Friday, August 7, 2015

आखिर क्या है ‘नावक’ और उसका तीर !!

हिन्दी के सामान्य पाठक का हक है लोकप्रचलित पदों का अर्थ जानना

एक ऐसे शब्द को बरतते हुए नए दौर की हिन्दी ने पूरी एक सदी बिता दी जिसका सटीक प्रयोग सब करते हैं किन्तु व्युत्पत्ति-विवेचना की दृष्टि से सम्भवतः पहले कभी इस पर इतनी गम्भीरता से विचार नहीं किया गया।


आज की हिन्दी में चाहे ‘नावक’ शब्द का प्रयोग नहीं होता, पर पाठ्यपुस्तकों वाली हिन्दी के ज़रिये इस शब्द से वास्ता ज़रूर पड़ता है। महाकवि बिहारी के सात सौ दोहों के संग्रह ‘सतसई’ का परिचय जिस “सतसैया के दोहरे, ज्यों ‘नावक’ के तीर, देखन में छोटे लगै, घाव करे गंभीर” दोहे में आता है, दरअसल हर किसी का ‘नावक’ शब्द से पहली बार साबका तभी पड़ता है। दिक्कत यह है कि सहजता से उपलब्ध हिन्दी सन्दर्भ ‘नावक’ का अर्थ बताने में लड़खड़ाते नज़र आते हैं। ‘हिन्दी शब्दसागर’ भी जब ‘नावक’ का अर्थ “एक छोटा तीर” बताता है तब सामान्य शब्दकौतुकी की जिज्ञासा का समाधान कैसे हो? गौरतलब है कि ‘नावक’ शब्द की आधारोक्ति में ही “ज्यों ‘नावक’ के तीर” यानी “जिस तरह ‘नावक’ के तीर होते हैं”...स्पष्ट किया गया है तब भी कोशकारों ने ‘नावक’ का अर्थ ‘छोटा तीर’ बता कर ही काम चला लिया जबकि अंग्रेजी, फ़ारसी, हिन्दुस्तानी कोशों में इसका अर्थ छोटे तीर के साथ साथ नली, नाली भी दिया हुआ है। दोहे से ही स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक तरह का उपकरण है जिससे छोटे तीर चलाए जाते होंगे। अनजानेपन का आलम यह कि उच्चस्तरीय परीक्षाओं में ‘नावक’ के सम्बन्ध में आधिकारिक तौर पर कल्पना की उड़ान भरी जाती है। 2008 में राज्य लोकसेवा आयोग की अभ्यास पुस्तिका में देखिए क्या दर्ज़ है- ‘नावक’ = एक प्रकार के पुराने समय का तीर निर्माता जिसके तीर देखने में बहुत छोटे परन्तु बहुत तीखे होते थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड की परीक्षा में यही प्रश्न पूछा गया था और वहाँ ‘नावक’ का अर्थ बहेलिया बताया गया है। आश्चर्य क्या जब अनेक विद्वान-लेखक इसे ‘नाविक’ लिखते-बोलते हैं और ‘नाविक’ की पैरवी भी करते हैं। अब भला नाविक चप्पू चलाएगा या तीर? ‘नावक’ और उसके तीर के बारे में फ़ेसबुक पर छपी इन्हीं चंद पंक्तियों को पढ़ कर ख्यात कवि-अनुवादक श्री नीलाभ अश्क कुछ इस अंद़ाज़ में सामने आ गए मानो हमने किसी वर्जित क्षेत्र में दखल दे दिया हो। बहरहाल, आभारी हूँ कि उनकी आपत्तियों (चाहे वे रूढ़ थीं) के बहाने हमें अपनी बात और भी ज़्यादा विस्तार से रखने का मौका मिला। इस समूचे प्रकरण को समझने से पहले संक्षिप्त आलेख और उस पर नीलाभ अश्क की टिप्पणी पढ़ना ज़रूरी


‘नावक’ और उसका तीर
• आमतौर पर बन्दूक में एक नली होती है। ‘दुनाली’ शब्द सामने आते ही हमारे सामने ऐसी बन्दूक की छवि आती है जिसके साथ दो नलियाँ जुड़ी होती हैं। इसी तरह ‘नावक’ को भी समझा जा सकता है। ‘नावक’ दरअसल फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में आया है। फ़ारसी में ‘नावः’ शब्द का अर्थ होता है पनाला, परनाला। संस्कृत में प्रणाली या प्रणालिका जैसे शब्द हैं और इनका फ़ारसी रूप हुआ परनाला, पनाला। ‘नावः’ या ‘नाव’ में सामान्य नाली, नहर या प्रणाली का भाव भी है। गौर करें नली जहाँ चारों और से बन्द लम्बी मगर पोली प्रणाली है वहीं नाली अर्धवृत्ताकार, खुली प्रणाली है। ‘नाव’ का प्रणाली वाला अर्थ और स्पष्ट होता है नाबदान से जिसका अर्थ भी दूषित पानी बहाने वाली नाली ही है। यह मूलरूप से ‘नावदान’ है। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओँ में ‘व’ का रूपान्तर अक्सर ‘ब’ में होता है (जैसे वन से बन) उसी के तहत ‘नावदान’ का उच्चार ‘नाबदान’ हो गया। मद्दाह के कोश में नाव यानी नाली, नावः यानी छत से पानी गिराने वाला पाइप, नाबदान यानी दूषित जल का परनाला जैसे अर्थ दिए हैं। कुल मिलाकर हमें प्रणाली वाला अर्थ ग्रहण करते हुए ‘नावक’ का नलीदार भाव समझने में समस्या नहीं होनी चाहिए। मूलतः फ़ारसी में ‘‘‘नावक’ ’ ’ एक ऐसे अर्धस्वचालित धनुष को कहा जाता है जिसमें सीधे कमान में तीर फँसाकर नहीं छोड़ा जाता बल्कि कमान खींचने के बाद तीर को एक नाली में से गुज़ारा जाता है। तीर को लीवर या ट्रिगर के ज़रिये कमान से मुक्त किया जता है। ‘नावक’ में जो मुख्य भाव है वह तीर नहीं बल्कि उसका आशय खाँचा, सिलवट, शिकन, दर्रा, घाट, नहर, पाइप, नाड़ी, प्रणाली, प्रवाहिका आदि से है। एक ऐसा रास्ता जिससे सहज प्रवाह और गति मिले। जिससे कोई वस्तु गुज़र सके। यह प्रणाली ही गुज़रने वाली चीज़ को दिशा प्रदान करती है, लक्ष्य की ओर ठेलती है। संस्कृत में नाव का अर्थ नौका है फ़ारसी में ‘नाव’, ‘नावः’ दोनों शब्द हैं। दरअसल नाव जहाँ नौका है वहीं ‘नावः’ का अर्थ नाली भी है। फ़ारसी नावः (नावह) का एक रूप ‘नावक’ हुआ। भारत में ‘नावक’ इस्लामी दौर में ही आया।
नीलाभ अश्क की आपत्तियाँ-
• आप ने ये तस्वीरें गूगल पर crossbow India से ली हैं,किसी अजायबघर से नहीं, इसलिए मैं आप पर पूरा यक़ीन नहीं कर सकता। तो भी आप को सन्देह का लाभ देते हुए मैं असलहों और cross bow पर जिसे मध्य पूर्व में क़ौस फ़िरंगी (फ़रान्सीसी धनुष) कहा जाता था, कई साइटें देख गया। कहीं भी यह नहीं पता चला कि इसका हिन्दुस्तान में इतना आम इस्तेमाल होता था कि बिहारी को इसे दोहे के गुन के रूप में उपमा की तरह इस्तेमाल करने का ख़याल आये। मुस्तफ़ा ख़ां मद्दाह के शब्द कोश में भी ‘नावक’ का अर्थ तीर ही है और ग़ालिब के अशआर में भी। हां यह ठीक है कि आप यही सोचेंगे कि नाविक चप्पू चलायेगा या तीर, तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि शिप्रा जैसे नालों के तो नहीं पर गंगा जमुना जैसी नदियों के नाविक पूरी तरह हथियार बन्द होते थे और ज़ाहिर है कि उनके तीर और कमानें छोटी ही हो सकती थीं, होती थीं। देवी चौधरानी देख लीजिये। हमने बिहारी के सिलसिले में ‘नावक’ और नाविक दोनों ही सुना है। बाक़ी आप जाने कौन-से फ़ारसी शब्द कोश की बात कर रहे हैं, फ़ारसी में नली के लिए जो छत पर बारिश के पानी को बहाने के लिए लगायी जाती है नाव: इस्तेमाल होता है। ग़ालिब लफ़्ज़ों के मामले में बहुत सतर्क थे और फ़ारसी के विद्वान भी थे, उनका शेर है- क्यों न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद कि हम, आप उठा लाते हैं गर तीर ख़ता होता है- दूसरा मिसरा देखिये -- ग़रज़ शिस्ते-बुते-नावक’ -फ़िगन की आज़माइश है। बस।

