुस्तान की धरती पर पैर रखा तब ‘कमीनः’ का ‘कमीना’ रूप भी विकसित हुआ । इसमे निहित कमतरता के दास्यभाव की अवनति हुई । बाद में ओछापन, नीचता, तुच्छता जैसे भावों का स्पष्ट विकास हुआ । शब्दों अर्थावनति के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । बोलचाल की भाषा में फ़ारसी के कमीन का चलन बढ़ा और जनमानस में सदियों से प्रचलित पाली का ‘कम्मीं’ भी ‘कमीन’ बन गया । इस तरह हिन्दी की ज़मीन पर मेरे विचार से दो ‘कमीन’ विराजमान हैं । एक फ़ारसी से आया हुआ और दूसरा फ़ारसी के प्रभाव में बना हुआ ।

शायर कमीना, आशिक कमीना

ही बात फ़ारसी के ‘कमीनः’ की तो न्यून, हीन, छोटा, क्षुद्र, ओछा आदि के अर्थ वाला कम ही इसके मूल में है । ‘कमीनः’ शब्द अपने मूल रूप में यह शब्द गाली या अपशब्द नहीं था, मगर बाद में हो गया । ‘कमीन’ का आशय था अपने पालक की तुलना में हीन, क्षीण, दीन आदि । साधक प्रायः खुद को ईश्वर की तुलना में दीन, हीन, कमजोर ही मानता है । मध्यकालीन सधुक्कड़ी भाषा के कवियों नें प्रायः इसी अर्थ में खुद को ‘कमीन’ कहा है । शायरी भी मूलतः सूफ़ीयाना काव्य परम्परा से ही जन्मी है । शायरों ने खुद को हक़ीर माना । इश्को-आशिकी की उनकी रचनाएँ दरअसल आध्यात्मिक अनुभूतियाँ ही हैं जिनमें माशूक का प्रयोग ब्रह्म के रूप में हुआ है । शायरों ने भी इसीलिए खुद को हक़ीर, गुलाम, फ़क़ीर और ‘कमीन’ तक कहा है, सो इसी भावना से । शायर भी कमीना, आशिक भी कमीना । इसका अर्थ लफंगा, बदमाश तो कतई नहीं, बल्कि विनम्रतावश खुद को कमतर मानने का भाव ही है यहा है । पर मेरा मानना है कि जातिवाचक कमीन शब्द का व्युत्पत्तिक आधार चाहे फ़ारसी के कमीन से न जुड़ता हो मगर जातिवाची संज्ञा के तौर पर ‘कमीन’ शब्द का प्रयोग मुस्लिम दौर में ही बढ़ा है । ‘कमीन’ में निहित ओछेपन के भाव का विस्तार ही हीन जाति के अर्थ में हुआ । बाद में इसमें नीच, अधम, धूर्त जैसे भाव समा गए और इस तरह ‘कमीन’ और ‘कमीना’ एक हो गए । अगली कड़ी- किसी कंपेश को जानते हैं आप ?

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