छली पोस्ट में हमने वामियों के सन्दर्भ में ‘जलकुक्कड़’ का प्रयोग किया जिस पर सफ़र के साथी प्रदीप पाराशर ने जिज्ञासा दिखाई। ‘जलकुक्कड़’ एक मुहावरा है जो आमतौर पर ईर्ष्यालु के सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है। यूँ इसमें शक, शंका, कपट, संदेह या डाह करने का भाव है। ‘सौतिया-डाह’ वाली जलन को मुहावरे में भी खूब महसूस किया जाता है। गौर करें, ये सभी भाव अग्नि से जुड़ते हैं। संदेह, शक या शंका दरअसल एक चिंगारी है। ‘डाह’ तो सीधे-सीधे दाह का ही रूपान्तर है। संस्कृत में ‘दह’ का आशय तपन, ताप, अगन, जलन, झुलसन से है।
जलकुक्कड़ में जो जल है वह ज़ाहिर है दाह या जलन वाले ‘जल’ के अर्थ में है न कि पानी वाले अर्थ में। कुक्कड़ यानी मुर्ग़। कुक्कड़ संस्कृत के कुक्कुट का देशी रूप है। कुक्कुट का कुर्कुट रूपान्तर होकर कुक्कड़ बना, ऐसा कृपा कुलकर्णी मराठी व्युत्पत्तिकोश में लिखते हैं। वैसे कुक्कुट से कुक्कड़ बनने के लिए कुर्कुट अवतार की ज़रूरत नहीं। ‘ट’ का रूपान्तर ‘ड़’ में होने से कुक्कुट सीधे ही कुक्कड़ बन जाता है।
जलकुक्कड़ को समझने के लिए “जल-भुन जाना” मुहावरे पर गौर करें। शरीर का कोई अंग आग के सम्पर्क में आने पर झुलस जाता है। जल-भुन वाले मुहावरे में यही जलन है। दूसरा मुहावरा देखिए- “जल-भुन कर कबाब होना”। कबाब एक ऐसा व्यंजन है जिसे सीधे तन्दूर पर या तवे पर खूब अच्छी तरह भूना जाता है। जब ज्यादा ही “अच्छी तरह” भून लिया जाए तो वह जल-भुन कर कोयला हो जाता है, कबाब नहीं रह जाता।
एक अन्य पद देखिए- “तन्दूरी-मुर्ग़”। मुर्ग़े को जब आग पर सालिम भूना जाता है उसे ही तन्दूरी-मुर्ग़ कहते हैं। कहते हैं, ये बेहद लज़ीज़ होता है। अब अगर इसका हाल भी कबाब जैसा हो जाए तो? आशय ईर्ष्याग्नि से ही है। ऐसा आवेग, उत्ताप जो मौन या मुखरता से झलके। इस कुढ़न को ही ये तमाम मुहावरे अभिव्यक्त कर रहे हैं। जलकुक्कड़ में भी यही आशय है।
कई बार पूछा जाता है कि फलाने का क्या हाल है? जवाब आता है कि खबर सुनने के बाद से “तन्दूरी-मुर्ग़” हो रहे हैं। कई लोग जो स्वभाव से दूसरों की खुशहाली देख कर कुढ़ते रहते हैं, हमेशा डाह रखते हैं या अपनी ईर्ष्या का प्रदर्शन करते रहते हैं उन्हें स्थायी तौर पर जलकुक्कड़ का ख़िताब मिल जाता है। वे हमेशा ईर्ष्या के तन्दूर पर जलते रहते हैं। ईर्ष्या की आग जिसमें तप कर कुन्दन नहीं कोयला ही बनता है। ऐसे ही लोगों के लिए हिन्दी में जलोकड़ा या जलोकड़ी जैसे विशेषण भी हैं। कभी कभी सिर्फ़ जलौक भी कह दिया जाता है।
प्रसंगवश बताते चलें कि कुक्कुट दरअसल ध्वनिअनुकरण के आधार पर बना शब्द है। संस्कृत में एकवर्णी धातुक्रिया ‘कु’ में दरअसल ध्वनि अनुकरण का आशय है अर्थात कुकु कुक या कुट कुट ध्वनि करना। कोयल, कौआ, कुक्कुट और कुत्ता में ‘कु’ की रिश्तेदारी है । दरअसल विकासक्रम में मनुष्य का जिन नैसर्गिक ध्वनियों से परिचय हुआ वे ‘कु’ से संबंद्ध थीं। पहाड़ों से गिरते पानी की , पत्थरों से टकराकर बहते पानी की ध्वनि में कलकल निनाद उसने सुना। स्वाभाविक था कि इन स्वरों में उसे क ध्वनि सुनाई पड़ी इसीलिए देवनागरी के ‘क’ वर्ण में ही ध्वनि शब्द निहित है। सो मुर्ग़ का कुक्कुट नामकरण दाना चुगने की ‘कुट-कुट’ ध्वनि के चलते हुआ। अंग्रेजी का कॉक cock भी इसी आधार पर बना है।
इसे भी देखें- कुक्कुट
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