‘नावक’ का प्रयोग सही, व्युत्पत्ति भ्रामक-
व्युत्पत्ति जानने के लिए धीरज की ज़रूरत होती है। ये नहीं कि चट-पट बात निपटा दी। अनेक शब्दों की अन्तर्वस्तु पर और गहराई से विचार करने पर ऐसे-ऐसे सूत्र मिलते हैं जिनसे दूसरे कई शब्दों की जीवन-रेखा भी स्पष्ट होती है। अधिकाधिक सन्दर्भों के लिए लगातार प्रयत्न चलता रहता है। शब्दों का सफ़र में एक साथ कई शब्दों पर भी काम चल रहा होता है। हिन्दी वालों से शोध नाम की चिड़िया का शिकार करने को मत कहिए, बस क़यासों के कबूतर उड़वा लीजिए। अब नीलाभ अश्क साहब ‘‘‘नावक’ ’ ’ के बारे में फ़ेसबुक पर छपी परिचयात्मक टिप्पणी पढ़ने के बाद कई साइटें देख गए और हमारे पूरे शोध को पढ़े बिना तंज़िया अंदाज़ में चंद सतरें (‘सन्देह का लाभ’, ‘शिप्रा जैसे नाले’, ‘जाने कौन से फ़ारसी कोश’ वगैरह-वगैरह) लिख कर सरपट चले गए। सक्रिय ब्लॉगर-अनुवादक प्रिय निशान्त मिश्र के आग्रह पर मैं बीते कुछ वर्षों से ‘नावक’ के तीर पर थोड़ा-थोड़ा काम करता रहा हूँ। इसी प्रयास के तहत अब जाकर ‘नावक’ पर कुछ कह-लिख पाने की स्थिति में आया तो एक पोस्ट फ़ेसबुक पर शाया की। ये तो बड़ी नाइंसाफ़ी है कि तात्कालिक प्रभाव में उस काम का परीक्षण निपटाने के अंदाज़ में किया जाए जिस पर न सिर्फ़ मेहनत हुई बल्कि कारआमद नतीजे भी सामने आए। बेशक, इस तरह के काम में कई चूकें भी होती हैं पर समीक्षक की दृष्टि अंदाज़मार नहीं होती और न ही वह अटकलबाजियों से काम लेता है। समीक्षा तार्किक होनी चाहिए, मीनमेखी नहीं।

हिन्दी कोशों में पूरा सन्दर्भ नहीं-
अब बात ‘नावक’ की। मैंने सिर्फ़ ये जानकारी साझा करनी चाही कि ‘नावक’ तीर के साथ-साथ तीर छोड़ने वाला उपकरण भी है और इस बात पर हैरत जताई कि हमारे यहाँ के कोशों ने इस तथ्य की उपेक्षा की। मैने कहीं यह नहीं कहा कि ‘नावक’ तीर नहीं है। साहित्य-सुधियों में दशकों से जो ग़लतफ़हमी है वह “नावक’ ‘के’ तीर” की वजह से है। यह जो ‘के’ सम्बन्ध-कारक है इससे पता चलता है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि ‘नावक’ वाला तीर है या ‘नावक’ का तीर है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि एक उपकरण है और बात उससे चलाए जाने वाले तीर की हो रही है। तो विद्वानों को भी यह सम्बन्धकारक ‘के’ खटका अवश्य किन्तु बजाय ‘नावक’ पर शोध करने के उन्होंने पण्डिताऊ ढंग से इसे ‘नाविक’ माना और तीर को किनारा।

नाविक नहीं है ‘नावक’ -
हिन्दी कोश परम्परा में व्युत्पत्ति के नज़रिए से शोध की प्रवृति कम और अद्यतन के नाम पर पूर्ववर्तियों के कामों को जस का तस या थोड़ा बहुत फेरफार करते रहने की प्रवृत्ति ज्यादा रही है। या तो रामायण में ‘र’ वर्ण की आवृत्ति जैसे विषयों पर शोध होते हैं अन्यथा बैठे-बैठाए की गवेषणा और पाण्डित्य ही हिन्दी वालों का मूल स्वभाव है। इसी तरह कोश देखने की वृत्ति भी हिन्दी वालों में विरल है। अधिकांश लोग अगल-बगल के लोगों से अपनी वर्तनी सम्बन्धी जिज्ञासाएँ शान्त कर लेते हैं, बजाय कोश देखने के। वर्तनी के सम्बन्ध में लोग लिखित सन्दर्भों की तुलना में सुनी-सुनाई पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लेखक तो लेखक है, कोई कीर्तनिया नहीं। सब कुछ उच्चार के आधार पर बरतना है तब सारे शब्दकोश जला दिए जाएँ। नीलाभ अश्क कहते हैं कि “हमने बिहारी के सिलसिले में ‘नावक’ और नाविक दोनों ही सुना है।” गौर करें, नीलाभ जी सुने के आधार पर ‘नावक’ की वर्तनी ‘नाविक’ लिख रहे हैं और उसके नाविक यानी मल्लाह होने के तर्क भी दे रहे हैं जो हमने किसी सन्दर्भ में नहीं पढ़े। छोटे तीर-कमान वाले ‘नावक’ की वर्तनी ‘नाविक’ किसी भी स्तरीय कोश में नहीं देखी। खास बात यह कि हिन्दी के लगभग सभी महत्वपूर्ण और प्रचलित कोशो में बतौर छोटा तीर ‘नावक’ ही दर्ज़ है। कहीं भी ‘नावक’ का पर्याय अथवा वर्तनी नाविक नहीं है। अलबत्ता हमें नाविकों के तीर-कमान रखने की बात पर कोई ऐतराज नहीं है। और तो और हमारी लोक बोलियों में तो नाविक का उच्चार भी ‘नावक’ हो जाता है- “उदधि उतरने जावत जेहु, ‘नावक’ शरन सो लेवत तेहु”। अब हुआ यह कि हिन्दी कोशों ने ‘नावक’ प्रविष्टि के तहत ‘नावक’ का एक अर्थ नाविक भी दे दिया। स्पष्ट है कि यह जो ‘नावक’ है वह नाविक का अपभ्रंश है और आमतौर पर नाविक का मैथिल या कहीं कहीं अवधी-भोजपुरी उच्चार है। हमारे विद्वानों ने ‘नावक’ और नाविक को पर्याय समझ कर बरतना शुरू कर दिया।... और क्या प्रमाण चाहिए ‘नाविक’ को ख़ारिज़ करने का?

देखन में छोटे लगे-
थोड़ा और व्यावहारिक होने का प्रयत्न दिखाते हुए नीलाभ अश्क “देखन में छोटे लगे” से भाव ग्रहण करते हुए ऐसे लघु धनुष-बाण की कल्पना करते हैं जिसकी ज़रूरत ‘शिप्रा’ जैसे नालों के नाविकों को नहीं थी बल्कि जिनकी नौकाएँ गंगा-यमुना जैसी विशाल नदियों में तैरती थीं उनके पास होते थे छोटे-छोटे धनुष-बाण। नाविक के पक्ष में वे तर्क देते हैं कि ‘नावक’ अगर नाविक नहीं है तो मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सिवाय बिहारी के ‘नावक’ का ज़िक़्र किसी अन्य ने क्यों नहीं किया? जी, बिल्कुल किया है। इसकी कई मिसालें आगे आएँगी पर इससे पहले पूछना चाहेंगे कि क्या ज़रूरी है कि जो बात आपके यहाँ प्रचलित हो, उसी का उल्लेख साहित्य में होता है!! हमारे यहाँ ख़ूबसूरती के सन्दर्भ में कोहकाफ़ की परियों का ज़िक़्र होता रहा तो क्या कोहकाफ़ हिन्दुस्तान में है? प्रसंगवश एशिया-यूरोप के बीच काकेशस उपत्यका ही फ़ारसी में कोहकाफ़ कहलाती है। हमारे यहाँ कारूँ के ख़ज़ाने का इस क़दर ज़िक़्र होता है कि इसका मुहावरे की तरह सटीक प्रयोग होने लगा। तो क्या कारूँ और उसका ख़ज़ाना यहाँ था? ज़ाहिर है ये तमाम बातें अरबी, तुर्की, फ़ारसी, मंगोल लोगों से लम्बे सम्पर्क के दौरान ही हमारी भाषा-संस्कृति में दाख़िल हुईं।

अकेले बिहारी नहीं, और भी हैं-
नीलाभ अश्क इसके ‘नावक’ के आम इस्तेमाल पर भी सन्देह ज़ाहिर करते हैं। ‘आम’ था या नहीं इस पचड़े में हम नहीं पड़ेंगे मगर बिहारी, कुलपति, ब्रजवासी दास या चरणदास जैसे मध्यकालीन कवियों से लेकर उन्नीसवीं सदी में ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ ने इसे बरता- “नावक -अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे। नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजाँ होंगे”। फिर बीसवीं सदी ‘फ़ैज़’ की शायरी में यह नज़र आता है- “न गंवाओ ‘‘नावक’ ’ -ए-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गंवा दिया जो बचे हैं संग समेट लो, तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया”। इक्कीसवीं सदी में डॉ शैलेष ज़ैदी तक की कविताई में इसका इस्तेमाल हआ- “शाखे-शजर पे बैठा हूँ मैं इक यतीम सा, सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा”। ज़रा सोचिए, ‘आम’ का सवाल कितना ‘ख़ास’ रह जाता है? फिर भी बताते चलें कि ‘नावक’ का उल्लेख करने वाले बिहारी अकेले न थे बल्कि तत्कालीन समाज इस नए किस्म के फौजी अस्त्र से परिचित था तभी यह साहित्य में भी दर्ज़ हुआ। सत्रहवीं सदी में आचार्य कुलपति मिश्र ने ‘रस-रहस्य’ में लिखा- “नावक तीर लौं प्राण हरै पलकैं बिछरैं हिय व्याकुल साजै” ब्रजवासी दास की उक्ति “बय बालक चालक दृगनि, सुन्दरि सुछिम सरीर, मनौं मदन गुन पै धरौ, इह नावक कौ तीर” को देख लें। इसी तरह संत कवि चरणदास कहते हैं- “सदगुरु सबदी लागिया नावक का सा तीर, कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर”। यही नहीं बिहारी दास ने भी एकाधिक जगह ‘नावक’ का उल्लेख किया है- “नावक सर में लाय कै तिलक तरुनि इति नाकि” आदि।

कितना प्रचलित था ‘नावक’ -
मज़े की बात ये कि एक तरफ़ उर्दू शायरी के लिहाज़ से नीलाभ अश्क ‘नावक’ को तीर की तरह लेते हैं मगर साथ ही उसके ‘नाविक’ यानी नाखुदा होने के पक्ष में भी दलील रखते हुए बताते हैं कि शिप्रा जैसे नालों में तो नहीं, मगर गंगा-जमुना के नाविक छोटे-धनुष-बाण रखते थे। कहने का मक़सद ये कि इसी वजह से इसे ‘नाविक का तीर’ कहा गया। अब इस सुन्दर कल्पना के ही अन्दाज़ में हम भी कल्पना करते हैं। अगर यही तीर भारतीय नाविकों के पास होते तो स्लीमैन के स्थान पर नाविक ही पिंडारियों को न निपटा देते ! जंगलों, नदियों, घाटियों, घाटों, बाटों और पिंडारियों का रिश्ता रहा है। यूँ भी कारगर चीज़ का प्रसार अन्य क्षेत्रों में भी होता है। नाविक के मारक तीर पैदल सेना के पास क्यों नहीं थे? कारवाँ के साथ चलते सिपाहियों के पास क्यों नहीं थे? ग्रामीणों के पास क्यों नहीं थे? नाहक स्लीमैन के हिस्से गया पराक्रम जो ‘नावक’ , क्षमा करें नाविक के तीर को मिल जाता। नाविक का तीर प्रकारान्तर से आम आदमी का तीर बन जाता। ‘नावक’ को नाविक कहना ऐसी दूर की कौड़ी है, हाँ यह ज़रूर है कि नदियों और सागरों में पोतों पर भी धुनर्धारी यौद्धा होते थे।

‘नावक’ मूलतः नली थी, तीर नहीं-
‘नावक’ मूलतः नली है न कि तीर, इस बारे में किसी सन्देह की गुंजाइश ही नहीं है। फ़ारसी के नाव और नावः (अवेस्ता में नवाज़ा, फ़ारसी का एक रूप नाविया भी) बुनियादी तौर पर एक ही हैं मगर एक वाहन है और दूसरा वाहिका/प्रवाहिका। नाव पेड़ को काट कर, कुरेद कर बनाई जाती है और प्रकृति द्वारा कुरेदी गई सिलवटों, दरारों से होकर नदियाँ बहती हैं। संस्कृत में नाव, नौ के लिए आधार शब्द ‘नु’ है जिसमें नौका, पोत जैसे भाव हैं पर वे बाद में स्थापित हुए। ‘नु’ में निहित पहला अर्थ ध्वनि है। आह्लाद की। गिरते प्रपात की, बहते पानी की ध्वनि मनुष्य के लिए कितनी सुखद रही होगी। इसीलिए नाद का अर्थ आवाज़ हुआ। बाद में प्रवाही-जल ने अपना रास्ता बनाया। यूँ नद और नदी शब्द प्रचलित हुए। इसी तरह बाँस की खोखल को नद् की तर्ज़ पर नड़् संज्ञा मिली होगी। एक मिसाल देखें। संस्कृत में नड् का अर्थ है खोखल, बाँस, बाँसुरी, नली। नड का रूपविकास है नद् जिसका अर्थ है विशाल जल प्रवाह। जाहिर है धरती में बने खोखले, पोले स्थान में ही पानी जमा होता है। जिस दरार या खाँचे से होकर पानी सतत प्रवाही रहे उसे नद् या नदी कहते हैं जो नड् से सम्बद्ध है। इसका एक रूप नळ या नल होता है जिसमें नाली या नाड़ी का भाव है। ‘नू’ का अर्थ एक विशेष अस्त्र भी है।

नाल, बाँस, पुँपली-
प्रायः सभी शब्द कोशों में ‘नावक’ का अर्थ अनिवार्य रूप से नली बताया गया है। तीर से हट कर इसकी जितनी भी अर्थछटाएँ हैं वे नली, नाली से जुड़ती हैं क्योंकि व्युत्पत्तिमूलक अर्थ ही नल, नाली, प्रवाहिका, वितरिका, नहर, बाँस, पुँपली, पोंगली आदि है। “ए डिक्शनरी ऑफ पर्शियन अरेबिक एंड इंग्लिश डिक्शनरी” में देखिए जॉन रिचर्ड्सन ‘नावक’ के बारे में क्या कहते हैं- 1).बाँस से बना एक तीर जिसकी दाँतेदार नोक तेजी से सीधे निशाने पर लगती है और जिसका उपयोग प्रायः तीतर-बटेर के शिकार के लिए किया जाता था. 2).एक ऐसी नली जिसके ज़रिये तीर छोड़ा जाता था.3).एक बाँस या बाँस सरीखी ऐसी कोई भी चीज़ जो सामान्यतः या कृत्रिम रूप से नालीदार या खोखली बनाई गई हो. 4).किसी अनाज पीसने की चक्की तक जाने वाली प्रवाहिका.5). कोई भी नहर, कैनाल.6). मनुष्य की पीठ गर्दन से कमर तक बनी लम्बी गहरी धारी.) आदि।

नली में बारूद से तीर का प्रक्षेपण-
जॉन रिचर्ड्सन समेत डेविड निकोल, डंकन फोर्ब्स, जॉन प्लाट्स आदि के कोशों में भी ‘नावक’ शब्द की विवेचना में उसे नाल बताया गया है। गौरतलब है कि जिस तरह वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत-अंग्रेजी कोश, संस्कृत-हिन्दी कोश मूलतः मोनियर विलियम्स के काम पर आधारित है उसी तरह हिन्दी शब्दसागर समेत हिन्दी कोशों में अंग्रेजों द्वारा बनाए हिन्दुस्तानी, उर्दू, फ़ारसी कोशों से बहुत कुछ लिया है। हिन्दी शब्दसागर शब्दकोश परियोजना 1928 में पूरी हो गई थी। इसमें ‘नावक’ को “एक छोटा तीर” बता कर काम चला लिया गया। इसके सम्पादक मण्डल के एक सदस्य रामचन्द्र वर्मा नें दशकों बाद इस ग़लती को दुरुस्त किया। 1965 के आसपास उन्होंने अपनी पुस्तक ‘शब्दार्थ-दर्शन’ में स्पष्ट किया कि ‘नावक’ का अर्थ तीर ही समझा जाता है पर ‘नावक’ साधारण तीर नहीं है बल्कि एक विशेष प्रकार का छोटा तीर या उसका फल होता है जो लोहे की नली में रखकर बारूद की सहायता से चलाया जाता था”। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘केशवदास’ में ‘नावक’ का अर्थ दिया है बाँस की छोटी पुपली। ध्यान रहे पुपली, पींपनी अथवा पीपी का अर्थ लोकबोलियों में नली होता है।

क्रॉसबो जैसी चीज़-
‘नावक’ के नालधनुष या क्रॉसबो जैसा चीज़ रही होगी। अनेक ऐतिहासिक सन्दर्भ बताते हैं कि क्रॉसबो जैसी तकनीक यूरोप और एशिया की धरती पर अनेक स्थानों पर प्रचलित थी और इसका प्राचीन इतिहास है। अरब, फ़ारस और चीन का भारत से इतना गहरा नाता रहा है कि यह माना नहीं जा सकता कि ‘नावक’ कभी भारत आया न हो। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि ‘नावक’ दरअसल नालधनुष था। ये हम अपने मन से नहीं कह रहे हैं बल्कि जॉन प्लॉट्स, रामचंद्र वर्मा समेत अनेक विद्वान लेखक-कोशकार कह रहे हैं और ‘नावक’ का हवाला क्रॉसबो जैसे उपकरण से दे रहे हैं जो नलीदार होता है और कमान के ज़ोर से तीर को नली से होकर गुज़ारा जाता है। हमने फ़ेसबुक पर ‘नावक’ के रूपाकार को स्पष्ट करने के लिए मध्यकालीन क्रॉसबो की तस्वीर छापी ताकि हिन्दी प्रेमियों के सामने ‘नावक’ का खाका आ सके। हालाँकि कहीं भी यह दावा नहीं किया कि यही ‘नावक’ है यह सिर्फ़ समझाने का प्रयत्न था कि ‘नावक’ तीर नहीं, खास किस्म का धनुष है। श्री नीलाभ अश्क को इससे भी ऐतराज है और वे प्रस्तुत तस्वीर में दिखाए गए क्रॉसबो को पुराना मानने को तैयार नहीं है, बल्कि उसे आधुनिक कहते हैं। क्या कहा जाए! यही नहीं देश के बड़े संग्रहालयों में से एक सालारजंग संग्रहालय में ‘नावक’ प्रदर्शित है। इसके अलावा भी ‘‘‘नावक’ ’ ’ अनेक संग्रहालयों की विवरणिका में मोजूद है। आपत्ति करने से पहले भारी मेहनत खुद भी करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

काफूर की दक्षिण विजय में ‘नावक’’ -
‘नावक’ के आम इस्तेमाल की बात पर फिर लौटते हैं। ऊपर अनेक मिसालें दी गई हैं कि किस तरह साहित्य में ‘नावक’ शब्द दर्ज़ हुआ है। कहीं प्रक्षेपास्त्र के तौर पर तो कहीं प्रक्षेपण-यन्त्र के तौर पर। हाँ, ‘नावक’ को बतौर माँझी या नाखुदा कहीं दर्ज़ नहीं किया गया। ये अलग बात है कि भोजपुरी, मैथिली या अवधी में अनेक स्थानों पर नाविक को ‘नावक’ की तरह बरता जाता है। उसकी भी चर्चा ऊपर हो चुकी है। ‘नावक’ का इस्तेमाल आम था या नहीं इसे तूल देने की बजाय गौर किया जाना चाहिए कि मध्यकाल में समाज ‘नावक’ से परिचित था। यूँ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी ‘नावक’ का उल्लेख दर्ज़ है। मुग़ल फ़ौज़ें जिन जिन हथियारों और प्रणालियों का इस्तेमाल करती थीं, उनमें ‘नावक’ का उल्लेख है। ये तमाम सन्दर्भ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। मुग़ल फौजो में ‘नावक’ का प्रयोग होता था इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। मुगलों से भी पहले सल्तनत काल में अलाउद्दीन खलजी के सिपहसालार मलिक काफूर ने दक्षिण अभियानों के दौरान ‘नावक’ का जमकर इस्तेमाल किया था, ऐसा द स्केर्क्रो प्रेस, लंदन से प्रकाशित इक्तिदार अहमद खान की “हिस्टॉरिकल डिक्शनरी ऑफ़ मीडिवल इंडिया” समेत अनेक सन्दर्भों में भी ज़िक़्र मिलता है।

वैतस्तिक और नालास्त्र-
‘नावक’ तुर्की से लेकर फ़ारस तक और फिर चीन के कुछ हिस्सों में प्रचलित रहा। यही नहीं, नावः या नाव (नली) के ज़रिये चलाए जाने वाले धनुषाकार अस्त्र की श्रेणी में ही क्रॉसबो भी आता है। फ़ारसी में इसे ही ‘नावक’ कहते थे। इसका आविष्कार चीन में बताया जाता है जहाँ इसे ‘थुंग’ कहते हैं। गौरतलब है। साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में जोसेफ़ नीधम ने इसी थुंग की तुलना फ़ारसी ‘नावक’ और अरबी शैली के नालधनुष ‘मजरा’ से की है। नीलाभ जी ‘नावक’ को फ्रान्सीसी चीज़ बता रहे हैं जबकि तमाम सन्दर्भ भरे पड़े हैं जो इसे पूरब का और चीन का आविष्कार बताते हैं। यहाँ तक कि प्राचीन भारत में भी नालधनुष जैसा अस्त्र था, इसकी गवाही मिलती है। अमरकोश में नालिका नाम के एक अस्त्र का भी उल्लेख है जिसकी व्याख्या बतौर नालास्त्र की गई है। वैदिक सन्दर्भों में अत्यन्त छोटे आकार के तीर (बालिश्त भर का) को वैतस्तिक कहा गया है। महाभारत के द्रोणपर्व में “शरैर्वैतस्तिकै राजन् विव्याधासन्नवेधिभिः” में इसका उल्लेख है। संस्कृत विद्वान डॉ.विक्रमजीत के मुताबिक यहाँ 'वितस्ति' शब्द ‘द्वादशाङ्गुल प्रमाण’ यानी एक बालिश्त माप का वाचक है। वितस्ति से इक प्रत्यय करके वैतस्तिक बनेगा। यहाँ वैतस्तिक शब्द शर (बाण) का विशेषण है सो वैतस्तिक शर का अर्थ हो गया- बारह अंगुल के तीर। वितस्ता से भी वैतस्तिक शब्द तो बन सकता है पर यहाँ वितस्ता से कोई लेना-देना नहीं। इस तरह श्लोक का अर्थ हो जाएगा - हे राजन् ! निकटवर्ती (शत्रु) को बींधने वाले वैतस्तिक बाणों से (उसने उसको) बींध दिया।” प्रसंगवश पाली भाषा में धनुक का तात्पर्य छोटे धनुष से है। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के पाली-हिन्दी कोश में दर्ज़ है। शैलेष ज़ैदी ने तुलसी काव्य की अरबी-फ़ारसी शब्दावली में भी इसी आशय का उल्लेख किया है कि भारतीय लोग ‘नावक’ से काफी पहले से परिचित थे। उन्होंने तो यहाँ तक अनुमान लगाया है कि फ़ारसी ‘नावक’ शब्द दरअसल हिन्दी की ज़मीन से ही बना होगा। उनके इस अनुमान का प्रमाण मुझे नहीं मिला। इसी तरह ‘नावक’ को संस्कृत ‘नखक’ का रूपान्तर भी बताया जाता है मगर इसकी भी पुष्टि नहीं होती। संस्कृत सन्दर्भों में इसे नाखून की आकृति में आगे की ओर से मुड़ा हुआ चाकू बताया गया है। ध्वनिसाम्य के अलावा नखक के ‘नावक’ बनने का और कोई आधार नहीं है।

क़ौस-अल-नावकिया-
गौरतलब है कि करीब 224 ई. से 651 ई. के दौर में फ़ारस के सासानी वंश के दौर में अल-नावकिया नाम का एक समूह भी था जिसे यह नाम ‘नावक’ की वजह से मिला। यह भी उल्लेख है कि ‘नावक’ के ज़रिये दुश्मनों पर जलते हुए तीर भी बरसाए जाते थे। यही नहीं इसी दौर में ‘नावक’ का उल्लेख “क़ौस-अल-नावकिया” भी मिलता है। ध्यान रहे अरबी में क़ौस यानी धनुष। अरबी-फ़ारसी का ‘इया’ प्रत्यय सम्बन्धसूचक है। सो नावकिया का अर्थ हुआ ‘नावक’ वाला। इस तरह क़ौस-अल-नावक़िया का अर्थ हुआ नालधनुष या नलीदार धनुष। कहने वाले कह सकते हैं क़ौस-अल-नावकिया का अर्थ छोटे (तीर) वाला धनुष भी हो सकता है! हमारा कहना है ऐसा सोचना भूल होगी। धनुष में बाण समाहित है। धनुष से तीर ही चलाया जाएगा। यहाँ आशय तीर नहीं प्रणाली से है। मिसाल के तौर पर रायफल, बन्दूक, रिवॉल्वर, मशीनगन सबका रिश्ता गोली से है पर इनके अलग अलग नाम गोली के आकार में बदलाव की वजह से नहीं बल्कि तकनीक के बदलाव की वजह से है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक प्रणाली पहले है, तीर बाद में है।

और आखिर में...बंदूक से निकली बंदूक-
अस्त्रों के नामकरण का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कभी उसे प्रक्षेपित करने वाले उपकरण का नाम मिला तो कभी प्रक्षेपित होने वाले पदार्थ का। जैसे ‘नावक’ का मूलार्थ है “वह नली जिससे तीर छोड़ा जाए” पर ‘नावक’ का अर्थ तीर भी हुआ, हालाँकि नली की पहचान भी बनी रही। इसके उलट हाल बंदूक का है जो अरबी शब्द है और दरअसल वह गोली है। बंदूक की नली से भी बंदूक ही निकलती है और बंदूक ही लगती है। बंदूक शब्द ध्यान में आते ही लंबी नली नज़र आती है मगर बंदूक के नामकरण में नली का नहीं बल्कि गोली का योगदान है। 'बंदूक' मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द भी नहीं है, यह ग्रीक के 'पोंटिकोन' से बना। पोंटिकोन का ही अरबी रूप 'अल-बोंदिगस' हुआ। इसका अगला रूप 'फुंदुक' और फिर 'बुंदूक' हुआ। बाद में जब राईफल का आविष्कार हुआ तो उसकी गोली यानी कारतूस को बंदूक कहा जाने लगा। बाद में मुख्य हथियार का नाम ही बंदूक लोकप्रिय हो गया। इसके विपरीत बेहद छोटे आकार के जेबी हथियार के तौर पर बनाई गई पिस्तौल की पहचान नली की बजाय उसका हत्था और ट्रिगर होती है, मगर पिस्तौल के नामकरण में नली का योगदान है। पिस्तौल शब्द का मूल पूर्वी यूरोपीय माना जाता है। रूसी भाषा में एक शब्द है पिश्चैल paschal जिसका अर्थ होता है लंबी पतली नली। बंदूक और पिस्तौर की मिसालों से साबित होता है कि ‘नावक’ के साथ भी वैसा ही हुआ। ‘नावक’ मूलतः उपकरण है। कालान्तर में तीर को भी उपकरण का ही नाम मिल गया और उसे भी ‘नावक’ कहा जाने लगा।


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।।नाड़े के बहाने शब्द-विलास।।


पु राने ज़माने से लेकर आज तक कमरबन्द के लिए निहायत देसी किस्म का शब्द आज तक डटा हुआ है-नाड़ा। हालाँकि कमरबन्द और इज़ारबन्द भी चलते हैं पर उतने नहीं। नाड़ा दरअसल बेल्ट ही है जिसका चलन आज आम है। नाड़ा अब नितान्त भारतीय किस्म के अधोवस्त्रों में ही इस्तेमाल होता है। यूँ देखें तो बेल्ट की तकनीक नाड़े का आधुनिक रूप है। नाड़ा जहाँ कमर के इर्द-गिर्द वस्त्र को दोहरा कर बनाई गई नाल में डाला जाता है वहीं बेल्ट को नाल में नहीं बल्कि कमर के इर्द-गिर्द लूप से होकर गुज़ारा जाता है।

नाड़ा का मूल है नाड़ी अर्थात वह नाल अथवा पोला-खोखला रास्ता जिसमें कमर कसने के लिए पतली रस्सी, सुतली या डोरी डाली जाए। इस तरह नाड़ी से नाड़े की अर्थवत्ता स्थापित होती है- जिसे नाड़ी में डाला जाए वह नाड़ा। इस शृंखला से कुछ अन्य शब्द भी जुड़ते हैं। गौर करें नड़, नद, नळ और नल पर। नड या नड़ का अर्थ है बाँस। ध्यान रहे पुराने ज़माने से ही बाँस के पोले तने के विविध उपयोग मनुष्य ने खोजे। सिंचाई के साधन के तौर पर नाड़ा, नाड़ी, नाड़िका जैसे शब्द प्रचलित हैं। मालवी-राजस्थानी में छोटी नहर को नाड़ी या नाड़ा भी कहते हैं। इसके अलावा जल-प्रवाह के साधन के तौर पर नाल, नाली या नालिका, नलिका जैसे शब्द भी हैं। नदी शब्द तो है ही।

हिन्दी का नदी शब्द संस्कृत के नाद से आ रहा है जो बना है संस्कृत धातु नद् से जिसमें जिसमें मूलतः ध्वनि का भाव है। नद् से ही बना है नद जिसका अर्थ है दरिया, महाप्रवाह, विशाल जलक्षेत्र अथवा समुद्र। प्राचीनकाल में पवर्तों से गिरती जलराशि के घनघोर नाद को सुनकर जलप्रवाह के लिए नद शब्द रूढ़ हो गया अर्थात नदी वह जो शोर करे। गौर करें कि बड़ी नदियों के साथ भी नद शब्द जोड़ा जाता है जैसे ब्रह्मपुत्रनद। ग्लेशियर के लिए हिमनद शब्द इसी लिए गढ़ा गया। अब साफ है कि नद् शब्द से ही बना है नदी शब्द जो बेहद आम है।
नाड़ी या नाडि का अर्थ होता है किसी पौधे का पोला तना या डंठल। कमलनाल में यह पोलापन स्पष्ट हो रहा है। नारियल का मोटा तना भीतर से पोला होता है। नाडि या नाड़ी एक ही मूल यानी नड् से जन्मे हैं।

गौर करें, नद् धातु का ही एक अन्य रूप नड् है। नड् में निहित पोलापन दरअसल ध्वनि या नाद से ही आ रहा है। नड् का मतलब होता है तटीय क्षेत्र में पाई जाने वाली घास, नरकुल, सरकंडा। वनस्पतियों के इन सभी प्रकारों में तने का पोलापन जाना-पहचाना है। नाडि का अर्थ बांसुरी भी होता है जो प्रसिद्ध सुषिर वाद्य है। बांस का पोलापन ही उसे सुरीलापन देता है जिससे बांसुरी नाम सार्थक होता है। बाँस की पोल से गुज़रती हवा से नाद पैदा होता है। इस पोल का प्रवाही उपयोग भी बाद में हुआ और पानी के बहाव या धारावाही के अर्थ में नाड़ी का प्रयोग भी होने लगा। धमनियों-शिराओं के लिए भी नाडि शब्द प्रचलित है।

हिन्दी का नाली शब्द बना है नल् धातु से जिसका मतलब होता है गोलाकार, पोली वाहिनियां। यह नड़ का अगला रूप है। शरीर की नसों के लिए मूलतः इनका प्रयोग होता है। बाद में जल-प्रवाह की कृत्रिम संरचनाओं के लिए भी इससे नाली शब्द बनाया गया। घरों में पानी की सप्लाई के लिए जिन पाईपों से होकर पानी आता है उसे नल इसी लिए कहते हैं। मराठी समेत द्रविड़ भाषाओं में इसका नळ रूप है। अर्थ वही है प्रवाहिका। प्रणाली में भी ‘नाली’ को स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है।
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।।हिन्दी पत्रकारिता के ‘प्रश्न’ और ‘विस्मय’।।


हि
न्दी पण्डितों की विभिन्न भ्रान्तियों में एक विस्मय-चिह्न और प्रश्न-चिह्न के शीर्षकों में प्रयोग पर ऐतराज भी है। ख़ासतौपर पर पत्रकारिता की हिन्दी में। किसी भी शीर्षक में विस्मयादिबोधक या चिह्न लगाइये, मसलन- “ चौहान से छिनेगी कुर्सी!” ज्ञानी महोदय तत्काल आपत्ति करेंगे- इसमें विस्मय की क्या बात है ? अब अगर आपने इसी शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न लगाया तो भी आपत्ति होती है कि जब आपको ही नहीं पता तो पाठक क्या बताएगा कि कुर्सी छिनेगा या नहीं। यही बात “चांद पर पानी!” या “मंगल पर पानी ?”जैसे शीर्षकों के साथ भी है। बीते तीस सालों में ऐसे अनेक लोगों से पाला पड़ा है जो शीर्षकों में चिह्नों का प्रयोग एक सिरे से गलत बताते रहे।

मानता हूँ कि विस्मयादिबोधकचिह्न का गैरज़रूरी और असावधान प्रयोग हिन्दी में होता रहा है। इसीलिए व्यक्तिगत स्तर पर इससे बचते हुए मैं ऐसे शीर्षकों में ‘कयास’ ,‘चर्चा’ ,‘अटकल’, ‘आसार’, ‘सम्भावना’ या ‘आशंका’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने का हामी हूँ। मगर चिन्दी-बजाजों का ऐसा भी क्या डर कि बेचारा पत्रकार मनमाफ़िक़ चिह्नों का प्रयोग न कर सके। सबसे पहले तो इस ग्रन्थि से मुक्त हो जाइये कि शीर्षक में प्रश्नवाचक चिह्न लगाने से यह ग़लतफ़हमी भी हो सकती है कि आप पाठक से प्रश्न पूछ रहे हैं। व्याकरण चिह्नों से भाषा स्पष्ट और सरल बनती है। शीर्षकों में चिह्नों के प्रयोग से स्पेस तो बचता ही है, वह प्रभावी बनता है। जहाँ तक विस्मयादिबोधक चिह्न का प्रश्न है, उसके बारे में हिन्दी के तथाकथित पण्डित भी स्पष्ट नहीं है।

ऊपर लिखे दोनों उदाहरण मेरी नज़र में गलत प्रयोग की मिसाल नहीं है। व्याकरण के मुताबिक जो अविकारी शब्द हर्ष, शोक, आश्चर्य, घृणा, क्रोध, तिरस्कार आदि भावों का बोध कराते हैं, उनके साथ विस्मय चिह्न का प्रयोग होता है। विस्मयादिबोधक शब्द से ही स्पष्ट है कि विस्मय + आदि अर्थात विस्मय तथा इससे मिलते जुलते भावों का बोध कराने वाली अभिव्यक्तियों में प्रयुक्त चिह्न। चांद वाले उदाहरण में आश्चर्य का भाव है। इसमें विस्मय चिह्न का प्रयोग गलत नहीं। इसी तरह चौहान वाले उदाहरण में अटकल का भाव है। ध्यान रहे अटकल भी आश्चर्य की श्रेणी में लिया जाने वाला भाव है क्योंकि व्यापम घोटाले में चौहान नज़दीकियों के शामिल होने की बातें जितनी आम हैं उतना दम और पुख्ता आधार उनकी कुर्सी छिनने वाली चर्चाओं में नहीं। खबर अनुमान की बात भी कर रही है, चर्चा पर आधारित भी है। यहाँ भी विस्मय चिह्न को गलत नहीं ठहराया जा सकता। वैसे चौहान की कुर्सी छिनने के आसार अथवा मायावती चौहान की कुर्सी छिनने की चर्चा जैसे शीर्षक भी लगाए जा सकते थे।
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।।हाथ कंगन को आरसी क्या।।



मारी शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी मुश्किल ज्ञान को सरल और आसान न बना पाने की अक्षमता है। ऐसा अनेक मिसालों से साबित होता रहता है। ऐसा ही मामला है कहावतों, मुहावरों का अर्थ न समझना। जिसकी वजह से लोग उनका प्रयोग तीर-तुक्के की तरह करते हैं। सही बैठ जाए तो ठीक नहीं तो जब उसके मायने पूछे जाएँ तो बगलें झाँकने की नौबत आनी तय है। ऐसी कहावतों, मुहावरों की लम्बी फ़ेहरिस्त में “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” वाली कहावत भी है जिसकी दोनों पंक्तियों की आपसी रिश्तेदारी उलझन भरी है।

यह जानना ज़रूरी है कि इस कहावत के दो पद हैं। पहला पद है “हाथ कंगन को आरसी क्या” दूसरा पद है “पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इन दोनों पदों की भाषा का गठन आधुनिक हिन्दी है। अगर आरसी शब्द को छोड़ दें तो कहावत का एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे समझने में मुश्किल हो। आरसी यानी आईना, मिरर, शीशा। हिन्दी में में अब आरसी शब्द का प्रचलन नहीं रहा अलबत्ता मराठी में इसका रूप आरसा होता है और यह खूब प्रचलित है। तो “हाथ कंगन को आरसी क्या” वाला पूर्वपद अपने आप में पूरी कहावत है।

मूलतः यह प्राकृत-संस्कृत परम्परा की उक्ति है और फ़ारसी के उत्कर्ष काल से भी सदियों पहले यह कहावत प्रचलित थी। इसका प्राकृत रूप देखिए- “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि”। इसी बात को संस्कृत में इस तरह कहा गया है- “हस्ते कंकणं किं दर्पणेन”। यह नहीं कहा जा सकता कि संस्कृत उक्ति के आधार पर प्राकृत रूप बना या प्राकृत उक्ति के आधार पर संस्कृत उक्ति गढ़ी गई। कहावतें सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का आसान ज़रिया होती हैं इसलिए वही कहावत जनमानस में पैठ बनाती हैं जो लोकभाषा में होती हैं। इस सन्दर्भ में आठवीं-नवीं सदी के ख्यात संस्कृत साहित्यकार राजशेखर के प्रसिद्ध प्राकृत नाट्य ‘कर्पूरमंजरी’ में “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” का उल्लेख मिलता है।

रूप-सिंगार के लिए आईना होना बेहद ज़रूरी है, किन्तु सजन-सँवरने की सभी क्रियाओं के लिए आईना हो, ये ज़रूरी नहीं। मसलन हाथों में कंगन पहनना है तो यूँ भी पहना जा सकता है, उसके लिए आईने की ज़रूरत क्या? इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि चेहरा देखना हो तो शीशा आवश्यक है किन्तु हाथ-पैर के गहने देखने के लिए आईने की क्या ज़रूरत। वो तो यूँ भी देखे जा सकते हैं। कोई स्त्री अपने हाथों के कंगन या मेहँदी की सज्जा आईने में नहीं देखती। आशय है प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्।

इस कहावत के दूसरे पद को समझने के लिए इसकी बुनियाद समझना ज़रूरी है। मुस्लिम काल की राजभाषा फ़ारसी थी। जिस तरह ब्रिटिश राज में अंग्रेजी जानने वाले की मौज थी और तत्काल नौकरी मिल जाती थी उसी तरह मुस्लिम काल में फ़ारसी का बोलबाला था। हिन्दू लोग फ़ारसी नहीं सीखते थे क्योंकि यवनों, म्लेच्छों की भाषा थी। हिन्दुओं के कायस्थ तबके में विद्या का वही महत्व था जैसा बनियों में धनसंग्रह का। कायस्थों का विद्याव्यवसन नवाचारी था। नई-नई भाषाओं के ज़रिये और ज्ञान का क्षेत्र और व्यापक हो सकता है यह बात उनकी व्यावहारिक सोच को ज़ाहिर करती है। उन्होंने अरबी भी सीखी और फ़ारसी भी। नवाबों के मीरमुंशी ज्यादातर कायस्थ ही होते थे। रायज़ादा, कानूनगो, मुंशी, बहादुर यहाँ तक की नवाब जैसी उपाधियाँ इन्हें मिलती थी और बड़़ी बड़ी जागीरें भी।

तो इस तरह मुस्लिम दौर में फ़ारसीदाँ होना और पढ़ा-लिखा होना परस्पर पर्याय था। जब शिक्षा का माध्यम ही फ़ारसी हो, तब किसी शख़्स का यह कहना कि उसे फ़ारसी नहीं आती ग़ैरमुमकिन सी बात थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं उस दौर के तमाम उदार हिन्दू तबके ने फ़ारसी सीखी जो बदलते दौर में अपना और अपनी क़ौम के बेहतर भविष्य का सपना देखता था। कायस्थों, ब्राह्मणों, वणिकों यहाँ तक कि क्षत्रियों में भी ऐसे तमाम लोग थे। ग्यारहवीं-बारहवीं सदी तक हिन्दू समाज से ऐसे तमाम लोग फ़ायदे में रहे जिन्होंने अरबी-फ़ारसी सीखी।

इस पृष्ठभूमि में देखें कि हिन्दुस्तान में फ़ारसी का दौर बारहवी-तेरहवीं सदी से शुरू होता है। “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” इस पूरी कहावत का गढ़न आज की हिन्दी का लगता है। हिन्दी में प्रचलित अनेक प्राचीन कहावतें सीधे-सीधे फ़ारसी समेत अवधी, बृज, बुंदेली, राजस्थानी व अन्य देसी भाषाओं से आती है। लेकिन यह भी सच है कि बारहवीं सदी से ही हिन्दी ने वह रूप लेना शुरू कर दिया था जिसकी बुनियाद पर आज की हिंदी खड़ी है। चौदहवीं –पन्द्रहवीं सदी की हिन्दी के अनेक प्रमाण उपलब्ध है जो आज की हिन्दी से मेल खाते हैं। मुमकिन है कि “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” खुसरो काल तक आते-आते इस रूप में ढल गई हो। पर यह तय है कि उस वक्त तक भी समूची कहावत का पहला पद ही प्रचलित रहा होगा।

बतौर सरकारी भाषा मुस्लिमों से इतर समाज के प्रभावशाली तबके में भी फ़ारसी सीखने की वृत्ति बढ़ी दूसरा पद तभी प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम् के अर्थ में “हाथ कंगन...” वाली उक्ति को और प्रभावशाली बनाते हुए इसके साथ जुड़ा होगा क्योंकि इसमें आरसी को फ़ारसी से मिलाने वाली स्वाभाविक तुक है। यह कहना मुश्किल है यह दूसरा पद किस दौर में “हाथ कंगन...” के साथ चस्पा हुआ, पर ये दोनों अलग अलग उक्तियाँ हैं। पहली उक्ति कम से कम डेढ़ हज़ार साल पुरानी है जबकि दूसरी उक्ति तो स्वतः साबित करती है कि वह फ़ारसी के राजकाज वाले उत्कर्ष की रचना है। ज़ाहिर है मुग़ल दौर में ही यह मुमकिन हुआ होगा।
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